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कर्नाटक के संत बसवेश्वर, श्री मे. राजेश्वरय्या

भारतीय साहित्य पत्रिका

कर्नाटक के संत बसवेश्वर, श्री मे. राजेश्वरय्या

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    युग प्रवर्तक बसवेश्वर की वाणी में समाज सुधारक, धर्म सुधारक और सुभाषितकार की एक त्रिवेणी है। यदि एक साथ भगवान बुद्ध और महात्मा गांधी दोनों को देखना हो तो आप भगवान बसवेश्वर में पा सकते हैं। बुद्ध, बसव (बसवेश्वर) और बापू जैसी महान् आत्माओं का जन्म कभी संसार में एक और कभी युग में एक हुआ करता है। विशेषकर बापू और बसव में एक तरह से फड़कती हुई समानता को देख कर दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है।

    बसवेश्वर के समय के राजनीतिक और धार्मिक आन्दोलनों की जानकारी रखना आवश्यक होगा।

    11वीं और 12वीं शताब्दियाँ सारे संसार में धर्म के आन्दोलन की दृष्टि से अधिक महत्व रखती हैं। यूरोप में पुनरुत्थान की गतिविधियों का सूत्रपात हो रहा था। भारत में शैव और वैष्णव धर्मों का पुनरुत्थान जोर पकड़ता जा रहा था। दक्षिण भारत में शैव धर्म और विशेषतः दक्षिण में वीर शैव धर्म का प्रचार खूब तेजी के साथ हो रहा था।

    दक्षिण के एक बहुत बड़े हिस्से पर 200 वर्षों से स्थित चालुक्य संतति के राज्य की जड़ अब हिल चुकी थी। दक्षिण के उत्तर में देवगिरि के यादव लोग और दक्षिण द्वार पर समुद्र के होयसल लोग शक्तिशाली होते गये। नारमुडितैल या त्रैलोक्यमल्ल नामक चालुक्य राजा के यहाँ एक साहसिक सेनापति और मंत्री हुआ। उसका नाम बिज्जल था। वह स्वामी-द्रोही था। ई. 1161 में उसने राजा के विरोध में विद्रोह करके सिंहासन का अपहरण कर लिया और स्वयं राजा बन गया। कल्याण नगरी उसकी राजधानी बनी।

    बसवेश्वर का जीवन

    11वीं शताब्दी में बीजापुर जिले के बागेवाडी में शैव-ब्राह्मण जाति के मादिराजा और मादलांबिका रहते थे। उनके यहाँ करीब ई. 1128 वैशाख सुदी तीज को एक पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम बसव रखा गया। वह लड़का बड़ा होशियार तथा होनहार प्रतीत हुआ। कहा जाता है कि धार्मिक प्रवृत्तिवाला होने के कारण उसने अपने बचपन में ही शैवागमों का अध्ययन कर लिया। जब वह आठ वर्ष का हुआ तो उसके माता-पिता ने ब्राह्मणों के यहां प्रचलित मताचार के अनुसार उसके उपवीत संस्कार करने की तैयारियाँ कीं, पर बेकार। बसव ने उस उपवीत को कर्मलता कहकर वैदिक धर्म को कर्मकांड प्रधान बताकर उपवीत धारण नहीं किया। साथ ही बसव ने अपने को शिवजी का एक विशेष प्रकार का भक्त घोषित किया।

    अब बसव घर में नही रह सका। वह घर से बिदा होकर पास के कप्पडी गाँव में पहुँचा और मालापहारी और कृष्णा नदी के संगम पर स्थित संगमेश्वर को अपना आराध्य देवता मानकर आध्यात्मिक अध्ययन में लग गया। ऐसा प्रसिद्ध है कि वहाँ उसे जातवेद नामक एक पहुँचे हुए मुनि का मार्ग-दर्शन प्राप्त हुआ।

