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निर्गुण कविता की समाप्ति के कारण, श्री प्रभाकर माचवे - Ank-1, 1956

भारतीय साहित्य पत्रिका

निर्गुण कविता की समाप्ति के कारण, श्री प्रभाकर माचवे - Ank-1, 1956

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    सामान्यतः निर्गुण कविता की समाप्ति के कारण ऐतिहासिक यानी राजनैतिक बताये जाते हैं। मुस्लिम आक्रमण के पश्चात् सगुणोपासना की ओर जनता का ध्यान बढ़ा और भक्ति द्वारा उन्होंने अपने दुःख भुलाये, ऐसा सामान्य विश्वास है। परंतु निर्गुण काव्य के नष्ट होने के बीज स्वयम् उसीमें मौजूद थे। उसमें संसार-विमुखता, वैराग्य, सब चीजों को क्षणभंगुर मानने की वृत्ति, बहुत प्रबल थी। एका वादाचा निकाल नामक लेख में श्री म. माटे ने (मनोहरः मराठी मासिक, अक्टूबर 1949) इस बात के प्रमाण जुटायें हैं और बताया है कि प्रायः सभी संत इसी नकारात्मक ढंग से सोचते थे। परिणाम जो होता वह स्पष्ट है। वे उदाहरण इस प्रकार से हैः-

    नामदेव—

    पुत्रकलत्रबंधू सांगाती देहाचे

    मज बांधिलें मोहाचे वज्रपाशी.

    संसार करितां देव जै सापडे

    तरी का झाले वेडे सनकादिक?

    संसारी असतां जरि भेटता

    शुकदेव कासया जाता तयालागी?

    जळीं बुडबुडे देखतां देखतां

    क्षण लागतां विसेनाती.

    तैसा हा संसार पहातां पहातां

    अंककाळीं हाता कांहीं नाहीं.

    जोवरी संपति तोंवरी हे सखे

    गेलियाते मुंके सुणे जैसें.

    निवृत्ति-

    संसारभ्रमें भ्रमले हे जीव

    तेणती है भाव रोहिणीची.

    जाईल हा देह सरेल आयुष्य

    आपोआप भविष्य उभें राह.

    वेगें करा आधी रामनाम चिंतना

    जब नांही पाहूणा काल आला.

    ज्ञानेश्वर-

    तापत्रय अग्निचा लागला वोणवा

    कवण रिधे आड कवण करी सावाधावा.

    संत भेटती अजि मज। या संतासि

    भेटतां सरे संसाराची व्यथा

    मोलाचें आयुष्य दवडितोसी वाया

    माध्यानिची छाया जाय वेगें.

    जनाबाई-

    प्रपंचीं जो रडे ब्रह्मवन त्यातें जडे

    नरहरी सोना-

    चितान्या चितरे काढे भिंतीवरी

    तैसें जग सारे अवधे हे

    पोरेंहि खेलती शेवटीं मोडती

    टाकोनिया जाती आपुल्या धरा

    तैसे जन सारे करिती संसार

    मोहगुणे फार खरैं म्हणतीं

    चोखामेला-

    कोण हे अवधे सुखाचे संगति

    अंतकालीं मोती पाठमोरै

    चोखा म्हणे याचा धरी भरवसा.

    जाईल हा देह वावुगाचि उगा

    अभ्रिची छाया जयापरी.

    असार साराचे नका पडूं भरीं

    सार तेंचि धरीं हरीनाम.

    कर्ममेला-

    जें जें दिसे व्यापलें तें तें फलक

    वावुगा बोभाट करोनि कांहीं

    नासे भवपीड़ा संसाराची.

    सोयाराबाई-

    किती हें सुख मानिती संसाराचें

    काय हें सांचे मृगजाल

    काय हे गुंतले स्त्रीपुत्रधना

    का ही वासना सुटे यांची

    निर्मळाबाई-

    बहू हा उधग आला संसारावा

    तोडा फासा याचा मायबाप

    एकनाथ-

    नाशवंत धन नाशवंत मान

    नाशवंत स्त्रीपुत्रादिक बालें

    नाशवंत बले गलां पडति

    एकचि शाश्वत हरीनाम.

    भांबावलें जन म्हणति माझेमाझे.

    खराचिये परि उकिरडा सेवीत.

    कासेयाची मूडा किरसी संसार

    पुढे तो अघोर घोर आहे

    मरणाची भीति विसरूनि मूढ

    वावगी काबाड प्रपंचावे.

    देहाऐसें वोघटे पृथ्वीमाजी नाहीं कोठें

    वोघते म्हणून त्या गावें मोक्षसुखार्थ नागवावें.

