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अलाउल और उनकी पद्मावती-सत्येन्द्रनाथ घोषाल, शान्तिनिकेतन - Ank-1, 1956

भारतीय साहित्य पत्रिका

अलाउल और उनकी पद्मावती-सत्येन्द्रनाथ घोषाल, शान्तिनिकेतन - Ank-1, 1956

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    भूमिका

    अलाउल और उनकी पद्मावती

    (1645-1652)

    हिन्दी के महान् कवि मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा 1540 ई. सन् के लगभग लिखी गई पद्मवात नामक रचना भारतीय साहित्य की महत्तम काव्य कृतियों में से एक है। मध्य युगीन बँगला साहित्य के अनेक रचनाओं के लेखक, और वस्तुतः सत्रहवीं शती के सर्वोच्च कवि अलाउल ने, एक शताब्दी बाद, जायसी की इस प्रसिद्ध रचना को आधार बना कर अपनी पद्मावत की रचना की।

    दौलतकाज़ी के बाद (जिसने 1622 से 1635 के बीच में सती मैना नाम की अपनी अकेली अपूर्ण कृति की रचना की थी। अलाउल अराकान दरबार के दूसरे महान् कवि थे। अलाउल का पूरा या वास्तविक नाम हमें विदित नहीं है। अलाउल तो उनका उपनाम सा प्रतीत होता है। स्वयं कवि के द्वारा अपने सभी ग्रन्थों में (अभी तक उनके छः ग्रंथों का पता चला है) दिए हुए विवरण से हमने यह निश्चित किया है कि वे मूलतः फतेहाबाद परगना के जलालपुर नामक गांव के निवासी थे। इनके पिता यहाँ के स्थानीय ज़मींदार मजलिस कुतब के यहाँ जिनका नाम इतिहास में भी आता है, एक बड़े अफसर थे। इस समय फतेहाबाद और गंगा के मुहाने के द्वीपों के दक्षिण में कहीं रहा हो। इस समय इसका कोई पता निशान वहाँ नहीं है, हो सकता है कि नदीं में विलीन हो गया हो।

    जैसा कि अलाउल के अपने वर्णन से विदित होता है, उनका जीवन बहुत घटनापूर्ण और उत्तेजना-संकुल था। अराकान के राज-दरबार में उनका पहुँचना बिल्कुल संयोगवश हुआ। पुर्तगाली समुद्री डाकुओं से उनकी एक रोमांचकारी भिड़न्त हुई जिसमें उनके पिता को मार दिया गया। उस भिड़न्त के बाद ही वे अराकान दरबार में पहुँचे। उनकी रचनाओं से यह भी पता लगता है कि वे एक पुण्यात्मा सूफ़ी मुसलमान थे।

    अलाउल की पहिली और निश्चित ही सर्वोकृष्ट कृति पद्मावती अराकान दरबार में थदो मिंतार (1645-1652) के शासन काल में, राजा के महापात्र मगन ठाकुर की प्रार्थना पर रची गई। ये ठाकुर कौन थे, यह प्रश्न अब भी बहुत विवादास्पद है। अलाउल की पद्मावती केवल एक कविता ही नहीं है, एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक अनुलेख भी है, क्योंकि आरंभ के कुछ अध्यायों में कवि ने युवा राजा थदो मिंतार, उसकी राजधानी, महल, दरबार, स्थल सेना और नौ सेना का विस्तृत चित्रण किया है। इस सत्रहवीं शती के बंगाली मुसलमान कवि की एक साहित्यक रचना में उपलब्ध थदो मिंतार के राज्य काल का उल्लेख इतना सर्वांगपूर्ण है कि उस समय के ऐतिहासिकों के उपलब्ध उल्लेख, मात्रा में उसके आधे भी नहीं है। अलाउल के काव्य में कुछ महत्वपूर्ण बातों में इतिहास से भिन्नता भी है। उदाहरण के लिए इतिहास थदो मिंतार को उसी वंश के पहिले के एक राजा नरपतिदिग्यि (1638-1645) का भतीजा बतलाता है, पर अलाउल उसे उसका पुत्र बतलाता है। श्वेत और लाल हाथियों के अधिपति के रूप में अलाउल द्वारा किए गए थदो मिंतार के उल्लेख में इतिहास का एक महत्वपूर्ण समर्थन मिलता है। यह वर्णन उसके सिक्कों में उल्लिखित उपाधइ से बिल्कुल मिल जाता है।