    यह बताया जा चुका है, कि उस समय कल्याण देश का राजा बलापहारी बिज्जल था। उसके प्रधानमंत्री का नाम था बलदेव। वह बसव का मामा था। उसने बसव की प्रतिभा और साहस से प्रभावित होने के कारण अपनी पुत्री गंगाम्बिका का विवाह बसव से करा दिया। इसके पश्चात् कुछ ही दिनों में बलदेव स्वर्ग सिधार गया। तब तक बिज्ल भी बसव के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हुए। राजा ने बसव को कल्याण राज्य का प्रधान मंत्रित्व स्वीकार करने के लिए बुलावा भेजा। बसव अब दुविधा में पड़ा। जहाँ प्रधानमंत्री पद स्वीकार करने से शैव धर्म के खूब प्रचार करने में सुविधा थी वहाँ सारे कल्याण के राजकाज में व्यस्त रहने से अपने आध्यात्मिक जीवन में धक्का पहुँचने का डर भी था। राजा बिज्जल के बहुत मनाने से बसव मान गया और प्रधानमंत्री बना।

    राजा के पास अपने दूसरे मंत्री सिद्दण्णा की उदारता से दत्तक में ली गयी एक कन्या थी। उसका नाम नीलांबिका था। राजा ने बसव को प्रसन्न रखने के लिए नीलांबिका की शादी कर दी। बसव ने कल्याण नगरी के कल्याण के लिए अथक परिश्रम किया। राज्य के शासन में कईं सुधार किये। देश को संपन्न बनाया और राज कोष को संवृद्ध किया। राजा ने अपने प्रधान मंत्री के इन कार्यो पर अपनी प्रसन्नता प्रकट की, परन्तु यह प्रसन्नता अधिक दिनों तक रही क्योंकि राजा शक्की मिज़ाज का आदमी था। याद रखना चाहिए कि राजा बिज्जल स्वयं बलापहारी होने के नाते स्वामीद्रोही था। इसके अतिरिक्त राजशक्ति किसी को भी अधिक उन्नत नहीं देखना चाहती है। यहाँ तो बसव लोकप्रिय बनता जा रहा था। विशेषतः बसव के सामाजिक एवं धार्मिक सुधार अत्यंत क्रांतिकारी थे। बसव जाति की रीढ़ तोड़कर एक धर्म निरपेक्ष राज्य का निर्माण करने लगा। धर्म का व्यावहारिक रूप रक्खा गया। अनुभव मंटप की नींव डाली गयी। भारत के कोने-कोने से लोग बसव के यहाँ खिंचकर आने लगे। वीरशैव धर्म का प्रसार प्रचार दिन दूना रात चौगुना होने लगा। राजा अब सचमुच बसव से भय खाने लगा। इसलिए वह बसव को दबाने के लिए समय की ताक में रहा।

    ब्राह्मण कुलोत्तम मधुवरस की पुत्री का विवाह अस्पृश्य जाति के हरलय्या के पुत्र से बसव ने कराया। राजा आग बबूला हो गया। ब्राह्मण देवताओं में खलबली मची। प्रजा को भड़काया गया। बसव ने प्रजा को बहुत समझाया, पर बेकार। बसव अपने मंत्री पद को पटककर कूडल संगम देवता के मंदिर की ओर चल दिया। इससे बसव के अनुयायियों को राजा पर क्रोध आया। इसी सम्बन्ध में इधर राजा बिज्जल का वध हुआ, उधर बसव अपने इष्ट देवता संगमेश्वर में लीन हो गया। गांधी जी जैसे बड़े-बड़े लोग अपने ही सिद्धांत के शिकार बने हैं और ठीक वैसे ही बसव भी 1138 ई. के लगभग अपने धर्म-निरपेक्ष राज्य के सिद्धांत का स्वयं शिकार बना।

    बसव तथा समाज-सुधार

    12 वीं शताब्दी में वर्ण भेद, जाति भेद, लिंग भेद एवं वृत्ति भेद रूपी कराल साँप अपनी हजारों जिह्वाओं से मानव समाज को यत्र तत्र सर्वत्र डस रहा था। अंध श्रद्धा का अंधकार दश दिशाओं में फैला हुआ था। अर्थ-शून्य कर्म कांड के बोझ से मानव समाज की रीढ़ झुककर अब टूटने को थी। संक्षेप में कहना हो तो कह सकते हैं कि जीवन एक अभिशाप बना हुआ था।

