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रैदास और सहजोबाई की बानी में उपलब्ध रूढ़ियाँ- श्री रमेश चन्द्र दुबे- Ank-2, 1956

भारतीय साहित्य पत्रिका

रैदास और सहजोबाई की बानी में उपलब्ध रूढ़ियाँ- श्री रमेश चन्द्र दुबे- Ank-2, 1956

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    भारत की आध्यात्मिक परम्परा में जिन तत्वों का संग्रंथन वैदिक काल से लेकर भक्ति-काल तक अविच्छिन्न रूप से होता रहा है, उन सब का समावेश किसी किसी मात्रा में हमारे सन्तों की बानियों में मिलता है। दर्शन,पुराण, योग, भक्ति और लोकाचार, सभी के तत्व उनमें सहज रूप से अनुस्यूत हो गए है। भारतीय वाङ्मय का विपुल भाण्डार इन तत्वों के विवेचन से आपूर्ण है। पर इनमें सै केवल वे ही तत्व, जो इस गंभीर विवेचन के फल स्वरूप प्रमुखतः निष्पन्न हुए और जो प्रचाराधिक्य के कारण जन-जीवन में पूरी तरह घुलमिल सके, इन संतों की बानियों द्वारा अभिव्यक्ति पा सके है। दर्शन की अनेक उपमाएं, योग की अनेक प्रक्रियाएं, भक्तों की अनेक गाथाएं और पुराणों की अनेक कल्पनाएं इन बानियों में समाविष्ट हो कर संतों के उपदेश की रीढ़ बन गई हैं। इन संतों की काव्योक्तियों की मार्मिकता बहुधा इन विभिन्न क्षेत्रों से ग्रहीत रूढ़ तत्वों के समावेश से ही उत्पन्न होती है। संत-काव्य की इन रूढ़ियों ने हिन्दी-साहित्य में बहुत प्रचार पाया है और अधिकांश हिन्दी-काव्य की आत्मा को पहिचानने के लिए इन रूढ़ियों का परिचय बहुत आवश्यक है।

    सम्प्रदायों की विभिन्नता होते हुए भी संतों की बानियों में बहुत से तत्व सामान्य हैं। नाग महिमा-गुरु महिमा, सत्संग-कीर्तन, निर्गुण, माया, विरह, मिलन आदि से संबद्ध रूढ़ उक्तियाँ, भक्तों की कथाएं, सांसारिक भोगों की कदर्थना, पाँच, पच्चीस, चौरासी आदि संख्याओं का रूढ़ अर्थों में उपयोग, इन सभी बानियों की विशेषता है। रैदास और सहजोबाई की बानियों में भी इन तत्वों का समावेश हमें मिलता है।

    कबीर, सूर, जायसी, तुलसी सभी कवियों ने गुरु की महिमा गाई है। गुरु को गोविंद से भी अग्रणी माना गया है-

    गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाँय।

    बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो बताय।।

    तुलसी भी कथा के आरम्भ करने से पूर्व गुरु की वन्दना करत हैं-

    बन्दउँ गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नर-रूप हरि।

    महा मोह तम पुंज, जासु वचन रवि-कर-निकर।।

    अतः सगुण और निर्गुण दोनों के उपासकों ने गुरु की महिमा को स्वीकार किया है और इस महिमा का प्रचार इतना अधिक था, कि किसी भी संत ने उसकी उपेक्षा करने की हिम्मत नहीं की। रैदास कहते है-

