इल्म-ए-लदुन्नी
इल्म-ए-लदुन्नी
अज़ तस्नीफ़-ए-हुज्जतुल-इस्लाम अबू हामिद मुहम्मद बिन मुहम्मद अल-ग़ज़ाली
मुतर्जमा
मौलवी ग़ुलाम रब्बानी लोधी बी.ए अलीग
सूफ़ी प्रिंटिंग ऐंड पब्लिशिंग कंपनी लिमेटेड
बिसमिल्लाहिर-रहमानिर-रहीम
अलहम्दु लिल्लाहिल-लज़ी ज़य्य-न क़ुलू-ब ख़वासि इबादाहि बि-नूरिल विलायति व रब्ब अरवाहहुम बिहुस्निल इनायति व फ़त-ह बाबत तौहीदि अ’लल उलमाइल आरिफ़ी-न बिमिफ़्ताहिद दिरायति व उसल्ली व उसल्लिमु अ’ला सय्यिदिना मुहम्मदिन सय्यिदिल मुरसलीन साहिबुद दावति वर रियाअ’ति व दलीलिल उम्मति इललहिदयति व अ’ला आलिहि सुक्का-न हरमल हिमायति *
बात ये है कि मेरे एक दोस्त ने बयान किया कि एक आलिम ने इस इल्म-ए-ग़ैब-ए-लदुन्नी से इंकार किया है जिस पर ख़वास सूफ़िया-ए-किराम ए’तिमाद रखते हैं और जिसकी तरफ़ अहल-ए-तरीक़त मंसूब होते हैं और कहते हैं कि इल्म-ए-लदुन्नी उन उलूम की निस्बत ज़्यादा क़वी और मोहकम होता है जो सीखने से हासिल होते हैं। दोस्त-ए-मौसूफ़ ने ये भी बयान किया कि आ’लिम-ए-मज़कूर कहता है कि मैं सूफ़िया के इल्म के तसव्वुर पर क़ादिर नहीं हूँ और मेरे ख़्याल में दुनिया में कोई ऐसा शख़्स नहीं है कि सीखने और हासिल करने के सिवा महज़ फ़िक्र-ओ-ग़ौर से इल्म-ए-हक़ीक़ी में गुफ़्तुगू कर सकता हो।मैं ने कहा ऐसा मा'लूम होता है कि उस शख़्स को तहसील के तरीक़े ही मा’लूम नहीं।उस को इन्सानी नफ़्स और उस की सिफ़ात के मुतअ’ल्लिक़ किसी तरह का इल्म-ओ-दिरायत हासिल नहीं।वो इस अम्र से भी बे-ख़बर है कि क्योंकर नफ़्स–ए-निसानी अ’लामात-ए-ग़ैब और इल्म-ए-मलकूत को क़ुबूल करता है।मेरे दोस्त ने कहा हाँ वो शख़्स कहता है कि इल्म सिर्फ़ फ़िक़्ह,तफ़्सीर-ए-क़ुरआन और कलाम पर मौक़ूफ़ है, उस के बा’द कोई इल्म नहीं है और ये उलूम सीखने और समझने से हासिल होते हैं।मैं ने कहा कि बहुत अच्छा तो फिर इल्म-ए-तफ़्सीर क्योंकर हासिल हो सकता है क्योंकि क़ुरआन तो एक बहर-ए-मुहीत है जो जमीअ’-ए-अश्या पर मुश्तमिल है और उस के तमाम मआ'नी और उस की तफ़्सीर के हक़ाएक़ उन तसानीफ़ में मज़कूर नहीं हैं जो अ’वाम में मशहूर हैं बल्कि तफ़्सीर तो और ही चीज़ है। जो इस मुद्दई को मालूम है उस का नाम तफ़्सीर नहीं है।उस शख़्स ने कहा कि इन मशहूर-ओ-मा'रूफ़ तफ़ासीर के सिवा जो क़ुशैरी,सालबी और मावर्दी की तरफ़ मंसूब और कोई तफ़्सीर ही मौजूद नहीं है।मैं ने कहा कि वो शख़्स राह-ए-हक़ीक़त से दूर हो गया है क्योंकि सलमी ने अपनी तफ़्सीर में बा’ज़ मुहक़्क़िक़ीन के कलिमात जम्अ किए हैं जो तहक़ीक़ से मुशाबेह हैं और ये कलिमात तमाम तफ़ासीर में मज़कूर नहीं हैं।ऐसा मा'लूम होता है कि वो शख़्स जो फ़िक़्ह,कलाम और तफ़ासीर-ए-मशहुरा के सिवा और किसी चीज़ को उ’लूम में शुमार नहीं करता उलूम की अक़साम-ओ-तफ़ासील,सरायत-ओ-हक़ाएक़ और उनके ज़ाहिरी-ओ-बातिनी निकात से बिल्कुल ना-वाक़िफ़ है।दुनिया की आ’दत सी हो गई है कि जो शख़्स किसी चीज़ से वाक़िफ़ ना हो फ़ौरन उस का इंकार कर देता है।इसी तरह उस मुद्दई का काम-ओ-दहन भी शराब-ए-हक़ीक़त से लज़्ज़त-आश्ना नहीं हुआ और उस को असरार-ए-इल्म-ए-लदुन्नी से आगाही नहीं हुई।इसलिए वो क्योंकर उस का इक़रार कर ले?ये बात तो मुझे भी पसंद नहीं कि जब तक वो उन असरार से मा'रिफ़त-ओ-आश्नाई पैदा ना कर ले महज़ तक़लीद और तख़मीने से उस का इक़रार कर ले।उस दोस्त ने कहा मैं चाहता हूँ कि आप मरातिब-ए-उलूम का कुछ तज़्किरा फ़रमाएं और इस इल्म को सही साबित करें और इस को अपनी तरफ़ मंसूब फ़रमाएं और इस के इस्बात का इक़रार फ़रमाएं।मैं ने कहा कि इस मस्अला का बयान तो बहुत दुशवार है लेकिन जो कुछ मेरे दिल में गुज़रेगा मैं उस को अपने हाल के मुताबिक़ और अपने वक़्त को मलहूज़ रखते हुए इस इल्म के मुक़द्दमात को शुरू करता हूँ।मैं कलाम को तूल नहीं देना चाहता क्योंकि बेहतरीन कलाम वो है जो क़लील और पुर-मआ’नी हो ।मैं ने अल्लाह तबारक-ओ-तआ’ला से तौफ़ीक़ और इआ’नत तलब की और इस इल्म के मुतअ’ल्लिक़ मैं ने अपने फ़ाज़िल दोस्त का मस्अला बयान किया*
फ़स्ल
याद रखें कि इल्म नफ़्स-ए-नतिक़ा मुतमइन्ना के अश्या के हक़ाएक़ और उनकी उन सूरतों के तसव्वुर का नाम है जो माद्दा से ख़ाली हों।ये तसव्वुर अश्या की ऐन कैफ़ीयत,मिक़दार और जौहर से होता है और अगर वो मुफ़्रद हों तो उनकी ज़ात से भी होता है और आ’लम उस ज़ात का नाम है जो मुहीत,मुदरिक और मुतसव्विर हो।और मालूम उस शैय की ज़ात का नाम है जिसका इल्म नफ़्स में मनक़ूश हो जाता है और इल्म की शराफ़त उस के मा’लूम की शराफ़त के मुताबिक़ होती है।इस में शक नहीं है कि सब मा’लूमात से अफ़ज़ल-ओ-आ'ला और अशरफ़-ओ-अजल अल्लाह तआ’ला है जो साने’,मुबदे’,सच्चा और एक है।उस का इल्म या’नी इल्म-ए-तौहीद सब इलमों से अफ़ज़ल,अजल और अकमल है और उस इल्म की तहसील जमीअ’-ए-उक़ला पर ज़रूरी और वाजिब है जैसा कि शारे’ अलैहि सलाम का क़ौल है तलबुल इल्मि फ़रीज़तुन अ’ला कुल्लि मुस्लिम (इल्म की जुस्तुजू हर मुस्लिम पर फ़र्ज़ है।)*
नीज़ आँहज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस इल्म की जुस्तुजू के लिए सफ़र का भी हुक्म फ़रमाया।‘उतलुबूल इल्म वलौ बिस्सीन’ इल्म की जुस्तुजू करो ख़्वाह वो चीन ही में क्यों ना हो)और इस इल्म का जानने वाला तमाम उलमा से अफ़ज़ल है। इस वजह से अल्लाह तआ’ला ने बुज़ुर्ग-तरीन मरातिब का ज़िक्र करते हुए उनको मख़्सूस किया और फ़रमाया ‘शहिदल्लाह अन्नहु ला इला-ह इल्ला हु-व वल-मलाकतु व उलिल इल्म’ अल्लाह तआ’ला के, फ़रिश्ते और उल्मा इस अम्र की शहादत देते हैं कि अल्लाह तआ’ला के सिवा कोई मा’बूद नहीं है।उल्मा-ए-इल्म-ए-तौहीद का इतलाक़ एक तो अंबिया पर होता है और उस के बा’द उन उल्मा पर होता है जो अंबिया के वारिस हैं और ये इल्म गो ब-ज़ाताहि शरीफ़ और ब-नफ़्सिहि कामिल है लेकिन दीगर उलूम की नफ़ी नहीं करता बल्कि बहुत से मुक़द्दमात के सिवा वो हासिल ही नहीं हो सकता।और ये मुक़द्दमात मुख़्तलिफ़ उलूम मसलन अफ़्लाक और आसमानों और जमीअ-ए-मसनूआ'त के इल्म से ही हासिल होते हैं। इल्म-ए-इतौहीद से दीगर उलूम पैदा होते हैं जिनका हम मुनासिब जगह पर तज़्किरा करेंगे।*
आप को मा’लूम होना चाहिए कि मा’लूम की तरफ़ नज़र-ओ-तवज्जोह करने के बग़ैर भी इल्म ब-ज़ातिहि शरीफ़ है। हत्ता कि इल्म-ए-सिहृ ब-ज़ातिही शरीफ़ है अगरचे वो बातिल है और ये इसलिए कि इल्म जहल की ज़िद है और जहल लवाज़िम-ए-ज़ुल्मत में से है और ज़ुल्मत मर्तबा-ए- सुकून में है और सुकून अ'दम से क़रीब है।बातिल और गुमराही इसी क़िस्म से हैं। जब जहल अ'दम का हुक्म रखता है और इल्म वजूद का और वजूद अ'दम से बेहतर है और हिदायत,हक़,हरकत,और नूर सब सिल्क-ए-वजूद में मुंसलिक हैं।जब वजूद-अ'दम से बरतर है तो इल्म जहल से शरीफ़-तर हुआ क्योंकि जहल तारीकी-ओ-नाबीनाई की मानिंद है और इल्म आँख और रौशनी की मानिंद है ।और बीना व ना-बीना के और तारीकी रौशनी के मुसावी नहीं है।अल्लाह तआ’ला ने इन इशारात से इस अम्र की तसरीह फ़रमाई है और फ़रमाया क़ुल हल यसतविल लज़ी-न या’लमून वल्लज़ी-न ला-या’लमून (क्या जानने वाले और ना जानने वाले बराबर हो सकते हैं?)और चूँकि इल्म जहल से बेहतर तस्लीम किया गया है और जहल लवाज़िम-ए-जिस्म से है और इल्म लवाज़िम-नफ़्स से है इसलिए नफ़्स जिस्म से ज़्यादा शरीफ़ है।इल्म की बहुत सी क़िस्में हैं जिनको हम दूसरी फ़स्ल में बयान करेंगे।*