    मूळ नाशासी कारण कनक आणि स्त्री जाण

    जो गुंते येथे सर्वथा लत्याचा परमार्थ पुरता.

    तुकाराम-

    देह हें देवाचें धन कुबेराचें

    तेथे मनुष्याचें काय आहे

    तुका म्हणे कारे नाशवंतासाठीं

    देवासवे आठी पाडितोसी.

    धन मिळवोनी कोटी। सबे ये रे लंगोटी

    कां हें आवडलें प्रियापुत्रधन।

    काय कामा कोण कोण आलें.

    सुख पाहतां जवापाडे।

    दुःख पर्वताएवढ़े

    प्रपंचपरमार्थ संपादिन दोन्ही।

    एकहि निदानी धडे त्यागी

    तुका म्हणे तया दोहोंकडे धका।

    शेवटीं तो नरकामाजी पडे.

    निलोबा-

    भवाब्धिचें सखोल पाणी।

    बुडाले प्राणी बहुसाल.

    गुंतली आशा पडली मोहजाल फासा.

    येथें येउनि केलें काई। विठ्ठल नाहीं आठबिला

    नाही केली सुटका कांही। येचि प्रवाहीं पडिलासी.

    रामदास-

    संसार मिथ्या ऐसा कळला।

    ज्ञान समजोन निधोन गेला

    तेणें जनां पावन केला। आपण ऐसा.

    संसार हाचि दीर्ध स्वप्न।

    लोभे वोसणती जन

    माझी कांता माझें धन। कन्यापुत्र माझे.

    सपनिंच्या सुखें सुखावला प्राणी

    थोर झाली हानी जागृतिसी.

    मिथ्या सुखदुःख स्वप्नाचा व्यवहार

    तैसा हा संसार। नाथिलाची

    प्रपंचीं आणि परामुख।

    पावेल म्हणेल तो मर्खू

    जैसे परमान्नें मिश्रित विख।

    सेवितां मृत्यु पावे.

    धीमें धीमे ब्राह्मण जो कि वर्णाश्रम धर्म की इमारत का मूर्धन्य था, बहुत पतित होने लगा। उदाहरणार्थ गुरुचरित्र सन् 1558 के करीब लिखा गया है। उसमें स्पष्ट कहा है कि ब्राह्मण कर्मभ्रष्ट हुए हैं। म्लेच्छों के आगे वेदबीज बोलते हैं। इसलिए सत्व गया और सब मंदमति हो गये हैं। (26,224)

    कर्मभ्रष्ट झाले द्विज। म्लेंच्छांपुढे बोलती वेदबीज।

    सत्व गेले आचि काज। मंदमती झाले जाणाता।।

    महानुभावों ने तो सूत्रों में स्पष्टतः वैराग्य का विवेचन करते हुए अपने स्वदेश और स्वजनों का त्याग सुझाया था।

    स्वदेश बंधु त्याज्यः स्वग्राम संबंधु त्याज्यः

    संबंधियांचा संबंधु तो विशेषतां त्याज्य

    (चक्रधऱः सूत्रपाठ आ. 1)

    और दूसरे महानुभावों में यह निवृत्ति-प्रवृत्ति का अंतर स्पष्ट होने लगा था। भास्कर पंडित के शिशुपालवध ग्रंथ के संबंध में भावे व्यास ने कहा-

    भटो हा ग्रंथु निका जालाः परी नीवृत्तजोगा नव्हेचिः प्रवृता जोगा जाला.

    (भआस्कर भट्ट बोरीकर, पृ.53)

    महानुभावपंथ के अधिक काल टिकने का कारण उसकी पंडिताई शैली भी है। शब्द-शिल्प कब तक चलेगी ?

    महानुभावों की लेखनशैली लोकानुवर्ती (पाप्युलर) नहीं, वह बेदाभ्यासभासजड (पेडेंटिक) है। काव्यप्रांत में भी धर्मप्रचार की प्रेरणा की अपेक्षा कलाविलास की प्रवृत्ति बहुत बार अधिक महत्व पा गयी है। (सरदत्त पृ. 34, 35)

    परिणाम यह हुआ कि पहले के संत श्रोताओं की विनती करते थे, उनके अवधान के लिए प्रार्थी थे और बाद में पाहे श्रोतयाचे वदन (दासोपंत) श्रोताओं का वदन नहीं देखना चाहिये, ऐसी भावना गई। शुरू से थोड़ा बहुत ज्ञानीजनोचित, पहुँचे हुए का अहंकार तो था ही। ज्ञानेश्वर तक ने लिखा-

