निरंजनी साधु
निरंजनी साधु
इनका पंथ भी संवत् 1600 के पीछे हरिदास जी से चला है। हरिदास को कोई साँखला और कोई बीदा राठोड़ बताते हैं। असली नाम हरिसिंघ था। ये धाड़े मारा करते थे। एक दफे अकाल पड़ा था। लोग सिंध में जा जाकर नाज लाते थे। इनके साथियों ने उधर से एक कतार के आने की बात सुनकर इनको खबर दी। ये रात को रास्ते में छुपकर बैठ गये औऱ अपने साथियों को इधर उधर खबर लाने के वास्ते भेजा कि इतने में कतार आ गई। कतार वाले आपस में अपने घऱ की बातें करते आते थे। कोई कहता था कि मैं चार रोज का नाज छोड़ आया था और कोई कहता थआ कि मेरे घर में दो ही दिन का नाज था। फिर नहीं मालूम बच्चों का क्या हाल हुआ होगा। इन बातों के सुनने से हरिसंघ के दिल में दया आ गई। उसने कहा कि मैं जिन को लूटने को बैठा हूँ उनका तो यह हाल है, अब जो मैं इनकी कतार लूटूंगा तो इनके बाल-बच्चों अभी नहीं मरे होंगे तो अब मर जावेंगे और में इन काल में मारे भूखे गरीबों का नाज लूट कर कितने दिन जिऊँगा। यह सोच विचार कर उन से कहा कि भाई चलो कतार तो दूसरे रास्ते से निकल गई। अब बैठे क्या करें फिर देखेंगे। इस तरह उन लोगों को घर भेज कर अपने हथियार तोड़ डाले और साधु होकर डीडवाने के पास एक अच्छी जगह देखकर बैठ गये और निरंजन, निराकार, परमेश्वर का नाम जपने लगे जिससे उन के चेले निरंजनी कहलाये।
फारसी किताब दबिस्तानुल मज़ाहिब में हरीदास जी की बेनीदास साँखला की बस्सी का जाट लिखा है और कहा है कि वे नागोर के इलाके में रहते थे। एक दिन उन्होंने हिरनी का शिकार कगिया। वह ग्याभिन थी। तीर का जखम बच्चे के भी लगा। यह हाल देखकर हरीदास की हालत बदल गई। तीर कमान तोड़, कपड़े फाड़, जंगल को निकल गये। और बारह बरस तक चुपचाप एक जगह बैठ कर ध्यान करते रहे। बहुत लोग उनके चेले हो गये। उन्होंने अपने पंथ का भी नाम निरंनजी रक्खा। वे सन् 1055 (संवत् 1602) में शाहजहाँ बादशाह के राज्य में राम सरण हुए।
नावें के निरंजनी साधुओं ने लिखाया है कि हरीसिंघ जी सांखला राजपूत गाँव कापड़ोद के रहने वाले थे जो हुकुमत डीडवाने के कसबे कोलिया से तीन कोस पश्चिम की तरफ बसता है। कोलिया और डीडवाने के रास्ते पर बोड़िया नाम का एक कुआ है। उसके दरखतों में छुपकर मुसाफिरों को ये लूटा करते थे। उस जमाने में गुरू गोरखनाथ जी भरथऱी की गुफा में, जो डीडवाने के पास है, तपते थे। एक दिन कोलिया को जाते हुए हरीसिंघ ने उन्हें भी घेरा कि तुम जोगी बन कर दुनियाँ को ठगते हो। गोरखनाथ जी ने पूछा कि तुम धन लूटकर क्या करते हो। इसमें जो पाप होता है उसका भी कोई तुम्हारा सीरी है। हरीसिंघ ने कहा कि धन घरवालों को देता हूँ। पाप के भी सीरी वे ही हैं। गोरखनाथ जी ने कहा कि उनसे जाकर पूछो तो सही कि वे भी पाप में सीरी होने की हाँ करते हैं कि नहीं?