आलिम के लिए जुस्तुजू-ए-इल्म की कई राहें हैं जिनका ज़िक्र हम किसी और फ़स्ल में करेंगे। फ़ज़ीलत-ए-इल्म की पहचान के बा’द अब आपकी नज़र नफ़्स की पहचान पर होगी क्योंकि नफ़्स ही उलूम की तख़्ती और उनका महल-ओ-मक़ाम है।जिस्म तो महदूद-ओ-मुतनाही होने की वजह से इल्म का महल नहीं बन सकता।इस में कसरत-ए-उलूम के लिए गुंजाइश नहीं है।इस पर सिर्फ़ नुक़ूश-ओ-ख़ुतूत ही ठहर सकते हैं और नफ़्स जमीअ-ए-उलूम को बे रोक-टोक क़ुबूल कर सकता है और किसी तरह की तकान और ज़वाल उस की सद्द-ए-राह नहीं बन सकता।हम मुख़्तसर तौर पर नफ़्स की तशरीह करेंगे।
फ़स्ल शर्ह-ए-नफ़्स और रूह-ए-इन्सानी के बयान में
आपको मा’लूम होना चाहिए कि अल्लाह तआ’ला ने इन्सान को दो मुख़्तलिफ़ चीज़ों से पैदा किया है।उनमें से एक जिस्म है जो तारीक-ओ-कसीफ़ और बनाओ-बिगाड़ के अ’मल के मा-तहत है।इस की तरकीब मिट्टी से है और ये अपनी तकमील के लिए ग़ैर का मुहताज है।दूसरी चीज़ नफ़्स है जो जौहर-ए-मुफ़रद,रौशनी देने वाला,इदराक करने वाला,फ़ाइल-ए-मुहर्रिक और आलात-ओ-अजसाम की तकमील का बाइस है।अल्लाह तआ’ला ने जिस्म को अज्ज़ा-ए-ग़िज़ा से तरकीब दी और राख के अज्ज़ा से उस की परवरिश की,उस की बुनियाद तैयार की,अरकान-ओ-आ’ज़ा बराबर और अतराफ़ मुअ'य्यन किए और जौहर-ए-नफ़्स को उसने अपने एक ही कामिल,मुकम्मल और मुफ़ीद अम्र से ज़ुहूर अ'ता फ़रमाया*
नफ़्स से मेरी मुराद वो क़ुव्वत नहीं है जो ग़िज़ा तलब करती है या वो क़ुव्वत जो ग़ुस्से और शहवत को हरकत देती है और ना वो क़ुव्वत है जो दिल में सुकून-पज़ीर है और ज़िंदगी पैदा करने वाली है और दिल से जमीअ’-ए-अज्ज़ा की तरफ़ हिस-ओ-हरकत को ले जाती है। इस क़ुव्वत का नाम रूह-ए-हैवानी है।हिस-ओ-हरकत,शुहूद-ओ-ग़ज़ब उस की फ़ौज में दाख़िल हैं।ग़िज़ा तलब करने वाली क़ुव्वत जो जग में सुकूनत रखती है रूह-ए-तबीई कहलाती है।हज़म और इख़्राज-ए-फुज़्ला उस की सिफ़ात हैं।क़ुव्वत-ए-मुत्सव्विरा,क़ुव्वत-ए-मूलिदा,क़ुव्वत-ए-नामिया और दीगर फ़रमांबर्दार क़ुव्वतें सब जिस्म की ख़ादिम हैं।जिस्म रूह-ए-हैवानी का ख़ादिम है क्योंकि वो उस से क़ुव्वत हासिल करता और उस की तहरीक के मुताबिक़ अ’मल करता है।नफ़्स से मेरी मुराद वो कामिल-ओ-लायतजज़्ज़ा जौहर है जिसका काम सिर्फ़ ज़िक्र करना,हिफ़्ज़ करना,तफ़क्कुर-ओ-तमीज़ और ग़ौर व ख़ौज़ है।वो तमाम उलूम को क़ुबूल करता है और उन मुजर्रद सूरतों के तसव्वुर व क़ुबूल से बिल्कुल नहीं थकता जो माद्दा से ख़ाली होती हैं।ये जौहर तमाम रूहों का सरदार और तमाम क़ुव्वतों का अमीर है।सब उस की ख़िदमत करते हैं और उस के हुक्म की ता’मील करते हैं।नफ़्स-ए-नातिक़ा या’नी इस जौहर को हर क़ौम अपने ख़ास नाम से मौसूम करती है।हुकमा उस जौहर को नफ़्स-ए-नातिक़ा कहते हैं।क़ुरआन-ए-मजीद उसे नफ़्स-ए-मुतमइन्ना और रूह-ए-अम्री के नाम से पुकारता है।सूफ़िया उस का नाम क़ल्ब रखते हैं।अस्मा-ओ-इबादात मुख़्तलिफ़ हैं मआ’नी एक ही है जिसमें कोई इख़्तिलाफ़ नहीं।हमारे नज़दीक क़ल्ब और रूह-ए-मुतमिन्ना सब नफ़्स-ए-नातिक़ा के नाम हैं।नफ़्स-ए-नातिक़ा वो ज़िंदा जौहर है जो काम करने वाला और इदराक करने वाला है।जब हम रूह-ए-मुतलक़ या क़ल्ब कहते हैं तो उस से हमारा मक़्सूद जौहर होता है।सूफ़िया रूह-ए-हैवानी को नफ़्स कहते हैं।शरीअ’त भी इस पर वारिद हुई।कहा तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन अपना नफ़्स है।शारे’ अलैहिस-सलाम ने भी नफ़्स का नाम इस्तिमाल किया बल्कि इज़ाफ़त और लगाओ से उस की ताकीद-ओ-तौसीक़ भी फ़रमाई है।आपने फ़रमाया नफ़्सु-कल्लती बैन जन्बैक (तुम्हारा नफ़्स वो है जो तुम्हारे दो पहलूओं के दरमियान है)।इस क़ौल से आपने क़ुव्वत-ए-शहवानी-ओ-ग़ज़बी की तरफ़ इशारा फ़रमाया क्योंकि ये दोनों क़ल्ब से पैदा होती हैं,जो दो पहलूओं के दरमियान है।जब आपको नामों का फ़र्क़ मा'लूम हो गया तो आप इस अम्र को भी समझ लें कि अरबाब-ए-बह्स-ओ-तहक़ीक़ इस को मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से ता’बीर करते हैं और इस के मुतअल्लिक़ मुख़्तलिफ़ राएं रखते हैं।मशहूर अहल-ए-कलाम-ओ-मुजादिला नफ़्स को जिस्म शुमार करते और कहते हैं कि वो एक लतीफ़ जिस्म है जो इस कसीफ़ जिस्म के मुक़ाबिल वाक़े’ है।उनकी राय में रूह-ओ-जिस्म में सिर्फ़ लताफ़त-ओ-कसाफ़त ही का फ़र्क़ है।उनमें से बा’ज़ रूह को अ’र्ज़ कहते हैं और बा’ज़ तबीब भी इसी तरफ़ माइल हैं। बा’ज़ का ये क़ौल है कि ख़ून रूह है।सबने राय क़ायम करने में तख़य्युल पर क़नाअ'त की और तीसरी क़िस्म की जुस्तुजू नहीं की।हालाँकि क़िस्में तीन हैं जिस्म,अ’र्ज़ और जुज़्व-ए-ला यतज़्ज़ा*
रूह-ए-हैवानी जिस्म-ए-लतीफ़ है।गोया रौशन चराग़ है जो दिल के शीशे में रखा हुआ है।इस से मेरी मुराद वो सनोबरी शक्ल है जो सीने में लटक रही है और ज़िंदगी चराग़ की रौशनी,ख़ून उस का तेल और हिस-ओ-हरकत उस का नूर है।शहवत उस की हरारत और ग़ुस्सा उस का धुआँ है और ग़िज़ा तलब करने वाली क़ुव्वत जिसका मस्कन जिगर है,इस की ख़ादिम संतरी और वकील है ।ये रूह जमीअ'-ए-हैवानात में मौजूद होती है।इन्सान जिस्म है और उस की सिफ़ात आ’राज़ हैं। ये रूह इल्म की तरफ़ रास्ता नहीं पा सकती।ना उस को मख़्लूक़ का रवैय्या मा'लूम है और ना उसे ख़ालिक़ के हक़ की पहचान और मारिफ़त है।वो महज़ एक ख़ादिम और क़ैदी है जो बदन की मौत के साथ ही मर जाता है।अगर ख़ून ज़्यादा हो जाए तो ये चराग़ इफ़रात-ए-हरारत की वजह से और अगर कम हो जाए तो कमी-ए-हरारत से गुल हो जाता है।इस चराग़ का गुल हो जाना जिस्म की मौत का बाइस होता है।ये रूह अल्लाह तआ’ला और शारे’ अलैहिस-सलाम के अहकाम की मुकल्लिफ़ नहीं है क्योंकि चौपाए और दीगर हैवानात शरई अहकाम के मुकल्लफ़-ओ-मुख़ातब नहीं हैं।इन्सान को एक हक़ीक़त की वजह से मुकल्लफ़ और मुख़ातब किया जाता है और ये मा’नी दीगर हैवानात में नहीं पाई जाता और सिर्फ़ इन्सान के साथ ख़ास है। ये हक़ीक़त नफ़्स-ए-नातिक़ा और रूह–ए-मुतमइन्ना है।ये रूह ना जिस्म है ना अ’र्ज़ क्योंकि वो अल्लाह तआ’ला के हुक्म से है जैसा कि अल्लाह तआ’ला ने फ़रमाया है क़ुलिर रुहु मिन अम्रि रब्बी (या रसूलल्लाह कहो कि रूह मेरे परवरदिगार के हुक्म से है)*
नीज़ अल्लाह तआ’ला ने फ़रमाया या अय्यतुहन नफ़्सिल मुत्मइन्ना इर्जिई इला रब्बि-क राज़ीयतम मर्ज़िय्या।(ऐ अमन-ओ-इत्मीनान वाले नफ़्स अपने परवरदिगार की तरफ़ ऐसी हालत में रुजूअ’ कर कि तू उस से राज़ी है और वो तुझसे राज़ी है) अल्लाह तआला का हुक्म ना जिस्म है ना अ’र्ज़ बल्कि अक़्ल-ए-अव़्वल लौह और क़लम की तरह ये भी क़ुव्वत–ए-इलाही है।ये क़ुवा-ए-इलाही अज्ज़ा-ए-लायतजज़्ज़ा और माद्दा से अ'लाहिदा हैं बल्कि ये मुजर्रद रौशनी हैं जो अक़्ली हैं और हवास के ज़रीये मा’लूम नहीं हो सकतीं।रूह-ओ-क़ल्ब हमारे नज़दीक इन अज्ज़ा की तरह हैं और बिगड़ने,परागंदा होने,फ़ना होने और मज़े की क़ाबिलियत नहीं रखते बल्कि बदन से जुदा हो जाते हैं और क़ियामत के दिन फिर उसी जिस्म में वापस आने के मुंतज़िर रहते हैं जैसा कि शरीअ’त में वारिद है और क़तई दलाएल से भी साबित हो चुका है *