    गुरु को सबद अरु सुरति कुदाली,

    खोदन कोई कोई हैरे।।

    अथवा

    गुरु की साटि ज्ञान का अच्छर

    बिसरै तो सहज समाधि लगाऊँ

    और सहजोबाई ने तो बड़े विस्तार से गुरु-महिमा का गान किया है-

    सहजो कारज जगत के गुरु बिन पूरे नाहिं।

    हरि तो गुरु बिन क्यों मिलैं समुझि देख मन माहिं।।

    अथवा

    सहजो गुरुवर्ती वचै, निगुरै अरुझत जाहिं।

    बार बार नाते मिलैं, लख चौरासी माहिं।।

    इस गुरु-महिमा के प्रसंग में सहजोबाई ने कई काव्य-रूढ़ियों का सुन्दर उपयोग किया है। पारस, मलयगिरि, और भृंग की उपमाएं तो बहुत प्रसिद्ध है। समदर्शिता के लिए मेघ का सब जगह एक समान बरसना भी कवियों द्वारा बहुत प्रयुक्त हुआ है। पर दीपक के द्वारा दीपक को प्रकाशित करने की उपमा बहुत प्रसिद्ध नहीं है। सहजो ने इन सब का प्रयोग किया है-

    गुरु है चार प्रकार के, अपने अपने अंग।

    गुरु पारस दीपक गुरु, मलयागिरि गुरु भृंग।।

    लोहे कूं पारस होय लागे। कंचन करै वेर नहिं ताकैं।

    सिष पलास चंदन करि डारैं। मलयागिरि हूँ कारज सारैं।।

    सिष समान कीट के आवैं। भृंगी ह्वै करि ताहि बनावैं।।

    करै भिरंगी ढील कोई। पलटै रूप पाछलो सोई।।

    बिना लोय दीपक सिष परसै। ह्वै दीपक तिनहूँ कूं दरसै।।

    मेघ से गुरु की समदर्शिता की उपमा निम्न पंक्तियों में दी गई है-

    सहजो गुरु ऐसा मिलै, मेटै मन संदेह।

    नीच ऊँच देखै नहीं, सब पर बरसै मेह।।

    अस्तु, गुरु की महिमा का बखान हिन्दी काव्य की एक बहुप्रयुक्त रूढ़ि है, जिसका उपयोग रैदास और सहजोबाई ने भी किया है। गुरु शिष्य की ज्ञानोपदेश द्वारा अपने समान बना देता है। इस तथ्य को उदाहृत करने के लिए तादात्म्य या ताद्रुप्य विषयक प्रथित रूढ़ियों का उपयोग भी यहाँ उपलब्ध है। भक्त कवियों ने भक्त और भगवान के विषय में भी इन रूढ़ियों का उपयोग किया है-

    पारस गुन अवगुन नहीं देखत कंचन करत खरो।

    और

    भइ मम कीट भृंग की नाईं।

    जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाईं।।

    रैदास कहते है-

    भाई रे सहज बंदो लोई। बिनु सहज सिद्धि होई।।

    लौलीन मन जो जानिए। तब कीट भृंगी होई।।

    इन संतों की बानियों में उपलब्ध दूसरी रूढ़ि नाम-महिमा विषयक है। तुलसी ने बालकांड के आरंभ में अनेक उदाहरण देकर यह सिद्ध किया है कि कहहुँ नाम बड़ ब्रह्म राम तें। कबीर आदि निर्गुनिए संतों ने भी नाम की महिमा गाई है। रैदास कहते हैं-

    नाम तुम्हारो आरत भंजन मुरारे।

    हरि के नाम बिन झूठे सकल पसारे।।

    अथवा

    अनेक अधम जिव नाम गुन ऊधरे।

    पतित पावन भए परसि सार।।

    और

    ब्रह्म ऋषि नारद संभु सनकादिक

    राम राम रमत, गए पार तेता।

    कलियुग में इस नाम की महिमा और भी अधिक है-

    सतजुग सत त्रेता तप करते, द्वापर पूजा अचार।

    तिहुँ जुगी तीनों दृष्टी, कलि केवल नाम अधार।।

    यहाँ पर तुलसी का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है-

    त्रेताँ विविध जग्य नर करहीं।

    प्रभुहिं समर्पि कर्म भव तरहीं।।

    कलिजुग केवल हरि गुन गाहा।

    गावत नर पावहिं भवथाहा।।

    सहजोबाई ने भी हरि-स्मरण का महत्व बताया है-

    लाभ वही सहजो कहै हरि सुमिरन करि लेहु।

    अस्तु कलियुग में नाम के विशेष महत्व की बात तो रैदास में तुलसी के प्रभाव से आई है, पर नाम-संकीर्तन की महिमा निर्गुण और सगुण दोनों प्रकार के भक्तों के काव्य में समान रूप से गाई गई है। अतः गुरु महिमा के साथ ही नाम-महिमा भी इन संतों के काव्य की एक रूढ़ि है।