हरीसिंह जी गोरखनाथ जी को एक पेड़ से बाँध कर घरवालों से पूछने गये तो उन्होंने साफ साफ़ कह दिया कि हम पाप के सीरी नहीं है। तुम ऐसा धन ही क्यों लाते हो। यह सुनकर हरीसिंह घबराये हुए आये औऱ गोरखनाथ जी को खोल कर, उनके उपदेश से साधु हो कर तीर्थनाथ जी डूंगरी पर जा बैठे, जो उस जगह से एक कोस दक्खिन की तरफ गाँव रायसिंघपुरे की सीमा में है और निरंजन निराकार का स्मरण करने लगे। उनके चेले निरंजनी कहलाये। हरीदास जी का जन्म सम्वत् 1475 में हुआ था और सम्वत् 1545 में 120 बरस की उमर पाकर वे देवलोक वासी हुए।
डीडवाने के निरंजनियों ने उनका भेख लेना यानी साधू होना सम्वत् 1500 के करीब बताया है। मगर इसमें इनकी भूल है क्योंकि जोधपुर के निरंजनी साधु नवलराम वगैरह ने हरीदास जी को प्रागदास जी का चेला लिखाया है, जो कृष्णदास जी पबहारी के शिष्य अगरदास जी के चेले थे और कृष्णदास जी खुद सम्वत् 1550 के करीब हुए हैं। प्रागदास जी उनकी तीसरी पीढ़ी में थे फिर हरीदास जी, जो प्रागदास के चेले थे कैसे उनसे 100 बरस पहले हो सकते हैं। हमारी समझ में, उनके देवलोक होने का समय जो किताब हबिस्तानुल मज़ाहिब में लिखा है, सही मालूम होता है।
हरीदास जी के 52 चेले थे। जिन चेलों से निरंजनियों के 52 थांमे, हरीदाससोत, पुरणदासोत, अमरदातोस और नारायणदासोत वगैरा कायम हुए है। निरंजनी भी कुछ तो घरबारी हैं और बाकी निहंग है। घरबारी गृहस्थियों के से कपड़े पहिनते और रामानंदी तिलक लगाते हैं निहंग खाकी रंग की गुदड़ी गले में डाले रहते हैं और माँग कर खाते हैं। घरबारी मंदिरों की पूजा करते हैं जो पीछे से आजीविका के वास्ते इन लोगों ने शुरू कर दी है ठेठ में तो निर्गुण उसाना ही थी और यहाँ हरीदास जी भी करते थे।
घरबारियों के ब्याह रामवतों वगैरा में होते है और नाते का भी दस्तूर है। औरतें विशेष करके सफेद छींटे के घाँघरे पहनतीं है। मर्द धोती के नीचे कोपीन रखते है। भाई-बाँट में बड़े भाई को कुछ ज्यादा बाँट मिलता है। खोलायत के गले में चार भाई बंदों के सामने कंठी बाँधने से खोला पक्का हो जाता है। अब कुछ वर्षों में होदिता का भी खोले आना शुरू हुआ है। मुरदे जलते हैं और उनकी सतरवीं होती है।
डीडवाने के पास एक गाढ़ा नामक जगह है। वहाँ हर साल फागुन सुदी 1 से 12 तक मैला होता है जिसमें हरीदास जी की गूदड़ी के दर्शन कराये जाते हैं। मेले में इस पंथ के साधु बहुत आते हैं। जिनको बारह दिन महेश्वरी महाजन मिठाई की रसोई देते हैं, जिसमें ढाई गुनी खांड़ पड़ती है और 12 वें दिन राज की तरफ से सीरे की रसोई दी जाती है।
गाढ़ा निरंजनियों की पाट जगह है। यहाँ इनके महंत और बहुत से साधु रहा करते हैं। मकान भी अच्छे अच्छे बने हुए है। कुछ निरंजनी साधु गले में सेली बांधते हैं क्योंकि हरीदास जी को जब गोरखनाथ जी ने उपदेश दिया था तो एक टोपी और एक सेली भी दी थी।
हरीदास की बाणी की भी एक पुस्तक है और उसकी साखियाँ बहुत चमत्कारी हैं। जैसे—
साखी
आद अंत गोबिंद सगो, दूजो सगो न कोय।
हरिदास दूजो सगी, सो फिर बैरी होय।।
महाराज श्री विजयसिंह जी के गुरू आत्माराम जी, जिन की भविष्य वाणी नाथों के हाल में लिखी गई है, निरंजनी साधु थे। डीडवाने में रहा करते थे। एक दफे महाराज श्री बखतसिंह जी नागोर से उनके दर्शनों को गये तो उन्होंने एक पत्थर उठाकर महाराज कुंवर विजयसिंह जी के हाथ में पकड़ा दिया। इसको उस वक्त तो ठीक नहीं समझा गया था मगर जब महाराजा बखतसिंह जी का जोधपुर में राज हुआ तो यह बात मानी गई कि वह पत्थर देना जोधपुर के किले के हाथ आने का वरदान था। फिर आत्माराम जी को इस किले में बुलवा लिया गया। महाराजा श्री विजयसिंह जी उनका बहुत मान करते थे। जब वे मरे तो उनको किले में ही समाधि दिलवाई। उस दिन मट्टी देने के बहाने रास, पोकरण, आसोप और नीमाज के ठाकुरों को बुलाकर कैद और कतल किया गया जिन्होंने मुल्क में फितूर डालकर महाराजा जी को दुःखी कर रखा था और आत्माराम जी भी कहा करते थे कि जब मैं मरूँगा तो तुम्हारा यह दुःख ले जाऊँगा। इसी वास्ते किसी चारण ने कहा है—
केहर देवा छत्रसी दल्लो राजकुमार, मरते मोडे मारिया चोटी वाल चार।
आत्माराम जी का यह वचन अँगरेजी राज होने के बाबत मारवाड़ में मशहूर है......
कलकत्ते री कामनी करसी एकोकार, आफां सूँ अलगी रहै काँकड़ आगे कार।
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