रूह-ए-नातिक़ ना जिस्म है और ना अ’र्ज़ बल्कि वो मज़बूत और ग़ैर फ़ासिद जौहर है।हम दुबारा सुबूत पेश करने और दलाएल शुमार करने से मुस्तग़नी हैं क्योंकि वो दलाएल मुक़र्रर और मज़कूर हैं जो शख़्स उनकी तस्दीक़ का तालिब हो उसको उन किताबों की तरफ़ रुजूअ’ करना चाहिए जो इस फ़न से मुनासिब हैं।हमारे तरीक़े में बुर्हान-ओ-हुज्जत पेश नहीं की जाती बल्कि हम मुशाहिदा और रोयत-ए-ईमान पर ए’तिमाद करते हैं।अल्लाह तआ’ला ने रूह को कभी अपने अम्र की तरफ़ और कभी अपनी इज़्ज़त की तरफ़ मुज़ाफ़ किया और फ़रमाया फ़नफ़ख़्तु फ़ीहि-मिन रुहि (मैं ने उस में अपनी रूह फूंकी)नीज़ फ़रमाया क़ुल अर्रूहु मिन अम्रि रब्बी)कहो कि रूह मेरे रब के हुक्म से है)नीज़ फ़रमाया व नफ़ख़्ना फ़ीहि मिन रूहिना(और हमने उस में अपनी रूह फूंकी) और अल्लाह तआ’ला इस बात से बाला-तर है कि किसी जिस्म या अ’र्ज़ को अपनी तरफ़ मुज़ाफ़ करे क्योंकि वो दोनों ख़सीस,तग़य्युर-पज़ीर,सरीउज़-ज़वाल और बिगड़ जाने वाले होते हैं।और शारे’ अलैहिस सलाम ने फ़रमाया अल-अर्वाहु जुनूदुन मुजन्नदा(रूहें भर्ती किए हुए सिपाही होते हैं।) नीज़ फ़रमाया अर्वाहुश शुहुदाउ फ़ी हवासिलि तुयूरि ख़ुज़्रिन(शहीदों की रूहें सब्ज़ परिंदों के पोटों में होती हैं)।अ’र्ज़ क़ुबूल के फ़ना होने के बा’द बाक़ी नहीं रहता क्योंकि वो क़ायम बिज़-ज़ात नहीं है,और जिस्म में इस अम्र की क़ाबिलियत है कि वो तहलील हो कर वही कैफ़ीयत इख़्तियार कर ले जो माद्दा-ओ-सूरत से मुरक्कब होने से क़ब्ल थी जैसा कि किताबों में मज़कूर है।इन आयात-ओ-अहादीस और अक़्ली दलाएल से मा’लूम होता है कि रूह जुज़्व-ए-लायतजज़्ज़ा,कामिल और हय्य बिज़-ज़ात है।तमाम क़ुव्वतें उस के सिपाही हैं।ये जौहर मा’लूमात की सूरतों और मौजूदात के हक़ाएक़ क़ुबूल करता है और उनके ऐ’न और ज़ात से मशग़ूल नहीं होता।नफ़्स इस अम्र पर क़ादिर है कि इन्सान को देखे बग़ैर इन्सानियत की हक़ीक़त को मा’लूम कर ले जैसा कि उसने फ़रिश्तों और शयातीन की हक़ीक़त मा’लूम कर ली है और उनके अज्साम को देखने का मुहताज ना हुआ क्योंकि अक्सर इन्सानों के हवास मलाइका-ओ-शयातीन तक नहीं पहुंच सकते।
सूफ़िया की एक जमाअ’त का क़ौल है कि जिस तरह जिस्म की आँखें होती हैं उसी तरह दिल की भी एक आँख है।ज़ाहिरी चीज़ें ज़ाहिरी आँख से और बातिनी अश्या अक़्ल की आँख से दिखाई देती हैं*
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया मा मिन अ’बदिन इल्ला व लि-क़ल्बिहि ऐ’नानि व हुमा ऐ’नानि युदरिकु बि-हिइमल ग़ैब फ़इज़ा अरादाल्लाहु बिअबदिन ख़ैरन फ़त-ह ऐनै क़ल्बिहि लि-यरा मा हु-व ग़ाइबुन अ’न बसरिहि (हर बंदे के दिल की दो आँखें होती हैं जिनसे वो ग़ैब का इदराक करता है। जब अल्लाह तआ’ला किसी बंदे से भलाई करना चाहता है तो उस के क़ल्ब की दोनों आँखें खोल देता है ताकि वो उन चीज़ों को भी देख ले जो उस की ज़ाहिरी आँखों से पोशीदा हैं।ये रूह बदन के मरने के साथ नहीं मरती क्योंकि अल्लाह तआला उस को अपने दरवाज़े की तरफ़ बुला लेता है और फ़रमाता है ‘इर्जिई इला रब्बिकि’ अपने परवरदिगार की तरफ़ रुजूअ’ करो और वो बदन से अलाहिदा हो जाती है और ए’राज़ कर लेती है।इस ए’राज़ की वजह से हैवानी और तबई क़ुव्वतें मुअ’त्तल हो जाती हैं।हरकत सुकून से बदल जाती है और इस सुकून का नाम मौत है।
अहल-ए-तरीक़त या’नी सूफ़िया जिस्म की निस्बत रूह और क़ल्ब पर ज़्यादा ए’तिमाद करते हैं चूँकि रूह बारी तआ’ला के हुक्म से है इसलिए बदन में उस की मौजूदगी बतौर मुसाफ़िर होती है और उस की तवज्जोह अपने अस्ल मरजा’ ही की तरफ़ रहती है।वो जिस्म-ए-क़वी की निस्बत अपने अस्ल से ज़्यादा फ़वाइद हासिल करता है इसलिए तबीअ’त की आलाईशों से पाक रहता है।
जब आप इस अम्र से वाक़िफ़ हो चुके कि रूह जौहर-ए-फ़र्द या’नी जुज़्व-ए-ला यतजज़्ज़ा है और जिस्म के लिए मकान ला-बुद्दी है और अ’र्ज़ जौहर के बग़ैर क़ायम नहीं रह सकता तो आपको ये मा’लूम करना चाहिए कि ये जौहर ना किसी महल में उतरता है और ना किसी मकान में रहता है।जिस्म ना रूह का मकान है और ना क़ल्ब का महल बल्कि बदन आला-ए-रूह,वसीला-ए-क़ल्ब और नफ़्स की सवारी है।रूह बज़ातिहि ना बदन से मुत्तसिल है और ना उस से मुन्फ़सिल बल्कि वो बदन के लिए मुफ़ीद-ओ-फ़ैज़-रसाँ है और उस के तरफ़ मुतवज्जिह भी होती है।दिमाग़ पर सबसे पहले उस के नूर का ज़ुहूर होता है क्योंकि दिमाग़ रूह की ख़ास जल्वा-गाह है।उस का अगला हिस्सा उस का संतरी,वस्ती वज़ीर व मुदब्बिर और पिछ्ला हिस्सा ख़ज़ाना-ओ-ख़ज़ानची है और बाक़ी तमाम अज्ज़ा-ए-दिमाग़ प्यादे और सवार हैं।रूह–ए-हैवानी उस की ख़ादिम,रूह-ए-तबीई वकील,बदन घोड़ा,दुनिया मैदान,ज़िंदगी माल-ओ-सामान,हरकत तिजारत, इल्म मुनाफ़ा, आख़िरत मंज़िल व मक़्सूद,शरीअ’त रहगुज़र व सबील,नफ़्स-ए-अम्मारा संतरी और नक़ीब,नफ़्स-ए-लव्वामा जगाने वाला,हवास-ए-ख़मसा जासूस मुआविन,दीन ज़िरह,अक़्ल उस्ताद और हिस शागिर्द है । अल्लाह तआ’ला उन सब के ऊपर निगरां है और वो नफ़्स जिसके ये सामान-ओ-सिफ़ात हैं बज़ातिहि उस जिस्म की तरफ़ मुतवज्जिह या उस से मुत्तसिल नहीं होता बल्कि उसे फ़ायदा पहुँचाता है और उस का रुख़ अल्लाह तआ’ला की तरफ़ रहता है। इस सफ़र के दौरान रूह सिर्फ़ तलब-ए-इल्म में मसरूफ़ रहती है क्योंकि इल्म,क़ियामत में उस का लिबास होगा क्योंकि माल-ओ-औलाद का लिबास दुनिया की चंद रोज़ा ज़िंदगी की ज़ेब-ओ-ज़ीनत है।जिस तरह आंख अश्या के देखने में मशग़ूल है और कान आवाज़ें सुनने पर मुदावमत करता है और ज़बान बातों की तरकीब के लिए तैयार रहती है और रूह-ए-हैवानी लज़्ज़ात-ए-ग़ज़बिया की मुरीद और रूह-ए-तबीई लज़्ज़ात-ए-ख़ुर्द–ओ-नोश की दिल-दादा है।रूह-ए-मुतमइन्ना या'नी दिल सिर्फ़ इल्म की तालिब है,इसीलिए उस की रज़ा वाबस्ता है।उम्र भर इल्म ही सीखने में मशग़ूल रहती है ता-दम-ए-मुफ़ारफ़त उस के तमाम दिन ज़ेवर-ए-इल्म से आरास्ता होते हैं।अगर वो इल्म के सिवा कोई और चीज़ कभी क़ुबूल कर भी ले तो वो महज़ बदन की मस्लिहत के लिए करती है ना कि अपनी ज़ात के लिए या अपने अस्ल की मोहब्बत के लिए।जब आपको रूह के हालात,उस की बक़ा-ओ-दवाम और इल्म के साथ उस के इश्क़–ओ-शग़फ़ से आगाही हो गई है तो आप पर लाज़िम है कि कई अक़साम के उलूम सीखें।इल्म की बहुत सी क़िस्में हैं हम उनको मुख़्तसिरन शुमार करते हैं*
इल्म की अक़साम-ओ-असनाफ़ का बयान
वाज़िह रहे कि इल्म की दो क़िस्में हैं।एक शरई,दूसरी अक़्ली।अक्सर शरई उलूम इन उलूम के जानने वाले के नज़दीक अक़्ली होते हैं और अक्सर अक़्ली उलूम इन उलूम के माहिरीन के नज़दीक शरई होते हैं,व मन लम यजअ’लिल्लाहु लहु नूरन फ़मा लहु मिन नूरिन (और जिस शख़्स के लिए अल्लाह तआ’ला की तरफ़ से नूर से हिस्सा ना हो वो नूर से महरूम रहता है)*
पहली क़िस्म यानी इल्म-ए-इशरई की फ़ीनफ़्सिहि दो क़िस्में हैं।एक उसूली इल्म यानी इल्म-ए-तौहीद है।ये इल्म अल्लाह तआ’ला की ज़ात,उस की सिफ़ात-ए-क़दीमा-ओ-फ़े’लिया और मुतअ’द्दिद ज़ाती सिफ़ात पर बह्स करता है और तरीक़-ए-मज़कूर के मुताबिक़ उनके अस्मा मुअ’य्यनन करता है।नीज़ ये इल्म अन्बिया,अइम्मा और सहाबा के हालात पर बह्स करता है और मौत-ओ-हयात,हालात-ए-क़ियामत,बा’स-ओ-हश्र,हिसाब-ए-आ’माल और अल्लाह तआ’ला के दीदार के मुतअ’ल्लिक़ बह्स-ओ-तम्हीस करता है।इस इल्म के अर्बाब-ए-नज़र पहले अल्लाह तआ’ला की आयात-ए-क़ुरआनी के साथ तमस्सुक करते हैं।ईस के बा’द रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की अहादीस-ओ-आसार से दलील अख़ज़ करते हैं।इस के बा’द दलाइल-ए-अक़्लिया-ओ-बराहीन-क़सिया की तरफ़ जाते हैं।क़यास-ए-जदली-ओ-क़यास-ए-इनादी और इन दोनों के मुतअ’ल्लिक़ात-ओ-लवाज़िम के मुक़द्दमात मंतिक़-ओ-फ़ल्सफ़ा से अख़ज़ करते हैं।इन लोगों ने अक्सर अल्फ़ाज़ को ऐसे महल-ओ-मवाक़े' पर इस्तिमाल किया है जिनके ये अल्फ़ाज़ मौज़ू नहीं थे और वो जौहर,अ’र्ज़,दलील,इस्तिददलाल और हुज्जत की इस्तिलाहात से अपनी इबारात को ता'बीर करते हैं,इन अल्फ़ाज़ के मआ’नी हर क़ौम के नज़दीक ख़ास होते हैं जो दीगर अक़्वाम के मआ’नी से मुख़्तलिफ़ होते हैं।हत्ता कि हुकमा जौहर से मुराद कुछ लेते हैं और सूफ़िया उस के कुछ और मआ’नी मुराद लेते हैं।अहल-ए-कलाम उनसे भी मुख़्तलिफ़ हैं।व क़िस अ’ला हाज़ा*