    करतलावरी वाटोला। डोलत देखिजे आंधला। तैसे ज्ञान आम्हीं डोला। दाविलें तुज।।

    (ज्ञानेश्वर 13, 651)

    करतल के आँवले की तरह से हमने तुझे ज्ञान दिखाया। बहमनी काल में संतसाहित्य क्यों पिछड़ा इसकी कारणमीमांसा करते हुए इतिहासकारों का मत यह है कि मुस्लिम आक्रमण के कारण मराठा समाज पर इस प्रकार दिङमूढ़ हुआ कि बाद में सौ डेढ़ सौ वर्षों तक उसने सिर ऊपर नहीं उठाया। राजसत्ता का आधार छूट जाने से सामाजिक जीवन बड़ा संकुचित बना। राधामाधव विलासचंपू की प्रस्तावना में पृ. 46 पर कहा गया है- दस पाँच हजार पाईक (पैदल) सेना पोसे या पाँच चार हजार बारगीर पाले ऐसी शक्ति का एक भी मराठा क्षत्रिय शक तेरह सौ से शक पंद्रह सौ तक नहीं था। नामदेव के बाद सर्व-साधारण जनता के मन जीत ले, ऐसा एक भई संत नहीं हुआ। वीरपुरुषों की परंपरा टूट गयी। धर्मोत्साह की ऊर्मियो में भाटा आते ही, काव्य प्रेरणा भी जैसे कम होती गयी।

    एकनाथ के समय तक आकर यह सामान्यता जैसे नियम बन गई। साधारणता ही आदर्श हो गई-

    गृहाश्रम सांडितां। कर्मरेखा नोलांडिता।

    निजव्यापारीं वर्ततां। बोधू सर्वथा मैले।।

    (एकनाथी भागवत 9,435)

    और उच्चवर्ग की देववाणी संस्कृत के विषय में उसे पूछना पड़ा-

    संस्कृत वाणी देवें केली। तरी प्राकृत काय

    चोरापासोनी झाली

    (एकनाथी भागवत 1, 129)

    एकनाथ के समय तक आकर बुधजन और सामान्य जनता की अभिरुचियों में भी स्पष्टतः अंतर जा चुका था। एकनाथ के शब्दों में—

    ज्ञानी निवती परमार्थ बोधे। पंडित निवती पदवंधें।

    लोक निवती कथा विनोबें। ग्रंथ संबंधे जग निवे।।

    (भावार्थ रामायणः बालकांड 14, 183)

    निर्गुण धारा के लुप्त होने का एक और प्रधान कारण था पांथिक विशिष्टता ज्ञानको गुप्त रखना, अलग तरह का आचारधर्म पालन, गद्दी, लोक जीवन की बहती धारा से टूटकर भिन्न प्रकार की अजब निष्ठाएँ, परंपरा को पूरी तरह मानना। कबीर ने अपने जीवन में जो एकता का मंत्र दिया था वह परवर्ती संतों ने जैसे भुला दिया। केवल उनकी बानी की पुनरावृत्ति कितने दिनों तक टिकी रह सकती है। महानुभावों ने सकला और सुंदरी लिपियाँ चलाई, नानक के गुरुमुखी। अनुभूति जैसे कुछ थोड़े लोगों की मोनोपोली बन गई और ज्ञान जब यों कुंद और बंद हो गया, फैलने से जब तक रुका, तो जो अवश्यभावी परिणाम जीवनशास्त्र में घटित होता है वही हुआ, यानी निर्गुण काव्यधारा की परंपरा टूट गई, जैसे विचारे स्त्रोतः पथे फैली हुई आचारेर मरु बालु राशि में जाकर धीरे धीरे बिलम गई। निर्गुण काव्य ने इस प्रकार सांप्रदायिक नियमों से निज को जकड़कर नष्ट कर लिया।

    निर्गुण और सगुण के बीच जब संगर उपस्थित हुआ, सगुण गया, क्योंकि जनसाधारण को अपनी भक्ति तथा उपासना का एक मूर्त आधार स्वाभाविक रूप से चाहिये ही था।

    अन्त में, यदि समय और सुविधा मिल पाई तो दोनों भाषाओं के वैष्णव साहित्य का, बारकरी और रामभक्त, कृष्णभक्त शाखाओं का तौलानिक अध्ययन ग्रंथरूप में उपस्थित करूँगा। इस आशा के साथ संतों का यह विवेकयुक्त स्मरण समाप्त करता हूँ।

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