चरणदासी सम्प्रदाय का अज्ञात हिन्दी साहित्य - मुनि कान्तिसागर - Ank-1, 1956
चरणदासी सम्प्रदाय का अज्ञात हिन्दी साहित्य - मुनि कान्तिसागर - Ank-1, 1956
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भारतीय संत परंपरा के उज्ज्वल इतिहास में स्वामी चरणदास और उनके द्वारा रचित साहित्य का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। वे निर्गुण साधक थे। विक्रम संवत् 1836 के लगभग चरणदासी संप्रदाय का उद्भव हुआ। वे ढूसर कुल के थे। यधपि कतिपय विज्ञ संदिग्ध हैं, किन्तु वे स्वयं एवं उनकी परम्परा के साहित्यिक इन्हें ढूसर कुलावतंस ही मानते हैं। वह समय राजनैतिक दृष्टि से बहुत ही विषम था। आर्य संस्कृति और सभ्यता पर आघात प्रतिघात निर्दयतापूर्वक हुआ करते थे। हिन्दू धर्म व्यर्थ के आडम्बरों में इतना फँस चुका था कि त्यागी कहे जाने वाले संत भी इन्द्रिय-संभूत आनन्दोपलब्धि में लिप्त थे। सामाजिक वर्गभेद पनप रहा था। साहित्य और आन्तरिक साधना का क्षेत्र सीमित हो चला था। मानवता के नाम पर हीनतम प्रवृत्तियाँ विकसित हो रहीं थी। न केवल उन दिनों हिन्दू समाज मुगलों के निष्ठुर आक्रमणों से ही भयभीत था अपितु पारस्परिक साम्प्रदायिक भावना से भी वह अपनी चिराचरित साधना द्वारा अर्जित पथ से गिर रहा था। ऐसी स्थिति में निर्गुण परम्परा के प्रबल समर्थक के रूप में स्वामीजी ने अवतरित होकर भारतीय चेतना को उद्बुद्ध किया।
चरणदासी परम्परा के साहित्य के परिशीलन से ज्ञात होता है कि उसने योग पर बहुत बल दिया है। दार्शनिक एवं पूजोपासना के विविध आडम्बरों पर दृष्टि केन्द्रित करने से ज्ञात होता है कि भले ही अंशतः यह परंपरा कबीर का अनुसरण करती हो, किन्तु यह निम्बार्क संप्रदाय के अधिक निकट है। स्वामीजी का मन्तव्य है कि गृहस्थ जीवन भी यदि सदाचार और संयम द्वारा व्यतीत किया जाय तो आन्तरिक विकास किया जा सकता है। तात्पर्य, उन्हें सन्यासाश्रम के बाह्याडम्बरों से घृणा थी। शरीर के नहीं वे जीवन के शिल्पी थे। न केवल वे साधक संत ही थे, अपितु उच्च कोटि के साहित्यिक होने का भी उन्हें सौभाग्य प्राप्त था। उनकी सधी हुई वाणी सर्वसाधारण को अन्तर्मुख जगत् की ओर आकृष्ट करती है। वेदान्त, योग, भक्ति और ज्ञान जैसे मार्मिक विषयों पर लाक्षणिक शैली में स्वामीजी ने जो अनुभूति व्यक्त की है वह भारतीय संत परम्परा की एक ऐसी महती निधि है जिस पर सद्भव तथा मानवता गौरव ले सकते हैं। अधावधि अन्वेषित साधनों से इनके द्वारा रचित 20 ग्रन्थों का पता चला है।
चरणदास के शिष्य-प्रशिष्यों की परम्परा पर्याप्त थी। इनके प्रधान शिष्य 52 गिनें जाते हैं। बताया तो यहाँ तक जाता है कि इन्हें विशेष प्रकार से शिक्षित कर विभिन्न स्थानों में स्वमत-प्रचारार्थ भिजवाया गया था, परन्तु यह असंदिग्धरूपेण नहीं कहा जा सकता है कि किस शिष्य को किस प्रान्त और नगर में प्रेषित किया गया था। इस पर ग्रन्थ कृतियाँ इसी संप्रदाय की अनुयायिनी थीं। इस परम्परा के उपलब्ध साहित्य से अवगत होता है कि ये शिष्यायें भी न केवल उनकी साधना-पद्धति का ही सफलतापूर्वक प्रतिनिधित्व करतीं थीं अपितु साहित्यिक दृष्टि से भी इन्होंने जो मानवतापूर्वक विचार व्यक्त किये हैं, वे आज भी अन्वेषण के क्षेत्र में नूतन क्रान्ति को जन्म दे सकते हैं। इन्होंने स्वसंप्रदाय के उच्चतम सिद्धान्तों को अधिक से अधिक लोकभोग्य बनाने के लिए पुरातन प्रणयन कर संत साहित्य की अभिवृद्धि करने के साथ मेवाती भाषा के साहित्यिक भंडार को पुष्ट किया। यधपि हिन्दी साहित्य के उपलब्ध अधतन नवीन समस्त इतिहास एवं आलोचना मूलक ग्रन्थों में केवल चरणदास, रामरूप, दयाबाई और सहजोबाई का ही नामोल्लेख मिलता है, पर यह नहीं माना जाना चाहिए कि इस संप्रदाय का इतना ही साहित्य था, किन्तु पता यह चलता है कि अधावधि अन्वेषित साधनों से केवल उपर्युक्त साहित्य ही ऐसा है जिसका संबंध चरणदासी संप्रदाय से है। कवि और लेखक तो और भी हुए हैं, परन्तु उनका साहित्य तिमिराच्छन्न होने के कारण न केवल जनता के सम्मुख ही नहीं आया अपितु एतद्विषयक साहित्यिक विज्ञ भी इस निधि से अपरिचित ही रहे। यहां तक कि इस संप्रदाय के प्रसिद्ध ग्रन्थों तक का उल्लेख इतिहास ने नहीं किया। डा. रामकुमार वर्मा ने हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास (पृ. 291) में जहां रामरूप की कृतियों की चर्चा की है वहाँ उनके अत्यन्त प्रसिद्ध गुरुभक्ति प्रकाश जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ का अनुल्लेख रहना एक आश्चर्य है। परशुराम चतुर्वेदी कृत उत्तर भारत की संत परम्परा में चरणदासी साहित्य पर जो कुछ भी विचार व्यक्त हुए हैं वे उपर्युक्त पंक्तियों तक ही सीमित हैं, अर्थात् स्वामीजी, दयाबाई, सहजोबाई व रामरूप का ही नामोल्लेख है। मोतीलाल मनोरिया कृत राजस्थानी भाषा और साहित्य जैसे तद्देशीय प्रामाणिक ग्रन्थ में भी चरणदासी साहित्य पर जो कुछ उल्लेख है उसमें शोध जैसी कोई मौलिकता दृष्टिगोचर नहीं होती। अन्वेषित साधनों के आधार पर ही सीमित विचारधारा पर चलने वाले साहित्यिकों को चाहिए कि कम से कम स्वतन्त्र मस्तिष्क द्वारा अन्वेषण के क्षेत्र में पदार्पण करें।
प्रस्तुत प्रबन्ध में चरणदासी संप्रदाय के नये लेखकों की कृतियों का परिचयात्मक उल्लेख किया जा रहा है जो अधावधि न केवल साहित्यिक संसार से ही अज्ञात थीं, बल्कि कहना तो यह चाहिए कि इस संप्रदाय के अनुयायी तक इन महानुभावों की कृतियों से आज तक अपरिचित रहे। इन पंक्तियों को अनुभव के आधार पर ही लिखा जा रहा है। नागरीदास, छौनाजी, अखैराम, चैतन, हरिदास, जन बेगम और खुलासां बाई ये हिन्दी में नवोपलब्ध चरणदासी संप्रदायानुयायी कवि हैं जो कि सर्वप्रथम प्रकाश में आ रहे हैं। यधपि ये सभी साहित्य-प्रणेता, प्रथम साधक और बाद में लेखक या कवि हैं, किन्तु इनका साहित्य केवल स्वमतपोषक परम्परा तक ही सीमित नहीं है, क्योंकि आयुर्वेद, योग, वेदान्त, भक्ति, चरित्र, ज्ञान और भागवत का अनुवाद आदि विषयों पर लाक्षणिक शैली से मार्मिक प्रकाश डालकर दीर्घकालव्यापी साधना का सुपरिचय इन्होंने दिया है। भले ही इनके निर्माता विशेष संप्रदाय से संबद्ध रहे हों एवं स्वमतपोषक तत्वों का प्रगुम्फन किया हो, परन्तु साहित्यिक एवं भाषाविज्ञान की दृष्टि से इन कृतियों का बहुत बड़ा महत्व है, बल्कि मेवाती भाषा में अधावधि उपलब्ध साहित्य में इन कृतियों का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। मेवात प्रदेश में चरणदासी संप्रदाय फलाफूला, अतः संपूर्ण मेवात-मंडल, उत्तरप्रदेश, पूर्वी पंजाब, दिल्ली एवं राजस्थान के अन्य भूभागों में धैर्यपूर्वक गणना करवाई जाय ते, चरणदासी संतो का और भी पुष्ट एवं विचारोत्तेजक साहित्य उपलब्ध किया जा सकता है। इस संप्रदाय के साहित्यिक ग्रन्थों में कहीं कहीं जो ऐतिहासिक तथ्य एवं तात्कालित राजकीय परिवारों पर जो विचार मिलते हैं, वे इतिहास की एक ऐसी कड़ी है जिनपर कि इसलिए विश्वास करना अनिवार्य है कि वे वैयक्तिक स्वार्थमूलक जीवनयापन करने वाले लेखक की कृतियाँ नहीं, एक ऐसे विचारशील साधक की सूचनाएँ हैं जो अपने जीवन से सांसारिकता को सदा के लिए विदा कर चुका है। उपर्युक्त पंक्तियाँ नागरीदास एक अखैराम की कृतियों पर पूर्णतः चरितार्थ होती हैं।