इस किताब का ये मंशा नहीं है कि क़ौम की आरा के मुताबिक़ उन अल्फ़ाज़ के मआनी की तहक़ीक़ की जाए।इसलिए हम इस को नहीं शुरू करेंगे।जो लोग उसूल और इल्म-ए-तौहीद में ख़ास तौर पर कलाम करते हैं उनका लक़ब मुतकल्लिमीन या अहल-ए-कलाम है क्योंकि इल्म-ए-कलाम का नाम इल्म-ए-तौहीद पर मशहूर हुआ है।इल्म-ए-उसूल में से एक इल्म-ए-तफ़्सीर है क्योंकि क़ुरआन जमीअ’-ए-अश्या में सबसे बड़ा,सबसे ज़्यादा रौशन,सबसे ज़्यादा बुज़ुर्ग और सबसे ज़्यादा अ’ज़ीज़ है।
इस इल्म में बहुत सी मुश्किलात हैं जिनको सिर्फ़ वही शख़्स समझ सकता है जिस को अल्लाह तआ’ला ने अपनी किताब का फ़ह्म अ’ता फ़रमाया हो। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है मा मिन आयतिन मिन आयातिल क़ुरआनि इल्ला वलहा ज़हरुन व लबतनुन वलिबनिहि बतनुन बतन इला सबअति अबतुनिन।(हर क़ुरआनी आयत का एक ज़ाहिर होता है और एक बातिन और बातिन का भी बातिन होता है। हत्ता कि हर एक आयत के सात बातिन होते हैं।)*
एक रिवायत में है कि हर एक आयत के नौ बातिन होते हैं।नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है क़ुरआन-ए-करीम के हर एक हर्फ़ के लिए एक हद और हर एक हद के लिए एक मतला’ होता है। =अल्लाह तआ’ला ने क़ुरआन-ए-करीम में जमीअ-ए-उलूम और मौजूदात के जली-ओ-ख़फ़ी,सग़ीर-ओ-कबीर और महसूस-ओ-मा’क़ूल के मुतअल्लिक़ ख़बर दे दी है।अल्लाह तआ’ला के इस क़ौल का इशारा इसी अम्र की तरफ़ है वला रतबिन वला याबिसिन इल्ला फ़ी कितबिम्मुबीन। (हर चीज़ ख़ुश्क हो या तर किताब-ए-मुबीन में मुंज़बित है)।*
नीज़ अल्लाह तआ’ला ने फ़रमाया लियदब्रू आयातिहि व लियतज़क्करू ऊलूल अलबाब (उनको आयात-ए-इलाही पर ग़ौर व तदब्बुर करना चाहिए और अर्बाब-ए-अक़्ल को नसीहत-पज़ीर होना चाहिए) जब क़ुरआन का मुआ’मला सब उमूर से बड़ा है तो कौन मुफ़स्सिर उस का हक़ अदा कर सकता है और कौन आ’लिम उस से कमाहक़्क़हु ओ’हदा बर-आ हो सकता है।माना कि हर एक मुफ़स्सिर ने अपनी ताक़त व इस्तेदाद के मुताबिक़ उस की शर्ह की इब्तिदा की और अपनी अपनी क़ुव्वत-ए-अक़्ल और बिसात-ए-इल्मी के अंदाज़े से उस की तफ़्सीर-ओ-बयान में मरकब-रानी की और सबने कुछ ना कुछ कहा और जो कुछ कहा हक़ीक़त के मुताबिक़ कहा।इल्म-ए-क़ुरआनी इल्म-ए-उसूल-ओ-फ़ुरूअ’,इल्म-ए-शरई और अक़्ल पर दलालत करता है।मुफ़स्सिर पर वाजिब है कि क़ुरआन-ए-करीम पर मुख़्तलिफ़ वजूह-ओ-हैसियात से ग़ौर करे,लुग़त,इस्तिआरे, तराकीब-ए-लफ़्ज़,मरातिब-ए-नह्व,आदत-ए-अ’रब,उमूर-ए-हुकमा और कलाम-ए-सूफ़िया पर ग़ौर व ख़ौज़ करने के बा’द नहीं।तफ़्सीर दर्जा-ए-तहक़ीक़ से क़रीब होती है अगर एक ही हैसियत और एक ही फ़न पर क़नाअ'त किया जाए तो हक़-ए-तफ़्सीर अदा करना और बयान-ए-क़ुरआन से ओहदा बर-आ होना मुमकिन नहीं है और हुज्जत-ए-ईमान और इत्माम-ए-बुर्हान की ज़िम्मेदारी ऐसे मुफ़स्सिर के सर पर ब-दस्तूर क़ायम रहती है।इल्म-ए-उसूल की एक शाख़ इल्म-ए-हदीस भी है।नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अ’रब-ओ-अ’जम के फ़सीह-तरीन मुतकल्लिम थे।वो ऐसे मुअ’ल्लिम-ओ-उस्ताद थे जिनको अल्लाह तआ’ला की तरफ़ से वही आती थी।आपकी अक़्ल आ’लम-ए-आ’ला-ओ-आ’लम-ए-अस्फ़ल दोनों पर मुहीत थी।आपकी एक एक बात बल्कि एक एक लफ़्ज़ में असरार-ओ-रुमूज़ के बह्र पिनहाँ हैं।इसलिए उस के आसार-ओ-अख़बार को जानना और उस की अहादीस की मारिफ़त हासिल करना एक बहुत बड़ा काम और दुशवार अम्र है। कोई शख़्स इल्म-ए-कलाम-ए-नबवी को उस वक़्त नहीं समझ सकता जब तक वो शारे’ अलैहिस सलाम की मुताबअ’त और पैरवी से अपने नफ़्स को दुरुस्त ना कर ले और शरअ’-ए-नबवी की मुताबअ’त-ओ-इक़्तिदा से अपने दिल की कजी दूर ना कर दे।जिस शख़्स का ये इरादा हो कि वो तफ़्सीर-ए-क़ुरान,तावील-ए-अहादीस भी करे और उस का कलाम दुरुस्त भी रहे तो उस पर अव्वलन इल्म-ए-लुग़त का सीखना,नह्व में तबह्हुर व महारत पैदा करना,मुहावरा-ए-अ’राब से वाक़फ़ियत-ओ-रुसूख़ हासिल करना और अक़साम-ए-सर्फ़ में दस्त-रस हासिल करना ज़रूरी है क्योंकि इल्म-ए-लुग़त जमीअ’-ए-उलूम की सीढ़ी है।जिसको लुग़त की पहचान ना हो उस के लिए तहसील-ए-उलूम की कोई सूरत नहीं हो सकती क्योंकि जो शख़्स किसी सत्ह-ए-मुर्तफ़ा’ पर चढ़ना चाहे तो उस पर पहले सीढ़ी लगाना लाबुद्दी है और उस के बा’द वो उस सतह की तरफ़ बढ़ने की उम्मीद कर सकता है।इल्म-ए-लुग़त एक अ’ज़ीमुश्शान वसीला-ओ-ज़रीया और मुहतमबिश्शान सीढ़ी है।तालिब-इल्म अहकाम-ए-लुग़त से मुस्तग़नी नहीं हो सकता क्योंकि इल्म-ए-लुग़त अस्लुल-अस्ल है,और इल्म-ए-लुग़त की पहली मंज़िल हुरूफ़-ओ-अदवात का पहचानना है और वो मुफ़्रद कलिमों के क़ाइम-मक़ाम है।इस के बा’द अफ़आ’ल का पहचानना ज़रूरी है मसलन सुलासी रुबाई वग़ैरा।लुग़त-दाँ को चाहिए कि वो अश्आर-ए-अ’रब में ग़ौर व फ़िक्र करे जिनमें सबसे ज़्यादा मो’तबर और औला जाहिलियत के अश्आर हैं क्योंकि उनसे दिल की तन्क़ीह और नफ़्स को राहत हासिल होती है।शेअर-ओ-अदवात-ओ-अस्मा के अ’लावा इल्म-ए-नह्व की तहसील भी ज़रूरी है क्योंकि वो इल्म-ए-लुग़त के लिए ऐसा ही है जिस तरह सोने और चांदी के लिए तराज़ू और इल्म-ए-हिक्मत के लिए मंतिक़।शेअर के लिए इल्म-ए-उरूज़,कपड़ों के लिए गज़ और ग़ल्ले के लिए मिक्याल।जब तक कोई चीज़ तराज़ू से वज़्न ना की जाए उस में ज़ियादत और कमी की असलियत ज़ाहिर नहीं होती।इल्म-ए-लुग़त इल्म-ए-तफ़्सीर-ओ-इल्म-ए-हदीस का ज़रीया और इल्म-ए-क़ुरआन-ओ-हदीस इल्म-ए-तौहीद का रहनुमा है।इल्म-ए-तौहीद वो चीज़ है कि बंदों के नफ़्स सिर्फ़ उसी के ज़रीया नजात और ख़ौफ़-ए-मह्शर-ओ-मआ’द से रुस्तगारी हासिल कर सकते हैं।ये इल्म-ए-उसूल की तफ़्सील है।इल्म-ए-शरई की दूसरी क़िस्म इल्म-ए-फ़ुरू’ है।इल्म की दो क़िस्में हैं।एक इल्मी दूसरी अ’मली ।इल्म-ए-उसूल इल्मी और इल्म-ए-फ़ुरू,अ’मली होता है और ये अ’मली अ’मल तीन हुक़ूक़ पर मुश्तमिल होता है *
पहले अल्लाह तआ’ला का हक़ है और वो अरकान-ए-इबादात मसलन तहारत व नमाज़,ज़कात, हज,जिहाद,अज़कार व वज़ाइफ़,ईदैन और जुमा’और उनके अ’लावा दीगर नवाफ़िल-ओ-फ़राइज़ हैं*
दूसरे हुक़ूक़ बंदों के हैं और ये रुसूम-ओ-आ’दात के अबवाब हैं जो दो सूरतों में जारी हैं।अव्वल मुआ’मलात मसलन बैअ’,शिरकत,हिबा,क़र्ज़,देन,क़िसास वग़ैरा।दोउम मुआ’क़दात मसलन निकाह, तलाक़,इत्क़,रिक़,फ़राइज़ और उनके मुतअ’ल्लिक़ात।फ़िक़्ह इन्ही दो हुक़ूक़ का नाम है।इल्म-ए-फ़िक़्ह मुफ़ीद-ए-आ’म और ज़रूरी है और चूँकि इस की ज़रूरत आ’म तौर पर पड़ती है इसलिए इस से लोग मुस्तग़नी नहीं हो सकते।
तीसरा हक़ नफ़्स का है और वह इल्म-ए-अख़लाक़ है।अख़लाक़ या तो मज़मूम होते हैं और उनका तर्क-ओ-इन्क़िता’ वाजिब होता है या अच्छे होते हैं और उनको हासिल करना और नफ़्स को उनसे आरास्ता करना ज़रूरी होता है।अख़लाक़-ए-मज़मूमा और औसाफ़-ए-हमीदा क़ुरआन-ए-करीम और अहादीस-ए-रसूल में बयान हो चुके हैं।वो आ’म तौर पर मशहूर हैं।जिस ने अख़लाक़-ए-हमीदा में से किसी एक को हासिल कर लिया जन्नत में दाख़िल हो गया*