    वर्ण भेद अपनी प्रारंभिक दशा में भले ही वैज्ञानिक रहा हो परंतु इस समय वह बिलकुल अवैज्ञानिक-सा बना था। क्योंकि अब वर्णभेद का आधार गुण, शील, विद्या रह कर केवल जाति हो गई थी। कहने का तात्पर्य है कि ब्राह्मण के यहाँ पैदा होनें वाला कितना ही गुणहीन विद्याविपन्न और चरित्रहीन क्यों हो, वह ब्राह्मण कहा जाता था और समाज रचना के उच्च पद पर उसे बिठाकर उसका सम्मान किया जाता था। ठीक वैसे ही किसी शूद्र के यहाँ पैदा होने वाला कितना ही गुण, शील, विद्या-संपन्न और चरित्रवान क्यों हो वह शूद्र ही कहा जाता था और समाज रचना के निचले पद पर उसे ठुकराकर उसका अपमान किया जाता था।

    ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चारों वर्णों से हजारों जातियों का उद्भव हुआ। इससे समाज बेढव बना। मानवता की बलि हो गई। आदमी आदमी के बीच की इस असमानता के कारण द्वेष का तांडव होने लगा और घृणा फैलने लगी। जनता विनाश की ओर बढ़ी जा रही थी।

    तभी बसव ने जाति की रीढ़ को ही तोड़ने का बीड़ा उठाया। उसने एक ऐसे धर्म निरपेक्ष राज्य की कल्पना की जहाँ अन्तर्जातीय विवाह हो और अंतर्जातीय भोजन हो। सामाजिक दृष्टि से कोई किसी से बड़ा रहे और कोई किसी से छोटा रहे। याद रखना चाहिए कि अभी अभी भारत ने धर्म निरपेक्ष राज्य बनने की दिशा में जो कदम उठाया है, वही सिद्धान्त कोई आठ सौ वर्ष पूर्व बसव द्वारा कार्य रूप में परिणत किया गया था। बसव ने जोरदार शब्दों में कहा है—

    हत्यारा ही अन्त्यज है, अभक्ष्य खानेवाला ही चांडाल है।

    जाति किस चिडिया का नाम है?

    नहीं तो उन हत्यारों और चांडालों की जाति है कौन सी?

    कुछ लोगों को संदेह हो सकता है कि बसव ने वीरशैव धर्म के प्रचार के द्वारा वीरशैव नामक एक जाति का निर्माण किया। अतः वह जिस जाति नामक गड्ढे में पार उतारना चाहता था उसी का शिकार आप बना। यहाँ लोग भूलते हैं। बसव ने उस समय विद्यमान हजारों जातियों की संख्या के साथ एक और जाति जोड़ने की कोशिश कदापि नहीं की। ठीक इसके उल्टे समग्र जातियों को समूल नष्ट करने का उन्होंने भरसक प्रयत्न किया। हाँ, शिव-भक्ति की डोरी में सबको बाँधना चाहा। जाति से कोई वीर शैव नहीं बन सकता था। गुण से, भक्ति से कोई भी वीर शैव बन सकता था। वीर शैव बनने के बाद आपस में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं किया जाता था। क्योंकि सह-भोजन और सगाई-संबंध चलते रहे। बसव ने कहाः----

    “कुल तो चाहे जो हो हमारा क्या? शिवलिंग युक्त ही कुलीन है।

    शरणों में जाति सांकर्य हो जाने के बाद कौन उनके कुल का छिद्रन्वेषण करे।”

    शिवे जाता कुले धर्म पूर्व जन्म विवर्जितः।

    उमा माता पिता रुद्रो ईश्वरः कूलमेव च।।

    हे कूडल संगम देव। इसके अनुसार उनके यहाँ प्रसाद ग्रहण करूँगा, सगाई-संबंध करूंगा और उन शरणों पर विश्वास भी करूंगा।

    एक दूसरी जगह बसव ने कहा हैः---

    देव ! हे देव ! कुछ मेरी बिनती सुनो

    विप्र से लेकर अंत्यज तक चाहे जो हों।

    यदि वे शिव-भक्त बने हैं तो उन सब को मैं समान मानता हूँ।

    ध्यान से देखने की बात यह है कि शिव-शक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि सबके आपसी ऊँच नीच के भेद भाव को मिटाकर सबको एक ही स्तर पर लाने वाली बनी थी। चेन्नय्या अछूत था, कक्कय्या डोहर था, किनरी बोम्मय्या सुनार था, मधुवय्या ब्राह्मण था, पर ये सब समान माने गये थे शिव-भक्ति के समतल सपाट मैदान में।

