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पैकर-ए-सब्र-ओ-रज़ा “सय्यद शाह मोहम्मद यूसुफ़ बल्ख़ी फ़िरदौसी”

अब्सार बल्ख़ी

पैकर-ए-सब्र-ओ-रज़ा “सय्यद शाह मोहम्मद यूसुफ़ बल्ख़ी फ़िरदौसी”

अब्सार बल्ख़ी

MORE BYअब्सार बल्ख़ी

    “बल्ख़” अफ़्ग़ानिस्तान का छोटा सा क़स्बा है। मुवर्रिख़ीन के मुताबिक़ ये सिकंदर-ए-आ’ज़म से पहले से आबाद था। उसका क़दीम नाम “बाख़्तर” है। सिकंदर-ए-आ’ज़म की मलिका भी इसी शहर-ए-बल्ख़ की रहने वाली थी। कहा जाता है कि 56 हिज्री से क़ब्ल ही यहाँ मुसलमानों की आमद हो चुकी थी। बल्ख़ का एक शाही ख़ानदान जिसका तअ’ल्लुक़ मशहूर सूफ़ी बुज़ुर्ग हज़रत सय्यदना इब्राहीम बिन अदहम से है जो हिज्रत कर के बल्ख़ से हिन्दुस्तान तशरीफ़ लाए। उसी ख़ानवादे के एक बुज़ुर्ग हज़रत सुल्तान शम्सुद्दीन बल्ख़ी हुए जिनसे बल्ख़ियों का वुरूद बिहार में हुआ। आप दरवेशी और फ़लाह-ए-उख़्रवी हासिल करने के लिए हिन्दुस्तान आए और उसके बा’द हज़रत मख़दूम अहमद चर्म-पोश (ख़ाला-ज़ाद भाई हज़रत जहाँ) से बैअ’त हुए। आपके हिन्दुस्तान आने के बा’द आपके तीनों बेटे हज़रत मौलाना मुज़फ़्फ़र शम्स बल्ख़ी, हज़रत मख़दूम मुइ’ज़ बल्ख़ी और छोटे हज़रत क़मरुद्दीन बल्ख़ी भी अपनी वालिदा माजिदा के हम-राह हिन्दुस्तान हिज्रत कर गए। मँझले फ़र्ज़न्द मख़दूम मुइ’ज़ बल्ख़ी ने वालिद के हम-ख़याल हो कर उनके पीर-ओ-मुर्शिद मख़दूम अहमद चर्म-पोश के दस्त-ए-अक़्दस पर बैअ’त हुए। हज़रत मुइ’ज़ बल्ख़ी का इंतिक़ाल मक्का मुकर्रमा में हुआ और मज़ार ख़ातून-ए-जन्नत हज़रत फ़ातिमा ज़हरा अलैहस्सलाम और हज़रत फुज़ैल इब्न-ए-अ’याज़ के मज़ार-ए-मुक़द्दस के क़रीब ही है।(मनाक़िबुल-अस्फ़िया)

    सुल्तान शम्सुद्दीन बल्ख़ी के फ़र्ज़न्द-ए-अकबर हज़रत मौलाना मुज़फ़्फ़र बल्ख़ी की तबीअ’त में ठहराव था और उस ज़माने में हज़रत मख़दूम-ए-जहाँ शैख़ शरफ़ुद्दीन अहमद यहया मनेरी के इ’ल्म-ओ-फ़ज़्ल का शोहरा पूरे हिन्दुस्तान में आ’म था। बड़े-बड़े सूफ़िया-ओ-उ’लमा-ओ-फ़ुज़ला हज़रत मख़दूम-ए-जहाँ की ख़िदमत में नियाज़-मंदी के लिए बिहार शरीफ़ हाज़िर होते। मौलाना मुज़फ़्फ़र बल्ख़ी भी आपकी ख़िदमत में हाज़िर हुए और आपके तबह्हुर-ए-इ’ल्मी से इस क़दर मुतअस्सिर हुए कि आपके मासिवा सब कुछ भूल गए और आपसे बैअ’त हो कर मक़ाम-ए-फ़नाईयत पर फ़ाइज़ हुए। हज़रत मख़दूम-ए-जहाँ भी आपसे बे-इंतिहा मोहब्बत फ़रमाते थे और फ़रमाया करते थे कि-

    “तन मुज़फ़्फ़र जाँ शरफ़ुद्दीन, जाँ मुज़फ़्फ़र तन शरफ़ुद्दीन”

    हज़रत मख़दूम–ए-जहाँ के विसाल के बा’द वसियत के मुताबिक़ तमाम मशाइख़ की मौजूदगी में मौलाना मुज़फ़्फ़र बल्ख़ी हज़रत मख़दूम-ए- जहाँ की सज्जादगी पर फ़ाइज़ हो कर आपके नाएब हुए। मौलाना मुज़फ़्फर बल्ख़ी को कोई औलाद थी इसलिए वो मँझले भाई मख़दूम मुइ’ज़ बल्ख़ी के बेटे हुसैन बिन मुइ’ज़ को ही अपना फ़र्ज़न्द मानते थे और इसलिए मख़दूम हुसैन नौशा तौहीद बल्ख़ी अपने चचा जान मौलाना मुज़फ़्फ़र की ही तर्बियत में रह कर परवान चढ़े और अ’म्म-ए-मोहतरम के इंतिक़ाल के बा’द हज़रत मख़दूम-ए-जहाँ की सज्जादगी पर फ़ाइज़ हुए। हज़रत मख़दूम हुसैन बल्ख़ी नौशा तौहीद (अल-मुतवफ़्फ़ा 844 हिज्री) ने तसव्वुफ़ पर अ’रबी ज़बान में सबसे पहली किताब तस्नीफ़ फ़रमाई जो “हज़रात-ए-ख़म्स” के नाम से मौसूम है जिसको बर्र-ए-सग़ीर हिंद-ओ-पाक में तसव्वुफ़ पर अ’रबी ज़बान में सबसे पहली किताब होने का शरफ़ हासिल है। उस किताब की फ़ारसी शर्ह उनके बड़े फ़र्ज़न्द और जाँनशीन हज़रत मख़दूम जश्न-ए-दाएम (अल-मुतवफ़्फ़ा 855 हिज्री) अज़ महल-ए-ऊला ने “काशिफ़ुल-असरार” के नाम से तहरीर फ़रमाई। हज़रत मख़दूम हुसैन बल्ख़ी नौशा तौहीद ने “अख़लाक़ुन-नबवी-ओ-महासिन-ए-मुस्तफ़वी” के नाम से सीरतुन्नबी सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम पर किताब लिखी जिसको बर्र-ए-सग़ीर हिंद-ओ-पाक में सीरत-ए-पाक पर सबसे पहली किताब होने का दर्जा हासिल है। इस किताब का उर्दू तर्जुमा वालिद-ए-माजिद हज़रत डॉक्टर सय्यद शाह मुज़फ़्फ़रुद्दीन बल्ख़ी फ़िरदौसी मद्दज़िल्लुहु, सज्जादा-नशीन ख़ानक़ाह-ए-बल्ख़िया फ़िरदौसिया, रायपुरा, फ़तुहा ने किया है जिसको पहली बार ख़ुश-ख़त तहरीर में क़लमी मख़तूता की अ’क्सी नक़ल और तख़रीज के साथ ख़ानक़ाह-ए-मुंई’मिया क़मरिया, मीतन घाट, पटना सीटी ने 2019 ई’स्वी में शाए’ किया।

    हज़रत प्रोफ़ेसर सय्यद शाह शमीमुद्दीन अहमद मुंइ’मी (सज्जादा-नशीन ख़ानक़ाह-ए-मुंई’मिया क़मरिया, मीतन घाट) के मुताबिक़ हज़रत मख़दूम हुसैन की 25 से ज़ाइद कुतुब जो कि अब तक दरयाफ़्त हुईं हैं और उनके कुतुब-ख़ाना में महफ़ूज़ हैं।

