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जाहरपीरः गुरु गुग्गा, डा. सत्येन्द्र - Ank-2,1956

भारतीय साहित्य पत्रिका

जाहरपीरः गुरु गुग्गा, डा. सत्येन्द्र - Ank-2,1956

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    जाहरपीर को ही गुरु गुग्गा भी कहा जाता है। जाहरपीर अतवा गुरु गुग्गा का ब्रज में बहुत महत्व है। पेंजर महोदय ने कथा-सरित्सागर के प्थम के प्रथम परिशष्ट पश्चिमोत्तर प्रदेश के संबंध में लिखा है- “In the census returns 123 people recorded themselves as votaries of Guga, the snake-god.”

    जनसंख्या-गणना में 123 व्यक्तियों ने लिखाया कि वे सर्प-देवता गुग्गा के भक्त हैं।

    गोगा चौहान के संबंध में टाड महोदय ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ में तीन स्थानों पर कुछ उल्लेख किया है। एक स्थान पर उन्होंने लिखा है-

    गोगा चौहान बछराज का पुत्र था। सतलज से हरियाना तक के समस्त प्रदेश पर उसका अधिकार था। उसका स्थान मेहरे या गोगा की मेढ़ी सतलज पर स्थित था। महमूद के पहले भारतीय आक्रमण में गोगा चौहान ने पअने पैंतालीस पुत्रों और साठ भतीजों के साथ इस स्थान की रक्षा में प्राण त्यागें। वह रविवार था, तिथि थी नवमी। राजपूताने के छत्तीसों कुल इस दिन को गोगा की स्मृति में पूज्य मानते हैं। मरुभूमि में जहां गोगा देव का थल है, वहाँ तो इसकी बहुत मान्यता है। गोगा के घोड़े जवाड़िया का नाम भी बहुत लोकप्रिय हो गया है। राजपूताने भर में श्रेष्ठातिश्रेष्ठ युद्ध के अश्व को जवाड़िया का प्रशंसा सूचक नाम दिया जाता है।

    टाड महोदय ने मन्दौर में जो भव्य स्मारक नागदा के किनारे देखे थे, उनमें से एक में उन्होंने देखेः गणेश, भैंरू (द्वय), चामुंडा, कंकाली, नाथजी, उसके बाद की पंक्ति में सबसे आगे मल्लिनाथ, तब पाबू जी, रामदेव राठौर, हरवा सांकला, गोगा चौहान, तथा मेवोह मंगूलिया। इसी वर्णन में गोगा चौहान के संबंध में टाड ने फिर लिखा है कि-

    गोगा चौहान जो अपने सैंतालीस पुत्रों के साथ महमूद के आक्रमण में सतलज मार्ग की रक्षा करता हुआ बलि गया।

    टेम्पल महोदय ने जाहरपीर अथवा गुरू गुग्गा का एक बड़ा लोकगीत अपने संग्रह में दिया है। यह गीत वास्तव में स्वांग है जो जालंधर में खेला जाता था। इसकी भाषा हिन्दी है। एक दूसरा गीत उन्होंने दिल्ली के किसी नायक से लिया है। श्री जे. डी. कनिंघम महोदय ने हिस्ट्री आफ दे सिख्स (लंदन, 1853) में पृष्ठ 11 पर पाद-टिप्पणी में गोगा का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि पंजाब के निचले हिमालयों में गूगा अथवा गोगा के बहुत से मन्दिर हैं और मैदानों का दरिद्र वर्ग भी ऐसे ही प्राचीन वीर की स्मृति के प्रति श्रद्धा रखता है। उसके जन्म अथवा उद्भव के कितने ही विवरण दिये जाते है। एक उसे गजनी का प्रमुख बताता है, और अपने भाई उर्जुन और सुरजन से लड़ाई करने वाला कहता है। दोनों भाइयों ने उसे मार डाला पर अचानक एक चट्टान फटी और उसमें से गूगा शस्त्रास्त्र सज्जित घोड़े पर सवार प्रकट हुआ। एक अन्य विवरण में उस रजवर्रा जंगल के दर्द दरेहरा का स्वामी कहा गया है। यह टाड के वर्णन से कुछ कुछ मिलता है, जो इसी वीर के संबंध में है, जो महमूद की सेना सें लड़ते लड़ते मारा गया। वोगेल ने इंडियन सर्पेण्ट लोर में लिखा है कि गूगा पर बहुत लिखा जा चुका है।