विप्र नागरीदास
हिन्दी साहित्य के विभिन्न इतिहासों पर दृष्टि केन्द्रित करने पर विदित होता है कि एक ही शताब्दी में एक ही नाम के एक ही विषय पर लिखने वाले कई कवि हुए हैं, उदाहरणार्थ, नागरीदास को ही लें। इस नाम के एक से अधिक कवि साहित्यिक जगत् में विख्यात हैं, किन्तु जिन नागरीदास का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है वह अधावधि ज्ञात नागरीदासों से सर्वथा भिन्न है। यधपि इसी शताब्दी में एक और नागरीदास का पता चलता है जो बिहारिनदास के शिष्य और कृष्णदास के गुरु थे। प्रस्तुत नागरीदास ने स्पष्टतया अपना संप्रदाय सूचित नही किया, किन्तु कवि ने भागवत के अनुवाद के मंगलाचरण में एवं अन्य कई स्थानों पर शुकदेवजी व चरणदास जी को बड़े ही आदर व श्रद्धा के साथ स्मरण किया है। चरणदास के 52 शिष्यों में कवि का नाम सम्मिलित है। कवि चरणदासी संप्रदाय का अनुयायी था यह बात असंदिग्ध है। यधपि इनके जीवनपट पर प्रकाश डाल सके वैसी सामग्री न कवि ने दी न अन्यान्य साधन से ही उपलब्ध है, परन्तु इसमें संदेह नहीं है कि वे उच्चकोटि के साधक व श्रेष्ठतम कवि थे। उनके विशद पांडित्य का सूक्ष्म परिज्ञान भागवत के अनुवाद में परिलक्षित होता है। विधावताम् भागवते परीक्षा सिद्धान्त कवि के जीवन में साकार हैं। यह केवल अनुवाद नहीं है। कवि ने इतनी स्वतन्त्रता से काम लिया है कि कहीं कहीं तो एक ही श्लोक के भावों को स्पष्ट करने के लिए कई स्वतन्त्र छन्दों का आयोजन करना पड़ा है, और कहीं कई श्लोकों का भाव एक छन्द में व्यक्त कर दीर्घकालव्यापी काव्यमयी साधना का सुपरिचय दिया है। इतना विशद अनुवाद अभी तक कैसे अज्ञात रह सका यह एक आश्चर्य है। प्रसंगतः एक बात का स्पस्टीकरण अनिवार्य जान पड़ता है, भले ही कवि का जन्मस्थान, जन्मकाल, ज्ञाति आदि की स्पष्ट सूचना नहीं मिलती है, किन्तु कवि की इस अनुदित कृति से व उसके आश्रयदाता से विदित किया जा सकता है कि उनका संबंध अलवर या राजगढ़ से था। कवि ने संभव है इसी भूमि को अपने जन्म से अलंकृत किया हो। जहाँ तक भाषा का प्रश्न है असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है कि वह मेवात मंडल का ही ऊर्जस्वल व्यक्तित्वसंपन्न चरित्र का प्रतीक था। न केवल वह कवि ही था बल्कि स्वाभिमानों साधक एवं आदर्शमय जीवनयापन करने वाला महामानव था। वह अपने स्वामी की प्रशंसा में जिस संयम से काम लेता है वह उसके वैयक्तिक जीवन एवं पांडित्यमयी प्रतिभा को प्रशस्त करता है।
कविवर नागरीदास ने भागवत का यह छंदबद्ध हिन्दी अनुवाद नरूखंडाधिपति जोरावरसिंह तत्पुत्र महव्वतसिंह और उनके पुत्र राव राजा श्री प्रतापसिंह के दीवान और प्रतिनिधि हलदिया कुलावतंस श्री छाजूराम के स्नेहांकित अनुग्रह से तैयार किया था। प्रत्येक अध्याय के अंतिम भाग में उपर्युक्त पंक्तिगत अर्थ को स्पष्ट करने के लिए साह छाजूराम का नामोल्लेख है। अपने आश्रयदाता या प्रेरख के प्रति कवि का विशेष आदरभाव जान पड़ता है, जो स्वाभाविक है। कवि को साह जी के हाथी, अश्व, भूमि और वस्त्रादि द्वारा सम्मानित किया था। इसका एक कारण यह भी जान पड़ता है कि साहजी के स्वामी प्रतापसिंह स्वयं स्वामी चरणदास के परम भक्त थे। स्वामीजी जब जयपुर पधार रहे थे तो उन्होंने पर्याप्त सम्मान किया था जैसा कि रामस्वरूप के गुरुभक्ति प्रकाश से सिद्ध है। यह अनुवाद भी स्वामीजी के जीवित रहते ही प्रारंभ कर दिया गया था-सं. 1832 बैसाख सुदी 3 को। समाप्ति कब हुई, यह कहना जरा कठिन है परन्तु साहजी की मृत्यु तिथि सं. 1845 पड़ती है। अतः इतः पूर्व ही इसका काल पूर्ण और अपूर्ण प्रति मेरे संग्रह में है और एक अपूर्ण प्रति हिन्दी साहित्य समिति, भरतपुर में सुरक्षित हैं। (गत मार्च में जयपुर में डा. वासुदेवशरणजी से पता चला कि नागरीदास कृत मानवतानुवाद की एक प्रति कलकत्ता के राजस्थानी साहित्य के विशिष्ट प्रेमी श्री चोथमल सराफ के संग्रह में है। नहीं कहा जा सकता है कि यह किस नागरीदास की कृति है)।
भागवतानुंवाद के आदि और अंतिम भाग इस प्रकार है-
आदि भाग
श्रीशुक चरननदास के बैठि चरण की नाव।
रे मन अलि भज पार हो भलो बन्यो है दाव।।1।।
अलि कुल मंडित गंड जुत सुडा दंड उदंड।
मंडन शुभ षंडन अशुभ जय बेतंड प्रचंड।।2।।
नरूखंड मंडित विदित राजा रावप्रताप।
सूरबीर दाता भरणि देस देस जिहि छाप।।3।।
कवित
सुरन समान सैना चढ़ति सु जाके संग वज्र सम जाके षग्ग सु वषानियैं।
राजगढ़ राजत समान सुर पुर जाकै छाजू राम कलपतरोवर प्रमानियै।।
विजय नागरे की वजन घनघोर जोर ऐरावत तुल्य गजराज घर जानियै।
इंद्र सम प्रगट नरेन्द्र महाराज राव भूपति प्रतापसिंह जाके गुन गानिये।।5।।
दोहा
तिहिं प्रतिनिधि दीवान जो साह सु छाजूराम।
गोत हलदिया तास वर सकल सुषनि को धाम।।6।।
विप्र नागरीदास सौं तिन कीनो अति प्रीति।
हय गय वसु बहु भेंट दै सुनै पुरान सु रीति।।7।।
तिन इक बिन ऐसें कही धरि हिय मैं अलि नेहु।
भाषा श्री भागवत की तुम हम कों करि देहु।।8।।
कीनौं प्रथम स्कंध में तब सु चौपाई रीति।
नृप ताकौं नैननि निरषि यौं निदेस मुष गीत।।9।।
लगै बांचिवे मैं सुभग छंद रीति जो होय।
तब निज बुधि अनुसार करि रच्यो जु मैंने सोइ।।10।।
संवत अष्टावत सु सत पुनि बतीस प्रमान।
तृतिया सुवि बैसाख की ग्रंथारभ सु मानि।।11।।
त्रयोदश अध्याय के अंत में-
श्रीसुक चरननदास के चरन सरोज मनाय।
आसय श्रीभागवत मैं भाषा कीयों गाय।।12।।
जब लग घर अंबर अटल तब लगि चिर जुत वंस।
राजा राव प्रताप भुव राज करो प्रभु अंत।।20।।
राजा राव प्रताप को छाजूराम दिवान।
संतति संपति जुत सु नित होउ तेज सम भाँन।।21।।
इति श्री भागवन पुराणे द्वादस स्कंधे भाषा राव राजा श्री प्रताप।।
सिंहस्य तुरसीराम श्री कवँरजी श्री कृष्णवल्लभजी चिरंजीव।।सं. 1858
मिती ज्येष्ठ सुदी 2 श्रीरामजी। वैरिगढ़ मध्य पठनार्थ।।
उपर्युक्त पंक्तियों में केवल भागवत के प्रथम स्कंध का ही भाग है। और जितने भी भाग हैं उनके अंतिम भाग में कोई विशिष्ठ सूचना मिल सके ऐसी ऐतिहासिक सामग्री नहीं मिलती। पर हाँ, भागवत की सामाप्ति पर कवि ने जो अंतिम प्रशस्ति दी है वह महत्व की है उसके उद्धरण देने का लोभ संवरण नहीं किया जा सकता-
दशम स्कंध का अंतिम भाग-
कूरम कुल मधि प्रगट नृपति जोरावरसिंह वर।
अंवरीष ज्यौं भक्ति दीन जिनमें करुणाकर।।
भयं महव्वतसिंह पुत्र तिन कैं सु महारथ।
राजा राव प्रतापसिंह तिनि सुत सम पारथ।।
अरि प्रबल निवल कीनैं जु निसि निज भुज दंड प्रताप करि।
भनि नागर अटल सुरेश ज्यों रहौ सदा सिर छत्र धरि।।34।।
।। दोहा ।।
साह फकीर जु दास के बालकृष्ण सुत जान।
तिन के छाजूराम जू हरि जन माझ प्रधान।।35।।
।। छप्पय ।।
छाजूराम दिवान राव राजौ के प्रतिनिधि।
दई कृपा करि ताहि भक्त लषि ईस सकल सिधि।।
दाता करन समाँन सूर जाहर जग गायो।
गोदानन के काज मनौं मृगफिरि घर आयौ।।