    अलाउल का पद्मावत यद्यपि अपने में ही एक महत्वपूर्ण रचना है पर मुख्यतः वह एक अनुवाद है या और अधिक सही अर्थों में जायसी की महान् कृति की एक विश्वसनीय अनुकृति है। जब हम इन दोनों कृतियों की तुलना करते है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अलाउल ने जायसी का अनुकरण करते हुए भी बहुत सी बातों में पूर्ण स्वच्छन्दता दिखाई है। इन भेदों को हम मोटे रूप से निम्न वर्गो में विभाजित कर सकते हैः-

    1 कथा के विस्तारों में भेद, विशेषतः अन्तिम अंश में जो (जिस रूप में वह अलाउल के हस्तलेखों में प्राप्य है) निश्चित रूप से अविश्वसनीय है।

    2 नामों और घटना-क्रमों के परिवर्तन।

    3 जायसी के कुछ अंश जो अलाउल ने संक्षिप्त कर दिए है।

    4 जायसी के वे अंश जो अलाउल ने छोड़ दिए हैं।

    5 अलाउल के मौलिक अंश जो जायसी में नहीं हैं।

    इस बात में कोई सन्हेद नहीं है कि बन्दीगृह से रतनसेन के मुक्त हो जाने के बाद दिल्ली के सुलतान के साथ गोरा बादल की लड़ाई से लगा कर कहानी का शेष अंश, जो बंगाली रचना में मिलता है, अलाउल द्वारा नहीं लिखा गया। इस अंश की अप्रमाणिकता निम्न आधारों पर सुनिश्चित है। एक तो कहानी का परिणाम उस परिणाम से भिन्न है जिसकी प्रतिज्ञा अलाउल ने ग्रंथ के आरंभिक स्थलों में की है और दूसरे यह जायसी से भी बहुत अधिक भिन्नता रखता है। वर्णन शैली का सौन्दर्य द्रष्टव्य रूप से इस भाग में हीन हो गया है और उसकी प्राञ्जलता स्पष्ट ही कम हो गई है। शब्द-सज्जा और संगीत इस प्रकार यकायक विलुप्त हो जाते हैं कि पाठक निश्चित रूप से यह अनुभव करता है कि यहाँ वह एक घटिया कवि से अलझ रहा है। अलाउल के वर्णनों की भव्यता, उसके विद्वात्तापूर्ण संदर्भ, उसकी विवेकपूर्ण अभिव्यक्तियों, उसकी उपमाएँ और रूपक, सब यहाँ यकायक गायब हो जाते है। इस खंड में मुश्किल से कहीं जायसी की दो चार साथ की पंक्तियाँ एकत्र अनूदित मिलेंगी। इसकी अप्रमाणिकता का एक दूसरा और बुहत महत्वपूर्ण आधार यह है कि कवि के प्रशंसक और संरक्षण मगन ठाकुर का उल्लेख इस भाग में बहुत कम (केवल दो स्थानों पर) होने के अतिरिक्त एक ऐसे ढंग से हुआ है कि उससे दूसरे कवि का संकेत सुनिश्चित हो जाता है। एक जगह मगन का उल्लेख इस प्रकार हैः-

    पद्मावती ओर नागमती दोनों साथ साथ (अपने पति की चिता पर) जल मरी और अलाउल ने विस्तारपूर्वक मगन से इन घटनाओं का वर्णन किया।

