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कलाम
कभी का'बे में पाता हूँ कभी बुत-ख़ाने के अंदरलगा के तुझ से दिल फिरता हूँ मारा-मारा मैं दर-दर
फ़राज़ वारसी
कलाम
जिस घड़ी यादों में तेरी यार खो जाता हूँ मैंफिर तो हर जा पर तुझी को जल्वा-गर पाता हूँ मैं
फ़राज़ वारसी
कलाम
फ़राज़ वारसी
कलाम
इन्ही ख़ुश-गुमानियों में कहीं जाँ से भी न जाओवो जो चारागर नहीं है उसे ज़ख़्म क्यूँ दिखाओ