    गुरु-महिमा और नाम-महिमा के अतिरिक्त एक और चीज़, जिसकी महिमा इन भक्त-कवियों ने मुक्त कंठ से गाई हैं, वह है सत्संग। तुलसी ने कहा है-

    सत संगति दुर्लभ भरि एकहु बारा।।

    और

    सत संगति महिमा नहिं गोई।

    तदपि कह बिनु रहा कोई।।

    सूर,कबीर, मीरा और अन्य भक्त कवियों ने भी इसका महत्व स्वीकार किया है। रैदास जी की बानी में भी इस रूढ़ विषय का उल्लेख हमें मिलता हैं-

    गली गली को जल बहि आयो,

    सुरसरि जाय समाया।

    संगत के परताप महातम,

    नाम गंगोदक पायो।।

    सूर और तुलसी ने भी अन्य जल के सुरसरि में मिलने पर उसका सुरसरि नाम पड़ जाने की बात कहीं है-

    जब दोनों मिलि एक बरन भए

    सुरसरि नाम परया। (सूर)

    और

    सुरसरि जल कृत बारुनि जाना।

    कबहुँ संत करहिं तेहि पाना।

    सुरसरि मिले सो पावन जैसे।

    ईस अनीसहि अंतर तैसे।। (तुलसी)

    रैदास ने भी यही बात इन्हीं शब्दों में कही है। तुलसी का प्रभाव यहाँ स्पष्ट है-

    सुरसरि जल कृत वारुनी रे जेहि संत जन नहिं करत पानं।

    सुरा अपवित्र तिनि गंगाजल आनिए सुरसरि मिलत नहिं होत आनं।।

    अतः श्रेष्ठ के साथ हेय के मिलने पर हेय के श्रेष्ठ बन जाने के भाव के लिए सुरसरि के साथ अन्य जल के मिलने की उपमा कवियों द्वारा एक प्रचलित रूढ़ि के रूप में ग्रहीत हुई है। किसी ने उपका उपयोग संगत महातम को दिखलाने के लिए किया है, किसी ने ईश और अनीस का संबंध दिखलाने के लिए।

    मनुष्य अच्छी संगति में पड़ कर अच्छा और बुरी संगति में पड़ कर बुरा बन जाता है, इस तथ्य को उदाहृत करने के लिए रैदास ने एक और सुप्रचलित रूढ़ि का आश्रय लिया है। स्वाँति का जल सीप में पड़ कर मोती सर्प के मुख में पड़ कर विष और कदली में पड़ कर कपूर बन जाता है, यह हिन्दी काव्य की एक सुपरिचित रूढ़ि है। बिहारी आदि के दोहों में इसका उपयोग हुआ है। रैदास भी संगति की अधिकाई दिखलाने के लिए इस रूढ़ि का उपयोग करते है—

