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गुजरात के सूफ़ी कवियों की हिन्दी-कविता - अम्बाशंकर नागर

भारतीय साहित्य पत्रिका

गुजरात के सूफ़ी कवियों की हिन्दी-कविता - अम्बाशंकर नागर

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    गुजरात ने हिन्दी भाषा और साहित्य की अभिवृद्धि में प्रशंसनीय योग दिया है, यहां के वैष्णव कवियों ने ब्रजभाषा में, साधु-संतों ने सधुक्कड़ी हिन्दी में, राजाश्रित चारणों ने डिंगल में और सूफ़ी संतों ने हिन्दवी या गूजरी-हिन्दी में सुन्दर साहित्य का सृजन किया है।

    गुजरात के सूफ़ी कवियों और उनकी कृतियों के अध्ययन की ओर अभी बहुत कम विद्वानों का ध्यान गया है। जिन विद्वानों ने इस ओर ध्यान दिया है वे प्रायः उर्दू के विद्वान है और उन्होंने जो कुछ लिखा है वह उर्दू साहित्य के अंचल में ही आवृत है। उनमें से कुछ ने इन कवियों और उनकी कृतियों को उर्दू करार दिया है, जो सर्वथा अनुचित है। उर्दू तो बहुत बाद की वस्तु है। 17वीं शती से पूर्व की भाषा को उर्दू कहना भ्रांतिपूर्ण है। ख़ुसरो से वली तक की हिन्दवी, गूजरी और दक़नी भाषा परंपरा वह मूल है जिससे आगे चलकर हिन्दी और उर्दू दोनों का विकास हुआ है। अतः हिन्दवी भाषा और उसके साहित्य को उर्दू मान बैठना उचित नहीं। उसका जितना संबंध उर्दू से है उससे कहीं अधिक संबंध हिन्दी से है। दकनी हिंदी के अध्ययन से यह तथ्य सिद्ध हो चुका है। गूजरी-हिन्दी, हिन्दवी और दकनी के बीच की कड़ी और दकनी का पूर्व रूप है। इस भाषा का तथा इसमें 14 वीं से 17 वीं शती तक रचे गये साहित्य का अध्ययन अभी शेष है। इसके अनुशीलन से हिन्दवी और दकनी के बीच की टूटी कड़ी जुड़ेगी और खड़ी बोली के विकास पर पुनर्विचार करने के लिए निश्चय ही नए तथ्य समुपलब्ध होंगे।

    गूजरी भाषा

    खड़ीबोली या हिन्दी हिन्दवी का सबसे प्राचीन एवं प्रांजल स्वरूप अमीर ख़ुसरो की कृतियों में मिलता है। अमीर ख़ुसरो (उपस्थिति 1325 ई.) ने ख़ालिकबारी नाम से अरबी, फ़ारसी, तुरकी और अरबी के शब्दों और वाक्यों का एक काव्यमय पर्यायवाची कोश रचा था, इसमें खड़ी बोली हिन्दी के जिस निखरे हुए स्वरूप के दर्शन होते है वह फिर दीर्घकाल तक साहित्य में समुपलब्ध नहीं होता, उसके दर्शन बहुत बाद में दकनी में होते हैं। इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि ‘खालिकबारी’ खुसरो की प्रामाणिक रचना होकर बहुत बाद की रचना हो। दूसरी संभावना यह भी हो सकती है कि हिन्दवी और दक़नी के बीच की भाषा परंपरा की कोई कड़ी ही लुप्त हो गई हो।

    इधर गुजरात में सूफ़ी कवियों का जो विपुल साहित्य क़ुतुबखानों और मसज़िदों में देखने में आया है उससे अनुमान होता है कि ‘दक़नी’ से पूर्व ‘गूज़री’ में साहित्य रचा गया था और यह ‘गूजरी’ भाषा ही संभवतः हिन्दवी और दकनी के बीच की भाषा-परंपरा की कड़ी है।