तिनि बहु पुरान मो सौं सुने असन वसन बहु भेट दिय।।
तिहिं हेत सुतौ भागवत मैं छंद रीति भाषा करिय।।36।।
।। दोहा ।।
छंद अनुक्रम तैं तहाँ जो कुछु अधिकी होय।
कथा अरथ मैंने कियौ कवि कुल सोधौ सोइ।।37।।
इति श्रीभागवते महापुराने दसम स्कंधे भाषा राव राजा श्री प्रतापसिंह दीवान छाजूरामार्थ नागरीदासेन कृतं कृष्णलीला चरितानुवर्णनं नाम नवमो अध्याय 90। संवत् 1858 मिती वैसाख मासे कृष्ण पक्षे षष्टम्यां सूर्यवासरे लिषपितं लाला किसनवल्लभ हेतवे शुभं भवतु कल्याणमस्तु श्री
यादृशं पुस्तकं दृष्टाव तादृशं लिख्यतं मया
यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते।।1।।
करि कटि ग्रीवा नैन पुष, बहु दुष सहत सुजान
लिष्यौ जात अति कष्टते सठ जानत आसान।।2।।
पोयी कंवरजी श्री कृष्नवल्लभजी। पठनार्थ। वैरिगढ़ मध्ये। शुभं भवतु।।
छैनाजी महाराज
स्वामी चरणदास के 52 शिष्यों में छौनाजी भी सम्मिलित हैं। इनके वैयक्तिक जीवन पर समुचित प्रकाश डालने वाले साधन अनुपलब्ध है। अपने ग्रंथ में भी कवि ने रचनाकाल नहीं दिया। अनुमान है कि ये ब्रज और राजस्थान की सीमा के निवासी थे, कारण कि भरतपुर और वैरिगढ़ में इनके संबंध में चमत्कार-मूलक कई किंवदन्तियाँ प्रसिद्ध है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वे परम योगी और सफल साधक थे। इनके साहित्य में सर्वत्र योग और अनहद-नादकी-विशद् चर्चा है। उनकी वाणी आध्यात्मिक रस से ओतप्रतो है। उनके पद्य कबीर का स्मरण करा देते है। उनकी अटपटी शैली उनकी आन्तरिक मस्ती का आभास देती है। अन्तर्मुखी चित्तवृति का आनन्द शतमुखी हो कर प्रवाहित होता है।
चरणदासी संप्रदाय के निर्गुणोपासक होते हुए छौनाजीने सगुण का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है। आभूषण और अलंकारों का इतना सजीव वर्णन कम-से-कम निर्गुण संत तो और कोई शायद ही कर सके। तात्पर्य, ये कवि और साधक दोनों हैं। साधकत्व धर्म प्रधान है, कवित्व गौण। तभी इन्होंने सरलतम शब्दावली में उच्च कोटि के तत्वज्ञान और योग के गहन तत्वों को ऐसी शैली में लिखा है कि सामान्य जन भी लाभान्वित हो सकें।
इनके साहित्य में आत्मा का रस बह रहा है। साहित्य समाज का प्रतिबिंब है तो संत-साहित्य आत्मा का अनिर्वचनीय रस है।
छौनाजी महाराज कोई बहुत बड़े साहित्यिक ग्रंथकार नहीं थे। परन्तु आत्मानुभूति को व्यक्त करने वाले कलाकार थे। साधना की मस्ती से जो कुछ निकल पड़ा वही साहित्य हो गया। उन्होंने लिखने के लिये नहीं लिखा पर कुछ तत्व था जिसके लिये दान देना पड़ा। इनकी प्रथम कृति गुरु-शिष्य की प्रश्नोत्तरी के रूप में है, जो षटरूपमुक्ति गुरचेले की गोष्ट नाम से विख्यात है। इसमें छः प्रकार के मुक्ति से संबद्ध प्रश्न छौनाजी ने किये हैं और उनके प्रत्युत्तर चरणदास जी ने दिये है। स्थानाभाववशात् षटमुक्ति के विवेचन की ओर न जाकर केवल नामोल्लेख ही पर्याप्त होगा। सालोक मुक्ति (पद्य 64), सामीप्य मुक्ति (पद्य सं. 29), सारूप मुक्ति (पद्य सं. 5). सायुज मुक्ति (पद्य सं. 24), विदेह मुक्ति (पद्य सं. 12) और जीवन मुक्ति (पद्य सं. 12) का सरल विवेचन है। दोहा, चौपाई और एक छंद कुंडलिया है। भाषा राजस्थानी मिश्रित ब्रज हैं। ग्रंथ का आदि अंत भाग इस प्रकार है-
आदि भाग-
।। छप्पय ।।
बोध रूप सो पुरुष महा विज्ञान उजागर।
अज्ञान तिमर कूंदूर करन ज्यों कोट प्रभाकर।।
सो वे जनक बिदेह-देह जिन न्यारी कीन्हीं।
रहे राज के माँहि सुरत कबहूँ नहि दीन्हीं।।
जिन के सिव सिषदेव हैं भगवत मत परगट कियो।
चरनदास परनाम करि तन मन धन वारन दियो।।1।।
गंग जमन कैं बीच जहाँ निज डेरा दीन्हाँ।
मन माता बहु रूप वेंज अपबस करि लीन्हाँ।।
उठा सब्ब घनघोर तूर अनहद धुन बाजा।
जीते पाँच पचीस भयो पूरन सब काजा।।
अष्ट जोग कूं साध तुम भये रूप अद्भुत वरन।
जा छौनां परनाम करि सु चर्नवास त्यारन तिरन।।2।।
अन्त भाग-
।। चौपाई ।।
ब्रह्म होगी ब्रह्म हो गल तानैं। याका भेद गुरुसे जानैं।।
अमल चढ़ै आपै ब्रह्म होई। आपै ब्रह्म ब्रह्म जागजौई।।14।।
जब हों होवै जीवन मुक्ता। सिह कारन जोगी बहु जुक्ता।
मन की करनी तन सौं न्यारी। चर्नदास कहै मोहि पियारी।।15।।
।। दोहा ।।
छहूँ मुक्ति को भेद जो, भिन्न भिन्न कह दीन।
जा कूं लै हिरदे धरो, छौना सिष परवीन।।16।।
चर्नवास के चर्न कूं, बार-बार परनाम।
छोना के संसै हरे, दियो पर्म सुष धाम।।17।।
वाणी संग्रह-फुटकर पद
छौनाजी के 97 फुटकर पद पाये जाते है। इनमें मानव जीवन से संबद्ध सभी विषयों का औपदेशिक संग्रह है। ये पद सर्वथा अज्ञात हैं। विज्ञों को अनुसंधान में सहायक हो सकें इस दृष्टि से सभी पदों की प्रथम पंक्ति दी जा रही है-
पद्य पंक्ति पद्य संख्या राग
1 मन मोहन आरती तोरी है 3 आरती
2 मंगल आरती कीजै भोर 4 भैरों
3 हसि-हसि हरिजी भोग लगावै 6 भोग
4 मनुवा चल बस गुरू के देसा 4 सोरठ
5 साधो मेरी ही सब बानी 6 सोरठ
6 म्हारै नैंना दरस पियासे हो 4 सोरठ
7 नाथजी थे म्हारैं सिरताज 4 सोरठ
8 मोहन मित्र सुहायो छै जी 8 सोरठ
9 म्हाँरे जगमें न कोई म्हाँरे राम छे धनीजी 5 सोरठ
10 एक सँदेसड़ा कहियो म्हाँरे बालमा सों जाय 4 सोरठ
11 अब हम भूलिया रे बीर 4 सोरठ
12 अब हम झूठा जग पहिचाना 4 सोरठ
13 साधो उह पद परसिया जहाँ नहीं साहब दास 6 सोरठ
14 नगरिया बावरी रे 4 सोरठ
15 हरि रंग भीजिया साधो 4 सोरठ
16 साधो दुनिया संसा पाई 5 सोरठ
17 संतो राम भजे सोई सूरा 4 सोरठ
18 संतो गगन चढ़ा मन मेरा 5 सोरठ
19 भौसागर सेती अब कैं लीजो उबार 4 सोरठ
20 मोहन चित काचो रहेली 4 सोरठ
21 कासों होरी षेलिये 5 होली नाधासिर
22 साधो अमर नगर के मॉहि होरी षेलिये 8 होली नाधासिर
23 अरे होली षेले हरि प्यारे 5 होली नाधासिर
24 पिया संग होली षेल सषी रे 4 होली नाधासिर
25 मैं तो कबहूँ न षेलूं ऐसी होरिया 5 होली नाधासिर
26 सैंया मै तो षेलूंगी होरी 4 होली नाधासिर
27 अब कैं होरी षेलिये हो 4 होली नाधासिर
28 होली षेलत रोकें पाँच जना 4 होली नाधासिर
29 होरी पेलिये हरि चित लाय रे 5 होली नाधासिर
30 लाल न रंग रथी कोई 5 होली
31 षेलो री जुगत सौं होरी 4 होली
32 हूवाँ षेलत हरिजन प्यारे 4 होली
33 मोहि घरि अँगनाँ नाँ सुहाय री 5 होली
34 यह जग झूठ बनो भाई 3 होली
35 उस पार ब्रह्म को ऐसो गाँव 4 वसंत
36 मन अगमपुरी षेलौ वसंत 5 वसंत
37 मन हरि कै संग षेली बसंत 5 वसंत
38 रे मन मेरी बीनती हरि सों चित लैयो 7 बिलावल
39 मन भोंदू अब जाग रे कहा मर्म भुलाया 8 बिलावल
40 या संसार असार या मैं मति पागो 5 विलावल
41 जोगी एक गगन मंडल में बैठा 4 आसावरी
42 मेरी मटकी छाँड़ कन्हाई 7 बिलावल
43 हे तिस्ना अति मतवारी 6 सीठना
44 माया ठगनी है झूठा सा कजिया 5 सीठना
45 तुम देषौ पद निर्बान 7 सीठना
46 मनुवा राम चरन चित लाव रे 5 सारंग
47 मनुवा राम नाम रस पीजै 4 सारंग
48 दुनियाँ डूबी काली धार 5 सारंग
49 अरे नर झूठो जगत कौ नेह 5 पूरबी
50 अरे जीवना सुपना रे 4 काफी ख्याल
51 यह मुलक बिगाना है वे यारो 4 बिहागड़ा
52 जिन षोजा जिन पाया मेरा प्रभु 3 बिहाग वा ख्याल
53 हरिजी दुनियाँ क्यों विसराई 5 बिहागडा