    दीगर नादिर मख़तूतात भी कुतुब-ख़ाना बल्ख़िया फ़िरदौसिया फ़तूहा में मौजूद हैं जिनमें अक्सर किताबें मख़दूम हुसैन बल्ख़ी और ख़ान-वादा-ए-बल्ख़िया के बुज़ुर्गों की तस्नीफ़ात पर मुश्तमिल हैं। मख़दूम हुसैन की औलाद पूरे हिन्दुस्तान में तब्लीग़-ए-दीन और इशाअ’त-ए-इस्लाम के काम में मश्ग़ूल है। हज़रत सय्यद शाह मोहम्मद यूसुफ़ बल्ख़ी फ़िरदौसी भी उसी सिलसिले की एक क़वी कड़ी हैं जिनका नसब-नामा बराह-ए-रास्त मख़दूम हुसैन से जा मिलता है।

    सय्यद शाह मोहम्मद यूसुफ़ बल्ख़ी, शाह ग़ुलाम मुइ’ज़ बल्ख़ी की बराह-ए-रास्त औलाद हैं जिनका नसब-नामा हज़रत हाफ़िज़ बल्ख़ी से होता हुआ मख़दूम हुसैन बल्ख़ी नौशा तौहीद तक पहुँच जाता है। आपका नसब-नामा मुलाहिज़ा हो।

    मोहम्मद यूसुफ़ बल्ख़ी बिन मोहम्मद या’क़ूब बल्ख़ी बिन ग़ुलाम मुज़फ़्फ़र बल्ख़ी बिन अ’लीमुद्दीन बलख़ी (दोउम) बिन मोहम्मद तक़ी बल्ख़ी बिन ग़ुलाम मुइ’ज़ुद्दीन बल्ख़ी बिन बुर्हानुद्दीन बल्ख़ी बिन अ’लीमुद्दीन बल्ख़ी अव्वल) बिन नूर मोहम्मद बल्ख़ी बिन दीवान दौलत बल्ख़ी बिन मख़दूम फ़रीद बल्ख़ी बिन मख़दूम जीवन बल्ख़ी बिन मख़दूम हाफ़िज़ बल्ख़ी बिन मख़दूम इब्राहीम सुल्तान बल्ख़ी बिन मख़दूम अहमद लंगर दरिया बल्ख़ी बिन मख़दूम हसन जश्न-ए-दाइम बल्ख़ी बिन मख़दूम हुसैन नौशा तौहीद बल्ख़ी।(अज़ मुरत्तब ग़ुलाम मुज़फ़्फ़र बल्ख़ी)

    यूसुफ़ बल्ख़ी की विलादत 4 रबीउ’ल-अव्वल 1311 हिज्री मुताबिक़ 16 सितंबर 1893 ई’स्वी को 11 बजे दिन ब-रोज़-ए-शंबा ब-मक़ाम-ए-फ़तूहा अपने जद्द-ए-मोहतरम हज़रत शाह ग़ुलाम मुज़फ़्फ़र बल्ख़ी फ़िरदौसी अल-मुतवफ़्फ़ा 1324 हिज्री सज्जादा-नशीन ख़ानक़ाह-ए-बल्ख़िया फ़िरदौसिया की हयात में ही हुई। सय्यद अ’ब्दुल हसन (कसमर ज़िला सारन) ने विलादत की अ’रबी में क़ितआ’-ए-तारीख़ निकाली है। मुलाहिज़ा हो।

    शाह या’क़ूब अल्लज़ी अ’ताहु रब्बुल-आ’लमीन

    अहसनुल-मौलूद वूलि-द मिस्ल-ए-नुरिन फ़ौक़-नूर

    क़ा-ल या तीबल-फ़ुवाद हामिदु अ’ब्दुल हसन

    इन्-न तारीख़त्तवल्लुद “जा-अ ने’मज़्ज़ुहूर”

    1311 हिज्री

    (ब्याज़ - ग़ुलाम मुज़फ़्फ़र बल्ख़ी)

    तर्जुमा शाह या’क़ूब को यूसुफ़ बल्ख़ी की शक्ल में परवरदिगार की एक ने’मत अ’ता हुई जिनकी ख़िल्क़त हुस्न के आ’ला मे’यार पर है जैसे नूर-ए-पुर-नूर की चादर हो उस साअ’त-ए-मस्ऊ’द पर अ’ब्दुल-हसन समीम-ए-क़ल्ब से शुक्र-गुज़ार है ख़ुदा का और उसकी ज़बान-ए-तारीख़ बयान यही कह रही है कि यूसुफ़ बल्ख़ी का वुरूद-ए-मस्ऊ’द एक ने’मत का ज़ुहूर है।

    इब्तिदाई ता’लीम घर में अपने वालिद-ए-माजिद सय्यद शाह मोहम्मद या’क़ूब फ़िरदौसी (अल-मुतवफ़्फ़ा 1373 हिज्री) के ज़ेर-ए-साया पाई।आपके दादा मोहतरम हज़रत शाह ग़ुलाम मुज़फ़्फ़र बल्ख़ी फ़िरदौसी (मुतवफ़्फ़ा 1324 हिज्री) की शख़्सियत मज्मउ’ल-बहरैन थी जिनके अंदर अपने अज्दाद का रंग साफ़ नज़र आता था।तबीअ’त में इतनी नफ़ासत थी कि जिसकी मिसाल मुश्किल है। आ’जिज़ी और इन्किसारी इतनी कि हमेशा लोगों से मिलने-जुलने में ख़ुद पहल करते। अव्वल से आख़िर तक सारी ज़िंदगी इस तरह गोशा-ए-तन्हाई-ओ-ख़ुद-फ़रामोशी में गुज़ार दी।(ख़ुद-नविश्त हालात-ए-ख़ानदानी अज़ शाह तक़ी हसन बल्ख़ी)

