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कलाम
ख़ुशी से दूर हूँ ना-आश्ना-ए-बज़्म-ए-’इशरत हूँसरापा दर्द हूँ वाबस्ता-ए-ज़ंजीर-क़िस्मत हूँ
शाह मोहसिन दानापुरी
कलाम
की होया बुत दूर गया दिल हरगिज़ दूर न थीवे हूसै कोहाँ ते वसदा मुर्शिद विच हुज़ूर दिसीवे हू
सुल्तान बाहू
कलाम
जब ग़ैर नज़र से दूर हुआ और पाई सफ़ाई नैनन मेंतब शान ख़ुदा की आई नज़र बन-बन के ख़ुदाई नैनन में
वतन हैदराबादी
कलाम
इश्क़ दी गल्ल अवल्ली जेहड़ा शरआ थीं दूर हटावे हूक़ाज़ी छोड़ कज़ाई जाण जद इश्क़ तमाँचा लावे हू
सुल्तान बाहू
कलाम
मेरी आँखों का आख़िर दूर ये आज़ार कैसे होतुझे किस तरह से देखूँ तिरा दीदार कैसे हो
शाह तक़ी राज़ बरेलवी
कलाम
जो शबाब आया तो क्या कहूँ वो रात के जैसे बदल गएमग़रूर हुए हैं वो इस तरह जज़्बात के जैसे बदल गए
हुनर सिल्लोडी
कलाम
दर-हक़ीक़त इंक़िलाब-ए-ज़िंदगी ए'जाज़ हैज़र्रा ज़र्रा ख़ाक-ए-हस्ती का जहान-ए-राज़ है