    यह उल्लेख विशेष रूप से इस आत्म-स्वीकृति की सूचना देता है कि अलाउल पूर्ण रूप से इस खंड की रचना का भागी नहीं है। एक दूसरा महत्वपूर्ण अन्तर यहाँ यह है कि इस स्थल पर अलाउल अपने को हीन नहीं बतलाता। यह बात उसके स्वभाव के सर्वथा विपरीत है और पिछले भागों में आए हुए प्रत्येक उल्लेख की एक विशेषता है। केवल इतना ही नहीं, कहानी के इस अन्त्य भाग में अलाउल आत्म-प्रशंसा करता हुआ भी प्रतीत होता है और यह बात उस विनम्र सूफ़ी कवि के विषय में कभी विश्वसनीय नहीं कही जा सकती। प्रारंभ में उसने कहीं पर भी इस प्रकार की अद्भुत प्रवृत्ति का प्रदर्शन नहीं किया है।

    इस बंगाली कथा का अन्तिम भाग नीरस वर्णन मात्र है। काव्योत्कर्ष का उसमें कहीं नाम भी नहीं है। छन्द-विधान की विविधता और सुन्दरता भी यहाँ अप्राप्य हो जाती है और सारी सामग्री स्थिर गद्य जैसी प्रतीत होने लगती है। यहाँ कथानक जायसी से इतना भिन्न हो जाता है और उसका अन्त, इतिहास की छीछालेदर करते हुए, इतनी हास्यास्पद उत्तेजनाओं और भावनाओं के साथ पूर्ण होता है कि अलाउल को इस भाग की रचना से संबद्ध कर देना बहुत कठिन हो जाता है। यह संकेत कि अलाउद्दीन चित्तौर आया और रतनसेन के लड़कों के साथ वर्षों तक रहा, इतना ऊलजलूल है कि इस प्रकार का अन्त केवल परियों की कहानियों में ही संभव कहा जा सकता है। एक महान् काव्य के लिए अथवा बंगाली साहित्य के एक युग-निर्देशक ग्रंथ के लिए-जो गौरव कि अलाउल की पद्मावती को निस्सन्देह रूप से प्राप्त है ही- यह अन्त समाचीन नहीं है। कहानी के विस्तार में अन्य भेदों में रतनसेन के घोड़े और हाथी की सवारी के कौशल का उल्लेख किया जा सकता है। जायसी इस विषय में अलाउल की तरह लम्बे लम्बे विस्तारों के फेर में नहीं पड़ता पर अलाउल की कृति में रतनसेन को अपनी विद्वत्ता की परीक्षा देनी पड़ती है जिसमें पद्मावती के द्वारा अपने योग्य पति के रूप में स्वीकार किए जाने से पहिले यह राजकुमार गंभीर और विशद् ज्ञान का प्रदर्शन करता है। जायसी में इन बातों का कोई उल्लेख नहीं है। मूल ग्रंथ में अपने भावी दामाद के साथ किए गए अपराधों के लिए गंधर्वसेन की ओर से कोई क्षमा-याचना भी नहीं की जाती पर अलाउल हमारे सामने क्षमा माँगते हुए श्वसुर को इस प्रकार उपस्थित करता हैः-

    अजानित अपराधी क्षेमिबा आमारे।

    क्षेमाशीलाधिक तुमि संसार माझारे।।

    (मैंने अनजाने में अपराध किया है और तुम इस संसार में बहुत अधिक क्षमाशील हो)।

    रतनसेन इसका बहुत गौरवपूर्ण उत्तर देता है।

    इसके बाद अलाउल मूल से हटकर संस्कृत काव्य-शास्त्र और संगीतशास्त्र का गंभीर परिचय देता है और रतनसेन को आठ प्रकार की नायिकाओं के भेद बतलाते हुए बहुत मुखर कर देता है।

    मूल से दूसरा महत्वपूर्ण अवान्तर रतनसेन-पद्मावती-विवाह प्रसंग में दृष्टिगत होता है। अलाउल इस दृश्य को निश्चय रूप से बंगाली रंग में रँगता है औऱ इस राजकीय विवाहोत्सव के लिए समुचित आडम्बर और प्रदर्शन की बहुलता में, बंगाल के हिन्दुओं के रीति-रिवाज जहाँ-तहाँ बहुत प्रधान रूप से उपलक्षित होता है। अलाउल के इस दृष्य के बहुत से वर्णन जायसी में नहीं पाए जा सकते।