    इब्तिदाई ता’लीम हासिल करने के बा’द यूसुफ़ बल्ख़ी सिन्न-ए-शुऊ’र को पहूँचे तो अपने आबाई सिलसिला फ़िरदौसिया में अ’म्म-ए-मोहतरम हज़रत सय्यद शाह ग़ुलाम शरफ़ुद्दीन बल्ख़ी फ़िरदौसी उ’र्फ़ शाह दरगाही अल-मुतवफ़्फ़ा 1356 हिज्री सज्जादा-नशीन ख़ानक़ाह-ए-बल्ख़िया फ़िरदौसिया से बैअ’त हुए। शाह ग़ुलाम शरफ़ुद्दीन बल्ख़ी की ज़ात-ए-वाला तआ’रुफ़ की मोहताज नहीं।1915 ई’स्वी में आपकी इ’ल्मी लियाक़त और मुख़्तलिफ़ ख़िदमात को देखते हुए अंग्रेज़ी हुकूमत ने आपको ‘शम्सुल-उ’लमा’ के ख़िताब से नवाज़ा लेकिन आपने उस ख़िताब को दीनी वुजूह से वापस कर दिया।आपके तअ’ल्लुक़ात का दाइरा बहुत वसीअ’ था। सर-बर-आवर्दा लोग आपसे मिलने के लिए आते थे।चुनाँचे सर अ’ली इमाम,वाएसरा-ए-हिंद भी आपके मुहिब्बीन में से थे। शाह ग़ुलाम शरफ़ुद्दीन बल्ख़ी जो यूसुफ़ बल्ख़ी के बड़े चचा और पीर-ओ-मुर्शिद थे वो आपसे बे-इंतिहा मोहब्बत करते थे और आप भी अपने पीर-ओ-मुर्शिद के हर हुक्म पर लब्बैक कहते।बचपन से ही अंग्रेज़ी ज़बान सीखने का शौक़ इस क़दर था कि घर वालों की नाराज़गी के बावजूद इस ज़बान को सीखना छोड़ा था। उस ज़माने में हिन्दुस्तान की आज़ादी की तहरीक ज़ोरों पर थी इसलिए मुसलमान अंग्रेज़ों की ज़बान अंग्रेज़ी सीखना कुफ़्र समझते थे। सर सय्यद ख़ान (अल-मुतवफ़्फ़ा 1898 ई’स्वी) की ही वाहिद शख़्सियत थी जिन्हों ने मुसलमानों को ये समझाने की कोशिश की कि अंग्रेज़ी की ता’लीम मुसलमानों के लिए मुज़िर्र नहीं बल्कि सूद-मंद है क्यूँकि उसमें मुख़्तलिफ़ उ’लूम पोशीदा हैं इसलिए इस ज़बान को सीखने से मुसलमानों के हालात बिल्कुल बदल जाएंगे। सर सय्यद अहमद ख़ान की इस बात को उनकी काफ़ी कोशिशों के बा’द क़ुबूल किया गया और यही वजह है उनका अ’क़ीदा कुछ भी हो मगर एक बात तो सच है कि उनके ख़्वाब का अ’मली जामा जिसकी पहली सीढ़ी अंग्रेज़ी ज़बान रही आज मुस्लिम यूनीवर्सिटी अ’लीगढ़ के नाम से क़ाएम है, जहाँ से हर साल हज़ारों मुस्लिम नव-जवान फ़ारिग़ हो कर निकलते हैं। यूसुफ़ बल्ख़ी भी इसी तहरीक-ए-अ’लीगढ़ से मुतअस्सिर हो कर अंग्रेज़ी ज़बान की तरफ़ राग़िब हुए।उन्होंने सर सय्यद अहमद ख़ान के इस अ’ज़ीम पैग़ाम को बचपन में ही समझ लिया था। फ़तूहा स्कूल में इब्तिदाई ता’लीम हासिल करने के बा’द आप इटावा हाई स्कूल में अपने नाना-जान सय्यद शाह अ’ब्दुल-वहीद मुहीउद्दीन-पुरी की दरख़्वास्त पर दाख़िल हुए और वहीं से मैट्रिक का इम्तिहान अच्छे नंबरात के साथ पास किया। आपके नाना मौलाना शाह अ’ब्दुल वहीद एक सूफ़ी सिफ़त इन्सान और बड़े आ’लिम थे। फ़िक़्ह, तफ़्सीर और हदीस में कमाल रखते थे।उनके पीर-ओ-मुर्शिद हज़रत सय्यद शाह फ़ज़्लुल्लाह क़ादरी बा-कमाल सूफ़ी गुज़रे हैं जिनका शुमार सूफ़िया-ए-किबार में होता है शाह फ़ज़्लुल्लाह क़ादरी के ख़ास मुरीद-ओ-ख़लीफ़ा हैं। तज़्किरा-ए-औलिया-ए-हिंद, हैदराबाद, जिल्द 4,सफ़हा 20)

    सय्यद शाह फ़ज़्लुल्लाह क़ादरी की मोहब्बत शाह अ’ब्दुल वहीद पर इस क़द्र ग़ालिब थी कि अपने आबाई वतन मुहीउद्दीन-पुर क़रीब अज़ फतूहा को भी छोड़ दिया लेकिन ख़ानदान की ज़रूरत के तहत आना जाना करते रहे।शाह अ’ब्दुल-वहीद की शादी बीबी अमतू बिंत-ए-शाह अमीरुल-हसन मुंइ’मी से हुई जो कि हज़रत शाह मोहम्मद तक़ी बल्ख़ी फ़िरदौसी (अल-मुतवफ़्फ़ा 1255 हिज्री)की अपनी नवासी थीं। आप काफ़ी अच्छा इ’ल्मी ज़ौक़ रखते थे। फ़िलहाल आपकी पाँच तस्नीफ़ात का पता चलता है जिसका ज़िक्र यक्ता में भी मौजूद है।

    मीलाद-ए-अ’ली शेर-ए-ख़ुदा (मत्बूआ’),हाल-ए-शहादत हज़रत मौला-ए-कायनात मत्बूआ’),सवानिह-उ’मरी हज़रत सय्यद शाह फ़ज़्लुल्लाह क़ादरी, मतबूआ’), हयात-ए-मुहीउद्दीनपुर सन-ए-किताबत 1283 हिज्री), रिसाला-ए-मज़हर क़ादरिया हालात-ए-शैख़ अ’ब्दुल-क़ादिर जीलानी)सन-ए-किताबत 1281 हिज्री)

    आपकी दुख़्तर बीबी रऊफ़न ज़ौजा शाह मोहम्मद या’क़ूब बल्ख़ी हुईं। शाह अ’ब्दुल-वहीद मुहीउद्दीनपुरी का इंतिक़ाल हैदराबाद में ही हुआ।मज़ार मूसा नदी के क़रीब अपने पीर-ओ-मुर्शिद के बग़ल में है जहाँ ज़ाइरीन और अ’क़ीद-तमंद ब-हुसूल-ए-फ़ैज़ कसीर ता’दाद में जाया करते हैं। यूसुफ़ बल्ख़ी फ़िरदौसी भी हर साल अपने नाना-जान शाह अ’ब्दुल वहीद के मज़ार पर क़ुल और फ़ातिहा पढ़ने जाया करते थे। यूसुफ़ बल्ख़ी की वालिदा बीबी रऊफ़न भी एक पारसा औ’रत और सौम-ओ-सलात और औराद–ओ-वज़ाइफ़ की बहुत पाबंद थीं। यही वजह है कि आप बचपन में माँ की आग़ोश-ए-तर्बियत में पल कर जवान हुए।औलाद की कामयाबी के पीछे माँ का बड़ा किर्दार होता है। इसलिए हदीस-ए-पाक में हज़रत सरकार-ए-दो-आ’लम सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्ललम ने माँ के दर्जा को बाप से तीन गुना बुलंद फ़रमाया है।ये माँ ही की तर्बियत का नतीजा था कि आपने मुश्किल से मुश्किल हालात में भी सब्र का दामन छोड़ा।कभी किसी चीज़ पर आपको ग़ुस्सा आने लगता तो फौरन हंस कर टाल देते और नाराज़ होते। आपकी दो बहनों की शादी एक बीबी राबिआ’ ज़ौजा सय्यद मुस्लिहुद्दीन बल्ख़ी और दूसरी हाजरा ज़ौजा हज़रत हकीम शाह तक़ी हसन बल्ख़ी फ़िरदौसी (सज्जादा-नशीन, ख़ानक़ाह-ए-बल्ख़िया फ़िरदौसिया, फ़तूहा)से हुई। यूसुफ़ बल्ख़ी अपनी तीनों बहनों से बे-इंतिहा प्यार करते थे और ख़ुसूसन अपनी छोटी बहन बीबी हाजरा बिंत-ए-शाह मोहम्मद या’क़ूब बल्ख़ी फ़िरदौसी को प्यार से “हजू” कहते। आप और दोनों बहनों की बचपन की एक यादगार तस्वीर ख़ानक़ाह-ए-बल्ख़िया फ़िरदौसिया के कुतुब-ख़ाना में महफ़ूज़ है। बचपन में आप अपनी दोनों बहन राबिआ’ और हाजरा के साथ अपने ननिहाल मुहीउद्दीनपुर जाया करते थे। आपके वालिद माजिद सय्यद शाह मोहम्मद या’क़ूब बल्ख़ी फ़िरदौसी (मुतवफ़्फ़ा 1373 हिज्री) का शुमार अपने वक़्त के साहिब-ए-क़लम में हुआ करता था।आपके जद्द-ए-अमजद हज़रत मौलाना सय्यद शाह अ’लीमुद्दीन बल्ख़ी फ़िरदौसी मुंइ’मी के विसाल फ़रमाने के साल बा’द 1288 हिज्री को फ़तूहा में हुई। आपके वालिद माजिद हज़रत सय्यद शाह ग़ुलाम मुज़फ़्फ़र बल्ख़ी फ़िरदौसी ख़ुद यक्ता-ए-ज़माना थे जिनकी शादी बीबी कुल्सूम बिंत-ए-हकीम सय्यद शाह इब्राहीम बल्ख़ी (सल्मा) से हुई जिनसे चार बेटे और चार बेटियाँ हुईं।जिनमें बड़े सय्यद शाह ग़ुलाम शरफ़ुद्दीन बल्ख़ी फ़िरदौसी और दूसरे सय्यद शाह मोहम्मद या’क़ूब बल्ख़ी फ़िरदौसी, तीसरे शाह आल-ए-अहमद बल्ख़ी फ़िरदौसी (अल-मुतवफ़्फ़ा 1375 हिज्री) और आख़िरी सय्यद आल-ए-हसन बल्ख़ी का इंतिक़ाल जवानी में ही हो चुका था। शाह मोहम्मद या’क़ूब बल्ख़ी फ़िरदौसी के तअ’ल्लुक़ात इस क़द्र वसीअ’ थे कि सर-कर्दा लोग आपसे मिलने के लिए आते थे जिसमें शौक़ नीमवी, प्रोफ़ेसर अ’ब्दुल-ग़फ़ूर शहबाज़ शामिल हैं। अ’ब्दुल-ग़फ़ूर शहबाज़ से हमेशा ही आपकी ख़त-ओ-किताबत का सिलसिला जारी रहा। मुवर्रिख़ीन 27 अगस्त 1897 ई’स्वी का ख़त भी उसी की एक मज़बूत कड़ी थी जिसको शहबाज़ ने ब-नाम शाह मोहम्मद या’क़ूब बल्ख़ी लिखा था ये ख़त इदारा तहक़ीक़ात-ए-उर्दू की नुमाइश 1959 ई’स्वी में भी लगाया गया था। दाग़ देहलवी और शाद अ’ज़ीमाबादी से भी आपके अच्छे मरासिम थे। किताबों का आ’ला शौक़ रखते थे। मल्फ़ूज़ातुत्तसफ़िया और रिसालतुस्सिमाअ’ आपके दस्त-ए-ख़ास का लिखा हुआ ख़ानक़ाह-ए-बल्ख़िया फ़िरदौसिया के कुतुब-ख़ाना में मौजूद है। ब-सफ़र-ए-हैदराबाद आपकी कई मुलाक़ातें दाग़ के साथ हुईं और दाग़ ने आपके शे’री ज़ौक़ की ता’रीफ़ की। सर अ’ली इमाम आपसे मुलाक़ात को बराबर फ़तूहा आया करते थे। ख़त्ताती के अ’लावा फ़ारसी ज़बान में इस क़द्र उ’बूर हासिल था कि फ़ारसी के मुश्किल से मुश्किल अश्आ’र की तश्रीह ब-आसानी कर देते। मोमिन और ग़ालिब की शाइ’री को बहुत पसंद फ़रमाते। उन्हें सा’दी के अश्आ’र से भी काफ़ी लगाव था। हज़रत मौला अ’ली कर्रमल्लाहि वज्हहु से वालिहाना लगाव था जिसका अंदाज़ा शैख़ सा’दी के अश्आ’र के इस शे’र से होता है जो उनकी ज़बान पर हमेशा रहता था।