    यद्यपि सोलंकी युग में ही मुसलमान व्यापारी और पीर औलिया गुजरात में तिज़ारत और तसव्वुफ़ के लिए आने जाने लगे थे। किन्तु गुज़रात में मुसलमानों का प्रभाव मुख्यतया अलाउद्दीन खिलजी के गुजरात को जीत लेने पर सन् 1300ई. से प्रारंभ हुआ। इसके बाद दिल्ली के मुसलमान अपने नाज़िमों के माध्यम से गुज़रात पर राज्य करते रहे। दिल्ली से आनेवाले नाजिमों के साथ फौज, रिसाले, मुंशी, नौकर-चाकर वगैरा तो आते ही थे उनके साथ इस्लाम और तसव्वुफ़ का प्रचार करनेवाले पीर औलिया भी आते थे। इन पीर मुर्शिदों का सरकार पर तो प्रमाण था ही जनता में भी इनके प्रति आदर भाव था। ये घूम-घूमकर जनता को उपदेश देते थे और अपना मकसद बतलाने के लिए स्थानिक भाषा के शब्दों का भी सहारा लेते थे। इनकी भाषा हिन्दवी या दहलवी थी जिसमें गुजरात के देशज शब्द भी मिल गये थे। इस तरह की प्रादेशिक शब्दों से युक्त हिन्दवी को इन्होंने ‘गूजरी’ नाम दिया। सैयद पीर चिश्ती के निम्नलिखित उद्धरण से इस कथन की पुष्टि होगी—–

    अने गमार हैं रइते जंगल रे मांही,

    वे गूजरी रे बिना और समझे रे नांही

    मुझे उन वास्ते किताबां रे करनी।

    तो समझन उन्हों को वैसी बोली मन धरनी।

    ( सैयद पीर चिश्ती, गुजरात, 1651 ई.)

    फ़ौजों, रिसालों और सूफ़ी पीर औलिया के द्वारा यही गूजरी कालाँतर में गुजरात से दक्षिण में संक्रमित हुई औऱ दकनी या दक्खनी कहलाने लगी। अकबर के गुजरात को जीतने पर (सन् 1573-1583 के बाद) तो कितने ही सूफ़ी संत और साहित्यकार गुज़रात से दक्षिण में बीजापुर और गोलकुंडा आदि स्थानों पर गये। वहाँ जाने पर भी इन्होंने कुछ समय तक अपनी भाषा ‘गूजरी’ कहना चालू रखा। शेख बुरहानुद्दीन जानम (बीजापुर) के निम्नलिखित उद्धरण से यह स्पष्ट हो जायगा—-

    जो होवें ज्ञान पुजारी

    ना देखें भाखा गुजरी।

    (हुजतुलबका)

    यह सब गुजरी क्या जुबां

    करिया आइना दरिया नुमा।

    (इरशादनामा)

    (शेख बुरहानुद्दीन जानम, ई. 1582, बीजापुर)

    गुजरात के सूफी कवि

    गुजरात में गूजरी की इस सूफ़ी साहित्य साधना का प्रारंभ शेख अहमद खट्टू (1336-1446 ई.) और बुरहानुद्दीन कुत्बे आलम बुखारी (1344-1453ई.) से माना जा सकता है। ये उच्चकोटि के संत थे और गुजरात में रस बस गये थे तथा सामान्य जनता को गूजरी में उपदेश देते थे। इनके अतिरिक्त शाह-आलम, शेख बहाउद्दीन बाजन, शाह अ’लीजीव गामधनी, मियां खूब मुहम्मद चिश्ती, बाबा शाह हुसैनी, ईसा चिश्ती, सैयद पीर मशाइख चिश्ती, शेख मुहम्मद अमीन आदि अनेक सूफ़ी संत एवं कवि गुजरात में हुए हैं। इन्होंने अनेक मसनवियां, ऐतिहासिक कृतियाँ और स्फुट रचनाएं गूजरी में की हैं। वली के बाद गूजरी में रचना करनेवाले सूफ़ियों की परंपरा प्राय समाप्त हो जाती है— और गुजरात में उर्दू काव्य परंपरा का प्रवर्तन होता है।