    इनके बाद जाहरपीर अथवा गुरु गुग्गा पर अन्य आधुनिक उल्लेख मिलते हैं। इनसे यह अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है कि गुरू गुग्गा राजस्थान, पंजाब और पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में विशेष मान्य रहा है। गुजरात में भी इसकी प्रतिष्ठा है पूर्व में इसका नाम प्रायः नहीं मिलता।

    राजपूताना गजेटियर के उल्लेखों में बताया गया है किः-

    स्वयं मदौर में, मोतीसिंह के बाग के पास कुछ चैत्य हैं जो मारवाड़ के अतीत गौरव की गाथा कहते हैं। इसके समीप ही एक और महत्वपूर्ण स्थान है जिसे तेतीस करोड़ देवताओं का स्थान कहा जाता है। इसमें 16 विशाल प्रतिमाएँ हैं। इन प्रतिमाओं में से सात प्रतिमाएँ इस प्रकार हैः-

    1. गुसाईं जीः एक बड़े धर्म गुरु।

    2. मल्लिनाथ जीः ये राव सलखा के ज्येष्ठ पुत्र थे। उन्हीं के नाम पर यल्लानी जिले का नामकरण हुआ है।

    3. पाबूजी, राठौर राजपूतः इनके विषय में कहा जाता है कि ऊंट का पहले पहल इन्होंने ही प्रयोग किया। ये गायों के रक्षक थें।

    4. रामदेवजीः ये तोमर राजपूत थेः इनका संबंध दिल्ली के अनंगपाल के घराने से था। इन्होंने रामदेउरा नामक ग्राम बसाया था (पोकरन से लगभग 10 मील)। यहां प्रतिवर्ष अगस्त या सितंबर में रामदेवजी के सम्मान में एक मेला लगता है। रामदेवजी कभी कभी रामशाह पीर भी कहे जाते हैं। निम्नवर्गीय जनता इनकी पूजा करती है। कहा जाता है कि इन्होंने कभी झूठ नहीं बोला था। सन् 1458 में आपने जीवित समाधि ली थी, यह कहा जाता है।

    5. हरबूजीः ये पँवार राजपूत थे। इनका संबंध सांकलों से माना जाता है। ये फैलौड़ी के समीप बैंगती गाँव के रहने वाले थे। यहाँ पर इनकी एक गाड़ी बताई जाती है जो आज भी पूजनीय है। राउ जोधा के ये कृपापात्र थे।

    6. जाम्भा जीः ये भी पँवार राजपूत थे। ये बीकानेर के हरसर नामक स्थान के थे। विष्नोई सम्प्रदाय के संस्थापक के रूप में मान्य हैं।

    7. मेहाजीः गहलौत या सिसोदिया वंश के एक राजा थे।

    8. गोगाजीः चौहान राजपूत थे। ये मुसलमान हो गये थे। हाँसी से सतलज तक इनका राज्य था। कहा जाता है कि ये दिल्ली के फिरोजशाह द्वितीय के साथ लड़ते लड़ते मारे गये। यह युद्ध 13 वीं शती के अन्त की घटना बताया जाता है।

    9. जलंधरनाथ जीः नाथ सम्प्रदाय के एक प्रसिद्ध योगी थे। इनके एक वंशज देवनाथ थे, जो महामन्दिर में एक विशाल मंदिर के नींव डालने लगे के रूप में मान्य हैं।

    राजपूताना गजेटियर्स, खंड तृतीय ए, पृष्ठ 197

    दी वैस्टर्न राजपूताना स्टेट्स रेजीडेंसी एण्ड दी बीकानेर एजेंसीः

    वाइ मेजर के. डी. आर्सकाइन आई.ए., सी. ई., इलाहाबाद,

    पाइनियर प्रेस, 1909

    गुरु गोगा जीः-----

    गुरु गोगा जी योद्धा संत थे। इनके संबंध में जो विवरण राजपूताने के विभिन्न भागों में प्रचलित हैं, उनमें बहुत भिन्नता मिलती है। सांप के काटे हुओं की रक्षा करने वाले के रूप में इनकी प्रसिद्धि है। इनकी मूर्ति की पूजा दो रूपो में होती हैः घोड़ी पर चढ़े हुए अथवा सर्प के रूप में। इनकी पूजा कई वर्गों में प्रचलित है।

    (राजपूताना गजेटियर खंड तृतीय ए. पृष्ठ 256, वेस्टर्न राजपूताना स्टेट्स रेजीडेंसी एण्ड बीकानेरी एजेंसी आदि।)

