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कलाम
क़तील शिफ़ाई
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सरदार शाह फ़खरी
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क़ैद को तोड़ के निकला जब मैं उठ के बगूले साथ हुएदश्त-ए-’अदम तक जंगल-जंगल भाग चला वीराना भी
आरज़ू लखनवी
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दो-जहाँ जल्वा-ए-जानाँ के सिवा कुछ भी नहींहम ने कुछ और न देखा तो ख़ता कुछ भी नहीं''
ज़हीन शाह ताजी
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लिख हज़ार किताबाँ पढ़ के दानिश-मंद सदीवे हूनाम फ़क़ीर तहें दा 'बाहू' क़ब्र जिन्हाँ दी जीवे हू
सुल्तान बाहू
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इक़बाल सफ़ीपुरी
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मिरा सर कट के मक़्तल में गिरे क़ातिल के क़दमों परदम-ए-आख़िर अदा यूँ सज्दा-ए-शुकराना हो जाए
बेदम शाह वारसी
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जिन के महलों में हज़ारों रंग के फ़ानूस थेझाड़ उन की क़ब्र पर हैं और निशाँ कुछ भी नहीं
शाह वारिस अली
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हक़ीक़त क्या है दुनिया की वो चाहें दीन भी दे देंसख़ी के दर से ख़ाली लौट जाना हो नहीं सकता
राज़ आरफ़ी
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इ'श्क़ की इब्तिदा भी तुम हुस्न की इंतिहा भी तुमरहने दो राज़ खुल गया बंदे भी तुम ख़ुदा भी तुम
बेदम शाह वारसी
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उस कुन फ़काँ के राज़ को उस बे-ज़बाँ आवाज़ कोबे-गोश के सुनना बहुत मुश्किल भी है आसान भी है