    वृत्ति भेद एक दूसरा साँप था जिसने समाज को अत्यंत विषैला बना दिया था। एक ओर वह जाति सूचक थी और दूसरी और वह सामाजिक स्तर का मापदंड थी। आज भी हम देखते है कि लोगों में धारणा बनी हुई है कि मानसिक-वृत्ति दैंहिक परिश्रम से की जानेवाली वृत्ति से कई गुनी ऊँची है। अर्थात् चहार दीवारी के भीतर बैठकर की जानेवाली क्लर्की बाहर खेत में की जानेवाली कृषि से अच्छी समझी जाती है। बीसवीं सदी में जब यह हाल है तब 12 वीं सदी की बात कौन कहे!

    बसव ने वृत्ति को जाति-सूचक ठहराया और किसी की उच्चता या नीचता का धोतक। सभी वृत्तियों को आपस में एक दूसरे के बराबर माना। वेदों को पढ़कर शास्त्री बनना उतना ही महत्व रखता है जितना कि कपड़ों को धोकर धोबी बनना। शौचगृह शुद्ध करने वाले की वृत्ति भी उतनी ही पवित्र है जितनी कि जंगम बनकर दीक्षा देना। तभी तो बसव ने कहाः---

    “लोहा गरमाने में लुहार बना, कपड़ा धोने से धोबी बना, बुनने से जुलाहा बना, वेद पढ़ने से ब्राह्मण बना, कामों से जन्म लेनेवाला कोई है, इस संसार में?”

    अतः बसव ने जोरदार शब्दों में बताया कि वृत्ति कदापि जाति-सूचक नहीं होती। वृत्ति गौरव या अगौरव सूचक भी नहीं होता है। वृत्ति ऊँच नीच नहीं होती है और होनी चाहिए। सभी वृत्तियां गौरववान ही होती है और होनी भी चाहिए। इसी वृत्ति को आजीविका भी कह सकते हैं अर्थात् वृत्ति एक जीवनोपाय है, और इसी जीवनोपाय को बसव ने अपनी पारिभाषिक शब्दावली में कायक कहा है। कायक बहुत सुन्दर और अर्थपूर्ण शब्द है। शरीर से किया जानेवाला परिश्रम कायक है। दूसरे शब्दों में इसी को दैहिक परिश्रम कह सकते है। दुनियाँ जानती है कि बिना किसी जीवनोपाय से जीना कठिन है। क्योंकि अच्छा या बुरा जीवन बिताने के लिए भी कम से कम जीवित रहना पड़ता है। जीवित रहने के लिए कोई कोई जीवनोपाय नितांत आवश्यक हो जाता है। अतः वृत्ति का अगौरव नहीं करना चाहिए। हाँ, अमीरों के पास आजीविका का प्रश्न उतना कड़ा नहीं होता है। परन्तु बसव ने कहा कि यह अमीरी या गरीबी का प्रश्न नहीं है। यह स्वावलंबन का, स्वंतंत्र जीवन का प्रश्न है। स्वावलंबन की एक झलक पर कुबेर का सारा कोष निछावर करने योग्य हो जाता है। जो आदमी आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र रहता है, वह अपने विचारों में भी स्वतंत्र रह सकता है। विचार स्वातंत्र्य तथा वाक् स्वातंत्र्य ही आदमी को आदमी बनाते हैं। चाहे लखपती हो चाहे भिखारी हो किसी को भी परान्नभोजी नहीं बनना चाहिए। क्योंकि इससे बुरा जीवन दूसरा नहीं है। आजीविका पर प्रत्येक मानव का अधिकार होता हैं। अपने पेट के लिए अपनी कमाई से अच्छी चीज़ और क्या हो सकती है? अपनी कमाई की रोटी में जो स्वाद एवं आनंद मिलता है वह पराये की मिठाई में कहाँ? गाँधी जी तो बराबर कहा करते थे कि हर एक आदमी को प्रतिदिन कम से कम आठ घंटों का दैहिक परिश्रम करना चाहिए। दैहिक परिश्रम किये बिना जो भोजन किया जाता है वह परान्नभोज है। अतः वह स्तेय है, चोरी है। गांधी जी ने यह भी कहा था कि धनोपार्जन का अधिकार किसी को भी नहीं। जो आदमी आजीविका से अधिक धन लेता है और स्वार्त से उसका संचय कर लेता है वह चाहे जान में हो या अनजान में दूसरों की आजीविका छीनता है। अतः यग भी स्तेय है, चोरी है। कोई आठ सौ वर्ष पहले बसव ने इसी सिद्धांत को कार्यान्वित किया था। उसने यह भी कहा था कि भिक्षा-वृत्ति कोई वृत्ति नहीं है और वह जीवन के लिए एक अभिशाप है। जंगम लोगों के लिए भी कायक करना अनिवार्य था। क्योंकि अपनी ओर से भगवान को वही चीज अर्पित करने योग्य होती है जो अपनी निजी कमाई की हो। बसव ने इस कायक पर प्रतिदिन कायक करना पड़ता था। अपने लिए कायक चुनने में वह स्वतंत्र था। उसके बाद ऋजु मार्ग में ही उसे अपना कायक करना पड़ता था। विशेषतः कायक में तृप्ति की बात भी थी। उस दिन के लिए अपने या अपने परिवार के लिए जितना चाहिए था उतना ही कमा लेना पड़ता था। उससे ज्यादा कमाना साधु नहीं था। फिर उस दिन की कमाई को सब से पहले भगवान शंकर के लिए अर्पण करना पड़ता था। यह समझा जाता था कि भगवान इससे प्रसन्न होकर प्रसाद के रूप में उस चीज को लौटा देगा। तब उसका गृहण करके उस दिन को गुजर से मुक्त होता था। उसे कल की चिंता होती थी और निराशा की भावना ही जगती थी। भगवान पर भरोसा रखकर और उसी का गुणगान करते हुए रात को सो जाना पड़ता था। उदाहरण के लिए बसव के एकाध वचन लीजिएः---

