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कलाम
पंज इमाम ते पंजे क़िब्ले सज्दा कित वल करिए हूजे साहिब सिर मंगे 'बाहू' हरगिज़ ढिल्ल न करिए हू ।
सुल्तान बाहू
कलाम
गंज-ए-ख़फ़ी से निकला कई सूरतें लिए'रिज़वाँ' मैं एक ही हूँ मगर बे-शुमार हूँ
अज़ीज़ुद्दीन रिज़वाँ क़ादरी
कलाम
गंज-ए-मख़्फ़ी में मेरी हस्ती क्या 'उन्वान थासोचता हूँ आज वो 'इरफ़ान क्या था क्या हुआ
अज़ीज़ुद्दीन रिज़वाँ क़ादरी
कलाम
गंज क़ारूँ को जो अल्लाह ने बख़्शा ‘मोहसिन’फिर न उस वक़्त के बंदे को ख़ुदा याद आया