    ब-फ़र्दा चू पुर्सद ख़ुदा-ए-करीमा

    ब-हुब्ब-ए-किह बुर्दी बसर ज़िंदगी रा

    किह मौला तू बूद-ओ-किह रा बंदः बूदी

    ब-गोयम अ’ली बाज़ गोयम अ’ली रा

    आपकी पहली शादी 19 रजब 1306 हिज्री, पीर बग्घा के एक मुअ’ज़्ज़ज़ ख़ानदान शाह मोहम्मद बाक़र की बेटी के साथ हुई मगर अफ़्सोस कि 3 साल ही गुज़रे थे कि आपकी पहली अहलिया बिंत-ए-शाह मोहम्मद बाक़र का इंतिक़ाल हो गया और वो इस दार-ए-फ़ानी से रुख़्सत हो गईं। ग़मों का पहाड़ आप पर टूट पड़ा ।उस पर भी आपने सब्र-ओ-तहम्मुल का दामन छोड़ा लेकिन ख़ानदान के इसरार पर आपने दूसरी शादी 21 रमज़ान 1309 हिज्री को शाह अ’ब्दुल वहीद मुहीउद्दीनपुरी की बेटी बीबी रउफ़न से की जिनसे सय्यद शाह मोहम्मद यूसुफ़ बल्ख़ी ज़ौजा बीबी मुबारक बिंत-ए-सय्यद शाह हसनैन बल्ख़ी और दो बेटियाँ बीबी राबिआ’ मंसूब मुस्लिहुद्दीन बल्ख़ी उ’र्फ़ अहमद बल्ख़ी बिंत-ए-मौलवी क़मरुद्दीन बल्ख़ी मुख़्तार और बीबी हाजरा (मंसूब शाह तक़ी हसन बल्ख़ी) हुईं। आपका इंतिक़ाल आ’लम गंज में अपने बिरादर-ज़ादा अ’ब्दुल-हफ़ीज़ बल्ख़ी बिन शाह ग़ुलाम शरफ़ुद्दीन बल्ख़ी के घर में 27 ज़िल-हिज्जा 1373 हिज्री मुताबिक़ 7 दिसंबर 1953 ई’स्वी को हुआ और तद्फ़ीन बा’द नमाज़-ए-मग़रिब अपने आबाई क़ब्रिस्तान फ़तूहा में अपनी बेटी बीबी हाजरा के बग़ल में हुई। बचपन ही से यूसुफ़ बल्ख़ी बहुत होनहार थे ।उनकी बड़ी बेटी क़मरुन्निसा बल्ख़ी फ़िरदौसी अपने वालिद-ए-माजिद का ज़िक्र करते हुए फ़रमाती हैं कि-

    “मेरे वालिद माजिद रहमतुल्लाहि अ’लैहि दुबले-पुतले और लंबे थे। लिबास में पाजामा-कुर्ता और टोपी पहना करते। मेहमान-नवाज़ी का बड़ा शौक़ था इसलिए अगर कोई दोस्त मज़ाक़ से भी ये कह देता कि भाई यूसुफ़ रहमानिया होटल सब्ज़ी बाग़ गए हुए कई दिन हो गए तो अब्बा जान मोहतरम उसे फौरन कहते जल्दी चलो जल्दी चलो मैं तुम्हें रहमानिया होटल ले जाता हूँ। तहज्जुद और चाश्त की इतनी पाबंदी थी कि कुछ भी हो जाए मगर तहज्जुद नहीं छोड़ते थे। अंग्रेज़ी और फ़ारसी में काफ़ी महारत हासिल थी। फ़ारसी और अंग्रेज़ी में घंटों बातें किया करते थे जिसमें उनके अंग्रेज़ी दोस्त होते जिनसे वो बिला झिझक अंग्रेज़ी में बातें किया करते थे। शे’र-ओ-शाइ’री से भी काफ़ी शग़्फ़ था। हमारी ख़ानक़ाह की मजालिस में अब्बा जान को इतना हाल-क़ाल आता कि बे-हाल हो जाते और कभी-कभी तो ज़मीन पर गिर पड़ते और बे-होश हो जाते और बाद में लोग कंधा देकर उठाते। आपकी वालिदा या’नी मेरी दादी बीबी रऊफ़न बिंत-ए-शाह अ’ब्दुल वहीद वालिद माजिद को बहुत मानती थीं। अक्सर बचपन में आप अपनी दोनों बेटियों राबिआ’ और हाजरा के हमराह अपने घर मुहीउद्दीनपुर चली जाती। मेरे वालिद की तबीअ’त में बहुत नफ़ासत थी ।पाकी और सफ़ाई का बहुत ख़याल था कि आख़िरी दम तक बाक़ी रहा। मुश्किल से मुश्किल हालात में सब्र का दामन हाथ से नहीं छोड़ते। मेरे बड़े दादा सय्यद शाह ग़ुलाम शरफ़ुद्दीन बल्ख़ी फ़िरदौसी से सिलसिला-ए-फ़िरदौसिया में मुरीद थे।उनका इस क़द्र एहतिराम करते जिसकी मिसाल नहीं ।ख़ानदानी बुज़ुर्गान से ख़ास्सा लगाव था। हमेशा फ़ातिहा पढ़ने खजूरिया दरगाह, छोटी लाईन जाते थे ।इसके अ’लावा आपको हज़रत मख़दूम-ए-जहाँ शैख़ शरफ़ुद्दीन अहमद यहया मनेरी की ज़ात से बे-पनाह मोहब्बत थी।