    उत्तर पूर्व में गोगानों नामक स्थान पर एक पशुओं का मेला अगस्त तथा सितंबर में होता है। इस मेल में 10-15 हजार आदमी भाग लेते है। इसे गोगा मैड़ी मेला के नाम से पुकारा जाता है। यह नामकरण गोगा चौहान राजपूत के नाम पर हुआ है। ये मुसलमान हो गये थे। इनका राज्यकाल 13 वीं शतीं माना जाता है। इनका राज्य हौसी से सतलज तक बताया जाता है। अनेक गाँवों की जनता का विश्वास है कि इनकी मढ़ी में मन्दिर के एक बार दर्शन करने से साँप के काटनें से मुक्ति हो जाती है। यहाँ से एक मील की दूरी पर एक गोरख टीला है। इसके संबंध में बताया जाता है कि यह स्थानीय संत गोरखनाथ का पहला निवास-स्थान है। इनके संबंध में केवल इतना ही ज्ञात है कि ये एक पहुँचे हुए सिद्ध योगी थे।

    (वही, पृष्ठ 387)

    राजगढ़ तहसीलः रेनी से दक्षिण पूर्व में एक दद्रेवा नामक गाँव है। यह पश्चिमी किनारे पर है। यह मुसलमान चौहान सन्त गोगा की राजधानी बताया जाता है। इसका वर्णन पहले नोहर तहसील वाले विवरण में चुका है। यहाँ गोगा के सम्मान में प्रति वर्ष भादों (अगस्त-सितंबर) में एक छोटा सा मेला लगता है।

    (वही पृष्ठ 388)

    यहाँ तक साहित्यिक और ऐतिहासिक उल्लेखों का विवरण दिया गया है।

    लोक-साहित्य में इसके दो रूप मिलते हैं। एक तो सामान्य मनोविनोदार्थ स्वांग वाला रूप जिसका संकलन टेम्पल महोदय ने किया है। यह जालंधर में खेला जाता है। ब्रज अथवा पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में स्वांग वाला रूप नहीं मिलता।

    ब्रज में गुरू गुग्गा के गीत का आनुष्ठानिक महत्व है। गुरू गुग्गा या जाहरपीर एक देवता के रूप में माने जाते है। इनके अनुयायी भक्त अपने घरों पर इनका जागरण भी कराते हैं और इनके थान की यात्रा भी करते हैं, यात्रा को जात कहते हैं। जागरण के अवसर पर कपड़े पर कढ़ा हुआ इनका जीवनवृत्त दीवाल पर टांग दिया जाता है, और एक बड़ा लोहे का कोड़ा या चाबुक जागरण करने वाला साथ हाथ में लिया रहता है। जागरण में गुरू गुग्गा का गीत गाया जाता है। इस गीत में गुरू गुग्गा का ही जीवन-वृत्त रहता है। उसे गाते गाते नाथ पर गुरू गुग्गा का आवेश जाता है, नाथजी खेलने लगते हैं। जागरण अब सफल माना जा सकता है। इस समय गुरू गुग्गा अथवा जाहरपीर से मनचाही मुराद माँगी जा सकती है और अन्य विविध बातें भी पूछी जा सकती है।

    जात में गुरु गुग्गा के सोहले गाये जाते है।

    इस प्रकार गुरू गुग्गा विषयक इस दूसरे प्रकार के लोक-साहित्य का धार्मिक महत्व है।

    विमर्श-

    सबसे पहले प्रश्न उठता है कि भारतीय धर्मो के विकास में इस जाहरपीरी अनुष्ठान का क्या स्थान है?

    यदि इस समस्त लोकवार्ता का विश्लेषण किया जाय तो विदित होगा कि -

    (अ) 1. गुरू गुग्गा एक योद्धा अथवा वीर हैं।

    2. वे ऐतिहासिक पुरुष हैं।

    3. उनकी अकाल मृत्यु हुई है।

    (आ) वे जाहरपीर कहलाते हैं।

    (इ) उनकी लोकवार्ता का संबंध नाथों से है। नाथ उनकी पूजा के माध्यम है।

    (ई) वे सिर आने वाले या सिर खेलने वाले देवता हैं।

    (उ) सिर आने के अनुष्ठान में उनके जीवनवृत्त का वर्णन और गायन प्रधान माध्यम हैं। दर्शन के लिए पट-चित्र रहता है।