    स्वाँति बूँद बरसै फनि ऊपर, सीस विषै होइ जाई।

    ओही बूँद कै मोती निपजै, संगति की अधिकाई।।

    सहजो कहती हैः—

    चरन छुए सब गति मत पलटैं पारस जैसे लोह सुना।

    सीप परसि स्वाँति भयो मोती सोहत है सिर राज रना।।

    इन सामान्य मान्यताओं के अतिरिक्त योग और दर्शन के अनेक पारिभाषिक शब्दों, संकेतों, उपमाओं और रूपकों का प्रयोग हिन्दी के संत-काव्य की विशेषता है। इड़ा, पिंगला, सुखमन नाड़ी, सुन्न, सहज, दशम रन्ध्र, पट् कमल, रसना का उलट कर लगाना, नाद, बिन्दु, सबद, सुरति, पिंड, अनाहद, ध्यान, पवन, समाधि, ये सब योग के विशेषार्थ युक्त शब्द हैं। संत-काव्य में इनका प्रयोग भरा पड़ा है और ऐसा प्रतीत होता है कि बाद के काव्य में इनका प्रयोग, बहुत अधिक प्रचार के कारण, लीक पीटने के रूप में होने लगा। रैदास की निम्न पंक्तियों में इनका प्रयोग दृष्टव्य है—

    (1) ऐसा ध्यान घरौं बनबारी।

    मन पवन दै सुखमन नारी।।

    (2) पिंड परे जिव जिस घर जाता।

    सबद अतीत अनाहद राता।।

    (3) सहज समाधि करूं हरि सेवा।

    (4) सुन्न सहज मैं दोऊ त्यागे, राम कहुँ दुखदाई।

    (5) नाद विंद ये सब ही थाके, मन मंगल नहिं गावै।

    सहजो ने भी इनका खूब प्रयोग किया हैः-

    (1) इड़ा पिंगला ऊपर पहुँचे, सुखमन पाट उघारा।

    भँवर गुफा में दृढ़ ह्वै बैठे, देख्यो अधिक उजारा।।

    (2) छहूँ कँवल कूँ देख करि, सतवें में घर छाय।

    रसना उलटि लगाय करि, जब आगे कूँ धाव।।

    इन पारिभाषिक शब्दों के अतिरिक्ति कुछ संख्याएँ भी विशेष वस्तुओं के लिए रूढ़ हो गई हैं। इन संख्याओं का प्रचुर प्रयोग कहीं कहीं काव्य को पहेली बना देता है। पर इस प्रकार के प्रयोग अत्यधिक प्रचार के कारण रूढ़ि का रूप धारण कर लेने पर ही संभव हो सकते हैं। पाँच, आठ, दस, चौबीस, पच्चीस, चौरासी आदि संख्याओं का प्रयोग संत काव्य में रूढ़ अर्थों में हुआ है। रैदान ने पाँच का ही प्रयोग अधिक किया हैः—

    (1) पाँचों मेरी सखी सहेली तिन निधि दई दिखाई।

    (2) काम किरोध लोभ मद माया, इनि पंचन मिलि लूटे।।

    (3) पंच व्याधि असाधि यह तन कौन ताकी आस।

    (4) पाँचा थकित भए हैं जहँ तहँ, जहाँ तहाँ थिति पाईं।।

    सहजो बाई ने अन्य संख्याओं का भी उपयोग किया हैः-

    (1) आठन कूँ जानै नहीं, दस कूँ नाही भेद।

    चौबीसों समझै नहीं, कैसे छूटै खेद।।

    कैसे छूटे खेद पंच को जीतै नाहीं।

    और पचीसौं संग रहैं उनके हो माहीं।।

    दोय सदा लागी रहै चौरासी के फेर।

    चरनदास यों कहत हैं सहजो आया हेर।।

    (2) पाँचौ करै उजाड़ पचीसौं चरि चरि जाईं।

    (3) बार बार नाते मिलै लख चौरासी माहिं।।

    (4) उनकी चौरासी नहिं छूटै।

    काल जाल जम जोरा लूटै।

    इन संख्याओं के प्रयोग से जो उलझन या रहस्यात्मकता उत्पन्न की गई है, वह हिन्दी संत-काव्य की एक मुख्य प्रवृत्ति है। चमत्कार के द्वारा जन-साधारण के मन को अटकाने वाली कला जो उलटबाँसियों में दिखाई देती हैं, वह यहाँ भी अपनी छाया डाल रही है।

