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कलाम
शैख़-जी तशरीफ़ यूँ बहर-ए-ज़ियारत ले चलेलब पे तौब: उन बुतों की दिल में उल्फ़त ले चले
औघट शाह वारसी
कलाम
जो धड़कन की सदा को नग़्मा-ए-मंज़िल नहीं समझामोहब्बत करने वाले तो मक़ाम-ए-दिल नहीं समझा
फ़ना बुलंदशहरी
कलाम
अज़ल में जो सदा मैं ने सुनी थी कैफ़-ए-मस्ती मेंवही आवाज़ अब तक सुन रहा हूँ साज़-ए-हस्ती में