54 नंदलाल तुम्हारी गत पाई न परै 5 ख्याल
55 तू भज ले हरि का नाम 4 ख्याल
56 मोहि जाना वाही देस 4 ख्याल
57 कौंन कहै तेरी बातें हरि साध मिले बिन 5 ख्याल
58 हरि कों बड़भागी कोई गावै कल्यान
59 ऐसे जानें हो राम कौं 5 परज
60 महल दिषायौ हो गर म्हारे 5 परज
61 राम मोहि सबसों प्यारा 5 परज
62 बिन जानें श्री भगवान के 4 कल्यान
63 अचल पुरम कौं सेव आन सब ही तजो 12 मंगल
64 होरी षेलिये हरि चित लाय 4 होली
65 हमारी हरि अरज सुनो 4
66 उस रामजी के भआवने की कौन सी बात
67 अब तेरा दाव बनो है 5
68 अब तो पियारे लाल मेरी सुध लीजिये 4
69 यह मन के कहे री बीर 4
70 अब मैं अपना साहिब पाया 4
71 सतगुर कहा तुम्हारो जस गाऊँ 5
72 हरि जी मैं तुम्हारी बलि जाऊँ
73 साधो सहज समाध लगाई
74 साधौ अई भेद लषाया
75 कान्हा दरसन दे मैं तुम पर वारी
76 मेरा मन हर लिया श्रीगोपाल
77 मैं कैसे हो जीऊँ तुम बिन
78 मेरा मन नंदलाल स्यों अटक्यो
79 सुंदर स्याम गुवाल बिना कैसें रहों
80 बंसरी बजावे नंद कौ लाल
81 इस दुनिया में रहना नहीं
82 कोई जानता ना हरि भेद कों
83 रहसी म्हारो राम मिटै सब
84 सकल में व्यापक म्हारो पीव
85 जान लियो है रामा यैजी घट बीच में
86 सब घट मैं बिराजै एक ही
87 मेंडे द्वारे आवै जाई नी एक नंद कुमार
88 मोहन प्यारे जी म्हारी गली आवो
89 अरी कोई या मौंहन समझावै री
90 हेली मोह चैन नहीं दिन रात
91 हम पर मोहन बुरकी डारी
92 साधन के सतसंग है ली
93 निरष पियाको रूप है
94 फिर औसर नहि होय
95 अत ही भयो है आनन्द
छौनाजी महाराज के पद-साहित्य में रस-परिपाक चरम सीमा पर है। इनमें साहित्यिक अनुभूति भलीभाँति व्यक्त हुई है। इसका प्रकाशन नितान्त वांछनीय है। महाराज का दोहा साहित्य भी उपलब्ध होता है। उसकी संख्या नगण्य है।
अखैराम और उनका साहित्य
संत प्रवर अखैराम भी महान् प्रभावक पुरुष थे। ये छौनाजी के शिष्य थे। प्राप्त साहित्य के आधार पर निःसंकोच कहा जा सकता है कि इस परम्परा में चरणदास के बाद ये ही ऐसे संत दृष्टिगोचर होते हैं जिनका साहित्य विशाल और विविध भावनाओं का पुंज है। इनकी कविता बहुत उदार और व्यापक जान पड़ती है। ये केवल सांप्रदायिक साहित्य के प्रणेता नहीं थे अपितु आयुर्वेद पर भी आपने जीवन के अंतिम समय में वर्षों के अनुभवों को लिपिबद्ध कर इन्होंने जन साधारण का उपकार किया है। इनका अध्ययन विशाल और गंभीर जान पड़ता है। राजस्थान के बड़े-बड़े परिवार और राजाओं पर इनका प्रभाव था। इनकी पाण्डित्यपूर्ण प्रतिभा के दर्शन तो साहित्यिक कृतियों से हो जाते हैं, परन्तु वैयक्तिक जीवन-संबद्ध घटनाओं का गमुचित परिज्ञान हो सके, वैसे साधन नहीं मिलते। हाँ, चरणदासी संप्रदाय में यह प्रसिद्ध है कि इन्हें आत्माराम के साथ स्वमत-प्रचारार्थ जयपुर भेजा गया था। इसका एक कारण यह भी समझ में आता है कि अलवर व जयपुर के हलदिया परिवार पर चरणदासी संप्रदाय का विशेष प्रभाव था, जैसा कि नागरीदास के भागवतीय अनुवाद की प्रशस्ति से फलित होता है। छाजूराम दीवान के पुत्र खुशालीराम जयपुर में उच्च राजकीय पद पर प्रतिष्ठित थे, अतः इन्हें भी जयपुर में सभी सुविधाएँ प्राप्त थीं। स्वामी रामरूपजी कृत गुरुभक्ति प्रकाश में अखैराम का उल्लेख, उस घटना को लेकर किया गया है जिसका संबंध चरणदास के जयपुर पधारने से है। वह इस प्रकार है-
बात प्रतापसिंह के समय की है। किसी व्यक्ति ने उनकी राज सभा में चरणदास के प्रताप की प्रशंसा की। राजा पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ा और दर्शन की तीव्र उत्कंठा हुई। राजा ने बिल्ली विज्ञप्ति भेजना तय किया। इतने में उसी की सभा के विशिष्ट सवस्य श्री खुशालीराम ने राजा से कहा कि उन के एक प्रशिष्य, मुझे अपना सेवक समझ कर, मेरे यहाँ रहते हैं। उनके साथ पत्र भिजवाना उचित होगा। क्रमशः अखैराम को सभा में उपस्थित किया गया और राजा ने प्रगुरु के दर्शन की आन्तरिक अभिलाषा व्यक्त की। राजा ने इस प्रसंग पर अखैराम की एक गाँव दान में दिया और प्रार्थना की कि आप कहीं न जाकर यहीं विराजिये। प्रतापसिंह, महंल गोविंदानन्द, जगन्नाथ भट्ट, मुसाहिब खुशालीराम, और रोडाराम खवास आदि ने दिल्ली भेजने का पत्र अखैराम को सौंपा, और क्रमशः स्वामीजी जयपुर पधारे, उनका भव्य स्वागत हुआ।
(गुरुभक्ति प्रकाश पत्र 210-216)
स्वामी अखैराम के निम्न ग्रन्थ उपलब्ध हुए है-
1 अखैसार रचना काल वि. सं. 1808 फागुण सुदि 11
2 विचार चरित्र रचना काल वि, सं. 1810 फागुण की 8 शुक्रवार
3 क्षेत्रलीला रचना काल वि. सं. 1812 श्रावण सुदि 5 मंगलवार
4 गंगा महातम रचना काल वि. सं. 1832 माघ सुदि 15 रविवार
5 बाणगंगा महातत रचना काल वि. सं. 1840 फागुण वदि 2 सोमवार
6 वैधबोध रचना काल वि. सं. 1850 माघ सुदि शनिवार
7 ग्यांनसमह
8 सब्द
उपर्युक्त सूची से स्पश्ट है कि उनका साहित्य निर्माण काल वि. सं. 1808 से 1850 तक का है। सभी ग्रन्थ उच्च कोटि के विचारों से ओतप्रोत हैं, भाव, भाषा और विषय प्रतिपादन शैली की दृष्टि से अध्ययन की ठोस सामग्री उपस्थित करते हैं। विशेष परिचयार्थ कृतियों के आदि और अतं भाग, संक्षिप्त परिचय के साथ उद्धृत किये जा रहे हैं।
अखैसार
इस कृति पर छौनाजी महाराज की शैली का प्रभाव है। गुरु-चेला की गोष्टी स्वरूप इसमें भी प्रश्नोत्तरी है। कवि की यह प्रथम कृति होते हुए भी अध्यात्म की दृष्टि से इसमें अनुभवपूर्ण विचार व्यक्त किये गए हैं। उन्तालीस पद्यों तक तो ब्रह्म, जीव, संसार और भक्ति का विवेचन है, तदन्तर योग की प्रक्रियाओं का क्रमिक वर्णन है। नेती, धौती, त्राटक, आसन, अष्टकमलदल, मूलबंध, चार संयम, पंचमुद्रा, पाँच तत्व, स्थूल और सूक्ष्म शरीर, गगन मंडल, अनहद नाद, शून्य और सांख्य योग आदि विषयों पर गंभीरता के साथ विचार किया गया है। साधना के सिद्धान्तों को सरलता के साथ लिखना, यह अखैराम जैसे साधक के लिए ही संभव था।
ग्रंथ का आदि भाग
।। चौपाई ।।
जनक राय के गुन कहा गाऊँ। बार बार में सै सीस निवाऊँ।।
जिनके सिष्य सुषदैव सु सांई। ग्यान भाग प्रगटै आई।।1।।
सुषदेवजी के चर्न पियारे। चर्नदास हीय में धारे।।2।।
।। दोहा ।।
चर्नदास ऐसे भये, मोक्ष मुक्त करि देत।
सुखदाई है जगत के, राषें सबसौं हेत।।3।।
गुर छींना साँचे गुरू, चर्नदास परताप।
अखैराम चेरो भयो, हरि रस पीयो पाप।।4।।
अर्षसार भाष्यो तबै, मन की दुविधा षोय।
अन्त भाग-
।। चौपाई ।।
अषै ग्रंथ सुनै चित्त लाई। जरा मनै को धोषो जाई।।
चौरासी में फिर नहि आवै। निरभै ह्वै राम गुन गावै।।28।।
अषै ग्रंथ सुनै मन लाई। बढ़ै पुन्य पाप घटि जाई।।
पढ़ै सुनै और निहचै लावै। जूजी संकट बहुर न आवै।।29।।
।। दोहा ।।
अषैसार के सुनत हो, जो पढ़ि जानौ कोय।
ब्रह्म होय आनँद लहै, संक्या रहै न कोय।।30।।
हरि तौ पूरन येक है, धरे रूप अनन्त।
सतगुर के परताप सूं, बरन्यो सार गिरंथ।।31।।
संवत ठारहसौं अठोतरा, फागुण मास जु होय।
शुक्ल पक्ष एकादशी, ग्रंथ को है सोय।।32।।
सार ग्रंथ ऐसे कह्यो, अषैराम आधीन।
साधुन के पग पूजि कर, यह बानी कहि दीन।।33।।
विचार चरित्र