    अलाउल द्वारा वर्णित जायसी से विभिन्नता रखने वाले अन्य प्रसंगों में कुछ नामों तथा अन्य बातों का परिवर्तन उल्लेखनीय है। जायसी का सरजा कई जगह अलाउल द्वारा संस्कृतनिष्ठ श्रीजा कर दिया गया है और उसे निश्चित रूप से एक ब्राह्मण बना दिया गया है, यद्यपि जायसी ने कहीं भी सरजा की जाति, धर्म या राष्ट्रीयता का उल्लेख नहीं किया है और अनुमान का आधार भी बहुत कम है। जायसी से अलाउल की भिन्नता का एक दूसरा उदाहरण गोरा और बादल के आपसी संबंध के विषय में है। जायसी उनके संबंध के विषय में कोई स्पष्ट बात नहीं कहता, जबकि अलाउल उन्हें निश्चित रूप से भाई बना देता है। जायसी की जसोवा केवल बादल की माँ है, पर अलाउल की यशोदा गोरा और बादल दोनों की माँ है।

    फिर जायसी ने समुद्र की बेटी का लक्ष्मी नाम ठीक ही रक्खा है, पर अलाउल बहुत हलके कारणों के बल पर, उसे पद्मावती भी कहता है।

    फिर अलाउल की रचना में पद्मावती नौका डूब जाने के बाद समुद्र तट पर होश में आती है तो अपने पास अपनी सहेलियों को देखती है जिनके नाम चन्द्रप्रबा, विजया, रोहिणी और विद्युन्माला है। लेकिन जायसी में तो किन्हीं परिचारिकाओं का उल्लेख है और कोई नाम ही वहाँ आता है।

    फिर जायसी ने सात समुद्रों का विस्तार से वर्णन किया है, पर अलाउल ने मुश्किल से छः पंक्तियाँ इस विषय पर लिखीं है। अलाउल ने जायसी के ज्ञानपूर्ण स्त्री-भेद विवरण को भी केवल चार पंक्तियों में ही चलता कर दिया है। इसके विपरीत अलाउल ने पौराणिक पक्षी ककनूँ (अलाउल में ककनूस) के विचित्र अन्त का बड़े विस्तार से वर्णन किया हैं। जायसी ने केवल उपमा देने के लिए पंक्ति में इस चिड़िया का उल्लेख किया है।

    जायसी में बादशाह की दूती देवपाल की दूती के बाद आती है पर अलाउल ने यह क्रम उलटा कर दिया है।

    कथा-वर्णन में भी अलाउल बहुधा अत्यधिक स्वतन्त्रता का उपयोग करता है और जहाँ ज्यों का त्यों अनुवाद भी करता है, वहाँ भी अपनी समझ से आवश्यक परिवर्तनों को लाने में संकोच नहीं करता। यधपि जायसी की पंक्तियों का स्वतन्त्र अनुवाद अलाउल में बहुत विरल नहीं है लेकिन शाब्दिक अनुवाद बहुत स्वल्प है।

    अलाउल द्वारा किए गए जायसी की रचना के अनुवाद का स्वरूप कुछ भी हो पर यह बात अवश्य ध्यान दिलाने की है कि केवल बंगाली साहित्य में ही नहीं, हिन्दी साहित्य में भी उसका एक विशिष्ट महत्व है। मेरा यह विचार है कि कई स्थलों पर जायसी के किसी छन्द की प्रामाणिकता या अप्रामाणिकता अलाउल की कृति द्वारा बहुत सुगमतापूर्वक निश्चित की जा सकती है, क्योंकि अलाउल का अनुवाद अवश्य ही मूल रचना की किसी बहुत प्राचीन और प्रामाणिक कृति पर ही आधारित रहा होगा। अभी कुछ सालों में जायसी के पद्मावत के कुछ अच्छे संस्करण प्रकाशित हुए है, पर मुझे संशय है कि विद्वान् सम्पादकों ने किसी ऐसे हस्तलेख की भी सहायता ली है जो अलाउल की रचना से पुराना हो। अलाउल ने जिस हस्तलेख के आधार पर तीन सौ साल से भी अधिक पहिले अपनी कृति का ढाँचा खड़ा किया था, उसके लिए तो कुछ कहना ही नहीं है।