    गुजरात के उर्दू कवियों का अध्ययन और विवेचन इस निबंध का विषय नहीं है। यहां पर हम संक्षेप में गुजरात के उन्हीं सूफ़ी फ़क़ीरों और कवियों पर विचार करेंगे जिन्होंने गुजरात में खड़ी-बोली की परंपरा को जन्म दिया। साहित्यिक दृष्टि से इन कवियों की रचनाएं अधिक महत्वपूर्ण होते हुए भी खड़ीबोली के विकास के अध्ययन की दृष्टि से बड़ी उपयोगी है। शेख बहाउद्दीन बाजन, काजी महमूद दरियायी, शाह अलीजीव गामधनी, बाबा शाह हुसेनी, हजरत मुहम्मद चिश्ती, शेख अहमद खट्टू और हसन जस आदि गुजरात के ऐसे सूफी संत और कवि है जिन्होंने गूजरी हिन्दी में रचनाएं की है। इन सूफ़ी संतों के कृतित्व का संक्षिप्त परिचय आगे दिया जा रहा है।

    शेख बहाउद्दीन ‘बाजन’ (790 से 912 हिज़री)

    गुजरात के प्रसिद्ध सूफ़ी संत शेख बहाउद्दीन बाजन की गणना उर्दू के आदि कवियों में की जाती है। पर इन्होंने स्वयं अपनी भाषा को ‘हिन्दवी’ और ‘गूजरी’ कहकर इस विवाद के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ा। भाषा की दृष्टि से देखने पर भी ये खड़ीबोली पर परा के ही कवि प्रतीत होते हैं। जिस भाषा को इन्होंने ‘हिन्दवी’ कहा उके कुछ नमूने देखियेः

    यू बाजन बाजे रे इसरार छाजे।।

    मन्डल मन में धमके, रबाब रग में झमके,

    सूफी उन ठमके।

    यू बाजन बाजे रे उसरार छाजे।।

    दोहरा

    भौंरा लेवे फूल रस, रसिया लेबे बास।

    माली सींचे आसकर, भौंरा खडा उदास।।

    मेरे पथ कोई चल सके,

    जो चले सो चल चल थके।

    पढ पंडत पोथी धोयां,

    सब जान सुध-बुध खोया।

    सब जोगी जोग बिसारे,

    सब तपिश तब पुकारे।

    एक दुरस्ती दरस भूले,

    सिर नांगे पाव फूले।

    तुझ एक रूप भात बहुत देख आशिक शैदा होवे।

    बाझन आपको एक सरीखा नाही नाही, सब जगह जोह जोह।

    अंद जान्या वोह जाया।

    वो माई लाल केलाया।

    बाजन सब अंद आप पाया।

    प्रकट हुआ पर आप लगाया।

    हजरत क़ुतुबेआलम (790-850 हिजरी)

    पाटन निवासी प्रसिद्ध सूफ़ी फ़कीर हजरत कुतुबेआलम अहमदशाह के अहमदाबाद बसाने पर अहमदाबाद चले आए। सुलतान अहमदशाह इनकी बड़ी इज्ज़त करते थे। इनका जन्म, सन् 1388 में और मृत्यु सन् 1446 हुई। अहमदाबाद के निकटवर्ती गांव में इनका मज़ार है। इनकी मृत्यु के बाद इनके बड़े लड़के हज़रत शाह-आलम गद्दी के अधिकारी हुए। हज़रत क़ुतुबेआलम और उनके मुरीद शाह-आलम हिन्दी में उपदेश दिया करते थे। हज़रत क़ुतुबेआलम की बानी की बानगी देखिये

    कधी का राजा तुम सर कोई बूझे।

    साकी का राजा तुम सर कोई बूझे।।

    शाह क़ुतुब आलम

    दरगाह शाह आलम

    हजरत सैयद मुहम्मद जौनपुरी (847 से 910 हिजरी)

    ये घुमक्कड़ सूफ़ी संत थे, आप ने जीवन का अधिकतर हिस्सा इन्होंने घूमने-फिरने में ही व्यतीत किया था, इनका जीवनकाल, सन् 1443 से 1504 ई. तक माना जाता है, अपनी यात्रा के दौरान में ये कुछ समय तक सरख़ेज अहमदाबाद में भी रहे थे, इनका स्वर्गवास 61 वर्ष की अवस्था में बलूचिस्तान में हुआ, इन्होंने भी गूजरी हिन्दी में कुछ अल्फाज़ कहे है

    हू बलहारी सजना हू बलहार!

    हू साजन सहरा साजन मुझ गलहार!

    तू रूप देख जग माह्या, नन्द तारायन भान!