    (ऊ) कोड़ा या चाबुक एक प्रधान उपादान है।

    (ए) गुग्गा का संबंध घोड़े से भी है जो उनके साथ पैदा हुआ।

    पहले दो प्रश्नों के संबंध नाम से भी है। गुरू गुग्गा अथवा गोगापीर और जाहरपीर ऐसे नाम क्यों? लोकवार्ता नाम साम्य से एख व्यत्पत्ति बताया है।

    गुरू गोरखनाथ की सेवा की बाछल ने, फल देने का अवसर आया तो उसकी बहन काछल गुरू गोरख के पास पहुंची। गुरू गोरखनाथ ने उसे फल दे डाले। बाद में पहुंची बाछल। अब गुरूजी के पास क्या था? जो देना था वे दे चुकें। पर सेवाएँ तो बाछल ने की थीं। फलतः गुरूजी ने झोले में से गूगल निकाल के दी। गूगल से पैदा होने के कारण ही गुरू गूगा नाम पड़ा। गूगलःगूगअःगूगा अथवा गोगा भी। ऐसे विश्वासों के आधार पर ऐसे नाम रखे जाते है, इसमें संदेह नहीं। यह गुग्गा भी इसी नियम से रखा गया है। किन्तु आज ऐसा निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। नाम निश्चय ही कुछ अद्भुत है और अभी अनुसंधान चाहता है। गोगा की कहानी में गौओं से भी उसका संबंध है, उस संबंध से गोगा, गौओं की रखवाली करनेवाला भी हो सकता है। किन्तु यह नाम जितना लौकिक विदित होता है उतना संस्कृत नहीं।

    इसी के साथ इसके आगे प्रश्न आता है, फिर यह जाहरपीर क्यों कहलाये।

    वीर शब्द का अर्थ बुजुर्ग या गुरू होता है, अतः गुरू को पीर नाम दिया गया। यह ठीक ही है। पर, यह जाहर क्या है? समस्त कथा में इस जाहर शब्द का रहस्य नहीं खुलता। जाहर य़दि जाहिर का ही दूसरा रूप है तब तो प्रत्यक्ष या प्रकट अर्थ हो सकता है। तब जाहरपीर का अर्थ होगा, ऐसा गुरू जो अपने गुरुत्व को प्रकट दिखा रहा हो। कोई कोई जाहर को जहर भी कहते हैं। जहर अथवा विष से संबंध रखने वाला गुरू। गुरू गुग्गा का संबंध सर्पों से माना जाता है। क्रुक्स ने उसे सर्पों का देवता माना है। गुरू गुग्गा की प्रायः प्रत्येक वार्ता में यह उल्लेख है कि उसने माता के पेट में से ही सर्पों को विवश किया था कि वे उसकी माँ के बैलों को डस लें, जिससे मा अपने मायके जा सके। तब जाहरपीर का अर्थ हो सकता है जहर वाले सर्पों से संबंध रखने वाला गुरू। किन्तु ये सभी बातें अंधकार में टटोलने के समान प्रतीत होती है। मूल कथा में जाहरपीर का रहस्य नहीं खुलता। इस शब्द का उसमें अर्थधोतक प्रयोग तक नहीं हुआ। पीर शब्द धार्मिक क्षेत्र से विविध पीरों की परंपरा की ओर संकेत करता है। उधर जाहरपीर का संबंध नाथ संप्रदाय से है। आज तक नाथ लोग ही इसे अपनाये हुए हैं। प्रत्येक कथा में गुरू गोरखनाथ अवश्य आते हैं। इससे इसका संबंध गोरखपंथी नाथ-संप्रदाय से होना चाहिये।

    नाथ संप्रदाय में एक जाफरपीरी संप्रदाय का उल्लेख मिलता है। (देखिये-नाथ संप्रदाय, लेखक डा. हजारी प्रसाद दिवेदी) जाफर का जाहिर या जाहर होना असंभव नहीं है। या तो यह जाफरपीर ही जाहरपीर है या गुरू गुग्गा जाफरपीर के संप्रदाय के प्रसिद्ध पीर हैं। पीर के संबंध में योगियों में जो रिवाज प्रचलित हैं उनकी ओर ध्यान जाता है। इनसे भी यह सिद्ध होता है कि पीर का संबंध किसी किसी रूप में गाय से अवश्य है। क्योंकि बरसी पर केवल पीर को ही गाय दी जाती है।