    “सुवर्ण में से एक रेखा, साड़ी में से एक धागे को आज के लिए या कल के लिए चाहिए करके उसकी उपेक्षा करूँ तो, तुम्हारी सौगंध! तुम्हारे पुरातन भक्तों की सौगंध!”

    “मैं अपने तन के तिल मिलाने से डरकर तुम से बचाओ नही कहूँगा”

    “जीवनोपाय से डर खाकर मैं तुम से याचना नहीं करूँगा। यद् भाव तद् भवति, संकट आवे चाहे संपद आवे----

    ‘चाहिए, नहीं, नहीं कहूँगा’

    हे कूडल संगम देव! तुम्हारा मुँह ताकूंगा और मनुजों से माँगूँगा, सौगंध है तुम्हारी सौगंध है।

    तिस पर अगर मैं मूड़ देव प्रणाम कहकर भीख माँगते जाऊँ तो तुम वहाँ उनसे आगे चल देव कहाओ प्रभु।

    सामाजिक विषमता को दूर करने में और समता की स्थापना करने में बसव के कायक की योजना कार्ल मार्क्स के सिद्धांत से भी उदात्त रही है। उदात्त इसलिए कि कायक भगवान के लिए किया जाता था। हर एक दिन की कमाई भगवान् के लिए पहले चढ़ाई जाती थी और बाद को भगवान से प्राप्त प्रसाद के रूप में उसका ग्रहण किया जाता था। जब भगवान के लिए चढ़ाना पड़ता था तब ऋजु मार्ग से ही आजीविका कमानी पड़ती थी। अतः धर्म की मोहर कायक पर लगाई गई थी। तो अमीर और गरीब ही परान्न भोंजी बनता था। हर एक आदमी उद्यमी होता था। इससे बढ़कर समाज की आर्थिक व्यवस्था और क्या हो सकती है? क्या बीसवीं सदी का समाजवाद या साम्यवाद बसव के इस कायक वाद से होड़ ले सकता है? तभी तो सभी ने मुक्त कंठ से कहा है कि कायक ही कैलास है। अर्थात् किसी भी उद्यमी या धर्म भोरु आदमी को अपने कायक के अच्छी तरह से करने में ही स्वर्ग-सुख का आनन्द प्राप्त होना चाहिए। इस तरह बसव मर्त्य लोक पर ही कैलास को उतार लाया।

