मंज़िल
(निर्दिष्ट स्थान; पड़ाव) ׃तसव्वुफ़ के मार्ग में सूफ़ियों को विभिन्न आध्यात्मिक स्थानों को पार करना पड़ता है. ये ही स्थान तसव्वूफ़ की अनेक मंज़िलें अथवा मक़ाम कहलाते हैं. कई सूफ़ी-साधक परमात्मा तक पहुँचने की सात मंज़िलें मानते हैं, कई चार और कई बारह मानते हैं. परंतु इस बात में सभी एक मत हैं कि प्रत्येक मंज़िल की विशिष्टताओं और गुणों को प्राप्त किए बिना दूसरी मंज़िल पर जाना संभव नहीं. साधक इन मंज़िलों को अपनी साधना के द्वारा तो तय करता ही है, फिर भी जब तक ईश्वरीय कृपा नहीं होती, उसका मार्ग पर अग्रसर होना असंभव है. ‘अत्तार’ ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ-रत्न में (मंतिक-उत-तैर ) में सात मंज़िलों का उल्लेख किया हैः-
खोज, प्रेम, ज्ञान, विच्छेद, सायुज्य, विस्मय एवं आत्मलय.
चार मंज़िलों (अवस्थाओं) को मानने वाले सभी सूफ़ी ‘नासूत’ को प्रथम श्रेणी बताते हैं. दूसरी मंज़िल फ़रिश्तों की अवस्था है, जिसे ‘मलकूत’ या ‘देवलोक’ कहते हैं इसके लिए तरीक़त के पथ पर चलना होता है. तीसरी मंज़िल ऐश्वर्य की है जिसके लिए मारिफ़त की आवश्यकता होती है, जिसे आलम-ए-जबरूत कहते हैं.चौथी मंज़िल फ़ना की है जिस में साधक ईश्वर में लीन हो जाता है. इसके लिए ‘हक़ीक़त’ की अवस्था बताई गई है.
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