    योग के अतिरिक्त वेदान्त के अद्वैतवाद और अन्य सिद्धांतों की चर्चा भी रूढ़ शब्दावली और उपमाओं द्वारा इन संतों के काव्य में हुई है। ब्रह्म और जीव का अभैद सिद्ध करने के लिए दर्शन के रूढ़ उपमानों का प्रयोग रैदास ने किया हैः-

    (1) रजु भुअंग रजनी परगासा, अस कछु मरम जनावा।

    समुझि परी मोहि कनक अलंकृत, अब कछु कहत आवा।।

    (2) कनक कुण्डल सूत पट जुदा, रजु भुअंग भ्रम जैसा।

    जल तरंग पाहन प्रतिमा ज्यौं, ब्रह्म जीव द्वति ऐसा।।

    (3) कनक कटक जल तरंग जैसे (पृष्ठ 38 पद 58)

    (4) अहै एक पै भ्रम से दूजो, कनक अलंकृत जैसे।

    सहजो कहती हैः-

    जल पाले में भेद ना, ज्यों सूरज अरुधूप।(पृष्ठ 44)

    प्रसाद जी ने भी जल और हिम के अभेद का रूपक कामायनी के आरंभ में दिया हैः-

    ऊपर जल था नीचे हिम था,

    एक तरल था एक सघन।

    एक तत्व की ही प्रधानता,

    कहो उसे जड़ या चेतन।।

    जीव के ब्रह्म में लीन हो जाने के लिए जल और समुद्र का रूपक भी बहु व्यवहृत है। रैदास कहते हैः-

    जब लग नदी समुद्र समावै, तब लग बढ़ै हँकारा।

    जब मन मिल्यो राम सागर सों, तब यह मिटी पुकारा।।

    और

    सरिता गवन कियो लहर महोदधि, जल केवल जल माही।

    कबीर की जल में कुंभ कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी वाली उक्ति प्रसिद्ध ही है। प्रसाद जी ने भी अपनी अक्षयनिधि को स्वरूपाकित करने के लिए समुद्र का ही रूपक चुना है-

    चाँदनी सदृश खुल जाय कहीं

    अवगुंठग आज सँवरता सा।

    जिसमें अनन्त कल्लोल भरा

    लहरों में मस्त विचरता सा।

    अपना फेनिल फन पटक रहा

    मणियों का जाल लुटाता सा।

    उन्निद्र दिखाई देता हो

    उन्मत हुआ कुछ गाता सा।।

    (कामायनीः काम सर्ग)

    ब्रह्म की अनिर्वचनीयता और व्यापकता का सिद्धान्त भी दर्शन से ग्रहीत होकर रूढ़ शब्दावली में काव्य में प्रयुक्त हुआ है। निर्गुण ब्रह्म के विशेषण समस्त भक्ति-काव्य में समान रूप से ग्रहीत हुए हैं। रैदास की निम्न पंक्तियों में इन्हीं रूढ़ विशेषणों का प्रयोग हुआ है-

    (1) निस्चल निराकार अज अनुपम, निरभय गति गोविंदा।

    (2) सदा अतीत ज्ञान घन वर्जित निरविकार अविनासी।

    (3) अखिल खिलै नहीं का कहि पंडित, कोइ कहै समुझाई।

    अबरन बरन रूप नहिं जाके, कहँ लौ लाइ समाई।।

    चंद सूर नहिं राति दिवस नहिं, धरनि अकास भाई।

    करम अकरम नहिं सुभ असुभ नहि, का कहि देहुँ बड़ाई।।

    सीत वायु ऊसन नहिं सरवत, काम कुटिल नहिं होई।

    जोग भोग क्रिया नहिं जाके, कहौ नाम सत सोई।।

    निरंजन निराकार निरलेपी, निरवीकार निसासी।

    सहजो ने हरि के लिए नेति नेति के रूढ़ विशेषण का प्रयोग किया है-

    हरि कौ कोई जानत भेद।

    सब के बड़े सोई पचिहारे नेत नेत कहि बेद।।

    ब्रह्म और जीव के भेदाभेद का निरूपण करते हुए चार बुद्धियों के मनुष्यों के लिए जल, भूमिस पाहन और तेल की बूँद की रेखाओं की उपमा दी है। स्थायित्व के आपेक्षिक न्यूनाधिक्य को प्रदर्शित करने के लिए इन रेखाओं की उपमा काव्य में बहुधा प्रयुक्त हुई है। सहजो बाई की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं—

