क़मर पर अशआर
क़मर/चांदः क़मर, चांद,
माह, महताब वग़ैरा हम-मा’नी अल्फ़ाज़ हैं। इनका इस्ति’माल इस्तिआ’रा के तौर पर महबूब के लिए होता है।महबूब-ए-हक़ीक़ी के जलाल में तुंदी, तेज़ी और तपिश होती है लेकिन इसके जमाल में ख़ुनकी और नर्मी होती है।रौशन चीज़ों से मुराद ज़ुहूर-ए-जमाल होता है।
अभी क्या है ‘क़मर’ उन की ज़रा नज़रें तो फिरने दो
ज़मीं ना-मेहरबाँ होगी फ़लक ना-मेहरबाँ होगा
ये बहुत अच्छा हुआ आएँगे वो पहले पहर
चांदनी भी ख़त्म जब तक ऐ ‘क़मर’ हो जाएगी
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere