उड़िया में कृष्ण–भक्ति-साहित्य, श्री गोलोक बिहारी धल - Ank-1, 1956
उड़िया में कृष्ण–भक्ति-साहित्य, श्री गोलोक बिहारी धल - Ank-1, 1956
भारतीय साहित्य पत्रिका
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उड़िया प्रमुख आधुनिक भारतीय भाषाओं में से एक है। उड़ीसा तथा उसके सीमान्त प्रदेशों में यह लाखो मनुष्यों की बोलचाल की भाषा है। यह भाषा पटना वालों के लिए भी नई नहीं है। विशेषतः पटना कालिज के विद्यार्थी तथा अध्यापकों से इस भाषा का विशेष संबंध रहता है, जहाँ सैकड़ों उड़िया विद्यार्थी प्रतिवर्ष शिक्षा प्राप्त करते हैं। उन विद्यार्थियों में से मैं भी एक हूँ, यह मेरे लिए गर्व की बात है। उड़िया भाषा में अत्यन्त समृद्ध प्राचीन साहित्य उपलब्ध है। इस साहित्य का आरम्भ 11 वीं शती में खोजा जा सकता है। इस साहित्य का अधिकांश छन्द-बद्ध है। उड़िया के प्राचीन साहित्य का आरंभिक भाग जनता में धार्मिक भावनाओं के प्रचारार्थ लिखा गया था। इसका दूसरा भाग राधा-कृष्ण तथा राजकुमारों और राजकुमारियों के प्रेम से प्रेरित और अनुप्राणित है। प्रेम की कथाएं इस साहित्य में प्रमुख है। जनसाधारण को उड़िया साहित्य में बीसवीं शती के आरम्भ से पूर्व कोई स्थान नहीं मिला। बीसवी शतीं में राधा-कृष्ण और राजकुमार-राजकुमारी के प्रेम को काव्य में बहुत कम स्थान मिला है। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् व्यक्ति, उसके सुख-दुःख, उसकी भावनाएँ-कल्पनाएँ, खेत-कारखाने उसके गीतो के विषय समझे जाने लगे। ये गीत बहुधा मुक्तछन्द के रूप में हैं।
जैसा कि पहले देखा जा चुका है, उड़िया काव्य का अधिकांश धर्म-प्रचार के लिए ही लिखा गया। धर्म का रूप वैष्णव विचारों से पुष्ट और पूर्ण है। यह कार्य कृष्ण-कथा के द्वारा हुआ है। उड़िया में कृष्ण-भक्ति-काव्य की कथा को सुविधापूर्वक समझने के लिए यह आवश्यक है कि शताब्दियों में से होते हुए उसके विकास पर एक दृष्टि डाली जाय और प्रत्येक युग की विशेषताओं पर विचार कर लिया जाय। युग की पृष्ठभूमि के साथ ही तत्कालीन साहित्यिक तथा सामाजिक मूल्यों का भी अध्ययन होना आवश्यक है। साथ ही उस युग के प्रतिनिधि साहित्यकारों का परिचय प्राप्त कर लिया जाय।
16 वीं शतीः पंच-सखाओं का युगः-
सोलहवीं शती के उड़िया साहित्य के उन्नयन और विकास का श्रेय पंच-सखाओं को है। ये पंच-सखा इस प्रकार हैः जगन्नाथ, बलराम, अच्युत, अनन्त, यशवन्त। इनमें से प्रत्येक के नाम के साथ दास जुड़ा रहता था। दास का अर्थ है भगवान का दास। पंच-सखा गौड़ीय वैष्णव धर्म से प्रभावित थे। उड़ीसा में वैष्णवधर्म श्री चैतन्यदेव की कृपा से आया और राजा प्रताप रुद्रदेव के राजकीय संरक्षण में फला-फूला।
यदि आप उड़िया के ग्राम-क्षेत्र में जायँ तो आज भी ग्रामिणों में राधाकृष्ण के गीत और जगन्नाथ की प्रार्थनाएं बिखरी हुई मिलेंगी। अनेक स्थानों में गोपी, राधा और कृष्ण के प्रेम संबंध से परिपूर्ण काव्य जैसे भूतकेलि, नावकेलि, नटुचोरि, बिल्कुल निरक्षऱ जन-समूह के द्वारा भी गाया जाता है। इन गीतों की मौखिक परम्परा है जिसे प्रत्येक आने वाली पीढ़ी अपने से पूर्ववर्ती पीढ़ी से पैतृक संपत्ति के रूप में प्राप्त करती है। इन पंच-सखाओं ने एक विशेष प्रकार की शैली को जन्म दिया जिसे चौंतीसा तथा कोइलि नाम से जाना जाता है। चौंतीसा काव्य चौंतीस चरणों का होता है और प्रत्येक चरण उड़िया वर्णमाला के एक वर्ण से आरम्भ होता है। हिन्दी की बारहखड़ी की शैली से इस शैली का साम्य है। कोइलि गहरी भावात्मक कविताएँ हैं जो कोयल को संबोधन करके गाई जातीं है। आज भी इन गीतों की गेयता तथा भावों की मर्मस्पर्शिता का जन-दृष्टि बहुत ऊँचा मूल्यांकन करती है। गाँवों के मन्दिरों में, गोष्ठियों में तथा अखाड़ों में पंचसखाओं की कोई-न-कोई पुस्तक भक्तों में लोकप्रिय मिलेगी। किन्तु ये पुस्तकें जो ग्रामीण जनता में इतनी लोकप्रिय हैं, अब भी शिक्षित समाज की पहूँच से बाहर हैं। यद्यपि पंचसखा चैतन्यदेव से प्रभावित थे, तथापि इन्होंने उड़िया वैष्णव सम्प्रदाय का एक अलग मार्ग स्थापित किया। उनकी दृष्टि में कृष्ण, जगन्नाथ का एक अंश हैः-
श्री जगन्नाथ षोलकला
तहुँ कलाए नन्दबला
कृष्ण जगन्नाथ की कला का सोहलवाँ भाग है।
आज कुछ शिक्षइत उड़िया भी इस पंचसखाओं की महान् देन के प्रति जागरूक हो उठे है। एक ऐसी संस्था की स्थापना की बात सोची जाने लगी है जो पंचसखाओं के साहित्य और उनकी संस्कृति का रक्षण कर सके। कृष्णभक्ति साहित्य के प्रसार और उसको उड़ीसा के कोने कोने तक पहुँचाने तथा उच्चवर्गों से लेकर गजपतियों के संरक्षण को है। आज उड़िया में एक भी गाँव ऐसा नहीं मिल सकता जहाँ कि राधा-कृष्ण के चित्र न मिलें और निम्नातिनिम्न के मुँह से ये शब्द न सुन पड़ेः-
भज निताइ गउर राधेश्याम
जप हरे कृष्ण हरे राम
कृष्णभक्ति-साहित्य के बँगला भाषा के माध्यम से अध्ययन ने उड़िया भाषा को भी बहुत प्रभावित किया है। अशिक्षित उड़िया भक्तों के मुख से भी सुन्दर बँगला-गीत सुने जा सकते हैं जिनमें कृष्ण-भक्ति पूर्णरूपेण समाविष्ट रहती है। इस दृष्टि से अधिकांश उड़िया लोगों की, जहाँ तक भाषा के समझने से संबंध है दूसरी भाषा ही बँगला हो गई है। आज हम उड़ीसा के गाँवों में नामयज्ञ देखते हैं जिन्हें चौबीस प्रहरी या अष्ट प्रहरी कहते हैं। इनमें राधाकृष्ण संबंधी यश-कीर्तन 72 या 24 घंटों तक अनवरत होता रहता है। बँगला संस्कृति का प्रभाव उड़ीसा तक धार्मिक और साहित्यिक आन्दोलनों के माध्यम से ही आया है।
सत्रहवीं शतीः जटिल छन्द-युगः
दीन कृष्णदासः रसकल्लोलः-
चैतन्यदेव ही नहीं, उनके पूर्ववर्ती जयदेव, विद्यापति और चंडीदास पहले ही माधुर्य-भक्ति-पथ की स्थापना कर चुके थे। इसका मूल सिद्धान्त यह था कि ईश्वर को योग से नही प्रेम से प्राप्त किया जा सकता है। पंचसखा योग को प्रधान मानते थे। यद्यपि एक प्रकार से वे प्रेमभक्ति को भी स्वीरकार करते थे।
दीन कृष्णदास ने अपनी प्रसिद्ध रचना रासकल्लोल के द्वारा एक महान् साहित्यिक ख्याति प्राप्त की थी इस रचना का मुख्य विषय राधा-कृष्ण का प्रेम है। रासकल्लोल का अर्थ है- रास की उत्तरोत्तर स्थितियाः वास्तल्य, करुण, श्रृंगार आदि। ईश्वर योग की महानतम प्रक्रियाओ से भी प्रसन्न नहीं होता। प्रेम के मधुर शब्द ही उसे प्रसन्न कर सकते है। यह बात इन पंक्तियों में व्यक्त हैः-
कल्पान्तरे योगायोग बाट जगि
पाइबाकु या दुर्लभ
कि भाग्यवलरे गोपी गोपालरे
सबुबेले से सुलभ
कले वे दपति येते रुपे स्तुतिवश
नुहन्ति कहाकु
कर्ण डेरि थान्ति बरज युवती
कउतुके डाकि वाकु
(कृष्ण ब्रह्मा की स्तुतियों के प्रति बधिर हैं। वह गोपियों के मुख से निकले हुए कुछ प्रेम-शब्दों के प्रति जागरुक रहता है)
उड़िया साहित्य की यह शताब्दी छन्द युग के नाम से प्रसिद्ध है, या यह युग साहित्य-अलंकार युग के नाम से अभिहित किया जाता है। साहित्यिक विशदता और भव्यता के साथ, आनुपातिक दुरूहता और जटिल छन्द योजना के दर्शन इस युगमें होते हैं। साहित्यिक भव्यता के लिए जैसे तत्कालीन प्रतिभाओं में होड़ लगी हुई थी। इस प्रतियोगिता में उपेन्द्रभंज सर्वोच्च ठहरता है। उसका प्रभाव आगे के युगों के उन कवियों की कृतियों में दृष्टिगोचर होता रहा जिन्होंने अपना समस्त जीवन ही कृष्ण-भक्ति-साहित्य की सर्जना मैं समर्पित कर दिया।
अठारहवीं शतीः जटिल छन्द युग की परम्परा चलती रहीः-
1. अभिमन्यु सामैत सिंहार- विदग्ध चिन्तामणि
2. भक्त चरनदास - मथुरामंगल
3. सदानन्द कविसूर्य ब्रह्म- युगल रसामृत लहरी
इस शताब्दी में उक्त महान् कलाकार दीखते हैं। इनमें अभिमन्यु सामंत सिंहार सर्वोपरि था। अन्य दो सदानन्द कविसूर्य ब्रह्म और भक्त चरनदास हैं। इन साहित्यिक प्रतिभाओं के संबंध में बहुत कुछ कहा जा सकता है। यहाँ विस्तार में जाने का अवसर नहीं है, केवल उनकी भव्यताओं के संबंध में कुछ कहा जा सकता है। भक्त चरनदास का काव्य की प्रमुख विशेषता भाषा और भावों की सरलता है और अभिमन्यु एक महान् कवि था। दीनकृष्ण के रासकल्लोल के समान ही इन कवियों की कृतियों में भी राधा-कृष्ण का प्रेम प्रधान है। माधुर्य-भक्ति को भी सिद्धान्ततः अपनाया गया है। इन कवियों की एक आलोचना यह की जाती है कि प्रेम-संबंधों के अश्लील चित्र इनकी रचनाओं में मिलते हैं। ये लौकिक प्रेम तथा अलौकिक प्रेम के दोनों प्रेम-क्षेत्रों को पृथक-पृथक रखने में असफल रहे। कहीं कहीं वर्णन में इतनी ऐन्द्रिकता आ गई है कि अलौकिक प्रैम का स्वरूप अस्पष्ट और विलीन होता हुआ दीखता है। किन्तु इनका रचित काव्य-परिमाण उड़िया साहित्य में अद्वितीय है।
अभिमन्यु, विदग्धचिंतामणि में आए गहरे भावों और ईश्वरीय प्रेम की सूक्ष्म अनुभूतियों के विशद वर्णनों के कारण, महान् है। विरह की अनुभूतियों के चित्रण में उसकी प्रतिभा अपने चरम पर है। प्रेम एक दूसरे के विरह से अत्यन्त पीड़ित होते है। सार्वजनीन प्रभाव से युक्त एक वर्णन देखियेः-
अनल नुहइ देह दहइ
अस्त्र नुहइ मरमे भेदइ
नुहइ जल बुड़ाए कूल
नुहइ मादक करे विह्वला
प्रेम अग्नि न होते हुए भी दाहक है। वह अस्त्र नहीं है फिर भी मर्म-भेदन करता है। प्रेम पानी न होते हुए भी कगारों को डुबा देता है। मादक पदार्त नहीं है, फिर भी प्रेम मदोन्मत कर देता है।
ऐसी अनेक पंक्तियाँ हैं जिनमें करुणा ओतप्रोत है और जिनमें राधा की गम्भीर मिलनेच्छा प्रकट हुई है। यदि मिलन इस जीवन में सम्भव नहीं है, तो मृत्यु के पश्चात् ही मिलन होः
येवे गो एमन्त करि नपारिव
तमाले कोल कराइ थोइव
वंशीस्वन शुभुथिव येणिकि
कर्ण मोर डेरि देव तेणिकि
(यदि आप और कुछ नहीं कर सकते, कृपया मृत्यु के पश्चात् मेरे शरीर को श्याम रंग के तमाल पल्लवों से ढक कर रखना, जिनका रंग कृष्ण के रंग के समान है और मेरे कानों को उस दिशा की ओर खुला रखना जिस दिशा से कृष्ण की बाँसुरी की ध्वनि आ रही हो) भक्त चरनदास की कृति मथुरा मंगल जनसाधारण में अत्यन्त लोकप्रिय है। इसकी कथा कृष्ण की ब्रजलीला और कंस-वध से सम्बद्ध है। मथुरा मंगल का अर्थ है मथुरा का कल्याण। जो यथार्थतः उड़िया है उसके मुख पर मथुरा मंगल की कुछ पंक्तियाँ अवश्य रहतीं है। इस काव्य-कृति का सौन्दर्य इसकी सरलता में अन्तर्हित है। यह परम्परागत जटिल छन्द-योजना और मात्र शब्द-अलंकार से मुक्त है। सरल काव्य में इतनी मधुर भावनाओं को गुंफित कर देना भक्त चरनदास का ही कार्य था जो इस युग के अन्य कवियों में दुर्लभ है। उड़ीसा के लोक-क्षेत्र में आज भी इस काव्य का प्रचलन है।
उन्नीसवीं शतीः गीत, संगीत तथा भाषा की सरलता का युगः-
1 कविसूर्य बलदेव रथः किशोर चन्द्रानन चम्पू
2 गोपालकृष्ण - गोपालकृष्ण पद्यावली
कृष्णभक्ति साहित्य का यह युग, भंज-परंपरा की जटिल छन्द-योजना और पिंगल-विधान से मुक्त हो जाता है। अधिक शब्दों और भावों की कमी का काव्य कर्णप्रिय हो सकता है, पर मर्मस्पर्शी नहीं हो सकता। उस काव्य का वाह्य अंग अधिक पुष्ट और समृद्ध थाः रस रूप, आत्मा उतनी सबल नहीं थी। कविसूर्य उपाधि कवि की लोकप्रियता की ही प्रतीक है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जन-मन पर कवि का कितना प्रभाव था।
कविसूर्य का सबसे अधिक लोकप्रिय काव्य-ग्रंथ किशोरचन्द्रानन चम्पू है। इसका संबंध युवती राधा और प्रौढ कृष्ण के प्रेम की कथा से है। इस प्रेम-योजना में ललिता सखी का योग महत्वपूर्ण है। वही इन दोनों को समीप लाने के लिए प्रयत्नशील है और वह अपने प्रयत्न में सफल भी होती है। यह गीति-नाट्य भी कहा जा सकता है। इस ग्रंथ के पद्यों की संख्या उतनी ही है जितनी कि ह से क्ष तक उड़िया-वर्णमाला के वर्णों की। प्रत्येक उड़िया पद्य के पश्चात् संस्कृत-टीका गद्य में दी हुई है। इन पद्यों की सबसे बड़ी विशेषता इनकी गेयता है। कविसूर्य के साथ एक प्रकार से उड़िया साहित्य के गीतयुग का यहाँ से प्रारम्भ होता है। आंध्र के तेलगू संगीत का प्रभाव भी इस युग में स्पष्टतः परिलक्षित होता है। इतना भव्य संगीत किसी प्राचीन उड़िया-कवि ने नहीं दिया था। आज भी उड़िया-संगीत की योग्यता की परीक्षा गायक की कविसूर्य के शास्त्रीय संगीत के गायन की सफलता के अनुसार होती है। दक्षिण उड़ीसा में, विशेषताः पुरी में, एक नृत्य-प्रणाली अस्तित्व में आई जिसमें एक लड़का कविसूर्य के गीति नाट्य का भावात्मक अभिनय करता था। इस काव्य के अतिरिक्त कविसूर्य अनेक विनय-स्तुतियो का भी रचयिता था जिनकी करुणा उड़िया-साहित्य में अद्वितीय है। शब्द-चयन की उपयुक्तता तथा पदों की गेयता इस काव्य की प्रधान विशेषताएँ हैं। कविसूर्य के संगीत के संबंध में अनेक अनुश्रूतियाँ प्रचलित हैं। इनके अनुसार इस महान् संगीतज्ञ का प्रभाव न केवल मनुष्यों पर पड़ता था, वरन् पशु भी इसके संगीत से मंत्रमुग्ध हो जाते थे।
वैष्णव कवि-परम्परा की अन्तिम कड़ी गोपालकृष्ण हैं। समस्त कृष्णभक्त कवियों में ये सरलतम कहे जा सकते हैं। इनकी शैली इतनी प्रखर है, जिसकी कल्पना भई उस युग के अन्य कवि नहीं कर सकते थे। इनका गीति-काव्य राधा और कृष्ण के प्रेम से अनुप्राणित है। इनके काव्य में जो सर्वसाधारण घरेलू वातावरण और दृश्य संयोजित मिलते हैं वे यथार्थतः उड़ीसा के अपने मौलिक और यथार्थ चित्र हैं। इनके राधा और कृष्ण बृन्दावन के प्रेमी और प्रेमिका नहीं है। वह उड़ीसा का एक प्रेमी-प्रेमिका युग्म दीखता है। इस प्रकार यथार्थ उड़िया वातावरण की प्रस्तुति, मुखर प्रसादयुक्त शैली की सरलता, गम्भीर भावों की वैयक्तिक अनुभूति-गोपालकृष्ण के काव्य की वे विशेषताएँ है जो इनको अन्तिम महान् वैष्णव उड़िया कवि के रुप में प्रतिष्ठित कर देती हैः-
श्यामर तोर कथा नाहिँ किरे
तु नकहिले मुं जाणु नाहिं किरे
तङ्क स्वक्षेत्र पूजा दिन
सबु करिछि मुहिं अनुमान रे।
(क्या आजकल तुम कृष्ण से बातें नहीं करतीं? इन दिनों तू कृष्ण से बातें मत कर। चाहे तू न बनाए, पर क्या तुम समझती हो कि मैं नहीं जानती)
समस्त उड़िया साहित्य में स्वच्छन्द प्रेमियों के यथार्थ रूप को इतनी स्वाभाविक शैली में व्यक्त करने वाली ऐसी पंक्तियाँ दुर्लभ हैं। यह रूप आज भी लोक में मुखरित मिलता है। गोपालकृष्ण की भक्ति-भाव से युक्त रचनाएँ मीराबाई के गीतों के समान प्रभावोत्पादक और भावपूर्ण हैं, जिनमें से एक का आरंभ इस प्रकार है-
बीसवीं शती में कृष्णभक्ति-साहित्यः-
आज का युग संक्राति और विचार-प्रसार का युग है। विज्ञान का विकास, स्वतंत्रता और समानता की पुकार इस युग की प्रमुख विशेषताएँ है। उड़िया का इस युग का काव्य पूर्व के काव्य से नितान्त भिन्न है। हर कहीं समानता और आर्थिक स्वातत्र्य के प्रति उत्कट इच्छा का प्रदर्शन मिलता है। टी.एस. इलियट, टैगोर प्रभृति आधुनिक कवियों का प्रभाव प्रचुर है। काव्य-प्रतिभाएँ मुक्त छन्द का आश्रय लेती हैं। आज के तथा कथित अति-आधुनिक कवियों का शिक्षित समाज पर भी प्रभाव नहीं है, लोकमानस पर तो इनका प्रभाव न के बराबर है। यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि आज की कविता जनता द्वारा न समझी जाती है और न ही लोकप्रिय है। जनता आज भी मथुरामंगल, नवकेलि, नटुचोरि आदि काव्य रूपों से रंजित और रसान्वित होती है। जनता के लिए इस शताब्दी में कृष्ण-भक्ति साहित्य की रचना नहीं होती। आज मस्तिष्क ईश्वर से मनुष्य की ओर चल पड़ा हैः धर्म से विमुख होकर मन भौतिक प्रपंच की ओर उन्मुख हो उठा हैः, पूँजीवाद से साम्यवाद की ओर विचारधारा प्रवाहित होने लगी है। चाहे स्थिति कुछ हो, कृष्ण-भक्ति-साहित्य ने विगत युगों में साक्षरता और शिक्षा के लिए प्रेरणा दी है क्योंकि तब प्रत्येक मनुष्य मथुरामंगल और रासकल्लोल के पढ़ने को लालायित था। राधा कृष्ण के नाम से भव्य साहित्य शताब्दियों तक लोक को प्रभावित करता रहा। किन्तु कवि लौकिक यौन भावों के चित्रणों से अलौकिक प्रेम-चित्रों को अछूते नहीं रख सके। नायक और नायिका के मौन क्रियाकलापों के भद्दे, कुरुचिपूर्ण, लंबे तथा स्पष्ट वर्णन सुरुचि के विरुद्ध थे। यही कारण है कि प्राचनीन भक्ति-साहित्य आधुनिक रुचि के मनुष्य के लिए त्याज्य हो गया। किन्तु प्राचीन साहित्य में प्राप्त संगीत की भव्यता और सूक्ष्मता आज के साहित्य में नहीं मिलती। यही कारण है कि आज की उड़िया कविता संगीत के अभाव में जनता पर अपने प्रभाव को खो बैठी है।
भगवान जगन्नाथ महान् हैं किन्तु राधा-कृष्ण भी उड़िसा के प्रत्येक कोने में इनके साथ-साथ पूज्य माने जाते हैं और उनसे संबंधित गीतों के प्रति आज भी लोकमानस में अक्षुण्ण प्रेम भरा है। इस समय कृष्ण-भक्ति-साहित्य का अध्ययन विश्व-विद्यालय में आरम्भ हो गया है। इससे प्राचीन साहित्य की भव्यता और उच्चता के प्रति एक चेतना जगेगी। किन्तु अब यह आशा नहीं है कि इस बदली हुई स्थिति में, इस एयरोप्लेन तथा टेलीविजन के युग में, राधाकृष्ण की प्रेमकथाएँ कभी फिर उड़िया काव्य का विषय बन सकेंगी।
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