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अज़लों से हूँ सफ़र में ठिकाना न चाहिएतुझ से ग़रज़ है हम को ज़माना न चाहिए
इक उ'म्र हो गई कि इक़ामत सफ़र में हैनक़्शा मगर वतन का अभी तक नज़र में है
ख़ाक से ता-ब-कहकशाँ हम ने तो जब किया सफ़र'इश्क़ मिला क़दम-क़दम हुस्न मिला नज़र-नज़र
वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थीकि धूप छाँव का आलम रहा जुदाई न थी
तू ने ऐ हम-सफ़र फेर ली जो नज़र वक़्त से पेशतर हम तो मर जाएँगेज़ुल्म ऐसा न कर कुछ ख़ुदा से तो डर तेरे दीवाने आख़िर कहाँ जाएँगे
हमारे गुदगुदाने से हँसी जो उन को आती हैदुर-ए-दंदाँ चमकते हैं कि बिजली कौंद जाती है
जफ़ा कर लें यहाँ आख़िर कभी रोज़-ए-जज़ा होगाहमारा उन बुतों का फ़ैसला पेश-ए-ख़ुदा होगा
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