    आप सबनि में सब ते न्यारे। चारि बुद्धि के मनुष सँवारे।

    प्रथम बुद्धि जल लीक खिंचाई। खिंजतो जाइ सोई मिटि जाई।।

    दूजाँ बुद्धि लीक रस्ते की। चलै मनोरथ मिटै हिये की।।

    तीजी बुद्धि पाहन की रेखा। घटै सही पर बढ़ै नेका।

    चौथी तेल बूँद जल माहीं। फैलत फैलत फैलत जाहीं।।

    छोटी से दीरघ परकासै। बरन बरन के रंग निकासै।।

    तुलसी की दोहावली में पाहन, सिकता, पानि की रेखाओं की उपमा दी गई हैं—

    उत्तम मध्यम नीच गति, पाहन सिकता पानि।

    अस्तु ब्रह्म और जीव के संबंध को लेकर दर्शन की अनेक रूढ़ियों का प्रयोग यहाँ दृष्टिगत होता है। संसार के मिथ्यात्व, माया, भव-समुद्र, तन का हेय होना, मनुष्य देह का दुर्लभ होना आदि रूढ़ विषयों का भी उल्लेख इस काव्य में मिलता है। इस संसार को इंद्रजाल और उस ब्रह्म को ऐंद्रजालिक बताने की रूढ़ि दर्शन से काव्य में आई है—

    बाजीगर सों राँचि रहा, बाजी का मरम जाना।

    बाजी झूठ साँच बाजीगर, जाना मन पतियाना।।

    रैदास

    तीन लोक छल रूप हैं, सहजो इन्दर जाल।

    और

    सहजो जगत अनित्य है, आतम कूँ नित जान।

    सहजोबाई

    सांसारिक ऐश्वर्य बहुत क्षणिक है, इसमें ममत्व रखने से ही मनुष्य माया में पड़े जाता है, ये उपदेश भी भक्ति-काव्य में रूढ़ हो गए हैं। सहजो कहतीं हैं-

    धन जौबन सुख सम्पदा, बादर की सी छाँह।

    और रैदास का कथन है कि-

    मैं तें तोरि मोरि असमझि सों कैसे करि निस्तारा।

    यहाँ पर भी रैदास पर तुलसी की छाया स्पष्ट है-

    मैं अरु मोर तोर तें माया।

    जेहिं बस कीन्हें जीव निकाया।

    मन के माया में भूल जाने और उसके चंचल होने की बात भी अतिप्रयोग के कारण रूढ़ि बन गई हैं---

    मन माया हाथ बिकानूं।

    चंचल मनुवाँ चहुँ दिसि धावै।

    पाँचौ इन्द्री रहावै।।

    और

    माया के भ्रम कहा भूल्यो जाहुगे कर झारि।

    रैदास

    भव-सागर का रूपक भई बहुत पिष्ट-पेषित है----

    (1) अति संसार अपार भवसागर।

    (2) भव सागर मोहि इकटक जोवत, तलफत रजनी जाई।

    (3) भव बूड़त भयभीत जगत जन करि अवलंबन दीजै हो हरी।

    रैदास

    इस शरीर को भक्तों ने व्याधियों का मन्दिर और नश्वर कहा है। पर मनुष्य शरीर को हरि-भजन के लिए दुर्लभ बता कर, उसके द्वारा भोग-विलास में लिप्त रहने वाले जीवों की डट कर भर्त्सना भी की गई है। इस प्रकार की उक्तियाँ भी भक्ति-काव्य में रूढ़ हो गईं थीं। रैदास कहते हैं-