    नाग अथवा सर्प-पूजा और गुरू गुग्गाः

    गुरू गुग्गा का संबंध नागों या सर्पों से माना जाता है। इसे सर्पों का देवता भी कहा गया है। प्लूटार्क ने लिखा कि पुराने जमाने के मनुष्य वीरों से साँप का संबंध विशेष दिखाते थे। अन्य पशुओं से उतना नहीं। वीरों का सांपों से किसी किसी प्रकार का संबंध प्राचीन काल से ही चला आया है। ऐनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका ने आगे लिखा है किः---

    सालमिस के युद्ध मे जहाजों में एक सर्प प्रकट हुआ था, उसे वीर साइक्रीअस माना गया था। ये वीर किसी पाखंड (Cult) की वस्तु हों जाते हैं या रोग-निवारक स्थानीय दर्द-देवता बन जाते हैं। इनकी समाधि के पास से जब लोग निकलते हैं तब आतंकित रहते है अथवा समाधि पर लोग भविष्य जानने या मानताएँ करने जाते हैं।

    इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाग या सर्प का वीर-पूजा से घनिष्ठ संबंध है। किन्तु नागपूजा का इतिहास बहुत लम्बा और बहुत पुराना है। यह जानना आवश्यक है कि नागपूजा का कौन-सा रूप जाहरपीर गुरू गुग्गा से संयुक्त हुआ और क्यों?

    गुरु गुग्गा का सर्पों से संबंध मानने का आधार यह हैः-

    1. जैसा बीकानेर गजेटियर में लिखा है कि गूगा को सर्पदंश से बचाने वाला माना जाता है। गोगानो गाँव में जहाँ गोगामेंड़ी का मेला होता है गोगाजी की समाधि है। इसको जाति करने से सर्प कभी नहीं काटता।

    2. मथुरा के मट्टानाथ वाले जाहरपीर के गीत मे ये पंक्तियाँ आयीं हैः-

    जाहर की गैल में स्याँपु लहरिया लेइ

    पापी चेला डसि लए दाता दर्शन देइ

    इस गीत के अन्तर्गत ही यह कथा है कि जब बाछल घर से निकाल दी गयी तो वह अपने मायके के लिए चली। मार्ग में गाड़ी रुकी। गूगा पेट में थे। उन्होंने सोचा कि यदि मेरी माँ ननसाल पहुँच गयी और वहाँ मैं उत्पन्न हुआ तो मेरा नाम निनुआँ पड़ जायगा। गूगा को माँ का ननसाल जाना पसन्द नहीं आया। वह शक्ति के रूप में पाताल में बासुकि के पास पहुँचा और उससे कहा कि चलकर मेरी माँ की गाड़ी के बैलों को डस लो। सर्पों को उसकी आज्ञा का पालन करना पड़ा।

    इस अभिप्राय में कहीं कहीं कुछ हेर फेर भले ही हो पर यह मिलता सभी में है।

    3. कहीं कहीं नागपंचमी को भी गुरू गुग्गा का ही त्योहार माना जाता है।

    4. गुजरात की लोकवार्ता में उल्लेख है कि गूगा के साथ ही एक साँप भई उसकी माता के गर्भ से पैदा हुआ था। दोनों में बहुत प्रेम था। बाद में यह साँप गूगा की आड़े समय में सहायता करता रहा था।

    नाग पूजा में साम्प्रदायिक पाखंड की स्थापना होने तक हमें निम्न विकास-क्रम विदित होता हैः—

    अः ऐनिमिस्टिक अवस्थाः 1.किसी जाति का नाग टोटम से संबंध होना

    2. जाति और टोटेम का एक नामकरण

    3. वह जाति टोटेम की पूजा करने लगी।

    आः माइथिलाजिकल (पौराणिक अवस्था) 4. उस जाति में पूज्य टोटेम विषयक गाथाओं

    का निर्माण

    इः सिद्ध अवस्था 5. टोटम को पूजा के लिए प्राप्त करन के प्रयत्न तत्संबंधी सिद्धियाँ

    ईः सांप्रदायिक स्थिति 6. विशेष संप्रदाय अथवा पाखंड के रूप में स्थिति

    उः ह्रास 7. संप्रदाय का ह्रास, अन्य पाखंडों से संबंध,

    8. और सर्प से रक्षा की चिकित्सा का प्राघान्य, पाखंड के संप्रदाय रूप का अभाव।

    नागपूजा के इस विकास-क्रम मे गुरू गुग्गा के पाखंड का आरंभ ह्रास काल में हुआ माना जायगा। अतः निश्चय ही गुरू गुग्गा का सर्पो या नागों से कोई मौलिक संबंध नहीं। यह संबंध

