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कलाम
अगर का'बः का रुख़ भी जानिब-ए-मय-ख़ाना हो जाएतो फिर सज्दः मिरी हर लग़्ज़िश-ए-मस्ताना हो जाए
बेदम शाह वारसी
कलाम
अनवर मिर्ज़ापुरी
कलाम
मेरे मह-जबीं ने ब-सद-अदा जो नक़ाब रुख़ से उठा दियाजो सुना न था कभी होश में वो तमाशा मुझ को दिखा दिया
औघट शाह वारसी
कलाम
फ़राज़ वारसी
कलाम
ताबिश कानपुरी
कलाम
शौक़-ए-नज़ारा है जब से उस रुख़-ए-पुर-नूर काहै मिरा मुर्ग़-ए-नज़र परवाना शम्अ'-ए-तूर का
इब्राहीम ज़ौक़
कलाम
होश किसी का भी न रख जल्वा-गाह-ए-नमाज़ मेंबल्कि ख़ुदा को भूल जा सज्दा-ए-बे-नियाज़ में
असग़र गोंडवी
कलाम
जो हम आए तो बोतल क्यूँ अलग पीर-ए-मुग़ाँ रख दीपुरानी दोस्ती भी ताक़ में ऐ मेहरबाँ रख दी