    लिंगभेद तो उस समय इतना किया जाता था कि कुछ कहा नहीं जा सकता। धार्मिक क्षेत्र में कौटुंबिक जीवन को कोई मान्यता नहीं दी गयी थी और वहाँ स्त्री तो खासकर बाधक समझी गई थी। स्त्री को धर्म-ग्रंथों के अध्ययन की आज्ञा थी। वह मुक्ति पाने योग्य नहीं समझी गयी थी। सारे संसार की खराबी की एक मात्र जड़ स्त्री मानी गयी थी।

    ऐसे समय पर बसव ने स्त्रियों को तार दिया और अबलायें तो बिलकुल सबलाएँ बना दीं, लिंग भेद को हटा करके स्त्री को पुरुष के समान घोषित किया। धर्म ग्रंथों के अध्ययन की कैद को उठा दिया और स्त्रियाँ बाधक नहीं बल्कि साधक मानी गयीं। मुक्ति की अधिकारी ठहरायी गयी। कौटुम्बिक जीवन को धार्मिक क्षेत्र में भी काफी मान्यता दी। बसव ने कहा है कि विवाहितों की समरस भक्ति को भगवान शंकर सानंद स्वीकार करते हैं। स्वयं बसव विवाहित था और उसके अनुयायियों में से मोलिगे मारय्या आदि दर्जनों विवाहित थे। मान्य दिबाकर जी ने बताया है कि उस समय कोई तीस स्त्री वचनकार थीं। महादेवी जी तो लोक प्रसिद्ध है। महादेवी जी को तो बसव आदि सभी शिव शरणों ने अक्क याने बड़ी बहन कहकर उनके प्रति अपना गौरव सूचित किया है।

    इस तरह बसव ने समाज का सुधार प्रत्येक दृष्टि से करने की चेष्टा की। अतः वह सर्वांगीण सुन्दर बना।

    बसव तथा धार्मिक सुधार

    12वीं सदी का धार्मिक वातावरण अत्यन्त दूषित था। कर्मकांडों के बोझ से धर्म दब गया था। अंध-श्रद्धा और अज्ञान के कारण धर्म का स्वच्छ रूप कहीं भी देखने को नहीं मिलता था। अर्थ हीन ब्राह्मचरणों की धूम मची थी। बात बात पर जप-तप, यज्ञ-याग, व्रत-उपवास और तीर्थ-यात्रा का राग आलापा जाता था। कभी-कभी मारी मसानी आदि देवताओंके लिए बेकसूर भेड़-बकरों की बलि चढ़ाई जाती थी। बाह्याचरण खोखले थे। कथनी जैसी करनी थी। कोई तैंतीस करोड़ देवताओं की पूजा होती थी। गृह देवता की प्रथा का प्रचलन बीसवीं सदी के इस विज्ञान युग में भई जब है तब उस जीवन की अवहेलना की गयी थी। संसार को एक सराय घर समझा गया था। हर किसी की आँखें ऊपर स्वर्ग की ओर लगीं रहती थीं। अर्थात् लोग पलायनवादी बने थे।

    बसव ने युग धर्म को पहचाना और बहुदेवोपसना का खंडन किया। देखिएः----

    “कंगी एक देवता, धनुष की सिंजिनी एक देवता

    पतीली एक देवता और टोंटेदार लोटा भी एक देवात!

    यह एक देवता और वह एक देवता कहकर अपने पग

    धरने के लिए भी खाली जगह नहीं रख छोड़ी है !

