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चन्दायन - डॉ. विश्वनाथ प्रसाद

भारतीय साहित्य पत्रिका

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    टिप्पणी

    चन्दायन

    मनेर शरीफ़ से अभी हाल में अपने मित्र प्रो, हसन असकरी की कृपा से मुझे चन्दायन की एक खंडित प्रति देखने को मिली थी। कहने की आवश्यकता नहीं कि मलिक मुहम्मद जायसी से 150 वर्ष पहिले 14 वीं शताब्दी ई. में लिखित मौलाना दाऊद की इस महत्वपूर्ण पुस्तक की ऐसी प्राचीन प्रतिलिपि को प्राप्त करके मुझे कितना सन्तोष हुआ। परन्तु खेद की बात है कि इस प्रति के प्रारंभ और अन्त के कुछ पन्ने नष्ट हो चुके हैं। बीच के केवल 32 पन्ने बचे हैं, जिनकी फोटो आगरा विश्वविद्यालय हिन्दी विद्यापीठ के पुस्तकालय के लिए हमने ले लिये है। यह सारी प्रतिलिपि फ़ारसी अक्षरों में लिखी हुई है। उसके समय का उल्लेख इसमें नहीं मिलता। उसे देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि वह संभवतः 15 वीं शताब्दी ईसवी की लिखी हुई है। उसके हाशिये पर मृगावत की भी प्रतिलिपि अंकित है। ज्ञात हुआ है कि चन्दायन के 17 पन्नों की एक प्रतिलिप पूर्वी पंजाब के प्राचीन सरकारी कागज-पत्रों के रक्षक डाक्टर सूरी के पास मिल जायें। हर्ष की बात है कि चन्दायन की एक पूरी प्रति जोधपुर राज्य के पुस्तकालय से डा. वासुदेवशरण अग्रवाल को प्राप्त हुई है। इन हस्तलिपियों के आधार पर हम अब इस बात की आशा कर सकते हैं कि चन्दायन का एक प्रामाणिक संस्करण प्रकाशित किया जा सकें।

    इस ग्रंथ में चंदा और लोरिक की प्रेम-कथा दी हुई है। लोरिक का गीत भोजपुरी क्षेत्र के अहीरों की मंडली में अब भी बहुत ही लोकप्रिय है। संभव है कि भोजपुरी प्रदेश में ही इस कथा का मुख्य केन्द्र रहा हो, क्योंकि इसमें उल्लिखित कई स्थान जैसे गोवर या गौर, महुअर आदि शाहाबाद जिले में ही हैं। ज्योतिरीश्वर ठाकुर ने अपने वर्णरत्नाकर में भी लोरिक के नाच और गाने का उल्लेख किया है।

    साहित्यिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक पक्षों के अतिरिक्त चन्दायन हिन्दी भाषा के विकास की दृष्टि से भी बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। भाषा का एक सर्वजन सुलभ और सुबोध रूप खड़ा करने के लिये इसमें विभिन्न भाषा-क्षेत्रों में प्रचलित रूपों के मिश्रण का कुछ ऐसा ही आदर्श अपनाया गया है, जैसा कि कबीर आदि संत कवियों की परम्परा में भी हमें मिलता है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित पंक्तियाँ उद्धृत कीं जातीं हैः-

    कहवाँ इस्तिरी तें पाई।

    का कर रही है, कहवाँ जाई।।

    काहे निसरह रोये जन होय।

    तोर साथी आहन्ह कोय।।

    कवन पहम हुत लोरिक आहे।

    कहवाँ जाह कहाँ वह काहे।।

    पूछ सभा कह दीन्ह लोरा।

    कवन लोग घर कहवाँ तोरा।।

    बढ़त काहे निसरय लोरा।

    लोग कतेत कछु कहे तोरा।।

    दोहा- काह विराग तुम निसरे साज कह तुम तहे बात

    हम फिन देखे न्याव पार नहीं, पूछै तुमरी बात।।

    जात अहीर हम लोरिक नानू

    गोवर नगर हमार पुर ठाऊँ।।

    सहदेव मेहर की चाँदा धिया।

    मेहर बिआह बावन सों किया।।

    बावन केर नार ली आयों।

    चाँदा तेरी मेहर देहि पायों।।

    क्रम वही दोहा-चौपाइयों का है।

    अन्यत्र एक दोहा इस रूप में दिया हुआ है—

    और गीत मैं करूँ विनती सीस नाय कर जोड़।

    एक एक बोल मोत जस, कहूँ जो हीरा तोड़।।

    इन उदाहरणों में आप देख सकते हैं कि किस प्रकार एक ओर कहवाँ, हमार, तोर, कतेत, जाई, (भविष्यत्) फिन आदि भोजपुरी रूप हैं और दूसरी ओर जहा, निसरह आदि मगही रूप। यदि एक ओर आहन्ह, नाय, हुत, केर आदि अवधी रूप हैं तो दूसरी ओर का कर रही है, किया, करूँ, कहूँ आदि शुद्ध खड़ी बोली के रूप हैं। इन मिश्रणों में हम उन दिनों के उन कठिन प्रयासों का कुछ अंदाज पा सकते हैं, जिनका फल है हमारी आज की वह विकसित हिन्दी, जिसे हमने राष्ट्रभाषा या राजभाषा के रूप में स्वीकार किया है। हमारी भाषा के विकास में हिन्दू और मुसलमानों, वणिक्-व्यापारियों, स्थान-स्थान में भ्रमणशील सैनिकों, साधु-संतों और फकीरों के ऐसे मिश्रित प्रयोगों के असाधारण महत्व का अनुमान और भाषा विज्ञान की दृष्टि से भाषा मिश्रण की प्रक्रिया का सभ्यक अध्ययन ऐसे प्रामाणिक आधारों से किया जा सकता है।

    -डॉ. विश्वनाथ प्रसाद

    नोट- 1. इस कथा के विवरण के लिए देखिए हंटर का स्टैटिस्टिकल एकांउट ऑफ बंगाल तथा बुचनन का यात्रा-विवरण।

    2. रामपुर के राजकीय पुस्तकालय में पद्मावत की जो प्राचीन प्रति है, उसके पहले पृष्ठ में चन्दायन की कुछ चौपाइयाँ और एक दोहा दिया हुआ है। इस सम्बन्ध में इसी अंक में प्रकाशित डा. वासुदेव शरण अग्रवाल के अलाउल की पदमावती का प्राक्कथन देखिए।

    3. मिश्रित भाषा के प्रयोग के विषय में देखिए ब्रज भारती में प्रकाशित मेरा निबंध ब्रजभाषा हेतु ब्रजवास ही अनुमानौ।

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