अखैराम की यह दूसरी कृति चरणदासी संप्रदाय के सिद्धान्तों के विवेचन से भरी पड़ी है। इसकी पद्ध संख्या 516 हैं। इसमें गुरुभक्ति, गुरुमहिमा, दया, भजन, वैराग, ज्ञान-अज्ञान, विवेक, सिद्धान्त, पतिव्रता, समदृष्टि, माया और ब्रह्म, प्रेम, सत-संगत, नाम महिमा, पोथी महिमा, बह्म स्तुति, विचार और दतात्रेघ आदि का विशद वर्णन किया गया है। कहीं-कहीं विषय स्पष्टीकरण कवि ने दृष्टांतों का भी सहारा लिया है। इस कृति से सांप्रदायिक दिनचर्या पर अच्छा प्रकाश पड़ना है।
आदि भाग-
चर्नदास महाराज कौ, गुरु छैना है दास।
अखैराम कूं दीजियै, बानी कौ परगास।।1।।
मेरे हिरदे बैठि कर, तुम ही कहौ बनाय।
गुर छौना सुन लीजिये, सर्न गही मै जाय।।2।।
अन्त भाग-
बिचार चरित्र की कथा, भिन्न-भिन्न समझाय।
अखैराम निरनै करै, जीव ब्रह्म ह्वै जाय।।7।।
।। चौपाई ।।
भूल-चूक जो यामै होई। लेहु सँवार संत तुम सोई।।
मैं अज्ञानी बुद्ध कौ हीनौं। सतगुर किरपा सौं यह कीनौं।।8।।
पढ़ै सुनै साधु जन कोई। सर्व अंग कूं जानै सोई।।
बिचार चरित्र को करै बिचारा। भवसागर सौं होवे पारा।।9।।
।। दोहा ।।
अखैराम की बीनती, सुनियौ बारंबार।
घट बध यामैं चूक होय, दीजौ संत सुधार।।10।।
संबत (1810) ठारहसै बसोतरा फाग मास यों जान।
आठैं शुकरवार कौं कह्यों बिचार प्रवान।।11।।
क्षेत्रलीला
चरणदासी संप्रदाय में इसी नाम की एक कृति चरणदास के नाम से विख्यात है और वह प्रकाशित भी हो चुकी है, परन्तु यह अखैराम की रचना है। इसमें भगवान कृष्ण की ब्रजलीलाओं का भावपूर्ण वर्णन है। पद्य-संख्या 271 है।
आदि भाग-
।। चौपई ।।
जनकराय सब सुख के दाता। जो प्रगटे पुन आय विधाता।।
सब विध राज करै जग माँही। सुरत रहै हरि चर्तन पाहीं।।1।।
जनकराम के श्रीसुखदेवा। जाकी सुरनर लहै न सेवा।।
जित इंद्री अरु ज्ञान अपारा। कोट भान कौं सो विस्तारा।।2।।
।। दोहा ।।
चर्नदास सुखदेव के, चर्न गहे चित लाय।
जब इन पर किरपा करी, दियो ज्ञान समझाय।।3।।
अन्त भाग-
।। चौपई ।।
संबत अठारहसे बारहोत्तरो जानौ। साँवन सुद पाँचे पहचानौं।।
मंगलवार कूं सोई। क्षेत्रलीला संपूरन होई।।27।।
।। दोहा ।।
गुर छौना की कृपा सूं, लीला कही विस्तार।
जो कोई सीषै सुनै, अखै उतरे पार।।271।।
इति श्री अखै राम कृत क्षेत्रलीला संपूर्ण
बाणगंगा महातम
आदि भाग-
।। छप्पै ।।
स्वयं सच्चिदानंद कंद निरद्वंद सिद्ध बम।
अज अपार निज सार बिस्व आधार सकल मप।।
अगम अगाध अनादि आद मध्य अति बिबर्जित।
ब्रंदारक रिखमुनी जक्ष गंधरय सब सिरजित।।
पंचभूत तिरये गुन सफुट कूट स्थान अचलौ हरी।
तास रूपकूं अखैराम कर जुगल जोर बंदन करी।।1।।
।। दोहा ।।
अज्ञ तिमर जे अंध नर, अंजन तज्ञ सलाक।
सो गुरु आजै दृग खुलत, बंदू मन कर्म बाक।।2।।
श्रीगुर चरनदास पद पावन। महाघोर अघ पाप नसावन।।
बंदन करूँ उभय कर जोरी। तातैं मति पिवत्र ह्वै मेरी।।3।।
श्रीसतगुर गुर छौना दाता। हरि के भक्त जक्त विख्याता।
अखैराम गही ताकी सरना। दोउ दुख मैटे जामन मरना।।10।।
अन्त भाग-
राम रंग मन वच कर्म, सुभ चिंतक निस बास।
अखैराम स्वामी बिभौ, विधो भक्त बिलास।।
संबत अठारहसै भये, पुनि बीते चालील।
फागुन बदि दोयजि सुतिथि, सुम बासर चालीस।।
इति श्री अखैराम कृत बाणगंगा महातन भारत इतिहासे
बाणगंगा महातम संपूर्ण। लिपिकृतं ब्राह्मण चतुरभुज वासी कामबन मध्ये।
वैधबोध
स्वामी अखैराम न केवल आध्यात्मिक साधक ही थे अपितु इस लोक के प्रति भी सर्वथा उदासीन न थे। वे जिस प्रकार जनता को पारलौकिक चिन्तन की ओर अग्रसर करने की क्षमता रखते थे, वैसे ही जन स्वास्थ्य के प्रति भी पूर्ण जागरूक थे। वैध बोध उनकी औदार्यपूर्ण भावना का स्पष्ट उदाहरण है। उनका आयुर्वेद विषयक ज्ञान कितना उच्चकोटि का था, यह ग्रंथ के अंतःपरीक्षण से स्पष्ट विदित हो जाता है। इस कृति में कविवर ने अपना चिराचरित अनुभव तो व्यक्त किया ही है, साथ ही अपने मत की पुष्टि के लिये वृन्द विनोद, भावप्रकाश सन्निपात लक्षण, ज्वरदर्पण, त्रिशती, योगचिन्तामणि, योग शतक, वीरसिंहावलोक, कालज्ञान कुमार तंत्र और बालचिकित्सा जैसे प्रामाणिक ग्रंथो के उद्धरण भी दिये हैं। कौन सा प्रयोग कहाँ से लिया गया है इसकी सूचना सर्वत्र विद्यमान है। पारस्परिक योग भी दिये है। ग्रंथ की रचना करते समय कवि ने दो बातों की ओर विशेष ध्यान दिया प्रतीत होता है, एक तो यह कि रोगों में प्रयुक्त औषधियों राजस्थानीय हैं और रोग भी विशेषतः राजस्थान के ही हैं। अध्ययन और अनुभूति का इसमें समन्वय है। इसकी रचना कवि ने जयपुर नगर में की है। ऐसा पता चलता है कि कवि ने इसे वृद्धावस्था में निर्मित किया है। तभी तो परिपक्व मस्तिष्क निखर उठा है।
आदि भाग-
।। छप्पै ।।
एक रदन गजबदन सकल तत्वारथभ्यासी।
जोग जुक्ति अहि निसी भाल इक चंद प्रकासी।।
पाटंबर बनि पोति हदै दरसोइ हुआ छिय।
भुज कंकण नौ कांति लाल मुक्ताह लसै छिय।।
अखैराम गनपति सुमरि बुद्धि अपर्व बल दीजिये।
सरस अकति इच्छा तणी नवित प्रणय तुव किज्जिये।।1।।
अथ सुखदेवजी कूं स्तुति करत है
।। दोहा ।।
दिग अंबर द्विज पुत्र है, ध्यावै अलख अनेव।
लोक तीन मैं गति सदा, जय जय श्री सुखदेव।।2।।
बहुरि हरिदेवजी कूं स्तुति करत है
जै जै श्रीहरिदेवजी, तुम देवन के देव।
तुम सेवन पातक नसै, लहै अमर पुर मेव।।3।।
निराकार आका है, अगम अगोचर देव।
कई रूप नहि रूप हो, काइय न पावै भेव।।4।।
गुर किरपा जानी यही, हरि बिन और न कोय।
थिर चर कीट प्रजंत में, व्याप रह्यौ हरि सोय।।5।।
बहुरि चरणदासजी कूं स्तुति करत है-
चरणदास सतगुरु तशा, चरण नमूं निस दीस।
अलिय बिघन दूरै हरै, निश्चय जानि जगीस।।6।।
बहुरि गुर छौना कौ स्तुति करत है-
गुर छौना गुर आगरै, दया दृष्टि अति सार।
ताहि कृपा करि करि कीजिये, वैधग्रंथ विस्तार।।7।।
गुर छौना किरपा करौ, लहूँ ग्रंथ की भेव।
बुद्धि सुद्धि मोहि दिजिये, अविनासी गुरदेव।।8।।
गुर छौना परताप सूं, तम अग्यान नसाय।
गुपत बात परगट लहै, आनँद नाहि समाय।।9।।
अखैराम के सतगुरु, गुरु छौना सखकंद।
चिंता टारन भै हरन, मेटत सब दुख दंद।।10।।
तुच्छ बुद्धि मम अल्प है, ग्रंथ करन कौ चाव।
जैसे पिंगल पुरुस कौ गिर चढ़िबे कौ ह्याव।।11।।
अखैराम की बीनती गुरु ईसुर सुचि लेह।
बुद्धि सुद्ध सुख धाम कै मोहि रदे सुख देह।।12।।
बारबार परनाम करि कर जोरूँ सिर नाय।
सतगुरु तुम्हरी सर्न हों सब संदेह मिटाय।।13।।
अरु बहु ग्रंथ विचारै जोई। निरघंट चर्क आदि दे सोई।।
वृंद और फुनि गंज विचारौ। भावप्रकाश आदि सब धारौ।।36।।
त्रिसती जोग-चिंतामणि जानौ। संनिपात कलिका तुम जानौ।
ज्वरदीप फुनि हहियै सोई। योग सत सारंगधर होई।।37।।
वीरसिंह अवलोकन कहिये। कालग्यान निदान न लहिये।।
इन ग्रंथन कौ सार विचान्यौ। बैधवोध ग्रंथ विस्तान्यौ।।38।।
।। चौपाई ।।
वैधबोध यह नाम वषान्यौ। बहुत ग्रंथ कौ भेद जु ठान्यौं।।
मम मति अल्प कहाउ न माना। ग्रंथ अपार अब्धि सम जाना।।1।।
गुरु किरपा तै ग्यान लह्यौ है। वैधबोध इह ग्रंथ कह्यौ है।।
पुनि वय देखि चिकित्सा कीजै। युक्तायुक्त विचार जु दीजै।।2।।
देस काल अरु वन्हि विचारौ। व्याधि औषधी सब चित धारौ।।
इह विचार करि दीजै सौई। अखैराम भाषित इह होई।।3।।
पारवती शिव हृदय विराजै। कृष्ण वक्ष कमला साजै।।