इल्म की दूसरी क़िस्म इल्म-ए-अक़्ली है।ये बड़ा मुश्किल इल्म है इस में इन्सानी फ़िक्र-ओ-दिमाग़ ग़लती-ओ-दुरुस्ती का हदफ़ बना रहता है।इस इल्म के तीन मरातिब हैं*
पहला मर्तबा रियाज़ी-ओ-मंतिक़ का है।हिसाब रियाज़ी की एक क़िस्म है और अ’दद पर बह्स करता है और इल्म-ए-हिंदसा भी रियाज़ी की क़िस्म है।इस में मिक़दार-ओ-अंदाज़ा और अशकाल पर बह्स होती है।इल्म-ए-हैअत जो रियाज़ी की तीसरी क़िस्म है ये इल्म-ए-अफ़्लाक-ओ-नुजूम और इल्म-ए-अक़ालीम,ज़मीन और उन दीगर उलूम पर मुश्तमिल है जो उनसे मुतअ’ल्लिक़ हैं। इल्म-ए-नुजूम और इल्म-ए-मवालीद व तवाले’ इसी इल्म की शाख़ें हैं। इल्म-ए-मौसीक़ी भी रियाज़ी की क़िस्म है और सुरों और तारों पर बह्स करता है।इल्म-ए-मंतिक़ में उन अश्या की हद्द-ओ-ता’रीफ़ और क़ानून-ओ-अहकाम पर बह्स होती है जिनका तसव्वुर से इदराक होता है और जो उलूम तस्दीक़ के ज़रीया से हासिल होते हैं उन पर दलील-ओ-क़यास के तरीक़ से बह्स होती है।इल्म-ए-मन्तिक़ की इब्तिदा मुफ़्रदात से होती है।इस के बाद वो बिल-तर्तीब मुरक्कबात, क़ज़ाया,अक़्साम-ए-क़यास और मतलब-ए-दलील-ओ-बुर्हान की तरफ़ दौरा करता है और इसी मक़ाम पर मंतिक़ ख़त्म हो जाती है*
दूसरा मर्तबा इल्म-ए-तबीई का है।इस इल्म में जिस्म-ए-मुतलक़,अरकान-ए-आ’लम,जवाहर-ओ-आ’राज़,हरकत व सुकून,आसमानों के हालात और अश्या-ए-फ़े’लिया व इन्फ़िआ’लिया पर बह्स होती है।इसी इल्म से मौजूदात के मरातिब,नुफ़ूस और मिज़ाज की क़िस्में और हवास की मिक़दार मा’लूम होती है।नीज़ इस बात से आगाही होती है कि क्योंकर हवास अपने महसूसात का इदराक करती हैं।इस के बा’द यही इल्म तरक़्क़ी कर के इल्म-ए-तिब तक पहुंचता है।ये बदन की बीमारियों दवाओं और इलाजात वग़ैरा का इल्म है। इल्म-ए-आसार-ए-उलविया,इल्म-ए-मा’दनयात, अश्या की ख़ासियतों की पहचान, इसी इल्म की शाख़ें हैं ।इस इल्म का इख़्तताम इल्म-ए-कीमिया पर होता है जिसमें उन अज्साम-ए-मरीज़ा का ईलाज मज़कूर होता है जो मआ’दिन और कानों में मौजूद होते हैं*
तीसरा मर्तबा इस इल्म का है जो मौजूद पर नज़र-ओ-बह्स करता है और फिर मौजूद को वाजिब व मुमकिन पर तक़्सीम करता है और साने’ और उस की ज़ात व सिफ़ात और उस के अफ़आ’ल पर बह्स करता है।नीज़ वो साने’ के अम्र,उस के हुक्म-ओ-क़ज़ा और उस से मौजूदात के तर्तीब-ओ-तंज़ीम के साथ ज़ाहिर होने पर ग़ौर-ओ- ख़ौज़ करता है।फिर वो आ’लम-ए-बाला ,जवाहर-ए-माद्दी,उक़ूल-ए-ग़ैर-माद्दी,नुफ़ूस-ए-कामिला और मलाइका-ओ-शयातीन के हालात बयान करता है।अख़ीर में ये इल्म नबुव्वतों,मो’जेज़ों,करामतों,नुफ़ूस-ए-मुक़द्दसा,नींद और बे-दारी और मदारिज-ए-ख़्वाब पर बह्स करता है।इल्म-ए-तिलिस्मात,इल्म-ए-नैरनजात(जादू सह्र वग़ैरा)और इसी तरह के दीगर उलूम इसी मर्तबा-ए-इल्म की शाख़ें हैं। इस इल्म की तफ़्सीलात और आ’राज़-ओ-मरातिब वाज़िह और मुदल्लल तरीक़ पर तश्रीह के मोहताज हैं लेकिन इख़्तिसार बहुत है।
याद रखें कि इल्म-ए-अक़्ली बज़ातिहि मुफ़्रद है और इस से इल्म-ए-मुरक्कब पैदा होता है जिसमें दो मुफ़्रद इलमों के तमाम हालात पाए जाते हैं ये इल्म-ए-मुरक्कब, इल्म-ए-तसव्वुफ़ और इल्म-ए-तरीक़ा-ए-हालात-ए सूफ़िया है क्योंकि सूफ़िया का एक ख़ास और वाज़िह इल्म होता है जो दो उलूम के मज्मुए से पैदा होता है और उनका इल्म हाल,वक़्त-ओ-समाअ’,वज्द-ओ-शौक़,बे-होशी-ओ-इआदा-ए-होश,इस्बात व मह्व, फिक्र-ओ-फ़ना,विलायत-ओ-इरादत,शैख़-ओ-मुरीद-ओ-दीगर हालात-सूफ़िया-ओ-उनके फ़ज़ाइल-ओ-औसाफ़ और उनके मक़ामात-ओ-मरातिब पर मुश्तमिल है। हम इंशाअल्लाह इन तीनों उलूम को ख़ास किताब में बयान करेंगे। इस रिसाला में हमारा मक़्सद सिर्फ़ ये है कि उलूम और उनके अक़्साम को शुमार कर दें। हमने उनका इख़्तिसार किया और बतरीक़-ए-इख़्तिसार ही उनको शुमार भी कर दिया है।
जिस शख़्स का इरादा मज़ीद मुता’ला का हो और उन उलूम की तश्रीह मा’लूम करना चाहे तो उस को मुता’ला-ए-कुतुब की तरफ़ रुजूअ’ करना चाहिए।*
जब अक़्साम-ए-उलूम शुमार की जा चुकीं तो आपको ये अम्र भी क़तई-ओ-यक़ीनी तौर पर याद रखना चाहिए कि उनमें से हर एक इल्म और हर एक फ़न के मुतअद्दिद शराइत होते हैं जिनके बग़ैर वो इल्म या फ़न तालिब-इल्म के दिल में मनक़ूश नहीं हो सकता,इल्म को शुमार करने के बा’द आप को तहसील-ए-उलूम के तरीक़े मा’लूम करने ज़रूरी हैं।क्योंकि तहसील के तरीक़े मोअ’य्यन-ओ-मुक़र्रर हैं हम उनको तफ़्सीलन बयान करेंगे।*
फ़स्ल तहसील-ए-उलूम के तरीक़ों के बयान में
आपको जानना चाहिए कि इल्म-ए-इंसानी के हुसूल के दो तरीक़े हैं।एक ता’लीम-ए-इन्सानी और दूसरा ता’लीम-ए-रब्बानी।पहला तरीक़ मा’मूली है जो एक महसूस राह है और जिसके तमाम उक़ला मुक़िर्र व मो’तरिफ़ हैं।ता’लीम-ए-रब्बानी की दो क़िस्में हैं।एक ख़ारिजी जो सीखने से हासिल होता है,दूसरा दाख़िली जो तफ़क्कुर के ज़रीये हासिल होता है।जिस तरह ता’लिम ज़ाहिर से मुतअ’ल्लिक़ होता है उसी तरह तफ़क्कुर बातिन से तअ’ल्लुक़ रखता है क्योंकि किसी शख़्स के किसी शख़्स-ए-जुज़्ई से फ़ायदा हासिल करने का नाम और किसी नफ़्स के नफ़्स-ए-कुल्ली से मुस्तफ़ीद होने का नाम तफ़क्कुर है और नफ़्स-ए-कुल्ली जमीअ’-ए-उल्मा-ओ-उक़ला की निस्बत ज़्यादा क़वी और मुवस्सिर व मुअ’ल्लिम है।उलूम-ए-अस्ल नुफ़ूस में बिलक़ुव्वा उसी तरह मर्कूज़ होते हैं जिस तरह बीज ज़मीन और मोती समुंद्र की गहराई या क़ल्ब मा’दन में।इस चीज़ की क़ुव्वत से फे़’ल की तरफ़ आने की कोशिश को तअ’ल्लुम कहा जाता है और इसी चीज़ को क़ुव्वत से फे़’ल की तरफ़ लाने की कोशिश का नाम ता’लीम है।इसलिए सीखने वाले का नफ़्स सीखाने वाले के नफ़्स से मुशाबेह और रिश्ते में क़रीब होता है।फ़ायदा पहुंचाने वाला आ’लिम काश्तकार की मानिंद और सीखने और फ़ायदा हासिल करने वाला शख़्स खेती की मानिंद होता है। इल्म बिलक़ुव्वा बीज की मानिंद और इल्म बिलफ़े’ल पौदे और नबात की मानिंद है।जब सीखने वाले का नफ़्स कामिल हो जाए तो वो मेवादार दरख़्त या उस मोती की मानिंद हो जाता है जो समुंद्र की गहराई से निकाला जाता है।जब क़ुवा-ए-बदनी नफ़्स पर ग़ालिब आ जाएँ तो सीखने वाला शख़्स इस अम्र का मुहताज होता है कि मुद्दत-ए-दराज़ तक सीखता रहे,मेहनत व मशक़्क़त बर्दाश्त करता रहे और इल्म की जुस्तुजू करता रहे।जब नूर-ए-अक़्ल ग़ालिब आ जाए तो तालिब-इल्म थोड़े से तफ़क्कुर के ज़रीया कसरत-ए-तअ’ल्लुम से मुस्तग़नी हो जाता है क्योंकि काबिल नफ़्स एक घंटे के तफ़क्कुर से इस क़दर फ़वाइद हासिल कर सकता है कि जामिद नफ़्स एक साल तक सीखने से भी हासिल नहीं कर सकता।*
