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कलाम
फ़िराक़ गोरखपुरी
कलाम
मुझे दीवाना मत समझो किसी की ख़ाक-ए-पा हूँ मैंफ़रिश्ते जिस के दरबाँ हैं वो ख़ाक-आश्ना हूँ मैं
अज्ञात
कलाम
ख़ाक के कुछ मुंतशिर ज़र्रों को इंसाँ कर दियाउस ने जिस जल्वे को जब चाहा नुमायाँ कर दिया
माहिरुल क़ादरी
कलाम
तू जोगी बन न बिरोगी बन न लगा के ख़ाक तू बन में जातुझे उस की शान है देखनी किसी मा'रिफ़त के चमन में जा
असग़र निज़ामी
कलाम
बीत गया हंगाम-ए-क़यामत रोज़-ए-क़यामत आज भी हैतर्क-ए-तअल्लुक़ काम न आया उन से मोहब्बत आज भी है