तावत ग्रंथ धरा परि सोहै। भिषक चित में मंगल होहै।।4।।
अथ ग्रंथ वचन-
तैल नीर मिषी जु कहेई। इनसे रिक्षा करि तुम लेई।।
सिथल बंध तै रिक्षा कीज्यो। मूढ़ धीय कै कर मति दीज्यी।।1।।
अंथ संवतादि-
।। छप्पै ।।
ख-सर-नाग-तुम जानि रूप धरि संवत कहियै।
माघ मास सुनि नाम पक्ष प्रथमा सुख लहियै।।
पुवि विरंचि तिथि जानि सूर्य सुत वार वषानूं।
ता दिन ग्रंथ समाप्ति होत अति हर्षित जानूं।।
श्री सवाई जयनगर में ग्रंथ पूर्णता जानिये।
गुर प्रसाद तै इह सही वैधबोध वषांनिये।।
इति श्री अखैराम कृत वैधबोध भाषायां वात रक्त उरूस्यंभन आम बात सूल परणाम सूल उदावर्त हृदैरोग मूत्रकृछादि प्रमेह भेद फ्लीह सफोदर विद्घि उपदंस कुष्ट क्रम मस्तकादि स्त्री-बाल-विष रोग वाजीकरणादि द्रव्य वर्णनो पंचमसमुद्देशः।।5।।
ग्यांन समूह
इत कृति में कवि ने चरणदासी संप्रदाय के सिद्धान्त और उपासनादिक के विधान को स्पष्ट करते हुए परमेश्वर, सतगुरु, दत्तात्रेय महिमा, ब्रह्मचर्य, वेदान्त, पंचशास्त्र, मंत्र मार्मिक प्रकाश डाला है। किव इस कृति को अपनी समस्त कृतियों में सर्वश्रेष्ठ घोषित करता है-
ग्यांन समूह रस जो चखै, सत संगति करि लेह।
सब पोथिन कौ तत्व है, भाजन मन करि देह।।
(ज्ञान समूह पद्य 7)
अखैराम का संस्कृत का अध्ययन गंभीर मालूम पड़ता है। यों तो वेदान्त पर जो विचार उन्होंने प्रकट किए हैं वे उनके पांडित्य के प्रमाण हैं ही, पर हठ और राजयोग पर भी जैसा प्रकाश डाला है, वह इस बातका प्रमाण है कि एतद्धिपयक मूल ग्रंथों का उन्होंने परिशीलन किया था। गुरु-स्तुति वाले प्रकरण का एक पद्य महिम्न स्तोत्र के प्रभाव को लिये है-
।। कवित्त ।।
सकल गिर स्याही सिंध पात्र में घोलि पत्र उरवो सँवारी कीजिये।
जैते तरवर साखनी लिखत सारदा सर्व काल सरसुती बाक अनमै प्रेम रसभीजिये।।
जस अरु गुन कहाँ लों वखान करै जन पुदगल सो ब्रह्म कीये ताकी पट तरकों न दीजिये।
तदपि तुम गुन रूप न जानें जांहि सैनहूबी महिमा ताहि मसझि समझि रीझिये।।
पूरा ग्रंथ गुरु शिष्य की प्रश्नोतरी का प्रतीक है।
आदि भाग –
।। छप्पै ।।
गुर छौंना गुरदेवजी त्यारन तिरन दयाल।
ग्यान वंत गंभीर संप्रदा मध्य उजागर।।
जिन प्रगट करी हरि भक्ति जुक्त विज्ञान में नागर।
जो जन आयो सर्न तासकी चाह मिटाई।।
दसधा आनिन की टेक विवेक भरपूर गुंसाई।
सब अंगी उपदेस दे बहुत नर किहैं निहाल।।
गुर छौनां गुरदेवजी त्यारन तिरन दयाल।।1।।
अन्त भाग –
ग्यांनसमूह ग्रंथ फल इंम्रत फल परपक्व।
जो चाखै सो अभै ह्वे यामें नाही सक्क।।29।।
कामधेन अरु कलपव्रक्ष चिन्तामनि यह ग्रंथ।
जो चाहै सो फल लहे न रहे संदेह हिये ग्रंथ।।30।।
कहे सुतै सीखै पढ़ै, सो होवे तत्वबेत।।31।।
इति श्री ग्यानसमूह ग्रंथ अखैराम रामकृष्ण कृत उपदेस बर्ननं नाम एकदशो भागः 11
इस अन्तिम पंक्ति से इतना पता लगता है कि उनके पिता का नाम रामकृष्ण था।
सबद
सबद का संत साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है। यह संयोग की बात है कि कवि ने इसके निर्माण में, संख्या की दृष्टि से, अपने गुरु छौनाजी महाराज का अनुकरण किया है, ऐसा जान पड़ता है। छौनाजी का वाणियाँ 97 मिलीं है और उनती ही अखैराम की उपलब्ध हुई हैं। वर्णन और शैली में यधपि कविवर गुरुजी से आगे निकल गये हैं, परन्तु जहाँ तक भाव का प्रश्न है वह छौनाजी से मसता नहीं कर सकता। लीला और भक्ति के साथ आध्यात्मिक भावों को भी व्यक्त करने का प्रयत्न किया गया है, पर जितनी सफलता कवि की ग्रंथ-रचना में मिली है उतनी वाणी में नहीं। पर इसका यह अर्थ नहीं है कि उसमें किवत्व का अभाव है। मेरा विचार तो था कि छौनाजी के समान इनकी वाणियों की सूची भी दे दूँ पर निबंध के बढ़ते हुए कलेवर को देख कर लोभ संवरण करना पड़ा। एक वाणी उद्धृत करना उचित होगा-
राग आसावरी
साधौ ऐसा ग्यान विचारो, तातै उलट पंथ निहारो
गागर के ऊपर पनिहारी, कूवा नेजू मांही।।
बेल चढ्यो किलिया के ऊपर, कुहड़ चाक कै मांही।।1।।
वरखौ मेह भीज गया पानी, खेती भई अकासा।
डोचा चढ़ा पालकी ऊपर, पंछी भये उढासा।।2।।
धरती चढ़ी गगन के ऊपर, चंद सूर लिये साथा।
माया चढ़ी पुरस के ऊपर, ऐसी करी विधाता।।3।।
खस दाने मैं मेर समाया, चीटी ने हसती जाया।
जो ग्यानी या मतकूं बूझै, और सकल भरमाया।।4।।
गुर छोना ने भेद बताया, यह पद है निर्बाना।
अखैराम कोई सुगरा पहुंचै, मिट गयौ आवा जावा।।5।।
संत हरिदास
ये अखैराम के गुरुभाई और छौनाजी के शिष्य थे। इनकी कोई महाकाय कृति उपलब्ध नहीं है। केवल वाणी ही मिलती है जो उनके आध्यात्मिक व्यक्तित्व का सफल प्रतिनिधित्व कर सकती है। सचमुच ये भी बहुत बड़े साधक और कवि थे। उनका कवित्व भावना का परम प्रतीक है। इनके 18 पद, 18 वाणी और 18 कवित्त मिलते हैं। इनके साहित्य में भाव-गांभीर्य पर्याप्त है। इसमें घनघोर निर्गुण विचारधारा भरी पड़ी है।
चेतराम
ये कवि स्वामी अखैराम के शिष्य थे। इनका वरणचरित्र उपलब्ध हुआ है। इसमें अति संक्षेप में वरूण की कथा का वर्णन है। पद्य-संख्या 63 है। रचना-काल सूचित नहीं किया है, पर उन्नीसवीं शती की रचना है।
आदिभाग-
।। दोहा ।।
कुमत हरम मंगल करम नमो नमो गुरदेव।
चेतन तुमरी सरन है सबै बतावौ भेव।।1।।
चेतन पर किरपा करौ, अखैराम गुर ईस।
मम हिरदै निसदिन रहै, परमातम जगदीस।।2।।
जग चेतन बिनती करैं, मैं तुमरो आधीन।
अखैराम गुरदेवजी, बुद्ध सुद्ध सुख दीन।।3।।
बरन चरित्तर की कया, मो मुख कहौ बनाय।
उक्त जुक्त अच्छर सरस, कृपा करौ चितलाय।।4।।
अन्तिम भाग-
बरन चरित्तर की कथा, पढ़े सुनै जो कोय।
भक्ति बढ़ै आनँद लहै, मुक्त सरूपी होय।।60।।
चेतराम आधीन है सब संतन को दास।
गुर हम पर किरपा करी, कहौ बरन परगास।।61।।
अखैराम गुरुदेव केस सुखदाई है बैन।
चेतराम दरसन किये, तृपत होत है नैन।।62।।
चेतराम बिनती करै, सुनियौ बारं-बार।
अस्त-बिस्त कहुं बेग ह्वै, दीजो संत सुधार।।63।।
बाई खुशालां
खुशालां बाई स्वामी अखैराम की शिष्या थी। इनकी दो रचनाएँ उपलब्ध हुई हैं। ये भी दयाबाई और सहजो बाई के समान साधिका और कवयित्री थीं। इनके व्यक्तिगत जीवन पर प्रकाश डालने वाले साधन नहीं हैं। हाँ, इन्होंने अपने ग्रंथ बुध विलास में स्वामी चरणदास की चर्चा करते हुए अलवर का उल्लेख किया है। संभव है वे वहीं की निवासिनी हों। किंवदन्ती है कि इनका संबध हलदिया परिवार से रहा है, परन्तु स्पष्ट प्रमाण के अभाव में निश्चित कहना कठिन ही है। नरसीजी का भात और बुध विलास इनकी कृतियाँ है।
हिन्दी साहित्य में भात संज्ञक यह नवीन कृति है। इसमें भक्तिरस छलकता है। नरसी महेता की पुत्री के यहाँ जो भात दिया गया था, उसी की चर्चा इसमें भावपूर्ण शब्दावली में है।
जन बेगम
इनके संबंध में कुछ भी ज्ञात नहीं है, केवल इतनी ही जाना जा सकता है कि यह कवयित्री चरणदासी संप्रदाय की अनुयायिनी है। इसकी एक ही कृति सुदामाचरित्र उपलब्ध हो सकी है।
आदिभाग –
।। राग मंगल छंद अष्टपदी ।।
श्री सुखदेव दयाल दया मोपै करो।
श्री सुखदेव दयाल दया मोपै करो।
अपनी ओर लगाय जगत व्याधा हरो।।
अपनी ओर लगाय जगत व्याधा हरो।।
चरनदास महाराज परम गुरुदेवजी।
तुम चरनन की हमरे निस दिन सेवजी।।1।।