    ऐसा मालूम होता है कि भारत में जितने भारतीय थे उनसे भी ज्यादा उनके देवता लोग थे।

    बसव ने बताया कि भगवान के नाम भले ही कई हों पर वह होता हैं एक हीः—

    देव तो होता है एक ही, पर इसके नाम होते हैं कई,

    परम पतिव्रता का पति होता है एक ही।

    भगवान के प्रति प्राणिबलि चढ़ाने के बदले में भक्ति चढ़ाने को कहा। ध्यान देने की बात है कि तब यज्ञ-यागादि के समय ब्राह्मण लोग भी प्राणिवध करते थे। अश्वमेध यज्ञ का अर्थ आखिर क्या है? घोड़े की बली देना। बसव ने अत्यंत मार्मिकता के साथ एक निर्दोष बकरे के प्रति अपने उद्गार यों निकालें हैः----

    “हे बकरे! बात की बात में मुझ को मार डाला है” कहके तू रो, समझा।

    वेदाध्यायियों के सामने रो, समझा!

    शास्त्रज्ञों का सामने रो, समझा“...........!

    याद रखना चाहिए कि वेदों में, शास्त्रों में प्राणिबलि के लिए मान्यता दी गयी है! तभी तो यहाँ बसव ने वेद और शास्त्रों पर व्यंग कसा है। जब अत्यन्त विवेकों ब्राह्मणों की यह हालत है तो अधिवेकियों का वर्णन कौन करे! बसव ने बड़े ही मर्मभेदी शब्दों में यों कहा हैः—

    ‘सूप के तले रख कर पूजे जाने वाले छोटे-छोटे देवों को भेट चढ़ाकर खुशियाँ मनाते हैं’

    क्या उसकी रक्षा जिससे भगवान रूठ गया है, भेड़ कर सकेगी, मर कर?

    प्राणिहिंसा करकें भूतदया से काम लेने के लिए उसने भाँति-भाँति से अनुरोध किया है। बुद्ध और गांधी जी ने तो बताया कि अहिंसा परमो धर्मः। परन्तु बसव ने एक कदम आगे बढ़कर बताया कि दया ही धर्म की जड़ है।

    दूसरे शब्दों में अहिंसा की जड़ दया या करुणा है। केवल हिंसा करना दया नहीं है। बसव का यह लोकप्रिय वचन लीजिएः---

    “दया रहित धर्म कौन है भाई?

    दया ही अपेक्षित है, समस्त प्राणि जगत में,

    दया ही धर्म की जड़ है भाई,

    ऐसों के बिना, अन्यों को कूडल संगय्या पसन्द नहीं करता है।”

    बसव ने दुनियां को माया का घर बताया, संसार को सराय घर बताया और स्त्री को मुक्ति मार्ग को बाधक शक्ति ही बताया। उसने कथनी और करनी पर जोर दिया। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल लोक की नयी व्याख्या सुनाई और जीवन को जीने योग्य बनाया। आदमी को पलायनवादी बनने से बचाया। आत्मपक्ष के साथ लोकपक्ष का समावेश किया। वैयक्तिक कल्याण के साथ लोक-कल्याण की उदात्त भावना का प्रचार किया। जनता के दृष्टिकोण को ही बदल डाला। बसव ने कहा हैः-----

    “स्वर्ग लोक मर्त्यु लोक और नहीं हैं, जान लो भाई।

    सत्य बोलना ही देवलोक है और असत्य बोलना ही मर्त्यलोक।

    आचार ही स्वर्ग है और अनाचार ही नरक.................।”

    यदि स्वर्ग नामक दूसरा लोक भी हो तो मर्त्यलोक के जीवन पर ही बसव ने जोर दिया हैः—

    “हे कूडल संगम देव!

    सृष्टिकर्ता का टकसाल है मर्त्यलोक

    यहाँ चलने वाले सिक्के वहाँ भी चलते हैं

    यहाँ चलने वालें सिक्के वहाँ भी नहीं चलते हैं।”

    बसव ने कहा इन्द्रिय भोग करना कोई पाप नहीं है, विवाह करना कोई अपराध नहीं है, परन्तु पर स्त्री पर कुदृष्टि दौड़ाना बड़ा पाप है।

    “इन्द्रिय निग्रह करूँ तो उपजेंगे कई दोष।

    सामने आकर बारंबार सताएँगी पंचेन्द्रियाँ!”

    ऐसे कई निदर्शन उसके पास थे जिन्होंने भोगी बनकर भी भगवान का साक्षात्कार किया है-

    “सति पति रति सुख को क्या तजा सिरियाल चंगला ने?

    सति पति रति सुख भोगोपभोग विलास को क्या तजा सिंधु बल्लाल ने?”