बा’ज़ आदमी ता’लीम से उलूम हासिल करते हैं और बा’ज़ तफ़क्कुर से।ता’लीम भी तफ़क्कुर का मुहताज है क्योंकि इन्सान तमाम जुज़्ई व कुल्ली अश्या और तमाम मा’लूमात के तअ’ल्लुम पर क़ादिर नहीं है बल्कि कुछ हिस्सा सीखता है और कुछ तफ़क्कुर के ज़रीया हासिल करता है और अक्सर नज़री उलूम और अ’मली फ़ुनून हुकमा के नुफ़ूस ने इस्तिख़राज किए हैं जिनमें उनको ज़्यादा सीखना या हासिल करना नहीं बल्कि उनकी पाकीज़गी-ए-ज़हन,क़ुव्वत-ए-फ़िक्र और ज़ेरकी की वजह से ख़ुद ब-ख़ुद ही ज़ाहिर होते गए।अगर इन्सान पहले कुछ इल्म हासिल करने के बा’द ब-ज़रीया तफ़क्कुर इस्तिख़राज ना करता तो लोगों पर हुसूल-ए-इल्म बहुत तवील काम हो जाता और दिलों से जहल की तारीकी ज़ाइल ना होती क्योंकि नफ़्स अपने ताम जुज़्ई व कुल्ली उमूर-ए-मुहिम्मा को ब-ज़रीया-ए-ता’लीम हासिल नहीं कर सकता बल्कि बा’ज़ तहसील के ज़रीया और बा’ज़ लोगों की आ’दात और अच्छी बातों के तबादला-ओ-मुता’ला से और बा’ज़ शुस्तगी-ए-फ़िक्र के वजह से इस्तिख़राजन मा’लूम हो जाते हैं।उल्मा की आ’दत यही रही है और उस पर क़वाइद-ए-उलूम मुरत्तब किए गए हैं।हत्ता कि इंजिनियर भी इन तमाम चीज़ों को जो उसे उम्र-भर दरकार होती हैं नहीं सीखता बल्कि सिर्फ़ अपने इल्म के कुल्लियात-ओ-मौज़ूआत सीख लेता है और उस के बा’द इस्तिख़राज और क़यास को इस्तिमाल करता है और इसी तरह तबीब भी अश्ख़ास की बीमारियों और दवाओं की जूज़ईयात नहीं सीख सकता बल्कि अपने आम मा’लूमात में तफ़क्कुर करता है और हर शख़्स का ईलाज उस के मिज़ाज के मुताबिक़ करता है। नुजूमी कुल्लियात-ए-नुजूम सीखता है और उस के बा’द तफ़क्कुर करता है और मुख़्तलिफ़ फ़ैसले सादिर करता है।फ़क़ीह-ओ-अदीब और अजाइब-ओ-फ़नून की भी यही सूरत होती है। एक शख़्स अपने तफ़क्कुर से मारने का आला यानी लाठी वज़ा’ करता है और दूसरा उस आला से दूसरा आला इस्तिख़राज कर लेता है।तमाम जिस्मानी और रुहानी अ’जाइब की यही सूरत है। पहले-पहल अ’जाइब ता’लीम से हासिल होते हैं और उस के बा’द बाक़ी अ’जाइब तफ़क्कुर से पैदा होने लगते हैं।जब नफ़्स पर फ़िक्र का दरवाज़ा खुल गया तो उस को तरीक़-ए-तफ़क्कुर की कैफ़ियत मा’लूम हो जाएगी।नीज़ ये बात भी मा’लूम हो जाएगी कि क्योंकर ज़ेरकी व फ़ह्म के ज़रीया मतलूब की तरफ़ रुजूअ’ होता है।इस तरह इंशिराह-ए-क़ल्ब-ओ-इन्फ़िताह-ए-बसीरत हो जाता है और जो इल्म इन्सान के नफ़्स में बिल-क़ुव्वा मौजूद होता है हालत-ए-फ़े’ल की तरफ़ रुजूअ’-ओ-ख़ुरूज करता है और ज़ियादत-ए-तलब-ओ-तूल-ए-मशक़्क़त से नजात हासिल हो जाती है।*
दूसरे तरीक़ या’नी उल्मा-ए-रब्बानी की दो सूर्तें हैं।पहली सूरत इल्क़ा-ए-वही है।जब नफ़्स की ज़ात कामिल हो जाती है,तबीयत का मैल कुचैल और हिर्स-ओ-हवा की गंदगी उस से रफ़अ' हो जाती है और ख़्वाहिशात-ए-दुनिया से उस की नज़र जुदा हो जाती है,फ़ना होने वाली आरज़ूओं से उस का रिश्ता मुनक़ते’ हो जाता है और वो अपने ख़ालिक़-ओ-बारी की तरफ़ रख कर लेता है,उसी की बख़्शिश से तमस्सुक करने लगता है उसी के इफ़ादा और फ़ैज़-ए-नूर पर भरोसा करता है और अल्लाह तआ’ला हुस्न-ए-इनायत से उस नफ़्स की तरफ़ पूरे तौर पर मुतवज्जिह हो जाता है इलाही नज़र से उस की तरफ़ देखता है,उस को लौह बनाता है और नफ़्स-ए-कुल्ली को क़लम और उस नफ़्स में जमीअ-ए-उलूम लिख देता है अक़्ल-ए-कुल मुअल्लिम और नफ़्स-ए-क़ुद्सी मोतअ’ल्लिम बन जाता है और उस नफ़्स को जमीअ’-ए-उलूम हासिल हो जाते हैं।तअ’ल्लुम-ओ-तफ़क्कुर के बग़ैर तमाम सूरतें उस में मनक़ूश हो जाती हैं।इस का सबूत अल्लाह तआ’ला के इस क़ौल में मौजूद है व-अ’ल्लमक मालम तकुन ता’लम (और ऐ रसूल तुझे अल्लाह तआ’ला ने वो उलूम सिखाए जो तुझे मा’लूम नहीं थे)अन्बिया का इल्म लोगों के जमीअ’-ए-उलूम से अशरफ़-ओ-आ’ला होता है क्योंकि वो बिला-वासिता अल्लाह तआ’ला से हासिल होता है और उस का बयान आदम अलैहिस-सलाम और मलाइका के क़िस्से में मज़कूर है।फ़रिश्ते अपनी तमाम उम्र इल्म सीखते रहे और अन्वा’ व अक़साम के तरीक़ों से बहुत से उलूम हासिल किए तब कहीं जाकर आ’लमुल मख़्लूक़ात या’नी तमाम मख़्लूक़ात से ज़्यादा आ’लिम और आरफ़ुल मौजूदात या’नी जमीअ’-ए-मौजूदात में सब से ज़्यादा आरिफ़ बने और आदम अलैहिस-सलाम आलिम नहीं थे क्योंकि उन्होंने ना कुछ सीखा था और ना किसी मुअ’ल्लिम की सूरत देखी।फ़रिश्ते उनके मुक़ाबले में फ़ख़्र व तकब्बुर करने लगे और बुज़ुर्ग बनने की कोशिश की और कहा ऐ अल्लाह तआ’ला हम तेरी हम्द-ओ-तस्बीह और तेरी पाकी बयान करते हैं।अश्या की हक़ीक़तों से वाक़िफ़ हैं।आदम अलैहिस-सलाम अपने ख़ालिक़ के दरवाज़ा की तरफ़ वापस चले गए।जमीअ’-ए-मख़्लूक़ात से अपना दिल फेर लिया और अल्लाह से इआ’नत तलब की।अल्लाह तआ’ला ने उनको तमाम नाम सिखा दिए।उस के बा’द फ़रिश्तों के रूबरू वो अश्या पेश कीं और फ़रमाया अन्बिऊवुनी बिअस्माइ हाउलाइ इन कुंतुम सादिक़ीन(अगर तुम सच्चे हो तो उन चीज़ों के नाम बताओ)इस पर फ़रिश्ते आदम अलैहिस-सलाम के सामने सर-निगूँ हो गए।उनका इल्म क़लील साबित हुआ।उनका सफ़ीना-ए-जबरूत मुस्तरद हुआ और बहर-ए-इज्ज़ में ग़र्क़ हो गए और कहने लगे ला-इल्म लना इल्ला मा अल्लमतना (हमको तो वही मा’लूम है जो तूने हमको सिखाया) अल्लाह तआ’ला ने फ़रमाया या आदमु अनम्बिहुम बिअस्माइहिम (ऐ आदम उनको बताओ)आदम अलैहिस-सलाम ने चंद पोशीदा इल्मी निकात और दुर्र-ए-मआ’नी से उनको आगाह किया, उक़ला के नज़दीक ये बात क़रार पाई कि वो ग़ैबी इल्म जो वही के ज़रीये पैदा हो और किसी उलूम की निस्बत ज़्यादा क़वी-ओ-मुकम्मल होता है और वही का इल्म अंबिया की विरासत है और रसूलों का हक़ है अल्लाह तआ’ला ने हमारे सरदार हज़रत मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह के ज़माने से वही का दरवाज़ा बंद कर दिया है और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ख़ातिम-उन-नबिय्यीन और अरब-ओ-अ’जम के फ़सीह-तरीन और अदीमुन्नज़ीर आलिम थे।आप फ़रमाते थे कि मुझ को अल्लाह तआ’ला ने अदब सिखाया है और निहायत अच्छा अदब सिखाया है।*
नीज़ आप अपनी क़ौम को ये भी फ़रमाया करते थे मैं आप सब लोगों की निस्बत ज़्यादा आलिम और अल्लाह तआ’ला से ज़्यादा डरने वाला हूँ।आपका इल्म मुकम्मल-तरीन,शरीफ़-तरीन और क़वी-तरीन था क्योंकि आपने ता’लीम-ए-रब्बानी से इल्म हासिल किया और इन्सानी तअ’ल्लुम-ओ-ता’लीम से आपको बिल्कुल शग़्ल नहीं था।अल्लाह तआ’ला ने फ़रमाया अल्लमहु शादीदुल क़ुवा (नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को बड़ी मज़बूत क़ुव्वतों वाली हस्ती ने इल्म सिखाया।)*
दूसरी सूरत इल्हाम है।नफ़्स-ए-कुल्ली-इन्सानी नफ़्स-ए-जुज़ई को उस की सफ़ाई,असर पज़ीरी- और क़ुव्वत-ए इस्’तिदाद के मुताबिक़ बेदार करता है।इस फ़े’ल का नाम इल्हाम है।इल्हाम वही की अ’लामत है क्योंकि अम्र-ए-ग़ैबी की तस्रीह और इल्हाम उस की तारीज़-ओ-इशारा का नाम है जो इल्म वही से हासिल हो उस का नाम इल्म-ए-नबवी होता है और जो इल्म इल्हाम से हासिल हो उस को इल्म-ए-लदुन्नी कहते हैं।इल्म-ए-लदुन्नी वो इल्म है जिसके हुसूल के वक़्त नफ़्स और बारी तआ’ला के दरमियान कोई वास्ता वसीला ना हो बल्कि वो एक रौशनी है जो ग़ैबी चराग़ से एक साफ़, सादा और लतीफ़ दिल पर बराह-ए-रास्त पड़ रही हो।इन तमाम उलूम को जो जौहर-ए-नफ़्स-ए-कुल्ली में मौजूद हैं जोकि जवाहर-ए-ग़ैर माद्दी में से है,अक़्ल-ए-अव़्वल से वही निस्बत है जो हव्वा अलैहस्सलाम को आदम अलैहिस-सलाम से है।ये बयान हो चुका है कि अक़्ल-ए-कुल्ली नफ़्स-ए-कुल्ली की निस्बत ज़्यादा शरीफ़,ज़्यादा मुकम्मल,ज़्यादा क़वी और बारी तआ’ला की तरफ़ ज़्यादा क़रीब है और नफ़्स–ए-कुल्ली जमीअ’-ए-मख़्लूक़ात की निस्बत ज़्यादा अ'ज़ीज़-ओ-लतीफ़-ओ-शरीफ़ है।अक़्ल-ए-कुल्ली के फ़ैज़ से वही और नफ़्स-ए-कुल्ली की ज़िया-बारी से इल्हाम पैदा होता है।वही अंबिया का ज़ेवर और इल्हाम औलिया की ज़ीनत है।जिस तरह नफ़्स-ए-अक़्ल से वली नबी से कम दर्जे पर होता है उसी तरह इल्हाम वही की निस्बत कम दर्जा रखता है।इल्हाम वही की निस्बत ज़ईफ़ और ख़्वाब की निस्बत क़वी होता है।इल्म अंबिया और औलिया का इल्म है।इल्म-ए-वही पैग़म्बरों के साथ ख़ास और उन्हीं पर मौक़ूफ़ है जैसे कि आदम अलैहिस-सलाम,मूसा अलैहिस-सलाम,इब्राहीम अलैहिस-सलाम और हज़रत मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और दीगर पैग़म्बरों का इल्म था।*
