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कलाम
इलाही रौज़ा-ए-ख़ैरुल-वरा पर जल्द जा पहुँचूँब-रंग-ए-गर्दिश-ए-गर्दूं ये गर्दिश मुझ को सरसर दे
अलाउद्दीन जलाली
कलाम
कामिल शत्तारी
कलाम
ऐ शो’ला-ए-जवाला जब से लौ तुझ से लगाए बैठे हैंइक आग लगी है सीने में और सब से छुपाए बैठे हैं
कामिल शत्तारी
कलाम
वो ग़रूर-ए-हुस्न-ए-ख़ुद-सर-ओ-सर-ए-नियाज़ 'कामिल'कोई मुस्कुरा रहा है मिरी ज़िंदगी बदल कर
कामिल शत्तारी
कलाम
है जिस से मेरी हयात रौशन नहीं नहीं काइनात रौशनवही तो है शम’-ए-बज़्म-ए-’आलम उसी से हम लौ लगा रहे हैं
कामिल शत्तारी
कलाम
हैं असली जल्वा-ए-दुनिया-ए-बातिल देखने वालेमिल कर रंग-ए-वीरानी-ओ-महफ़िल देखने वाले
सीमाब अकबराबादी
कलाम
छीन लो मुझ से दोस्तो ताक़त-ए-’अर्ज़-ए-मुद्दआ'उस ने मिज़ाज-ए-यार को दा’वत-ए-बरहमी भी दी
माहिरुल क़ादरी
कलाम
एह तन रब्ब सच्चे दा हूजरा विच पा फ़क़ीरा झाती हून कर मिन्नत ख़्वाज ख़िज़र दी तैं अंदर आब हयाती हू
सुल्तान बाहू
कलाम
एह तन रब्ब सच्चे दा हुजरा खिड़ियाँ बाग़-बहाराँ हूविच्चे कूज़े विच मुसल्ले विच सज्दे दियाँ ठाराँ हू
सुल्तान बाहू
कलाम
दिमाग़-ओ-रूह यकसाँ चाहिएँ इंसान-ए-कामिल मेंये क्या तक़्सीम-ए-नाक़िस है ख़ुदी सर में ख़ुदा दिल में