गुर छीनां गुरदेव परम उदार हैं।
बहु जीवन को कियो तुम्ही निस्तार है।।2।।
अन्त भाग –
।। छंद ।।
गुरछौनां गुरदेव कथा नीकी कहो।
मेरे मन की भूल सकल तुमनै कही।।
गुरछौनां महाराज तुम्हैं परनाम है।
मोकूं कथा सुनाई अति अभिराम है।।
श्रीसुदामाचरित कथा पूरी भई।
जन बेगम कै प्रीत रहौ नित ही नई।।
श्रीसुदामाचरित कथा नीकी लगी।
गुरछौना परताप सकल दुरमत भीगी।।
श्रीसुदामाचरित सकल सिरमौर है।
याकी समसर नाहिं कथा कोई और है।।
सब साधुन कौं बहु वंदन परनाम है।
जन बेगम कूं तुम चरनन विसराम हैं।।
या गाथा में होय कछू बेकाज ही।
दीजौ सकल सुधार तुम्हें सब लाज ही।।
संवत ठारहसै पैंतीसा सार ही।
पोस बदि चतुरदसी व्रिहसपत वार ही।।
जीदौली शुभ थांन कथा यह गाइया।
गुर छौनां सतगर नैं सकल सुनाइया।।
इति श्री सुदामाचरित कथा संपूर्णः।।
नरसीजी को भात
आदिभाग—
अथ महाराज गुरछौनाजी के दास अखैराम दास जिनकी सिष्या
बाई खुलाशां कृत नरसी को भात लिख्यते।
।। छंद अष्टपदी ।।
सिख वचन –
नमो नमो सुखदेव नमो चरणदासी।
नमो नमो गुर छौन जु पुरवो आसजी।।
नमो नमो श्रीअखैराम गुरदेवजी।
बाई खुसालां कूं समझावो भेवजी।।1।।
बाई खुसालां ऊपर होहु क्रपालजी।
तुम सम दूजा और न कोई पाईया।।6।।
हो गुर दीनदयाल कहो समझाय।।7।।
अखैराम महाराज सकल अब गाइये।
बाई खुसालां को संदेह मिटाइये।।8।।
अन्त भाग –
जो कोई या गाथा कूं सुन हरखावई।
जो कोई या गाथा कूं सुन हरखावई।
तन छूटे तब जम को दुख ना पावई।।
तन छूटे तब जम को दुख ना पावई।।
याकूं पूजै चंदन पुष्प चढ़ाय के।
गावै ऊँचैं सुरन जो प्रेम बढ़ाय कैं।।
जो कोई याकूं पढ़ै सुनैं कर प्रीत ही।
ता प्रानी की होय सदा ही जीत ही।।
अखैराम सतगुर ने अति किरपा करी।
बाई खुसालां सुन सुनकै आनँद भरी।।
अखैराम गुर कथा कही मन भावती।
बाई खुसालां कूं लगी अधिक सुहावती।।
संबत ठारहसे चौंतीसा जानियै।
माह सुदि दसमी कूं निहचै आंनियै।।
शुक्रवार शुभ वार कथा पूरी भई।
अखैराम ने बाई खुसालां सुं कही।।
ग्यांनी पंडित साध कहूं सिर नायकैं।
जो कछु यामैं चूक सो देहु बताय कै।।
जो कोई याकूं पढ़ै सै कर नेह कै।
बाई खुसालां तिन चरननकी खेह है।।
इति श्रीनरसी की भात बाई खुसालां कृत संपूर्ण।
साहित्यगत ऐतिहासिक तथ्य
यद्यपि उपर्युक्त पंक्तिबद्ध समस्त साहित्य का सीधा संबंध ज्ञान, वैराग्य या चरणदासी संप्रदाय से है, परन्तु उनमें से भागवत और बाणगगा महात्म्य की अन्तिम प्रशस्तियाँ तात्कालिक विशेष तात्कालिक विशेष व्यक्तियों के इतिहास पर भी सामान्य प्रकाश डालतीं है। अतः उनका विशेष महत्व है। दोनों में हल्दिया परिवार के दो विशेष व्यक्तियों का व्यक्तित्तव (उर्जस्वल व्यक्तित्व), प्रताप व वैभव वर्णित है। इसका उल्लेख अदावधि कहीं भी नहीं हुआ। साधक कवि नागरीदास ने शाह छाजूराम का संक्षिप्त परिचय भागवतानुवाद के आदि और अन्त में दिया है। वह इतना वास्तविक और संतुलित है कि उसमें वैयक्तिक प्शंसा या अत्युक्ति जैसी कोई भावना नहीं है। साहित्य को ही सीमित शब्दों में व्यक्त कर कवि ने आत्सम्मान की रक्षा की है। ठीक इसके विपरीत प्रस्तुत कवि के भ्रातृ-शिष्य अखैराम ने शाह छाजूराम के पुत्र खुलासीराम और उनकी संतति की खुले हृदय से अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसा गाई है। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि यह परिवार छाजूराम से ही घनिष्टतम संबंध के रूप में परिणत हो गया। इसके प्रणामस्वरूप उपर्युक्त प्रशस्तियाँ और गुरुभक्ति प्रकाश तो है ही, साथ ही सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण यह है कि उनके परिवार के की ओर से उन्हें प्राप्त सुविधाओं के पट्टे विधमान हैं। इस संप्रदाय का जो ज्ञात साहित्य इस निबन्ध की आत्मा है, उसका बहुत बड़ा भाग हल्दिया परिवार के कथिक सदस्य द्वारा ही प्राप्त हुआ है। मेरा अनुमान यह है कि यदि इस परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा रक्षित पुरातन साहित्य व बहीखातों का गम्भीर अन्वेषण किया जाय तो निस्संदेह चरणदासी संप्रदाय से संबद्ध अनेक महत्वपूर्ण साहित्यिक कृतियाँ व नूतन तथ्य उपलब्ध किये जा सकते हैं।
हल्दिया परिवार मूलतः किस परम्परा का अनुगामी था यह कहना कठिन है, क्योंकि वर्तमान में इसके सदस्य रामाश्रयी शाखा के उपासक हैं।
स्वामी अखैराम का साधनास्थान जयपुर रहा है, जैसा कि गुरुभक्ति प्रकाश के सिद्ध हैं। अतः उन्होंने बाणगंगा महात्म्य के अन्तिम भाग में जयपुर नरेश जयसिंह, माधोसिंह और प्रतापसिंह आदि की प्रशंसा करते हुए हल्दिया परिवार की गौरव-गाथा को लिपिबद्ध किया है और जयपुर नगर के नगर-रचना-सौन्दर्य, हाट, चौपड़ सुरम्य वीथिकाएं, भवन, विशिष्ट स्थान एवं मठ-महन्तों में गोविन्दनन्द और बालानन्द के गलतास्थित स्थानों की विशेष चर्चा की है। इन दोनों महन्तों की ऐतिहासिकता असंदिग्ध है।
हल्दिया परिवार के पूर्व वृत्त पर मार्मिक प्रकाश डालने वाले ग्रन्थ व शीलोत्कृत उल्लेख अधावधि उपलब्ध नहीं हुए। समसामयिक राजकीय कागजों पर इस वंश के परम पराक्रमी, प्रतापी पुरुषों के सुकृत उल्लिखित हैं। अन्वेषण करने पर विदित हुआ कि छाजूराम के पूर्वज हल्दी घाटी के भयंकर युद्ध में लड़े थे। अतः उनकी संतान हल्दिया कहलाने लगी। ऐतिहासिक दृष्टि से इसमें कितना सत्य है, नहीं कहा जा सकता। परन्तु इतना अवश्य है कि छाजू राम और उनकी वंश परंपरा बड़े वीर और योद्धा के रूप में राजस्थान में, विशेषकर मेवात मंडल में, प्रसिद्ध रहे हैं। यह खंडेलवाल वणिक् होते हुए भी क्षत्रियोचित वीरत्व के गौरव से मंडित है। जयपुर, अलवर, भरपुर और किशनगढ़ आदि की दुर्जय लड़ाइयों में इन्होंने जिस शूरत्व का परिचय दिया वह इनके पूर्वजों की ऊर्जस्वल कीर्तिलता को पल्लवित करता है। सूचित प्रदेशों के शासकों से इनका इतना आन्तरिक परिचय था कि राजनैतिक षड्यन्त्रों में पिता-पुत्र की सम्पति आवश्यक मानी जाती थी।
छाजूराम और खुलासी राम दोनो ने राज्य की और से कई युद्ध किये। कई दुर्ग विजय किये, कई विद्रोह दबाये और समीपवर्ती राजाओं को समय पर उचित सहायता देकर मुगलों के अत्याचारों से रक्षा की। राव खुलासी राम तो युद्धक्षेत्र में ही किसी विश्वासघाती द्वारा सैयदपुर (कनवा के कुछ पश्चिम फतेहपुर सीकरी के निकट) में छुरी से 15 नवंबर, सन् 1794 ई. में मारे गये, जैसा कि फकी खैरउद्दीन इलाहाबादी के इबारतनामा से स्पष्ट है। ऐतिहासिक दृष्टि से उपर्युक्त कथन में सत्यता प्रतिभासित नहीं होती। कारण, कि यह स्पष्ट हो चुका है कि वि. सं. 1845 में छाजूराम का देहान्त हुआ और यह हल्दिया परिवार में प्रसिद्ध है कि राव खुलासी राम की मृत्यु शाह छाजूराम के सम्मुख ही हो चुकी थी। ऐसी स्थिति में उपर्युक्त ईसवी सन् के अनुसार जो वि. सं. 1851 पड़ता है वह मान्य नहीं हो सकता।
हल्दिया परिवार के वीर न केवल शारीरिक बल के ही धनी थे अपितु उनका प्रचण्ड मानसिक विकास भी चोटी का था। ये प्रसिद्धतम कूटनीतिज्ञ मान जाते थें। इन्दौर, ग्वालियर और भरतपुर की इस कार्य के लिए कई बार इन्हें लंबी यात्राएं करनी पडीं। दोनों पिता और पुत्र वर्षों तक दिल्ली में राजकीय प्रतिनिधि के महत्वपूर्ण पद पर आसीन रहे। सिन्धिया, होल्कर और भरतपुर के जाट इनका लोहा मानते थे।