    उन्हीं रूप पहन होऊ, का वही होंवे आन।।

    काजी महमूद दरियायी (हिजरी 941)

    सूफ़ी कबीर काजी महमूद दरियायी बीरपुर (गुजरात) के निवासी थे, इनका देहांत सन् 1521 में 67 वर्ष की आयु में हुआ। इनके पिता काजी हमीद उर्फ शाहचलदा भी पहुंचे हुए फ़क़ीर थे, दरिया के मुसाफिरों के वली होने के कारण शाहचलंदा दरियायी कहे जाते थे। आगे चलकर इनके पुत्र और मुरीद काजी महमूद भी दरियायी कहे जाने लगे। इन्होंने हिन्दी में कुछ उपदेश दिए हैं। इन्होंने खास तर्ज़ की नज़्म जिसे ‘जकरी’ कहा जाता है, लिखी है। ज़िक्र से व्युत्पन्न है। इसमें सूफ़ी मशायख़ संत परंपरा तथा पीरों की प्रशंसा रहती है, काज़ी साहब की रचना का यह प्रकार केवल गुजरात में बल्कि समस्त भारत में प्रचलित हो चुका था। मौ. अब्दुल हक़ ने इस संबंध में कहा है ‘इनकी जुबान हिन्दी है जिसमें कहीं-कहीं गुजराती और अरबी लफ्ज़ भी जाते हैं कलाम का तर्ज भी हिन्दी है।’ इनकी रचना शैली के निम्नलिखित उदाहरण से भी इसकी पुष्टि होती हैः—–

    पांच वक्त नमाज गुजारू दायम पढू कुरान।

    खाबो हलाल, बोलो मुख सांचा, राखो दुरुस्त ईमान।

    छोड जलाल झूटो सब माया जो मन होवे ज्ञान।

    कलमा शहादत मुख बसरो जिससे छूटे ध्यान।

    दीन दुखी की नेमत पावो जो जन्नत राखो शान।

    महम्मूद मुखथीं तिल बिसारे, अपने धनी का नान।

    शाह अलीजीव मुहम्मद गामधनी (वफ़ात 973 हिजरी में)

    ये सैयद अहमद कबीर के वंशज थे। इनकी मृत्यु 1515 ई. में हुई। इनका मज़ार अहमदाबाद में रायखड़ में है। मिराते अहमदी में इनके क़लाम की प्रशंसा की गई है। आपका दीवान ‘जवाहिरे इसरारुल्लाह’ के नाम से प्रसिद्ध है। इनकी कविताओं में सूफ़ियों के प्रेम की पीर स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। इन्होंने सदैव अपने आपको आशिक और खुदा के माशूक के रूप में देखा है, इनकी वाणी में प्रेम का रंग घुला हुआ है। मौलाना अब्दुलहक़ ने इनकी भाषा के संबंध में कहा है ‘इनका तर्जे कलाम हिन्दी शौरा का सा है।’ वैसे, इन्होंने अपनी भाषा को सदैव ‘गूजरी’ कहा है, इनकी वाणी की बानगी अवलोकनीय है।

    कहीं सो मजनू हो बर लावे।

    कहीं सो लैला हौवे दिखावे।

    कही सो खुसरो शाह कहावे।

    कही सो शीरी होकर आवे।

    आप खेलू आप खिलाऊ।

    आपे आपस में गुल लाऊ।

    हजरत खूब मोहम्मद साहब चिश्ती (वफ़ात हि. 1023)

    अहमदाबाद निवासी सूफ़ी कवि खूब मुहम्मद का जन्म ई. 1039 में और देहांत 1614 में हुआ, इन्होंने ‘खूब तरंग’ नामक एक सूफ़ियाना मसनवी (986 हि. में लिखी) तथा ‘भावभेद’ नामक रिसाला लिखा है, इस मसनवी में आप ने अपनी भाषा को ‘अरबी फ़ारसी आमेज गुज़राती’ कहा है।

    जीवन दिल अजम अरब की बात।

    सुन बोले बोली गुजरात।

    जीवन मेरो बोली मुंह बात।

    अरब अजम एक सघात।

    भाषा को देखते हुए इस मसनवी को गूजरी हिन्दी का कहना ही अधिक उचित प्रतीत होता है, कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैः-

    जो हर अर्ज सो ज़र्रा जान।

    तल तल फिरै अजैमन क्षात।

    जिसको बहम करे नही दोवे।

    डाबा, जमना जिसे होवे।

    शेखचिली के थे घर चार, चढे फिराने एक सबार।

    ऊचे चढ़कर लेखा कीन, गिनती छपरे हुए सौ तीन।

    जिस पर बैठे आप फिराये, तिसकू गिनती मां लियाये।

    फिक्र करै नैन खोये यू, अन्दाजन घरजावे क्यों।

    हिकायते शेखचिल्ली, खूब तरंग।

    मल्लिक अमीन कमाल (1050 हि. से पूर्व)

    इनकी लिखी किताब ‘बहराम हुस्नबानू’ मसनवी प्रसिद्ध है, ये गुजरात के दरबारी शायर भी थे, कुछ लोग इन्हें दकनी भी मानते हैं, इनकी रचना शैली देखिये—–

    अजब सीस पर उस लंबे बाल थे।

    चग शाख़ सदल पर रखघाल थे।

    जबी देख उसकी छुपे आफताब।

    ले मुख पर अपस के रैन का नकाब।

    नेन देख आहू परेशान हो।

    चमन बीच नरगिस सो हैरान हो।

    यूसुफ जुलेखा

    सैयद शाह हाशिम (हि. 1015)

    आप भी अहमदाबाद के सूफ़ी संत थे। आप की मृत्यु ई. सन् 1649 में अहमदाबाद में हुई। आपकी वाणी हिन्दी में मिलती है।

    दुनिया के लोग कीड़े मकोड़े।

    घेहूं शहद पर दौड़ते घोडे।

    डूबते बहुत निकलते थोड़े।

    शेख़ मोहम्मद अमीन (हि. 1109)

    इनके जीवन के संबंध में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं होती। ये औरंगजेब के अहद हि. सन् 1109 में वर्तमान थे। आपने ‘यूसुफ जुलेखा’ नाम इश्क़िया मसनवी लिखी है जिसमें इन्होंने अपनी भाषा को ‘गूजरी’ कहा है। इसके अतिरिक्त इन्होंने एक मसनवी और लिखी है जिसका नाम ‘तवल्लुदनामा’ है। मोहम्मद अमीन को बहुत से दक्कनी विद्वानां ने दक्खनी माना है पर प्रो. डार साहब ने इन्हें गुजराती मानते हुए कहा है ‘मोहम्मद अमीन अपनी जबान को साफ़ साफ़ गुजराती कहता है और बाज़ ख़ालिज गुजराती अलफाज मसलन गाम और पोपट का इस्तेमाल करता है।’ इस संबंध में अमीन का कथन दृष्टव्य हैः

    सुनों मतलब अहे अब यू अमीं का।

    लिखे गुजरी मने यूसुफ जुलेखा।।

    हर एक जागे किस्सा है फारसी में।

    अभी उसकू ऊतारे गूजरा मैं।।

    के बूजे हर कुदाम इसकी हकीकत।

    बडी है गुजरी जगबीच न्यामत।।

    बीतां चालिस सो पर चोदह और सौ।

    है लिखियां गोधरे के बीच सुनल्यो।।

    जैसा कि हम ऊपर कह आए हैं, अपनी भाषा को गूजरी कहने का रिवाज तो दक्खनी शायरों में भी था। किंतु देशज प्रयोगों को देखकर और गोधरा वतन के उल्लेख के आधार पर कहा जा सकता है कि मोहम्मद अमीन गुजरात के होंगे या काफी समय तक गुजरात में रहे होंगे। इनकी भाषा शैली के कुछ और उदाहरण देखिये—-

    गरब कोई इस जगत में कीजियेना।

    गुरुरी का प्याला पौजियोना।।

    गरब करनार कू पडती है मुश्किल।

    गरब सो ना करे जो होवे आकिल।।

    (गु. जु.)