रिसालत और नबुव्वत में फ़र्क़ है।नफ़्स-ए-क़ुद्सी के जौहर अक़्ल-ए-अव़्वल से मा’लूमात-ओ-मा’क़ूलात के हक़ाएक़ क़ुबूल करने को नबुव्वत और उन मा’लूमात-ओ-मा’क़ूलात को फ़ायदा हासिल करने वालों और क़ुबूल करने वालों तक पहुंचाने को रिसालत कहते हैं।बसा औक़ात ऐसा होता है कि किसी नफ़्स को हक़ाएक़-ए-मा’लूमात-ओ-मा’क़ूलात का क़ुबूल हासिल हो जाता है लेकिन किसी उज़्र या सबब से उस को हक़-ए-तब्लीग़ हासिल नहीं होता।इल्म-ए-लदुन्नी अहल-ए-नबुव्वत-ओ-विलायत को हासिल होता है।*
चुनांचे अल्लाह तआ’ला ने हज़रत ख़िज़्र अलैहिस-सलाम के मुतअ’ल्लिक़ फ़रमाया व अल्लमनाहु मिल लदुन्ना इलमन(और हमने उस को लदुन्नी इल्म सिखाया)*
अमीर-उल-मोमिनीन अ’ली बिन अबी तालिब रज़ीअल्लाहु अन्हु ने फ़रमाया कि मेरे मुँह में ज़बान रखी गई और मेरे क़ल्ब में इल्म के एक हज़ार दरवाज़े खुल गए और हर एक दरवाज़े के साथ एक हज़ार दरवाज़ा है।*
नीज़ आपने फ़रमाया कि अगर मेरे लिए फ़र्श बिछा दिया जाए तो मैं अहल-ए-तौरात को तौरात के,अहल इंजील को इंजील के और अहल-ए-क़ुरआन को क़ुरआन के अहकाम सुना दूं।और ये दर्जा सिर्फ़ ता’लीम-ए-इन्सानी से हासिल नहीं हो सकता बल्कि इल्म-ए-लदुन्नी की क़ुव्वत से मर्द को ये ज़ेवर अ’ता होता है *
हज़रत अ’ली रज़ी अल्लाह अन्हु ने ये भी फ़रमाया कि हिकायत है कि मूसा अलैहिस-सलाम की किताब की शर्ह इतनी बड़ी थी कि उस को चालीस ऊंट उठाते थे।अगर अल्लाह तआ’ला मुझको इजाज़त फ़रमाए और मैं सिर्फ़ सूरा-ए-फ़ातिहा की तफ़्सीर शुरू कर दूँ तो वो भी उतनी ही भारी हो जाए और इल्म की इस क़दर कसरत,वुसअ'त और इन्फ़िताह-ओ-इंशिराह महज़ लदुन्नी और रब्बानी और आसमानी होने की वजह से होता है।जब अल्लाह तआ’ला किसी बंदे से भलाई करना चाहता है तो अपने और उस की लौह-ए-नफ़्स के दरमियान से हिजाब उठा लेता है और उस लौह पर बा’ज़ पोशीदा असरार-ओ-रमूज़ ज़ाहिर हो जाते हैं और उस पर-असरार-ओ-रमूज़ के मआ’नी मनक़ूश हो जाते हैं और वो नफ़्स उन नक़ूश को अल्लाह तआ’ला के बंदों में से जिनके सामने बयान करना और जिस तरह बयान करना चाहता है बयान करता है*
हिक्मत की हक़ीक़त इल्म-ए-लदुन्नी से हासिल होती है और जब तक इन्सान इस दर्जे तक ना पहुंच जाए हकीम नहीं हो सकता क्योंकि हिक्मत एक ख़ुदा-दाद चीज़ होती है यूतिल हिक्मत मय्यशाऊ व मय्यूतल हिक्मत फ़क़द उति-य ख़ैरन कसीरन वमा यज़्ज़करू इल्ला ऊलूल अलबाब (जिसको चाहता है हिक्मत अ’ता फ़रमाता है और जिसको हिक्मत अता हो जाए उस को ख़ैर-ए- कसीर अ’ता हो गई और सिर्फ़ अर्बाब-ए-अक़्ल-ओ-दानिश ही समझ सकते हैं)और ये बात इसलिए होती है कि जो लोग मर्तबा-ए-इल्म-ए-लदुन्नी हासिल कर लेते हैं वो कसरत-ए-तहसील-ओ-मशक़्क़त-ए-ता’लीम से मुस्तग़नी हो जाते हैं।थोड़ा सीखते हैं और ज़्यादा जानते हैं और थोड़ी देर मेहनत करते और ज़्यादा आराम हासिल करते हैं।*
याद रखें कि जब वही मुनक़ते’ हो गई और बाब-ए-रिसालत मस्दूद हो गया तो तस्हीह-ए-हुज्जत और तकमील-ए-दीन के बा’द लोग पैग़म्बरों और इज़हार-ए-दा'वत से मुसत्ग़नी हो गए हैं जैसा कि अल्लाह तआ’ला ने फ़रमाया है अलयौ-म अकमलतु लकुम दीनकम(मैं ने तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन मुकम्मल कर दिया)और बिला ज़रूरत इज़हार-ए-इफ़ाइदा हिक्मत से बईद है, लेकिन इल्हाम का दरवाज़ा बंद नहीं होता और चूँकि नुफ़ूस को ताकीद-ओ-तज्दीद और वा’ज़-ओ-नसीहत की ज़रूरत हमेशा रहती है इसलिए नफ़्स-ए-कुल्ली के नूर की इमदाद बदस्तूर रहती है और जहाँ लोग रिसालत-ओ-दा’वत से मुस्तग़नी हो गए हैं वहाँ वसाविस् में मुस्तग़रक़ और शहवात में मुन्हमिक होने की वजह से इस को तज़्कीर-ओ-तन्बीह की ज़रूरत रहती है।अल्लाह तआ’ला ने वही का दरवाज़ा बंद कर दिया और वो आयत-ए-इबाद है और अपनी रहमत से इल्हाम का दरवाज़ा खोल दिया।काम तैयार और मरातिब मुक़र्रर कर दिए ताकि लोगों को ये बात मा’लूम हो जाए कि अल्लाह तआ’ला अपने बंदों पर मेहरबान है और जिसको चाहे उसे बे-हिसाब रिज़्क़ देता है*
फ़स्ल तहसील-ए-उलूम में नुफ़ूस के मरातिब के बयान में
तमाम इन्सानी नुफ़ूस में उलूम मर्कूज़ होते हैं और तमाम नुफ़ूस तमाम इलमों को क़ुबूल कर सकते हैं अगर कोई नफ़्स अपने हिस्से से महरूम रहता है तो वो किसी आरिज़ी सबब की वजह से होता है और ये सबब ख़ारिज से आता है चुनांचे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ख़ुलिक़न नासु हुनफ़ा-अ फ़ख़्तालतहुमुश शयातीन (लोग सच्चे मुसलमान पैदा होते हैं लेकिन शयातीन उनको बहका लेते हैं)*
नीज़ आँहज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कुल्लू मौलूदिन यूलदु अ’लल फ़ितरत(हर शख़्स दीन-ए-फ़ितरत पर पैदा होता है) नफ़्स कुल्ली नफ़्स-ए-नातिक़ा-ए-इन्सानी पर जो रौशनी डालता है मुवख़्ख़रूज़-ज़िक्र उस रौशनी को क़ुबूल कर लेता है और अपनी असली तहारत व सफ़ाई की क़ुव्वत से नफ़्स-ए-कुल्ली की सुवर-ए-मा’क़ूला की सलाहियत-ओ-क़ाबिलीयत रखता है लेकिन दुनिया में बा’ज़ नुफ़ूस मरीज़ हो जाते हैं और मुख़्तलिफ़ अमराज़-ओ-अ’वारिज़ के बाइस इद्राक-ए-हक़ीक़त से क़ासिर रहते हैं और बा’ज़ अपनी असली सेहत की हालत में रहते हैं और उन पर किसी तरह का मरज़ व फ़साद तारी नहीं होता।जब तक ज़िंदा रहते हैं रौशनी क़ुबूल करते रहते हैं।नुफ़ूस-ए-सहीहा नुफ़ूस-ए-नबवी होते हैं जो वही-ओ-ताईद के क़ाबिल और आ’लम-ए-कौन व फ़साद में इज़हार-ए-मो’जिज़ा-ओ-तसर्रुफ़ पर क़ादिर होते हैं।ये नुफ़ूस अपनी असली सेहत पर बाक़ी रहते हैं।उनके मिज़ाज फ़साद-ए-अमराज़-ओ-अ’वारिज़ से मुतग़य्यर नहीं होते। इसलिए अंबिया नुफ़ूस के हबीब और ख़ल्क़-ए-ख़ुदा को सही फ़ितरत की तरफ़ दा’वत देने वाले होते हैं *
इस दुनिया-ए-दूँ में जो नुफ़ूस बीमार पड़ जाते हैं उनके मरज़ के मरातिब होते हैं।बा’ज़ को तो मरज़ का ख़फ़ीफ़ सा असर लाहिक़ होता है और उनके दिलों पर निस्यान के पर्दे छा जाते हैं और वो तअ’ल्लुम में मशग़ूल हो जाते और असली सेहत और उनके निस्यान के पर्दे निहायत क़लील ज़िक्र से रफ़ा’ हो जाते हैं*
बा’ज़ उम्र-भर ता’लीम में मशग़ूल रहते हैं और जमीअ-ए-अय्याम तहसील-ओ-तस्हीह में बसर करते हैं लेकिन उनका मिज़ाज कुछ ऐसा बिगड़ा हुआ होता है कि कुछ नहीं समझते क्योंकि जब मिज़ाज फ़ासिद हो जाए तो लाइलाज हो जाता है*