शाह छाजूराम ने जयपुर में एक मन्दिर का निर्माण करवाया था जो आज भी मोती कटला में अवस्थित है। इनकी छज्जी सोरौं घाट पर अवस्थित है।
राज्यकर्म के साथ इस परिवार का धार्मिक और सांस्कृतिक अनुराग भी कम प्रशंसनीय नहीं है। न केवल साहित्यिकों को प्रश्रय देने में ही इस परिवार ने ख्याति अर्जित की वरन् कुछ ऐसे व्यक्ति भी हुए जो स्वयं उच्चकोटि के साहित्यिक व ग्रन्थकार थे। बाई खुलासाँ इसी परिवार की ग्रन्थकर्तृ साधिका थीं। छाजूराम के प्रप्रौत्र चतुर्भुज, प्रान्तीय भाषाओं के अतिरिक्त संस्कृत आदि विद्वतभोग्य भाषाओं के प्रकाण्ड पंडित थे। उनका अध्ययन गम्भीर था। विविध वाङ्मय-उपासना का वास्तविक परिचय इनके क्लेशलब्ध ग्रन्थ गंगाभक्ति प्रकाश में भलीभाँति मिल जाता है। यह संस्कृत में गद्य-पद्यात्मक कृति उल्लेखों का संकलन गम्भीर विवेचना के साथ, इस कृति में सन्निहित है। इसका निर्माण काल वि. सं. 1853 है। इसकी अन्तिम प्रशस्ति इस प्रकार है—
नेत्रबाणाहिचंद्राम्बे नभस्यासित पंचमी।
गुरुणा संयुता तत्र ग्रंथोयं पूर्णतामगात्।।
राजाधिराजो जयति प्रतापी प्रतापसिंहोर्थिजनस्य भूमौ।
स्वर्गे मरुत्वानिव वांछितार्थ प्रबर्धते सूर्यकुलावंतसः।।
गणावैश्य वंशान्ति चंद्रोराज्यप्रिवस्तदा।
छाजूरामोभवद्गंगा भक्तिपारंगतंक्षितौ।।
तस्यासन्नौरसाश्रेष्ठ विक्रमे तु ततोधिकाः।
शौर्यावार्यावि ......................(मिस प्रिंट)स्तेजसः।।
ज्येष्ठः खुशालीरामेति नाम्ना तेषांप्रतिष्ठितः।
दिल्लीश्वरप्रसादश्च लब्धो येनाप्रयत्नतः।।
तस्यानुजौ दौलतरामेति नामा प्रतापभूपेंद्रकृताभिधानं।
ख्यातः प्रतापैर्भुवि भाग्यशाली स्व....(मिस प्रिंट)वीर्योच्छमितारिमाली।।
ततोनुजो नंदरामेति भ्रार्तृतुल्यो पराक्रमः।
पुत्रवान् भ्रातृपुत्रैस्तु पुत्रो भक्तिपरायणः।।
द्वयोः पुत्रान् प्रवक्ष्यामि व्याप्तं मधुमंडलं।
ज्येष्ठस्या संस्त्रयः पुत्रास्तेषां ज्येष्ठश्चतुर्भुजः।।
तस्यानुजौ रामलालो अग्रो बालमुकुंदकः।
मध्यम भ्रातु पुत्रौ द्वौ तयोर्ज्येष्ठः प्रसन्नधी।।
सुखदेव इति ख्यातौ हरिनारायणेरतः।
चतुर्भुजेन ग्रंथस्य संग्रहोयं विनिर्मितः।।
इति श्री गंगाभक्ति प्रकाशे श्रीगंगामा.....(मिस प्रिंट) संपूर्णम्
शुभंभूयात् संवत् मिति पौष कृष्णा 6 शनि युता लिखितमिदं
हरिदेवेन हंडवनस्थेन स्वस्यैव विनोदार्थ। पत्र सं. 69
अप्रांसगिक होते हुए भी एक बात के उल्लेख का लोभ संवरण नहीं किया जा सकता। इत प्रति के लेखक भी अपने समय के विद्वान ज्योतिषी और ग्रंथकार थे। इनके रचित ग्रंथ, प्राकृत व्याकरण वृत्ति और हिंडवन (हिंडौन) स्तिथि आदि इन पंक्तियों के लेखक के संग्रह में सुरक्षित है। हिंडवन स्थिति अपने ढंग का सुन्दर ऐतिहासिक प्रसिद्ध स्थान आदि पर लेखक महोदय विस्तार से प्रकाश डालते हैं। हिन्डौन की राजकीय आय के भी जो आँकड़े प्रस्तुत किये हैं वे तात्कालिक कृषि की दृष्टि से कुछ महत्व रखते हैं। हिन्डौन के निकटवर्ती एक गर्जन से अधिक महत्वपूर्ण नगरों का परिचय भी इस लघुतम कृति में सन्निहित है। मिश्र जी स्वयं संस्कृत एवं हिन्दी भाषा व साहित्य के परम मर्मज्ञ थे, जैसा कि उनकी सन्तानों के पास सुरक्षित संग्रह से ज्ञात होता है। बैर (जो भरतपुर जिले की तहसील है) में इनकी सन्तान आज भी विद्या विषयक परम्परा को अक्षुण्ण बनाये हुए। गंगाभक्ति प्रकाश और नागरीदास कृत भागवतानुवाद की कृतियाँ यहीं से मुझे उपलब्ध हुई हैं।
प्रति परिचय
उपर्युक्त पंक्तियों में वर्णित साहित्य का बहुत बड़ा भाग एक ही गुटके में उल्लिखित है। जिसकी सूची इस प्रकार है—
1 षटरूपमुक्त गुरुचेला की गोष्ट पत्र 2-8
2 अखैसार पत्र 9-15
3 ज्ञानसमूह पत्र 15-32
4 विचार चरित्र पत्र 32-58
5 क्षेत्रलीला पत्र 58-77
6 गंगा महात्म्य पत्र 77-89
7 सुदामा चरित्र पत्र 89-102
8 वरण चरित्र पत्र 102-106
9 नरसीजी का भात पत्र 106-116
10 बुध विलास पत्र 116-126
11 छौनाजी की वाणी पत्र 126-154
12 अखैराम की वाणी पत्र 154-179
13 हरिदास की वाणी पत्र 179-183
गुटके का साइज 8।।x6।। इंच है। बीस पक्तिंयाँ हैं और प्रत्येक पंक्ति में 21 से 26 वर्ण है। दोहा, छंद, चौपाई एवं ग्रन्थ के प्रारम्भ व समाप्ति पर रक्त वर्ण का प्रयोग किया है। लिपि सुन्दर और सुपाठ्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह प्रति हल्दिया परिवार के लिए ही विशेषरूप से लिखवाई गई होगी।
बाणगंगा माहात्म्य का गुटका 246 पत्रों का है। अक्षर बड़े हैं। पंक्तियाँ 15 हैं और 13 से 15 वर्ण एक पंक्ति में है। साइज 8X6। इंच है।
उपसंहार
ऐतिहासिक शोधकों के जीवन में कभी कभी ऐसी घटनाएं घट जाती हैं जो संस्मरण का स्थान ले लेतीं हैं। प्रस्तुत निबन्ध इसी अनुभूति का परिणाम है। सर्वप्रथम जनवरी 1955 में बैर जाने पर नागरीदास कृत भागवत का अनुवाद उपलब्ध हुआ। तदनन्तर गंगाभक्ति प्रकाश व वैध बोध संग्रह ग्रन्थ प्राप्त हुए। उस समय मस्तिष्क ने कल्पना तक नहीं की थी कि प्रस्तुत विषय पर कुछ लिखने की चेष्टा करनी पड़ेगी। चातुर्मासार्थ जयपुर आने पर एक मार्ग पर हल्दियों का रास्ता नाम पढ़ा और उपर्युक्त ग्रन्थगत हल्दिया शब्द स्मरण हो आया। हल्दिया परिवार मे छाजूराम विषयक विशेष ज्ञातव्य के प्रात्यार्थ जाने पर 12 रचनाओं वाला गुटका अनायास ही निकले पड़ा, जो कुछ ही दिन पूर्व कबाड़ी के पास रद्दी के रूप में जाने वाला था। मुझे कितनी प्रसन्नता हुई, शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। संभव है अभी न केवल हल्दिया परिवार ही अपितु अलवर राज्य का इतिहास-कार्यालय भी चरणदासी संप्रदाय के साहित्य से भरा पड़ा हो। डेहरा में जहाँ तक मुझे पता लगता है पर्याप्त साहित्य सुरक्षित है। मैं कहने यह जा रहा हूँ कि नवोपलब्ध साहित्य के अतिरिक्त और भी दर्जनों ग्रन्थ उपलब्ध हो सकते हैं, जैसा कि खुसालाँ बाई के विषय में प्रचलित एक किंवदन्ती से सिद्ध होता है। ज्ञात हुआ है कि बाई खुसालाँ प्रत्येक दिन कुछ कवित्त लिखने के बाद ही आहार ग्रहण करती थी। यदि यह सत्य है तो न जाने कितनी अनुभूतियों को मानवता के विकासार्थ उन्होंने व्यक्त किया होगा। अब कहना यही रह जाता है कि इस नवोपलब्ध एवं इतिहास व समीक्षामूलक ग्रन्थों में अनुल्लिखित साहित्य का उचि संपादन व प्रकाशन नितान्त विचारणीय है। इससे न केवल चरणदासी संप्रदाय के सिद्धान्तों पर ही नूतन प्रकाश पड़ेगा, अपितु भारतीय संत-परम्परा का अर्न्तप्रान्तीय प्रभाव कहाँ तक पड़ा है, इसका भी अनुभव होगा। उदाहरणार्थ, बिहार के दरिया साहब रचित ज्ञान स्वरोदय और अखैसार को तुलनात्मक दृष्टि से मैंने देखा। ऐसा लगा कि जिन विषयों को दरिया साहब ने ज्ञानस्वरोदय में सूत्रात्मक रूप से उल्लिखित किया, उसी की क्रमबद्ध और सारगर्भित व्याख्या अखैराम ने अखैसार में की है। और भी ग्रन्थ ऐसे तुलनामूलक अध्ययन के विषय हो सकते है।
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