भारतीय साहित्य पत्रिका के सूफ़ी लेख
अलाउल की पदमावती- वासुदेव शरण अग्रवाल- Ank-1, 1956
प्राक्कथन मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत की व्याख्या लिखते हुए मेरा ध्यान पद्मावत के अन्य अनुवादों की ओर भी आकृष्ट हुआ। उनमें कई फ़ारसी भाषा के अनुवाद विदित हुए। किन्तु एक जिसकी और हिन्दी जगत का विशेष ध्यान जाना चाहिए वह बंगाली भाषा में किया हुआ वहाँ
गुजरात के सूफ़ी कवियों की हिन्दी-कविता - अम्बाशंकर नागर
गुजरात ने हिन्दी भाषा और साहित्य की अभिवृद्धि में प्रशंसनीय योग दिया है, यहां के वैष्णव कवियों ने ब्रजभाषा में, साधु-संतों ने सधुक्कड़ी हिन्दी में, राजाश्रित चारणों ने डिंगल में और सूफ़ी संतों ने हिन्दवी या गूजरी-हिन्दी में सुन्दर साहित्य का सृजन किया
अलाउल की पद्मावती - वासुदेव शरण अग्रवाल
मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत की व्याख्या लिखते हुए मेरा ध्यान पद्मावत के अन्य अनुवादों की ओर भी आकृष्ट हुआ। उनमें कई फ़ारसी भाषा के अनुवाद विदित हुए। किन्तु एक जिसकी और हिन्दी जगत का विशेष ध्यान जाना चाहिए वह बंगाली भाषा में किया हुआ वहाँ के प्रसिद्ध
कन्नड़ का भक्ति साहित्य- श्री रङ्गनाथ दिवाकर
(श्री रंगनाथ रामचन्द्र दिवाकर जी बंबई विश्वविद्यालय के एम. ए., एल.-एल. बी. पदवीधर हैं। विद्याध्ययन के उपरांत आपने अपने जीवन का श्रीगणेश शिक्षण क्षेत्र में प्रेवश करके किया। हुबली के एक स्कूल में कुछ समय शिक्षक का काम किया और उसके बाद कोल्हापुर और धारवाड़
चरणदासी सम्प्रदाय का अज्ञात हिन्दी साहित्य - मुनि कान्तिसागर - Ank-1, 1956
भारतीय संत परंपरा के उज्ज्वल इतिहास में स्वामी चरणदास और उनके द्वारा रचित साहित्य का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। वे निर्गुण साधक थे। विक्रम संवत् 1836 के लगभग चरणदासी संप्रदाय का उद्भव हुआ। वे ढूसर कुल के थे। यधपि कतिपय विज्ञ संदिग्ध हैं, किन्तु वे
चन्दायन - डॉ. विश्वनाथ प्रसाद
टिप्पणी चन्दायन मनेर शरीफ़ से अभी हाल में अपने मित्र प्रो, हसन असकरी की कृपा से मुझे चन्दायन की एक खंडित प्रति देखने को मिली थी। कहने की आवश्यकता नहीं कि मलिक मुहम्मद जायसी से 150 वर्ष पहिले 14 वीं शताब्दी ई. में लिखित मौलाना दाऊद की इस महत्वपूर्ण पुस्तक
निर्गुण कविता की समाप्ति के कारण, श्री प्रभाकर माचवे - Ank-1, 1956
सामान्यतः निर्गुण कविता की समाप्ति के कारण ऐतिहासिक यानी राजनैतिक बताये जाते हैं। मुस्लिम आक्रमण के पश्चात् सगुणोपासना की ओर जनता का ध्यान बढ़ा और भक्ति द्वारा उन्होंने अपने दुःख भुलाये, ऐसा सामान्य विश्वास है। परंतु निर्गुण काव्य के नष्ट होने के बीज
निरंजनी साधु