    इसके साथ साथ उसने लोगों को चेतावनी भी दी है---

    “आँख नहीं उठाना चाहिए पर स्त्री पर, मुँह नहीं खोलना

    चाहिए पर स्त्री से, हरगिज मुँह नहीं खोलना चाहिए

    भेड़ के पीछे पीछे जानेवाले कुत्ते के समान नहीं बनना चाहिए।

    ऐसी एक लालसा हजारों वर्षों तक नरक में गिरा देती है।”

    कूडल संगम देव।

    बसव ने जप-तप, याग-यज्ञ, व्रत-उपवास, तीर्थ-यात्रा आदि बाह्माचरणों की कड़ी आलोचना की है। क्या वीरशैव क्या वीरशैवेतर दोनों को फटकार सुनाई है। कबीर की याद एक बार अपने आप ही आती है। बसव के अनुसारः---

    “मृदु वचन ही समस्त जप है

    मृदु वचन ही समस्त तप है

    सद्विनय ही सदाशिव को रिझाने का तरीका है।”

    ब्राह्मणों की आलोचना करते हुए कहा हैः-----

    “हे प्रभो! तुम्हें समझने के कारण हाथ में घास फूस!

    तुम्हें प्रणाम करने के कारण गले में पाश!

    मरोड़ना क्यों कर, धोना क्यों कर?

    नाक पकड़कर डुबकी बारंबार लगाना क्यों कर?”

    फिर वीरशैव को फटकार सुनाते हुए कहाः-----

    “बाहर लेप कर क्या कर सकूँगा जब तक भीतर शुद्ध नहीं है?

    बाहर रुद्राक्षी बांधकर क्या कर सकूँगा जब तक मन उन्हें स्पर्श नहीं करता है?

    सैकड़ों पढ़कर क्या कर सकूँगा जब तक अपने कूडल संगम देव

    का ध्यान मन से नहीं करता हूँ।”

    तब क्या करना चाहिए? बसव ने इसका जवाब यों दिया हैः----

    “चोरी मत करो, हिंसा मत करो, झूठ मत बोलो,

    कुपित मत होओ, औरों के प्रति घृणा मत करो,

    अपनी स्तुति मत करो, औरों की निंदा मत करो,

    अंतरंग शुद्धि यही है, बहिरंग शुद्धि भी यही है,

    यही हमारे कुडल संगम देव को रिझाने की रीति है।”

    जाति, जनन, मरण आदि पंच सूतक वास्तव में पंच भूत बनकर समाज पर हमला कर रहे थे। वैसे तो शैव सिद्धांत में इन सूतकों का खंडन किया गया है। बसव ने तो इन सूतकों को दे मारा। क्यंकि इन सूतकों के मारे जनता हैरान हो गयी थी। सूतक से मुक्त, बाह्याडंबर से रिक्त, भक्ति से युक्त सुमधुर जोबन बिताने को उन्होंने कहा। भगवान का साक्षात्कार करने के लिए केवल भक्ति चाहिएः-----

    “राह भटक कर मत तड़पो, विभूति मत खरीद लाओ,

    प्रसन्नता से एक बार शिव प्रणाम कहो भाई,

    कूडल संगम देव भक्ति-लंपट होने के कारण,

    शिव शब्द लेने वाले को मुक्ति प्रदान करेगा।”

    और वह भी निजी भक्ति होनी चाहिएः----

    “अपनी भूख मिटाने अपनी पत्नी से समागम करने के लिए कोई अपने बदले में किसी दूसरे से कह सकता है क्या?”

    करनी चाहिए भक्ति, मन से,

    करनी चाहिए भक्ति, तन से।

    इस तरह बसव ने धार्मिक क्षेत्र में युगांतर उपस्थित किया। यह सब अकेले बसव से कैसे साध्य हुआ, यह पूछा जा सकता है। बसव केवल एक व्यक्ति नहीं था, वह एक समाज था। बसव ने एक खास गोष्ठी की स्थापना की थी और उसका नाम अनुभव मंटप रखा था। धार्मिक विषयों पर विचार विमर्श करना इस संस्था का उद्देश्य था। इससे बसव ने खूब लाभ उठाया।

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