    शुक्ल जी द्वारा सम्पादित जायसी के पद्मावत से तथा शैरिफ के अंग्रेजी अनुवाद से यह एक गलत धारणा, प्रचलित हो गई कि गन्धर्वसेन द्वारा रतनसेन के बन्दी किए जाने पर केवल दैवी व्यक्तियों द्वारा हस्तक्षेप किया गया। पर डाक्टर माता प्रसाद गुप्त ने यह दिखलाया है कि इस प्रसंग की बहुत सी पंक्तियाँ निश्चित रूप से प्रक्षिप्त हैं और प्रामाणिक पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि जायसी में अलाउल की तरह एक भाट ने, जो मनुष्य है, इस प्रसंग में बहुत महत्वपूर्ण काम किया है। इस प्रकार जायसी के पद्मावत के इस प्रसंग में बहुत छन्दों का प्रक्षेप की बँगला रचना से पुष्ट हो जाता है।

    एक दूसरे उदाहरण के लिए डॉ. लक्ष्मीधर के हाल के जायसी के अध्ययन से निम्न पंक्ति को लीजिएः-

    सखी सहस दस सेवा पाई? (छन्द 17 पंक्ति6)

    इस पंक्ति का पाठ शुक्ल जी में भी ऐसा ही हैः

    सखी सहस दस सेवा पाई। (26।27)

    शैरिफ महोदय भी इसी भाव का अनुवाद करते हैः

    दस हज़ार सहेलियाँ सेवा में उपस्थित थीं। (26।17)

    पर डा. गुप्त के संस्करण में इसका पाठ इस प्रकार हैः

    सखी सहस दुइ सेवाँ आई। (छंद. 288)

    उद्धृत पंक्ति चार व्यक्तियों द्वारा स्वीकृत है जिसमें से तीन उसे एक प्रकार से स्वीकार करते हैं और चौथा दूसरे प्रकार से। इस समस्या का हल एक बंगाली कवि की रचना में है जिसमें वह पंक्ति इस प्रकार हैः-

    सखी दुइ सहस आसिल सेवा काजे।

    इस प्रकार अलाउल का इस पंक्ति का अनुवाद सही पाठ को पुष्ट करता है।

    इस प्रकार के उदाहरण संख्या में इतने अधिक है कि उन्हें यहाँ उद्धृत नहीं किया जा सकता।

    जायसी में बहुत सी पंक्तियाँ ऐसी है जिनकी प्रामाणिकता अलाउल के साक्ष्य पर संदिग्ध हो जाती है। शुक्ल जी के संस्करण के 34 वें खंड का 23 वां छन्द जो डा. गुप्त ने निकाल दिया है, अलाउल द्वारा अनुदित है। यह बात उसके अप्रामाणिक होने के विषय में गंभीर सन्देह उत्पन्न करती है।

    शुक्ल जी के संस्करण के 47 वें खंड का दूसरा छन्द भी, जो डा. गुप्त ने स्वीकार नहीं किया है, ऐसा ही सन्देह खड़ा करता है, क्योंकि एक के बाद दूसरे फाटक को पार करने का भाव, बहुत संक्षिप्त रूप से ही सही, अलाउल में आया है।

    अतः यह स्पष्ट है कि जायसी के पद्मावत के कुछ छन्दों, पंक्तियों तथा पंक्ति भागों की प्रामाणिकता अप्रमाणिकता की कृति पर विचार करके, बहुत पुष्ट आधार पर संदिग्ध कही जा सकती है।

    -सत्येन्द्रनाथ घोषाल

    -शान्तिनिकेतन

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