    पंच व्याधि असाधि यह तन, कौन ताकी आस।

    सहजो ने भी इस तन को नश्वर और क्षणिक कहा है—

    पानी का सा बुलबुला, यह तन ऐसा होय।

    पीव मिलन की ठानिए, रहिए ना पड़ि सोय।।

    पर मनुष्य-शरीर को दुर्लभ बता कर उसे व्यर्थ गँवाने वालों को धिक्कारा भी है—

    रैनि गँवाई सोइ करि, दिवस गँवायो खाइ रे।

    हीरा यह तन पाइ करि, कौड़ी बदले जाइ रे।।

    और

    (1) दुख खे खे करि यह तन पायो।

    सहजो हरि गुरु बिना गँवायो।

    (2) यह अवसर दुर्लभ मिलै, अचरज मनुषा देह।

    लाभ वही सहजो कहै, हरि सुमिरन करि लेहु।।

    --सहजो बाई

    तुलसी ने भी कहा है कि----

    नर तन सम नहिं कवनिहुँ देही।

    जीव चराचर जाचत तेही।।

    सो तनु पाइ विषय मन देहीं।

    पलटि सुधा ते सठ विषु लेहीं।।

    भक्ति और प्रेम की तथा वाह्य लोकाचारों के खंडन की भी कुछ रूढ़ियाँ बन गईं है, जिनका प्रयोग काव्य में बहुधा दिखलाई पड़ता है। नवधा-भक्ति का उल्लेख भक्ति की एक रूढ़ि है। रैदास और सहजो ने इसका उल्लेख किया है---

    हम जानौ प्रेम प्रेम रस जाने नौ बिधि भगति कराई।

    -रैदास

    और

    सहजो नवधा भक्ति करीजै, आप तिरौ औरनि कूं तारै।

    सूर और तुलसी ने इस नवधा-भक्ति का विस्तृत उल्लेख किया ही है।

    भक्तों की कथाएँ भी अन्तर्कथाओं के रूप में काव्य में अनुस्यूत होकर निरन्तर उल्लेख के कारण रूढ़ि बन चुकी हैं। अजामिल, गनिका आदि का नामोल्लेख भर ही पर्याप्त हो जाता है—

    (1) गनिका थी किस करमा जोग

    नामदेव कहिए जाति के ओछ

    भगति हेत भगता के चले।

    अंक माल ले बीठल मिले।।

    (2) अजामिल गज गनिका तारी काटी कुंजर की पास रे।

    -रैदास

    भक्तमाल और पुराणों की कथाएं मध्ययुगीन हिन्दी काव्य की एक विशिष्ट अंग बन गईं हैं। देवताओं की पौराणिक रूप-कल्पना भी काव्य में विभिन्न रसों की जन्मदात्री बनी हैं। शिव जी का भेष कवियों का प्रिय विषय रहा है। विद्यापति, सूर, तुलसी और पद्माकर ने उनके रूप को लेकर सुन्दर काव्य प्रसंगों की सृष्टि की है। रैदास ने महेस के विकट भेष की चर्चा निम्न पंक्तियों में की है—

    उर भुअंग भस्म अंतत वैरागी।

    जाके तीन नैन अमृत बैन, सीस जटा घारी।

    कोटि कलप ध्यान अलप, मदन अंतकारी।।

    जाके लील बरन, अकल ब्रह्म, गले रुण्ड माला।

    प्रेम मगन, फिरत नगन, संग सरवा बाला।

    अस महेस विकट भेस, अजहूँ दरस आसा।।

    हरि और भक्त के अनन्य भाव के प्रेम को लेकर चातक और मेघ, चंद्र और चकोर तथा घन और मोर की रूढ़ उपमाओं का प्रयोग भी काव्य में मिलता है। रैदास ने इनका उपयोग किया है—

