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Sadhu Nishchaldas

Sadhu Nishchaldas

Kavitaa 1

 

Saakhi 4

अंतर बाहिर एकरस, जो चेतन भर पूर।

बिभु नभ सम सो ब्रह्म है, नहिं नेरे नहिं दूर।।

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ब्रह्मरूप अहि ब्रह्मवित, ताकी बानी बेद।

भाषा अथवा संस्कृत, करत भेद भ्रम छेद।।

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भ्रमन करत ज्यूं पवन तैं, सूको पीपर पात।

शेष कर्म प्रारब्ध तै, क्रिया करत दरसात।।

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सत्यबंध की ज्ञान तैं, नहीं निवृत्ति सयुक्त।

नित्य कर्म संतत करैं, भयो चहै जो मुक्त ।।

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