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कलाम
रिंद जो मुझ को समझते हैं उन्हें होश नहींमैं मय-कदा साज़ हूँ मैं मय-कदा बर्दोश नहीं
जिगर मुरादाबादी
कलाम
ये है मय-कदा यहाँ रिंद हैं यहाँ सब का साक़ी इमाम हैये हरम नहीं है ऐ शैख़ जी यहाँ पारसाई हराम है
जिगर मुरादाबादी
कलाम
रिंद वो हूँ कि मिरी ख़ाक से ख़ुम बनते हैंपाँव मर कर भी निकलता नहीं मय-ख़ाने से
मिर्ज़ा क़ादिर बख़्श साबिर
कलाम
तेरे मय-ख़ाना में ऐ साक़ी ये कैसा जोश हैदेखिए जिस रिंद को भी बे-ख़ुद-ओ-मदहोश है
अब्दुल हादी काविश
कलाम
हरम से करता है किस रिंद को शैख़-ए-हरम ख़ारिजजहाँ मैं बैठ जाऊँ जल्वा-गाह-ए-नाज़ बन जाए