    जमाने कू तरस आता नहीं रे।

    किसीका ये भला चाहता नहीं रे।।

    मजाजी इश्क जो रखते है जगमा।

    उन्हू कू ख्वार करता है जमानां।।

    हककी इश्क जो रखते हैं वरदिल।

    नहीं पडता उन्हू कू कछी मुश्किल।।

    खुदा के इश्क भीतर वे शबोरोज।

    रहते है दिन खुशाल सू दिल अफरोज।।

    जो आशिक हुई इन्सान पर जुलेखा।

    पडी तो उस उपर विपत क्या।।

    अगर अल्लाह पर आशिक वे होती।

    उन्हें इन्सा के सोम जोती।।

    कछू मुश्किल पड़ती ऊसके तईहा।

    रती हो मस्त दयम इश्क के मां।।

    (यूसुफ जुलेखा)

    इन सूफ़ी संतों के अतिरिक्त शेख अब्दुल क़ुद्दूस गंगोही, ग्वालियर के मुहम्मद गौस, शेख़ बजीदुद्दीन अहमद अल्वी आदि का भी कुछ समय तक गुजरात में रहने का उल्लेख मिलता है। इनके अतिरिक्त बाबा शाह हुसैनी, शेख़ अहमद खट्टू और हसन जस का नाम भी इस परंपरा के प्राचीन कवियों में लिया जाता है। इन कवियों ने गूजरी में अपने विचार व्यक्त किये है। इन कवियों के पश्चात् गुजरात में उर्दू शायरी के बाबा आदम वली हुए जिनके बाद गूजरी भाषा ने उर्दू की अदबी तशक़ील हासिल की।

    शैख़ अहमद खट्टू

    मोहम्मद फ़तह (1109 हि. के बाद)

    गोधरा निवासी मोहम्मद फ़तह शायर अमीन के समकालीन थे। ‘यूसुफ सानी’ या ‘ज़ुलेखा सानी’ लिखी है जिसकी मूल प्रति बम्बई के प्रो. नदवी के संग्रह में सुरक्षित है। भाषा शैली का उदाहरण देखिये

    अब सुनो फताह की बाता, सब क्या।

    गोधरे के शहर में केता बया।।

    बैठे थे एक दिन जुम्मामसजिद मने।

    को बडे और जगर सब छोटे नन्ने।।

    शहर सी आया था एक मुहम्मद हया।

    जन निकाला यूसुफ़ जुलेखा तोतिया।।

    शम्स वलीउल्लाह (1668 से 1744 ई.)

    उर्दू शायरी के बाबा आदम शम्स वलीउल्लाह का उर्दू ज़बान से वही सम्बन्ध है जो चौसर का अंग्रेजी से। वली के वतन के संबंध में उर्दू के इतिहासकारों में काफी मतभेद है। कुछ लोग इन्हें और गावाद का रहनेवाला मानते हैं पर डार साहब ने इन्हें गुजराती साबित करने का प्रयत्न किया है। वे लिखते हैं—–

    ‘वली ने अपनी उम्र का एक हिस्सा सैरो सियाहत में गुजारा है और इसी सैरो सियाहत के दौरान में वो अरसों और गावाद भी रहे हैं। इसी बिना पर उनके मुतल्लिक झगड़ा शुरू हो गया। दक़नी कहते हैं कि वली दक़नी है। इसके खिलाफ गुजरातियों का दावा है के वो बहुत हद तक इसी बात में कामियाब रहे हैं के आप वली को शाह वजीहुद्दीन का एक फ़र्द साबित कर दिखाये। वली का इन्तकाल हि. 1118 में अहमदाबाद में हुआ और इन्हीं के ख़ानदानी कबरिस्तान में जो नीली गुम्बद के नाम से मशहूर है वे दफ़न भी किये गये।’

    श्री रामनरेश त्रिपाठी ने भी वली की मृत्यु सन् 1744 में अहमदाबाद में मानी है और लिखा है कि उन्हें गुजरात ज्यादा प्रिय था।

    वली की भाषा में गुजरातीपन की झलक देखकर भी उन्हें गुजराती मानने को जी चाहता है। उनकी कविता में अने, इता, संघात, ड्रामा, भाखा, आदि गुजराती देशज शब्द मिलते हैं, साथ ही ‘मेरे’ ‘तेरे’ के बजाय जो ‘मुझ’ ‘तुझ’ का प्रयोग मिलता है वह भी तत्कालीन गूजरी प्रयोगों के अत्यंत निकट है। यहाँ हमने वली का उल्लेख इसलिये किया है कि वे उर्दू के प्रथम कवियों में से एक हैं। इनकी रचना का एक उदाहरण देखिये—-

    ‘तुझ लब की सिफत लाला बदख्शां से कहूगा।

    जादू हैं तेरे नैन गजाला से कहूगा।।

    दी हक ने तुझे बादशाही हुस्न नगर की।

    यह किश्चरे ईरांमें सुलेमा से कहूगा।।

    जख्मी किया है तुझे तेरी पलकों की अनीने।

    यह जख्म तेरा खंजरे भाला से कहूगा।।

    बे सब्र हो वली इस दर्द से हरगाह।

    जल्दी से तेरे दर्द की दरमा से कहूगा।।

    निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि गुजरात के सूफी कवियों की कविता का साहित्यिक दृष्टि से भले अधिक मूल्य हो किंतु इनकी वाणी के अध्ययन से खड़ीबोली की आदि परंपरा पर प्रकाश पड़ता है। बहुत से उर्दू विद्वानों ने इन मध्यकालीन सूफ़ी फकीरों की वाणी को उर्दू का आदि रूप माना है। किंतु वली के पूर्ववर्ती सूफ़ी संतों ने अपनी भाषा को ‘हिन्दवी’ और ‘गूजरी’ कहा है। वस्तुतः यह खड़ी बोली का गुजराती में प्रचलित रूप था। इन सूफ़ी फ़क़ीरों ने अपने उपदेशों के लिए उसी व्यापक लोकभाषा को अपनाया था जिसका प्रयोग विभिन्न प्रांतों के साधु-संत कर रहे थे। अपनी कुल प्रांतीय विशेषताओं को लेकर यही वाणी गुजरात में ‘गूजरी’ और दक्षिण में ‘दक्खनी’ कहलाती थी।

    इस अवलोकन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि गुजरता के सूफ़ी शायरों ने ‘हिन्दवी या गूजरी’ में महत्वपूर्ण रचनाएं की है। इन रचनाओं से हिन्दी तथा उर्दू के विकास को समझने में बड़ी सहायता मिलती है। ये रचनाएं उस भाषा में रची गई हैं जो हिन्दी तथा उर्दू का मूल उत्स है। ‘गूजरी’ दक़नी से पूर्व लोकप्रियता को प्राप्त हुई थी और हिंदी परंपरा के अधिक निकट थी। फिर परिस्थितियों के कारण इसका विकास दक़नी के रूप में और विलय उर्दू के रूप में हुआ। हिन्दी उर्दू का यह अंतर वली के बाद क्रमश बढ़ता गया।

    हिन्दी की तरह गुजरात उर्दू शायरी का भी केंद्र रहा है। वली के बाद सैकड़ों उर्दू शायर गुजरात में हुए हैं, बंबई, सूरत, मरूच, बड़ौदा, अहमदाबाद और खभात, उर्दू शायरी के बड़े केंद्र रहे हैं। इस विषय की विशेष जानकारी के इच्छुक महानुभावों को काजी नूरुद्दीन की फ़ारसी में लिखी पुरानी पुस्तक ‘तजकरीए मखज्जनुए शोराए गुजरात’ देखनी चाहिये इसकी भूमिका मिर्ज़ा ग़ालिब ने लिखी थी। इस संबंध में दूसरी महत्वपूर्ण कृति है डॉ. मदनी साहब द्वारा बम्बई विश्वविद्यालय में डॉक्ट्रेट की उपाधि के लिए प्रस्तुत प्रबंध ‘गुजरात के उर्दू खादिम’।

    इस निबंध को हमने वली के पूर्ववर्ती, गुजरात के प्राचीन सूफ़ी कवियों के अध्ययन तक ही सीमित रखने का प्रयास किया है और यह बताने का प्रयास किया है कि इनके द्वारा प्रयुक्त हिन्दवी या गूजरी-भाषा दक़नी की पूर्ववर्ती भाषा शैली है। ख़ुसरो से लेकर वली तक की खड़ी बोली की परंपरा के विकास को समझने के लिए इन नवोपब्ध तथ्यों का अन्वेषण एवं उनका विधिवत् पुनरीक्षण आवश्यक प्रतीत होता है।

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