बा’ज़ नुफ़ूस याद करते हैं और फिर फ़रामोश कर देते हैं और रियाज़त-ओ-तज़लील-ए-नफ़्स में मशग़ूल हो जाते हैं और क़लील सी रौशनी और ज़ईफ़ सी चमक हासिल कर लेते हैं,और ये फ़र्क़ इस क़ुव्वत की निस्बत से ज़ाहिर होता है जिससे नुफ़ूस दुनिया की तरफ़ मुतवज्जिह और उस में मुसतग़रक़ हों जैसा कि उस शख़्स की हालत से ज़ाहिर है जो हालत-ए-सेहत से हालत-ए-मरज़ और हालत-ए-मरज़ से हालत-ए-सेहत की तरफ़ रुजूअ’ कर रहा हो और जब उक़्दा खुल जाता है तो नुफ़ूस वजूद-ए-इल्म लदुन्नी का इक़रार और इस अमर से आगाह हो जाते हैं कि वो अव्वल–ए-फ़तरत में आ’लम और आफ़रीनश से बिल्कुल साफ़ थे और जाहिल इसलिए हो गए हैं कि इस कसीफ़ जिस्म की सोहबत और गंदे और तारीक मकान में मुक़ीम होने की वजह से मरीज़ हो गए हैं और ता'लीम के ज़रीये मा'दूम इल्म को पाने और मफ़क़ूदुल-अक़्ल को पैदा करने के ख़्वाहाँ नहीं हैं बल्कि वो असली फ़ित्री इल्म को दुबारा हासिल करने और मरज़ के इर्तिफ़ा’ के लिए जिस्म की ज़ीनत और उस के क़ायदा-ओ-असास को मुंतज़िम करते हैं।जब बाप अपने बच्चे से मोहब्बत-ओ-शफ़क़त करता है तो उस की इस दर्जा रियाइत और फ़िक्र करता है कि जमीअ’-ए-उमूर को सिपुर्द-ए-निस्याँ कर देता है और सिर्फ़ बच्चे ही के ख़्याल में मशग़ूल रहता है।नफ़्स भी शिद्दत-ए-शफ़क़त-ओ-मोहब्बत से इस हैकल की तरफ़ मुतवज्जिह होता है ।उस की तामीर-ओ-रियाइत और उस की बहबूद-ओ-मस्लिहत की फ़िक्र करता है और अपने ज़ो’फ़-ओ-क़नाअ’त के बाइस ग़रीक़-ए-बहर-ए-तबीअ’त हो जाते हैं।इसलिए उम्र-भर ता’लीम की ज़रूरत पड़ती है ताकि जो कुछ फ़रामोश हुआ वो याद आ जाए।और गुम-शुदा चीज़ हाथ आ जाए तअ’ल्लुम इसी चीज़ का नाम है कि नफ़्स अपने जौहर की तरफ़ रुजूअ’ करे और मा’फी-ज़मीर को क़ुव्वत से फे़’ल की तरफ़ लाया जाए ताकि नफ़्स की सआ’दत-ओ-तकमील हासिल हो जाए*
जब नुफ़ूस ज़ईफ़ होते हैं और अपने जौहर की तरफ़ राह-याब नहीं हो सकते तो एक मेहरबान आ’लिम उस्ताद से तमस्सुक-ओ-ए’तिसाम की इल्तिजा करते हैं और उस के सामने दरख़्वास्त करते हैं कि वो उनको मंज़िल-ए-मक़्सूद पर पहुंचने में इआ’नत-ओ-इमदाद करे।जिस तरह एक मरीज़ जो अपने ईलाज से ना-वाक़िफ़ होता है लेकिन ये समझता है कि सेहत अच्छी चीज़ होती है मेहरबान तबीब की तरफ़ रुजूअ’ करता है और उस के रूबरू अपना हाल बयान करता है और अपने ईलाज के लिए उस पर भरोसा करता है।*
बा’ज़-औक़ात ऐसा देखने में आया है कि जब एक आ’लिम को सर या सीने की बीमारी लाहिक़ हो जाती है तो उस का नफ़्स जमीअ’-ए-उलूम से ऐ’राज़ कर लेता है।अपने मा’लूमात को फ़रामोश कर देता है और उम्र-ए-गुज़श्ता में जो कुछ उसने हासिल किया होता है उस के हाफ़िज़े से ग़ायब-ओ-रुपोश हो जाता है।जब उस को शिफ़ा हासिल होती है निस्यान रफ़ा’ हो जाता है। नफ़्स अपने मा’लूमात की तरफ़ रुजूअ’ करता है और अय्याम-ए-मरज़ में जिन बातों को भूल जाता है उनको याद कर लेता है*
मा’लूम हुआ कि उलूम फ़ना नहीं होते फ़रामोश होते हैं।मह्व हो जाने और सिपुर्द-ए-निस्यान हो जाने में ये फ़र्क़ है कि मह्व नुक़ूश-ओ-ख़ुतूत के फ़ना हो जाने और निस्यान इस तरह मुल्तबिस-ओ-मस्तूर हो जाने का नाम है जिस तरह बादल और अब्र के नीचे सूरज की रौशनी देखने वालों से पोशीदा हो जाती है लेकिन सूरज ग़ुरूब नहीं होता क्योंकि इस सूरत में वो ज़मीन के ऊपर से नीचे की तरफ़ मुंतक़िल हो जाता है।इसलिए नफ़्स जौहर-ए-नफ़्स से आ’रिज़ा को दूर करने के लिए मह्व-ए-ता’लीम होता है ताकि इब्तदा-ए-फ़ितरत का सा इल्म और आग़ाज़-ए-तहारत की सी मारिफ़त दुबारा हासिल हो जाए।जब आपको ये मा’लूम हो गया कि तअ’ल्लुम का क्या सबब है और इस से क्या बात मक़्सूद है और नफ़्स और उस के जौहर की हक़ीक़त क्या है तो आपको ये भी मा’लूम करना चाहिए कि बीमार नफ़्स को तअ’ल्लुम और तहसील-ए-उलूम में उम्र बसर करने की एहतियाज होती है लेकिन जिस नफ़्स का मरज़ ख़फ़ीफ़-ओ-ज़ईक़ दिल के पर्दे रक़ीक़ और मिज़ाज दुरुस्त हो उसे ज़्यादा तअ’ल्लुम और तूल-ए-मशक़्क़त-ओ-तअ’ब की ज़रूरत नहीं पड़ती बल्कि उस के लिए अदना नज़र-ओ-तफ़क्कुर काफ़ी है क्योंकि वो अपने अस्ल की तरफ़ रुजूअ’ करता है और अपनी इब्तिदा-ओ-हक़ीक़त से और रुमूज़-ओ-असरार से आगाही हासिल कर लेता है।इसलिए जो कुछ इस में बिल-क़ुव्वा मौजूद होता है वो हालत-ए-फ़े’ली की तरफ़ आ जाता है जो कुछ उस के बातिन में मर्कूज़ होता है वो उस का ज़ेवर-ए-बदन बन जाता है और वो दर्जा-ए-तमाम व तकमील तक पहुंच जाता है और थोड़े से दिनों में अक्सर चीज़ें मा’लूम कर लेता है और हुस्न-ए-अंज़ाम के साथ मा’लूमात की ता’बीर करता है,आलिम-ए-कामिल और साहिब-ए-कलाम हो जाता है और नफ़्स-ए-कुल्ली की तरफ़ तवज्जोह करने से रौशनी हासिल करता है और नफ़्स-ए-जुज़ई की तरफ़ तवज्जोह करता है तो इस को मुस्तफ़ीज़ करता है।तरीक़-ए-इश्क़ से वो अस्ल से मुशाबेह होता है और हसद की रग को काट डालता और कीने और बुग़्ज़ की जड़ को उखाड़ फेंकता है,दुनिया की फ़ुज़ूल बातों और ज़ीनत-ओ-नुमूद से मुँह फेर लेता है और जब इस दर्जे पर पहुंच जाता है तो आलिम बन जाता है और नजात-ओ-कामरानी हासिल कर लेता है। यही तमाम लोगों का मक़्सद-ए-हक़ीक़ी है।*
फ़स्ल इल्म-ए-लदुन्नी की हक़ीक़त और उस के हुसूल के अस्बाब में
नूर-ए-इल्हाम की सरायत का नाम इल्म-ए-लदुन्नी है। ये सरायत उस वक़्त होती है जब नफ़्स का तस्विया मुकम्मल हो जाता है।चुनांचे अल्लाह तआ’ला ने फ़रमाया व नफ़्सिव वमा सव्वाहा (क़सम है नफ़्स की और उस के बराबर होने की)और ये रुजूअ’ तीन तरीक़ पर होता है।एक जमीअ-ए-उलूम को हासिल करने और उनमें से अक्सर से हिस्सा-ए-वाफ़िर लेने से और दूसरे सच्ची रियाज़त और सही मुराक़बा करने से क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस हक़ीक़त की तरफ़ इशारा फ़रमाया है।आपका क़ौल है मन अ’मि-ल बिमा अ’लि-म औ-र-सहुल्लाहुल इल्-म बिमा लम या’लम (जो शख़्स अपने इल्म पर अमल करे अल्लाह तआ’ला उस को वो इल्म अ’ता फ़रमाता है जो उस को हासिल नहीं।*)
नीज़ आँहज़रत ने फ़रमाया मन अख़्ल-स लिल्लाहि अरबई-न सबाहन अज़-ह-रल्लाहु तआ’ला यनाबीअ’ल हिक्म-त मिन क़ल्बिहि अ’ला लिसानिहि (जो शख़्स चालीस रोज़ सुब्ह के वक़्त अल्लाह तआ’ला के साथ तन्हाई इख़्तियार करे अल्लाह तआ’ला उस के दिल से हिक्मत के चश्मे उस की ज़बान पर ज़ाहिर कर देता है)
तीसरे तफ़क्कुर से क्योंकि जब नफ़्स तअ’ल्लुम-ओ-रियाज़त से इल्म हासिल करे और उस के बा’द अपनी मा’लूमात में आदाब-ओ-शराइत को मलहूज़ रखते हुए तफ़क्कुर करे उस पर ग़ैब का दरवाज़ा खुल जाता है।जिस तरह ताजिर अपने माल में तसर्रुफ़ करता है और शराइत-ए- तसर्रुफ़ को बजा लाता है तो उस पर मुनाफ़ा’ का दरवाज़ा खुल जाता है और जब वो राह-ए- ख़ता पर चलता है तो वो ख़ुसरान के हलाकत-आफ़रीं गढ़ों में गिर जाता है।अगर तफ़क्कुर करने वाला भी राह-ए-सवाब पर हो लिया तो ज़ी-अक़्ल लोगों में दाख़िल होजाता है।आल’म-ए-ग़ैब से उस के दिल की जानिब एक खिड़की खुल जाती है और आ’लिम,कामिल,आक़िल और साहिब–ए-इल्हाम-ओ-ताईद हो जाता है।चुनांचे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है एक घड़ी का तफ़क्कुर साठ बरस की इबादत से बेहतर है।तफ़क्कुर के आदाब-ओ-शराइत हम किसी और रिसाले में बयान करेंगे क्योंकि तफ़क्कुर का बयान और उस की कैफ़ियत व हक़ीक़त एक मुब्हम अम्र और ज़्यादा तश्रीह का मुहताज है जो अल्लाह तआ’ला की मदद से आसान हो जाएगी।*
अब हम रिसाले को ख़त्म करते हैं क्योंकि जिन लोगों में सलाहियत व अहलियत है उनके लिए ये कलिमात काफ़ी हैं।व मन लम यज्अलिल्लाहु लहु नूरन फ़मा लहु मिन नूरिन (जिसको अल्लाह तआ’ला ही रौशनी ना दे उस को रौशनी क्योंकर हासिल हो) और अल्लाह तआ’ला मोमिनीन का दोस्त-ओ-मददगार है और उसी पर भरोसा है और हमारे सरदार मुहम्मद और उनकी आल-ओ-असहाब पर दुरूद-ओ-सलाम हो अल्लाह तआ’ला हमारे लिए काफ़ी है और बहुत अच्छा कार-साज़ है।बदी से परहेज़ और अ’मल-ए-सालिह का इक़्दाम बजुज़ ख़ुदा-ए-बुज़ुर्ग-ओ-बरतर की तौफ़ीक़ के मुमकिन नहीं है।हर आन और हर घड़ी मेरा भरोसा उसी की ज़ात-ए-आ'ला सिफ़ात पर है। वलहमदु लिल्लाही रब्बिल आ’लमीन।
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