    शाह यूसुफ़ बल्ख़ी बच्चों पर बहुत शफ़ीक़ थे और उनसे काफ़ी मोहब्बत भी किया करते थे। बातों ही बातों में ही बच्चों की इस्लाह फ़रमा देते थे और हमेशा इस कोशिश में रहते थे कि मुस्लिम मुआ’शरे के लिए उनको सूद-मंद कैसे बनाया जाए। फ़ारसी ज़बान पर आपको इस क़द्र महारत थी कि ब-ग़ैर रोक-टोक घंटों फ़ारसी में बातें करते। इस वजह से आपके चचा डॉक्टर वहीद बल्ख़ी के तमाम बेटे बेटियाँ आप से फ़ारसी पढ़ने के लिए आतीं। पढ़ाने में आपका तरीक़ा बहुत सहल होता था जिससे बच्चों को आसानी से बात समझ में जाती थी।इसके साथ ही उनको अश्आ’र भी याद करवाते और सबक़ को बार-बार पढ़वाते ताकि याद हो जाए। फ़ारसी ख़ुतूत-नवीसी का भी बहुत शौक़ था। सद्क़ा-ओ-ख़ैरात का ये आ’लम था कि बस ज़रूरत की ही चीज़ घर में रहा करती थी बाक़ी मोहताजों और मिस्कीनों को दे देते थे। आपकी दो बहनें थीं।बीबी राबिआ’ और बीबी हाजरा। बीबी हाजरा की शादी आपके अपने चचा-ज़ाद भाई हकीम शाह तक़ी हसन बल्ख़ी से हुई थी जिनसे दादा जान हकीम सय्यद शाह अ’लीमुद्दीन और कई बेटियाँ हुईं जिनमें से सिर्फ़ दो बीबी अनीसा और बीबी वहीदा ज़िंदा रहीं। शाह यूसुफ़ बल्ख़ी अपने भांजे हकीम सय्यद शाह अ’लीमुद्दीन बल्ख़ी से बे-पनाह मोहब्बत करते थे।उनकी बचपन में तर्बियत मामूँ जान के हाथों इस तरह हुई कि जब वो स्कूल पढ़ाने के लिए जाते तो साथ अपने भांजे अ’लीमुद्दीन बल्ख़ी को भी लिए जाते और बच्चियों के साथ वो भी पढ़ते।एक दफ़आ’ दादा-जान हकीम शाह अ’लीमुद्दीन बल्ख़ी को उनकी वालिदा बीबी हाजरा ने किसी वजह से बहुत डाँटा तो आप फ़रमाने लगे कि हजू (हाजरा),आ’लू(अ’लीमुद्दीन) को डाँटा करो तकलीफ़ होती है। उस वक़्त दादा जान की उ’म्र कम-सिनी की ।थी आप बा-ज़ाब्ता शाइ’र नहीं थे लेकिन उर्दू-ओ-फ़ारसी के शो’रा के अश्आ’र से भी आपको काफ़ी शग़फ़ था। इसी वजह से कभी-कभी शाइ’री भी कर लिया करते थे ।अफ़्सोस उनकी वो शाइ’री अब महफ़ूज़ नहीं। आप शाइ’री में यूसुफ़ तख़ल्लुस किया करते थे। शे’र मुलाहिज़ा हो।

    दो तूल अश्आ’र को अपने यूसुफ़

    कि ज़्यादा मुनासिब नहीं दाद-ख़्वाही

    आवाज़ में इस क़द्र ख़ानदानी तरन्नुम था कि जो आपकी आवाज़ सुन लेता आपकी जानिब मुतवज्जिह हो जाता।जिस स्कूल (फ़तूहा) में आप पढ़ाते थे वहाँ बच्चों से ग़ज़ल मुतरन्निम आवाज़ में पढ़वा कर मश्क़ करवाते थे जिसमें मेरे दादा-जान भी शामिल थे। तसव्वुफ़ से इस क़द्र गहरा लगाव था कि इसके लिए अक्सर बुज़ुर्गों के मज़ारात पर जाया करते जो कि छोटी लाईन फ़तूहा स्टेशन के पास वाक़े’ है। आपके जद्द-ए-आ’ला हज़रत शाह ग़ुलाम मुइ’ज़ बल्ख़ी भी वहीं मद्फ़ून हैं। आपकी परदादी हज़रत मौलाना हसन रज़ा रायपुरी(जाँनशीन, हज़रत मख़दूम मुंइ’म-ए-पाक) की अपनी पोती थीं जिनका ख़ानदान खजुरिया दरगाह में मद्फ़ून है।कभी-कभी तो आप टहलते हुए ही खजुरिया चले जाते और कभी-कभी अपने चचा-ज़ाद भाईयों को साथ ले जाते।

    सय्यद शाह यूसुफ़ बल्ख़ी फ़िरदौसी की पहली शादी 12 अप्रैल 1919 ई’स्वी को सय्यद शाह ग़ुलाम हसनैन बल्ख़ी उ’र्फ़ गुल्लू बिन अ’बुल हसन बल्ख़ी की बड़ी बेटी सालिहा ख़ातून से हुई। इस वाक़िआ’ की रूदाद आपके बड़े चचा जान मोहतरम शाह ग़ुलाम शरफ़ुद्दीन बल्ख़ी ने अपनी डायरी में तफ़्सील से लिखा है। अभी शादी को एक साल भी हुआ था कि ज़ौजा बीबी सालिहा ख़ातून का इंतिक़ाल हो गया।तद्फ़ीन फ़तूहा क़ब्रिस्तान में हुई।उनकी एक बेटी भी हुई थी जो बा’द में फ़ौत हो गई।

    दूसरी शादी शाह ग़ुलाम हसनैन बल्ख़ी की दूसरी बेटी मुबारक ख़ातून से हुई। मुबारक ख़ातून एक ख़ुश-खुल्क़ और पारसा औ’रत थीं।आप बहुत कम सुख़न औ’रत थीं और ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ के जज़्बा को हमेशा साथ रखती थीं ।अपने शौहर की ख़िदमत आख़िरी वक़्त तक करती रहीं।

    शाह ग़ुलाम हसनैन बल्ख़ी फ़िरदौसी की सबसे छोटी साहिब-ज़ादी बीबी मैमूना की शादी हज़रत शाह अकबर दानापुरी के पोते हज़रत मौलाना सय्यद शाह ज़फ़र सज्जाद अबुल-उ’लाई दानापुरी (सज्जादा-नशीन ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया,शाह टोली, दानापुर)से हुई। इस ऐ’तबार से शाह ज़फ़र सज्जाद और शाह मोहम्मद यूसुफ़ बल्ख़ी हम-ज़ुलफ़ हुए।

