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बहर-ए-हस्ती कोई सराब नहींज़िंदगी ज़िंदगी है ख़्वाब नहीं
इक सरापा कि रंज-ओ-यास हैं हमदर्द-ए-दिल मोनिस-ए-जवानी है
गुल्हा-ए-तबस्सुम पे नज़र डालने वालेउन होंठों में पिन्हाँ हैं कई ख़ुल्द-ए-बरीं और
घटा बन के 'अलताफ़' रिंदों पे बरसेगुलिस्ताँ में बाद-ए-सबा बन गए तुम
तीरा-बख़्ती मुझे आग़ोश में लेगी बढ़ करजल्वा-हा-ए-रुख़-ए-महताब कहाँ फिर होंगे
ये पूछो न हम से कहाँ जा रहे हैंजहाँ दिल के हों क़द्र-दाँ जा रहे हैं
जाम-ए-शराब हाथ में पहलू में आफ़ताबदुनिया-ए-कैफ़-ओ-नूर पे लहरा रहा हूँ मैं
साहिल को पा सकी न कभी कश्ती-ए-हयातदरिया-ए-आरज़ू के किनारों को क्या हुआ
तुझ को जल्वा-गह-ए-नाज़ में रोका थामाहौसला देख लिया अपने तमाशाई का
सरमस्ती-ए-अज़ल मुझे जब याद आ गईदुनिया-ए-ए'तिबार को ठुकरा के पी गया
अब उम्मीद-ए-चश्म-ए-उल्फ़त बे-महलना-मुरादी वज्ह-ए-’इबरत हो गई
'औघट' अब चुप साधिए कि बात न पहुँचे दूरलुटा बैठा वो नक़्द-ए-जाँ किसी की रू-नुमाई में
बाक़ी है आधी रात मगर इस का क्या जवाबघबरा के वो ये कहते हैं वक़्त-ए-अज़ाँ है अब
रोज़-ए-महशर क्या ये बुत बे-कार ही रह जाएँगेइक न इक फ़ित्ना है लाज़िम इक आने के लिए
बा’द मेरे क्यूँ नवेद-ए-वस्ल-ए-यार आने को थीवो चमन ही मिट गया जिस में बहार आने को थी
शब-ए-वा'दा अपना यही मश्ग़ला थाउठा कर नज़र सू-ए-दर देख लेना
लग चली बाद-ए-सबा क्या किस मस्ताने सेझूमती आज चली आती है मय-ख़ाने से
ग़म-ए-इ'श्क़ में मज़ा था जो उसे समझ के खातेये वो ज़हर है कि आख़िर मय-ए-ख़ुश-गवार होता
यूँ न हो बर्क़-ए-तजल्ली बेताबमिल गया रँग तमाशाई का
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