निरंजनी साधु इनका पंथ भी संवत् 1600 के पीछे हरिदास जी से चला है। हरिदास को कोई साँखला और कोई बीदा राठोड़ बताते हैं। असली नाम हरिसिंघ था। ये धाड़े मारा करते थे। एक दफे अकाल पड़ा था। लोग सिंध में जा जाकर नाज लाते थे। इनके साथियों ने उधर से एक कतार के
रैदास और सहजोबाई की बानी में उपलब्ध रूढ़ियाँ- श्री रमेश चन्द्र दुबे- Ank-2, 1956
भारत की आध्यात्मिक परम्परा में जिन तत्वों का संग्रंथन वैदिक काल से लेकर भक्ति-काल तक अविच्छिन्न रूप से होता रहा है, उन सब का समावेश किसी न किसी मात्रा में हमारे सन्तों की बानियों में मिलता है। दर्शन,पुराण, योग, भक्ति और लोकाचार, सभी के तत्व उनमें सहज
जाहरपीरः गुरु गुग्गा, डा. सत्येन्द्र - Ank-2,1956
जाहरपीर को ही गुरु गुग्गा भी कहा जाता है। जाहरपीर अतवा गुरु गुग्गा का ब्रज में बहुत महत्व है। पेंजर महोदय ने कथा-सरित्सागर के प्थम के प्रथम परिशष्ट पश्चिमोत्तर प्रदेश के संबंध में लिखा है- “In the census returns 123 people recorded themselves as votaries
कर्नाटक के संत बसवेश्वर, श्री मे. राजेश्वरय्या
युग प्रवर्तक बसवेश्वर की वाणी में समाज सुधारक, धर्म सुधारक और सुभाषितकार की एक त्रिवेणी है। यदि एक साथ भगवान बुद्ध और महात्मा गांधी दोनों को देखना हो तो आप भगवान बसवेश्वर में पा सकते हैं। बुद्ध, बसव (बसवेश्वर) और बापू जैसी महान् आत्माओं का जन्म कभी संसार
कवि वृन्द के वंशजों की हिन्दी सेवा- मुनि कान्तिसागर - Ank-3, 1956
कवित्व की प्रतापपूर्ण प्रतिभा सभी में समान भाव से नहीं पाई जाती। अनुभूति का समुचित वैयक्तिकरण ही यदि कवित है तो मानना पड़ेगा कि अनुभूति प्राप्त करने के लिए भी वैसी ही मानसिक पृष्ठ भूमि अपेक्षित है। किसी भी वस्तु विशेष के आन्तरिक रहस्य को समझना हरएक के
अलाउल और उनकी पद्मावती-सत्येन्द्रनाथ घोषाल, शान्तिनिकेतन - Ank-1, 1956
भूमिका अलाउल और उनकी पद्मावती (1645-1652) हिन्दी के महान् कवि मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा 1540 ई. सन् के लगभग लिखी गई पद्मवात नामक रचना भारतीय साहित्य की महत्तम काव्य कृतियों में से एक है। मध्य युगीन बँगला साहित्य के अनेक रचनाओं के लेखक, और वस्तुतः
हिन्दी साहित्य में लोकतत्व की परंपरा और कबीर- डा. सत्येन्द्र
हिन्दी पहले लोक भाषा थी। लोकभाषा ही शनैः शनैः साहित्यिक भाषा का रूप ग्रहण करती है। लोक-भाषा में जो अभिव्यक्तियाँ होती हैं उनमें सहज ही लोकतत्व रहता है। फलतः हिन्दी के आरंभकालीन काव्य में लोक-तत्व मिलना ही चाहिये, हमें इसी लोक-तत्व का अनुसंधान करना है। किन्तु
उड़िया में कृष्ण–भक्ति-साहित्य, श्री गोलोक बिहारी धल - Ank-1, 1956
उड़िया प्रमुख आधुनिक भारतीय भाषाओं में से एक है। उड़ीसा तथा उसके सीमान्त प्रदेशों में यह लाखो मनुष्यों की बोलचाल की भाषा है। यह भाषा पटना वालों के लिए भी नई नहीं है। विशेषतः पटना कालिज के विद्यार्थी तथा अध्यापकों से इस भाषा का विशेष संबंध रहता है, जहाँ