    हज़रत शाह ज़फ़र सज्जाद दानापुरी, हज़रत शाह अकबर दानापुरी के पोते और हज़रत अकबर की ख़ानक़ाह (ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया,शाह टोली,दानापुर)के सज्जादा नशीन भी थे। अपने ज़माने में यक्ता-ए-रोज़गार शख़्सियत के मालिक थे। आपके अख़्लाक़-ओ-किर्दार का ये आ’लम था कि कोई एक-बार आपसे मिलता तो आपकी तरफ़ राग़िब हो जाता। बड़े आ’लिम, फ़ाज़िल और एक बे-ज़रर सूफ़ी थे। हर कस-ओ-ना-कस के मूनिस और क़ौम-ओ-मिल्लत के लिए हर वक़्त तैयार खड़े रहते थे। आपकी जद्द-ओ-जिहद से एक बड़ा तब्क़ा रूहानियत की जानिब माएल हुआ। ख़ानदान के हर छोटे बड़े अफ़राद से बड़ी ख़ुशनुदी से मुलाक़ात करना उन्हें याद रखना ये आपकी ख़ुसूसियात का एक हिस्सा था। आपका मा’मूल था कि हर साल ख़ानक़ाह-ए-बल्ख़िया फ़िरदौसिया फ़तूहा के उ’र्स में पाबंदी के साथ शरीक होते और महफ़िल-ए- समाअ’ में इस क़द्र हाल करते कि बयान से बाहर है। शाह ज़फ़र सज्जाद शाह यूसुफ़ बल्ख़ी से बे-पनाह मोहब्बत करते थे।दोनों में ख़त-ओ-किताबत भी बराबर हुआ करती। यूसुफ़ बल्ख़ी शाह ज़फ़र सज्जाद के वालिद-ए-माजिद हज़रत शाह मोहसिन दानापुरी से बे-हद मुतअस्सिर थे और हमेशा उनकी सोहबत में बैठा करते थे।बा’ज़ ख़ुतूत शाह मोहसिन दानापुरी से भी मिलते हैं। यूसुफ़ बल्ख़ी की ख़्वाहिश पर शाह मोहसिन दानापुरी ने ‘बुरहानुल-आ’शिक़ीन’ नामी एक किताब भी तस्नीफ़ की थी जो 1350 हिज्री में पटना से शाए’ हुई थी।

    हज़रत शाह मोहसिन दानापुरी का यूसुफ़ बल्ख़ी के नाम एक ख़त मुलाहिज़ा हो।

    “अज़ीज़-ए-वली सई’द-ए-अज़ली मौलवी सय्यद शाह मोहम्मद यूसुफ़ साहिब बल्ख़ी फ़िरदौसी सल्लमहुल्लाहुल-क़ुव्वा।”

    हदिया-ए-सलाम मस्नून-ओ-दुआ’-ए-इजाबत मश्हून बाद, मोहब्बत-नामा इज़दियाद-ए-मोहब्बत का बाइ’स हुआ। इस अ’जीब-ओ-ग़रीब मक्तूब के मौसूल होने के बा’द तीन शबाना यौम मैं इस ख़याल में ग़लताँ-ओ-पेचाँ रहा कि आपके हुक्म की ता’मील कर के जवाब-ए-बा-सवाब लिखूँ या अपनी अ’लालत का सहीह उ’ज़्र कर के और “मन सकत सलम” के हकीमाना इर्शाद पर अ’मल कर के ख़ामोशी इख़्तियार कर लूँ। इस दरमियान में चंद मर्तबा आपके मोहब्बत-नामे के मुतालिआ’ का मौक़ा मिला और हर दफ़्आ’ के मुतालिअ’ से एक नई बात और नया ख़याल मैंने दिल-ओ-दिमाग़ में महसूस किया।

    आख़िर इस सोच बिचार का नतीजा ये निकला कि आप जीते मैं हारा। अब मैंने ख़ुदा पर भरोसा कर के ता’मील-ए-हुक्म का फ़ैसला कर लिया है। मुम्किन है कि इस तरह हमारी मुत्तफ़िक़ा कोशिशें इस तूफ़ान-ए-बे-तमीज़ी का ख़ातमा और इस किज़्ब-ओ-इफ़्तरा का हमेशा के लिए सद्द-ए-बाब कर सकें। यही वो ख़याल है जिसने मुझे आपकी राय के साथ इत्तिफ़ाक़ और आपके हुक्म की ता’मील के लिए मजबूर किया। मिस्रा’

    शायद कि हमीं बैज़ा बर आरद पर-ओ-बाल

    अब मुझे सिर्फ़ इस क़द्र ज़ाहिर कर देना है कि मुझसे जिन उ’मूर के मुतअ’ल्लिक़ इस्तिफ़सार किया गया है उन नंबरों में बेश्तर सवालात ऐसे हैं जिनके जवाब ले लिए अहम और तारीख़ी वाक़िआ’त की शहादत से काम लेना पड़ेगा और ये बात ज़ाहिर है कि ऐसे मौक़ओ’ पर इन्सान तवालत से मजबूर हो जाता है, इसलिए मैं अपनी तहरीरी तवालत के लिए साफ़ दिली के साथ मुआ’फ़ी का ख़्वास्तगार हूँ।

    फ़क़त मोहम्मद मोहसिन अबुल-उ’लाई

    “मर्क़ूमा 12 शा’बानुल-मोअ’ज़्ज़म 1350 हिज्री”

    शाह यूसुफ़ बल्ख़ी और शाह ज़फ़र सज्जादिया दोनों शाह साहिबान की एक यादगार-ओ-नादिर तस्वीर जो दानापुर की एक तक़रीब-ए-शादी की है जिसमें बहुत से मोअ’ज़्ज़िज़ीन शख़्सियात भी शामिल हैं शाह मोहम्मद यूसुफ़ बल्ख़ी के ख़ानवादे के पास और ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया, दानापुर के कुतुब-ख़ाना में एक एक अ’क्सी कापी महफ़ूज़ है और क़ाबिल-ए-दीद है जिनमें शाह यूसुफ़ और शाह ज़फ़र सज्जाद के अ’लावा दीगर मोअ’ज़्ज़िज़ीन शामिल हैं।

    हज़रत शाह ज़फ़र सज्जादा दानापुरी की मुकम्मल ज़िंदगी सब्र-ओ-आज़माईश के हचकोले खाती रही। वो एक ख़ुदा मस्त बुज़ुर्ग थे जो अपने अस्लाफ़ के नक़्श-ए-पा-पर क़ाएम रहे उनके मुरीदीन-ओ-मो’तक़िदीन का हल्क़ा पूर्णिया, आगरा,ग्वालयार,हैदराबाद,इलाहाबाद,कराची,लाहौर और बंगाल में कसरत से पाया जाता था।मेरे जद्द-ए-अमजद हकीम शाह अ’लीमुद्दीन बल्ख़ी कहा करते थे कि मैंने अपने वालिद हकीम शाह तक़ी हसन बल्ख़ी को ये कहते सुना है कि

    “जब शाह ज़फ़र सज्जाद साहिब पहली बार पूर्णिया तशरीफ़ ले गए थे तो उनके अख़्लाक़-ओ-किर्दार से मुतअस्सिर हो कर 14 लोगों ने इस्लाम क़ुबूल किया था”

    आपका इंतिक़ाल 1 रजब 1394 हिज्री मुवाफ़िक़ 22 जुलाई 1974 ई’स्वी को दानापुर में हुआ। नमाज़-ए-जनाज़ा मौलाना शाह इस्माई’ल काकवी ने पढ़ाया और ज़ुहर के वक़्त ख़ानक़ाह से मुत्तसिल ख़ानदानी क़ब्रिस्तान में आस्ताना-ए-हज़रत मख़दूम सज्जाद पाक, शाह टोली के अंदर तद्फ़ीन हुई। हज़रत शाह ज़फ़र सज्जाद के बा’द उनके जाँन-शीन बड़े साहिबज़ादे हज़रत मौलाना सय्यद शाह महफ़ूज़ुल्लाह अबुल-उ’लाई हुए। ये बुज़ुर्ग भी बड़े ख़ामोश तबअ’ और मुंकसिरुल-मिज़ाज थे।हर वक़्त इ’बादत-ओ-रियाज़त में मश्ग़ूल रहा करते थे।आपके इंतिक़ाल के बा’द आपके बड़े साहिबज़ादे हज़रत सय्यद शाह अबू मोहम्मद अबुल-उ’लाई उ’र्फ़ लल्लन बाबू ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया दानापुर के सज्जादा-नशीन हुए।ये भी अपने वालिद की तरह “अलवलदु सिर्रुन-लि-अबीह” के मिस्दाक़ थे।उ’म्र ने वफ़ा की और महज़ चार ही बरस सज्जादगी पर रौनक़-अफ़रोज़ रहे और 2001 ई’स्व में वासिल-बिल्लाह हुए। आपके बा’द छोटे भाई या’नी हज़रत शाह महफ़ूज़ुल्लाह अबुल-उ’लाई के छोटे साहिबज़ादे हज़रत सय्यद शाह सैफ़ुल्लाह अबुल-उ’लाई साहिब ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’इया, शाह टोली,दानापुर के सज्जादा-नशीन हैं और मज़ीद अपने बुज़ुर्गों के काम को परवान चढ़ाने में मसरूफ़-ए-अ’मल हैं।अल-हम्दुल्लाह आज ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया की ख़िदमात का सेहरा आपके सर जाता है। आज भी शाह ज़फ़र सज्जाद के फ़र्ज़न्द-ए-औसत हज़रत सय्यद शाह ख़ालिद इमाम अबुल-उ’लाई साहिब ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया की मुबारक और क़ाबिल-ए-क़द्र हस्ती हैं। अल्लाह पाक आपको सलामत रखे।

