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कलाम
लेकर जहाँ के हुस्न को शम्स-ओ-क़मर को क्या करूँमुझ को तो तुम पसंद अपनी नज़र को क्या करूँ
अब्दुल हादी काविश
कलाम
इम्दाद अ'ली उ'ल्वी
कलाम
क़ुम-बि-इज़्नी और अनल-हक़ कहती उन की क्या मजाल'शम्स' और 'मंसूर' के मुँह में ज़बाँ तू ही तो था
अज्ञात
कलाम
निकल कर जा नहीं सकते कहीं ख़ुर्शीद से ज़र्रेजो सिमटे शम्स में रहते हैं फैले ज़िल में रहते हैं
इम्दाद अ'ली उ'ल्वी
कलाम
अज़्म-ए-फ़रियाद! उन्हें ऐ दिल-ए-नाशाद नहींमस्लक-ए-अहल-ए-वफ़ा ज़ब्त है फ़रियाद नहीं
सीमाब अकबराबादी
कलाम
तरब आश्ना-ए-ख़रोश हो तू नवा है महरम-ए-गोश होवो सरोद क्या कि छुपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ए-साज़ में
अल्लामा इक़बाल
कलाम
आईना-ए-’अली को देख हुस्न-ए-मोहम्मदी को देखकर के निसार जान-ए-वतन 'आशिक़-ए-सरफ़राज़ बन