    (1) प्रभु जी तुम चंदन हम पानी। जाकी अँग अँग बास समानी।

    प्रभु जी तुम घन वन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा।।

    (2) दरसन तोरा जीवन मोरा। बिन दरसन क्यों जिवै चकोरा।।

    (3) इक अभिमानी चातृगा, विचरत जग माहीं।

    यद्यपि जल पूरन मही, कहूँ वा रुचि नाहीं।।

    (4) चक्र को ध्यान दधि सुत सों हेत है, यों तुम तें मैं न्यारी।

    प्रभु के चरणों को कमल बना कर अपने मन की भ्रमर से उपमा देना भी एक सुप्रख्यात रूढ़ि है-

    तुझ चरनारविंद भँवर मन।

    रैदास (पृष्ठ 34 पद 50)

    और प्रभु के गुण-कथन के लिए सनक, सनंदन, नारद, व्यास निगम, शेष और शारदा की वर्णन-सामर्थ्य को कम बतलाना भी एक अति प्रचलित रूढ़ि है, जिसका उपयोग रैदास ने किया है-

    सनक सनंदन महामुनि ज्ञानी।

    सुक नारद व्यास यह जो बखानी।।

    गावत निगम उमापति स्वामी।

    सेस सहस मुख कीरति गामी।।

    भक्ति की इन सगुणमार्गी प्रभाव-संपन्न रूढ़ियों के अतिरिक्त प्रेम, विरह और मिलन की रूढ़ उक्तियाँ भी संतों के काव्य का अंग है। सहजोबाई प्रेम के दीवाने हो जाने की चर्चा करतीं हैं-

    प्रेम दिवाने जो भए, पलटि गयो सब रूप।

    सहजो दृष्टि आवई, कहा रंक कहा भूप।।

    और रैदास पिय की विरह विथा की बात कहते हैं-

    पिय बिनु सेजइ क्यों सुख सोऊँ, बिरह बिथा तन खाई।

    मेटि दुहाग सुहागिन कीजै, अपने अंग लगाई।

    कहि रैदास स्वामी क्यों बिछोहे, एक पलक जुग जाई।।

    और मीरा की तरह यह भी अनुभव करते हैं कि—

    सो कहा जानै पीर पराई।

    जाके दिल में दरद आई।।

    रैदास ने कबीर की शब्दावली में वाह्याचारों का खंडन भी किया है-

    (1) भगति मूड़ मुड़ाए, भगति माला दिखाए।

    (2) कहा भयो जे मूड़ मुड़ायो, कहा तीर्थ व्रत कीन्हें।

    और सूर की तरह हरि के टाँड़े की तथा तुलसी की तरह मदन-भुवंग की भी चर्चा करते हैं-

    (1) हरि को टाँड़ो लादे जाइ रे, मैं बनिजारो राम को।

    राम नाम धन पाइयो ताते सहज करूँ व्योहार रे।।

    और

    (2) मदन भुअंग नहिं मंत्र जंता।

    अस्तु रैदास और सहजोबाई के काव्य में योग, दर्शन, भक्ति, पुराण और काव्य की अनैक शैलीगत और विषयगत रूढ़ियों का उपयोग हमें दृष्टिगत होता है। ये रूढ़ियाँ इस काव्य की महत्वपूर्ण अंग हैं। इनको निकाल देने पर काव्य का सार निकल जायगा और इनको समझे बिना काव्य की आत्मा को पकड़ना कठिन हो जाएगा। रूढ़ियों के इस आकलन से विभिन्न प्रभाव-स्रोतों के अनुदान का पता चलता है और काव्य की मान्य परम्पराओं के प्रचलन का बोध होता है। इन रूढ़ियों ने हमारे काव्य को अभिव्यञ्जना की अतिशय सामर्थ्य दी है और विभिन्न विषयों के सुगम अवबोध की चामत्कारिक क्षमता दी है। संतों के हाथ में ये रूढ़ियाँ जनता को प्रभावित करने का सुलभ और मार्मिक साधन बन गईं थीं।

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