    शाह यूसुफ़ बल्ख़ी के ख़ानक़ाह-ए-मुजीबिया,फुल्वारी शरीफ़ से भी काफ़ी देरीना तअ’ल्लुक़ात थे।अक्सर ख़ानक़ाह के उ’र्स की महाफ़िल में शरीक होते थे। हज़रत मौलाना शाह सुलैमान चिश्ती फ़ुल्वारवी ने “हिज़्बुल-बह्र” की भी इजाज़त दी थी जिसका तज़्किरा “नुक़ूश-ए-सुलैमानी” के सफ़हा 131 पर भी है।

    ख़ानक़ाही अंदाज़-ओ-अतवार का ख़ास ख़याल रखते। अँगरखा, दो-पुलिया टोपी पसंदीदा लिबास रहा है। महफ़िल-ए-समाअ’ के दिल-दादा थे। समाअ’ के दौरान आपकी कैफ़ियत पुर-जोश होती। आपका पसंदीदा अ’मल मेहमान-नवाज़ी था। अपने अ’हद के मुम्ताज़ और सरफ़राज़ लोगों में आपका शुमार होता था रहमानिया होटल (सब्ज़ी बाग़) में आपकी सख़ावत-ओ-फ़य्याज़ी ज़बानज़द-ए-आ’म थी। लिखने-पढ़ने का शौक़ शुरूअ’ से रहा।ख़त-ओ-किताबत और रोज़नामचा भी पाबंदी से लिखा करते जिसकी शनाख़्त बा’ज़ रसाएल से होती है। आप अच्छे अख़्लाक़ और बुलंद तबीअ’त के मालिक थे। गुफ़्तुगू में बड़ा असर था। ऐसे-ऐसे रुमूज़-ओ-हक़ाएक़ बयान करते कि सामे’ हैरत-ओ-इस्ति’जाब में पड़ जाता ।अंग्रेज़ी ज़बान के साथ-साथ फ़ारसी और उर्दू ज़बान भी बहुत अच्छी जानते थे।

    एक इन्सान की कामयाबी के पीछे एक दोस्त का भी बहुत बड़ा हाथ होता है। हदीस में भी ऐसे दोस्तों की बड़ी फ़ज़ीलत आई है जो कि अल्लाह की रज़ा के लिए एक दूसरे से मोहब्बत करते हैं।अच्छा दोस्त वही होता है जो हर ग़म में दोस्त के साथ खड़ा हो और हर मुश्किल से मुश्किल वक़्त में दोस्त के काम आए।यूसुफ़ बल्ख़ी के ख़ास अहबाब में महबूब साहिब का भी ज़िक्र आता है जो बाढ़ के रहने वाले थे और हर मुश्किल से मुश्किल वक़्त में आपके साथ रहे।

    आपका इंतिक़ाल मे’यादी बुख़ार की वजह से हुआ। यूसुफ़ बल्ख़ी की बेटी बीबी क़मरुन्निसा बल्ख़ी अपने वालिद के इंतिक़ाल के सिलसिले में तफ़्सील के साथ बयान यूँ करती हैं।

    “वालिद माजिद रहमतुल्लाहि अ’लैह को आख़िरी वक़्त में मे’यादी बुख़ार हुआ। ग़लत इ’लाज होने की वजह से मरज़ दिन-ब-दिन बढ़ता गया।दस महीने गुज़रने के बा’द जब मरज़ आख़िरी दर्जे तक पहूँच गया तो अब्बा जान को फ़तूहा से दोली बाज़ार (पटना) लाया गया जहाँ क़रीब ही एक प्राइमरी डॉक्टर जिनका नाम सय्यद अ’ली अहमद था उनकी सारी औलाद आज कराची में आबाद है। अब्बा जान मोहतरम को देखते ही डॉक्टर सय्यद अ’ली अहमद मायूस हो गए और कहने लगे दस महीने गुज़रने के बा’द आप लोग शाह साहिब को लाए हैं। अब मरज़ बहुत बढ़ गया है। बचने की उम्मीद बहुत कम है। बस दुआ’ करें कि ख़ुदा इनको सुकून अ’ता करे।चुनाँचे डॉक्टर साहिब के जवाब से मायूस हो कर मेरे फूफा सय्यद मुस्लिहुद्दीन बल्ख़ी जिनकी शादी अब्बा जान की अपनी बहन बीबी राबिआ’ से हुई थी, अब्बा जान को वापस ले आए। उसी तबीअ’त के आ’लम में एक दिन मेरे वालिद-ए-माजिद ने मेरी वालिदा माजिदा बीबी मुबारक को बुलाया और सर पर हाथ फेरते हुए कहा “मुबारक तुमने मेरी बड़ी ख़िदमत की है ख़ुदा तुम को हमेशा ख़ुश रखे। अब मेरा वक़्त पूरा हुआ और अब कोई ख़ौफ़ नहीं।बस पीर-ओ-मुर्शिद के उ’र्स का इंतिज़ार है कि वो देख लें फिर हम भी अपने आबा-ओ-अज्दाद के पास चले जाऐंगे।तुम बिल्कुल फ़िक्र करना। ख़ातिर-जम्अ’ रखो और मेरे बा’द मुश्किल हालात में सब्र से काम लेना।ये तमाम बातें सुन कर मैं रोने लगी उस पर अब्बा जान ने मेरी तरफ़ देखा और कहने लग बेटी क़ामू घबराओ मत तुम मेरी प्यारी बेटी हो। ख़ुदा तुमको दोनों जहान में कामयाब करे। मेरे बा’द बेटी तुम सब्र करना और परेशान कभी होना। ख़ुदा तुम्हारे साथ है। फिर कहा बेटी उ’र्स की तैयारियाँ करो।अब बस उसका ही इंतिज़ार है हमें। “ये एक ऐसी पेशीनगोई थी कि जो इंतिक़ाल से पहले ही अब्बा जान ने कर दी थी जो कि बड़े दादा हज़रत शाह ग़ुलाम शरफ़ुद्दीन बल्ख़ी के उ’र्स के पंद्रह दिनों के बा’द हुई।

    चुनाँचिह 9 ज़ीक़ा’दा 1361 हिज्री मुवाफ़िक़ 18 नवंबर 1942 ई’स्वी को सुब्ह फ़ज्र की नमाज़ के बा’द अब्बा जान की रूह क़फ़स-ए-उं’सुरी से परवाज़ कर गई। इन्ना लिल्लाहि-व-इन्ना एलैहि राजिउ’न। इंतिक़ाल के वक़्त उन्होंने मुझसे कहा कि बेटा तक़ी बाबू को बुलाओ जो मेरे वालिद-ए-माजिद के अपने चचा-ज़ाद भाई के अ’लावा बहनोई भी थे। मैं दौड़ कर गई और हज़रत बड़े अब्बा जान को कमरे में बुलाया। बड़े अब्बा दौड़ कर कमरे में दाख़िल हुए। भाई ने भाई को मोहब्बत भरी नज़रों से देखा और अब्बा जान ने कहा कि तक़ी बाबू मैं “सूरा-ए-यासीन” ज़बानी पढ़ रहा हूँ तुम सुनो।तुम बड़ी निस्बत वाले हो और ख़ानदान के जाँनशीन हो। फिर सूरा-ए-यासीन शरीफ़ का विर्द करने लगे और पूरी “सूरा-ए-यासीन” ज़बानी पढ़ लिया। फिर बड़े अब्बा-जान से मुख़ातिब हो कर कहा तक़ी बाबू बताऐं क्या हमने कुछ ग़लत पढ़ा। उस पर बड़े अब्बा जान हज़रत सय्यद शाह तक़ी हसन बल्ख़ी ने कहा नहीं-नहीं भाई जान आपने बिल्कुल दूरुस्त पढ़ा। फिर अब्बा-जान ने सातों कलिमा पढ़ा और आँखें बंद कर लीं। बड़े अब्बा जान ने जल्दी से मेरी वालिदा बीबी मुबारक को वहाँ से हटाया और कहा कि भाभी जान हट जाएं। भैया का इंतिक़ाल हो गया है। ये सुन कर मेरी वालिदा रोने लगीं।उस पर बड़े अब्बा जान ने कहा कि भाभी जान परेशान हों भाई जान का इंतिक़ाल बहुत अच्छी हालत में हुआ है। मेरी दोनों फूफियाँ बीबी हाजरा और बीबी राबिआ’ ये सुन फूट-फूट कर रोने लगीं। फिर अब्बा-जान को ग़ुस्ल दिया गया और बड़े अब्बा जान सय्यद शाह तक़ी हसन बल्ख़ी ने उनकी नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ाई। तद्फ़ीन ख़ानक़ाह-ए-बल्ख़िया फ़िरदौसिया, फ़तूहा के आबाई क़ब्रिस्तान में अ’मल आई।”

    यूसुफ़ बल्ख़ी की दूसरी अहलिया मुबारक ख़ातून से दो साहिब-ज़ादी और दो साहिब-ज़ादे हुए जिसमें एक छोटी बेटी फ़ातिमा का इंतिक़ाल तव्वुलुद के चंद बरसों बा’द ही हो गया। आपकी बड़ी बेटी बीबी क़मरुन्निसा बल्ख़ी अभी ब-क़ैद-ए-हयात हैं और आज़ादी के बा’द कराची में अपने अहल-ओ-अ’याल के साथ आबाद हैं। अभी आपकी उ’म्र 95 बरस की हो चुकी है और हाफ़िज़ा भी क़वी है। पुरानी-पुरानी ख़ानदानी बातें आपने अक्सर इस फ़क़ीर से बयान की हैं। बहुत ही नेक और पारसा औ’रत हैं। आपके अंदर आज भी बल्ख़ी ख़ानदान का रंग नज़र आता है। आपकी शादी सय्यद अ’ज़ीमुद्दीन हैदर (दीघा मुत्तसिल दानापुर) से हुई जिनसे दो बेटे और दो बेटियाँ हुईं। बड़े बेटे सय्यद फ़ारूक़ हैदर हैं जिनकी पैदाइश फ़तूहा में ही अपने पर-नाना जान या’क़ूब बल्ख़ी की हयात में ही हुई। आप बहुत ख़ुश-खुल्क़ इन्सान हैं और ख़ानदानी वक़ार को आपने बचा कर रखा है ।अभी आप कैनेडा में अपने बच्चों के साथ आबाद हैं। छोटे बेटे सय्यद अनवार हैदर हैं जिन्हों ने कराची यूनीवर्सिटी से ग्रैजूएशन किया और बिज़्निस ऐडमिनिस्ट्रेशन ‘मास्टर की डिग्री हासिल करने के बा’द फिलीपाइन चले गए।1990 ई’स्वी में उन्होंने मैनेजमेंट में दूसरी मास्टर डिग्री हासिल की और बैनुल-अक़्वामी मार्केटिंग में मैनेजर के तौर पर दो तन्ज़ीमों में काम किया। मौसूफ़ सैर-ओ-सियाहत के भी बड़े शौक़ीन हैं। मुख़्तलिफ़ मुल्कों जिनमें भारत,नेपाल,बंगला-देश, श्रीलंका, मालदीप, ईरान, मुत्तहिदा अ’रब अमीरात , बहरैन, मिस्र, तुर्की, क़ब्रस, शाम, मलेशिया, सिंगापुर, बैंकाक, थाईलैंड, फिलिपिन्स, बर्तानिया, अमरीका, जर्मनी, फ़्रांस, कैनेडा शामिल हैं। तमाम ममालिक को देखने के बा’द अभी वो फ़िल-हाल कैनेडा में मुक़ीम हैं।आपने 2000 ई’स्वी में कनेडा को ही अपना मुस्तक़िल वतन बना लिया और बीवी सहर ख़ातून और दो बच्चे ईशा हैदर और बेटे ई’सा हैदर के साथ इंटारयो (कैनेडा) में मुक़ीम हैं। ख़ानदानी रिवायत के पासदार हैं। राक़िम से हमेशा ख़ानवादा-ए-बल्ख़िया पर बातें होती हैं।1990 ई’स्वी के बा’द एक दफ़्आ’ हिन्दुस्तान तशरीफ़ लाए और फ़तूहा अपने नाना-जान यूसुफ़ बल्ख़ी फ़िरदौसी के घर और मज़ार पर ब-ग़रज़-ए-फ़ातिहा हाज़िर हुए। आप अपने नाना जान को अपनी ज़िंदगी की कामयाबियों के लिए मश्अ’ल-ए-राह और नाना-जान की दुआ’ओं का समरा मानते हैं जो इंतिक़ाल के वक़्त उनके नाना जान ने उनकी वालिदा से किया था।आप तमाम बहनों और भाईयों में सबसे छोटे हैं।

    आपकी दो बेटियों में बड़ी बेटी बीबी रज़िया ख़ातून हैं जिनके शौहर सय्यद शमीम का इंतिक़ाल पिछले साल 2019 ई’स्वी में हुआ। सबसे छोटी बेटी अस्ग़री ख़ातून उ’र्फ़ ताबिंदा हैं जो कराची में ही मुक़ीम हैं। शेर-ओ-शाइ’री से ख़ास शग़फ़ रखती हैं और बाग़-ओ-बहार मिज़ाज की मालिक हैं।इस के अ’लावा मुख़्तलिफ़ उ’लूम-ओ-फ़ुनून से भी वाक़फ़ियत रखती हैं। आपका हाफ़िज़ा भी अपनी वालिदा की तरह बहुत क़वी है।आपकी दो बेटियाँ हैं जिनकी शादी हो चुकी है

    यूसुफ़ बल्ख़ी आज भी ख़ानदान-ए-बल्ख़िया में अपनी गूना-गूँ ख़ुसूसियात की वजह से दिलों में ज़िंदा हैं।उनकी ख़िदमात-ए-जलीला और अ’ज़मत-ए-रफ़्ता पर अ’ज़ीमाबाद के क़दीम अफ़राद की मुहर है।अल्लाह पाक यूसुफ़ बल्ख़ी और उन जैसे तमाम बल्ख़ियों पर रहमत की चादर डाले और उनके अहवाल-ओ-कमालात को ज़माने के सामने ताबिंदा करे।

    आज भी ख़ानक़ाह-ए-बल्ख़िया फ़िरदौसिया, फ़तूहा, पटना अपनी मरकज़ी हैसियत के लिए क़ाएम-ओ-दायम है, जिसके मौजूदा सज्जादा-नशीन वालिद-ए-गिरामी हज़रत डॉक्टर सय्यद शाह मुज़फ़्फ़रुद्दीन बल्ख़ी फ़िरदौसी अपनी सरकारी मसरुफ़ियात के साथ ख़ानक़ाही ज़िम्मेदारीयों को अंजाम दे रहे हैं। दुआ’ है कि अल्लाह तआ’ला इस ख़ानक़ाह को मरकज़-ए-रुश्द-ओ-हिदायत बनाए रखे और इसके रुहानी, दीनी, इ’ल्मी-ओ-अदबी और फ़लाही ख़िदमात और फ़ैज़ान को अपनी सात सदियों पर मुहीत तारीख़ी रिवायतों के साथ जारी-ओ-सारी रखे।सय्यद शाह मोहम्मद यूसुफ़ बल्ख़ी फ़िरदौसी की ज़ात भी इसी सिलसिला की एक कड़ी है।

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