    उसे संयोग से प्राप्त हुआ है। संयोग किस प्रकार घटित हुआ होगा। इसके संबंध में निम्न विकल्प हो सकते हैः---

    1. गूगा का जन्म भादों में हुआ। इसमें नागपूजा का महत्व है।

    2. नागों से आजीविका करनेवाले समुदाय नाथ संप्रदाय में सम्मिलित हुए और उन्होंने ही गूगापीर को अपना लिया।

    3. वह स्थान जहाँ गूगा ने समाधि ली पुराना नाग-पूजा का स्थान हो या नागों से संबंधित किसी सिद्ध आदि से संबंधित हो।

    4. अथवा ऐसे सिद्धों-पीरों से सामान्यतः यह भावना संलग्न ही हो कि उनके प्रभाव से नाग या सर्प का दंश काम नहीं करता।

    मुझे ऐसा विदित होता है कि ये सभी संयोग के कारण इस संबंध में प्रस्तुत रहे हैं।

    (1) गूगा का जन्म भादों में नवमी को हुआ यह प्रसिद्ध है। यह नवमी गोगा नवमी कही जाती है। इस दिन सर्प के रूप में गोगा की पूजा होती है। या कहीं कहीं नागपंचमी को गोगा या गूगा पंचमी भी कहा जाता है। इस तिथि के एकीकरण से और गूगा की सर्पों के विवश करने वाली लोकवार्ता से गूगा और सर्पों का संबंध सिद्ध हुआ होगा।

    (2) सँपेरे भी कभी नाथ-संप्रदाय के अन्तर्गत थे, आज भले ही हों। वे जोगी तो विदित होते ही है। सँपेरों के उद्भव के संबंध में एक लोकवार्ता नाथों में प्रचलित है-

    गुरू गोरखनाथ अपने 1400 चेलों के साथ कामरूँ पहुँचे। वहां शहर के बाहर एक स्थान पर उन्होंने अपने डेरे तम्बू लगा दिये। सब चेलों में शिरोमणि थे औघड़नाथ। औघड़नाथ के आधीन समस्त चेलों को गोरखनाथ जी ने भिक्षा के लिए नगर में भेजा। सभी चेले नगर में इधर उधर भिक्षार्थ गये, तो वहां की स्त्रियां ने उन्हें कंकरी मार कर,किसी को मैना बना लिया, किसी को तोता, किसी को डूंड़ा बैल। गोरखनाथ ने बहुत प्रतीक्षा की। बहुत देर हो जाने पर भी कोई शिष्य लौटता नहीं दिखायी पड़ा। तब गोरखनाथ ने अपने थैले में से सोखनाथ को निकाला। सोखनाथ ने कामरूँ के सभी कुओं का जल सोख लिया। अपने डेरे के पास जो कुआँ था उसमें ही रहने दिया। कामरूँ की स्त्रियाँ जल लेने उसी कुए पर आयीं, तो सोखनाथ ने उन्हें गदहिया बना कर एक पास को गुफा में बंद कर दिया। अब कामरूँ में शोर मचा। गोरखनाथ ने कहा- हमारे चेलों को तुम लोग मुक्त करदो तुम तुम्हारी स्त्रियाँ भी मुक्त हो जायगी। पुरुषों ने घरों में बंद तोतों मैंनों के गले के बंधों को तोड़ डाला, गोरखनाथ के शिष्य अपना अपना रूप पाकर गुरू के पाय गये। औघड़नाथ रह गये। वे एक तेली के यहाँ बैल बने पाट चला रहे थे। गोरख ने बताया तो लोगों ने उन्हें मुक्त किया। तब गोरखनाथ ने सोखनाथ से कहा कि अब स्त्रियों को मुक्त कर दो। सोखनाथ ने सबको तो मुक्त कर दिया, पर वह एक धोबिन पर रीझ गया, उसे नहीं किया। उसने गुरू से कह दिया, भले ही मुझे भेख के बाहर कर दीजिये पर मैं इसे नहीं दूँगा। गुरूजी ने धोबी को समझा दिया और सोखनाथ को शाप दिया कि तु जंगलों में रहोगे और साँप खिला खिला कर अपनी जीविका चलाओगे। इन्हीं सोखनाथ की परंपरा में सँपेरे हैं।

    इससे यह विदित होता है कि सँपेरे कभी पूरी तरह गोरख संप्रदायानुयायी थे। गोरखनाथ ने कितने ही पंथों को अपने क्षेत्र में से बहिष्कृत कर दिया था। सँपेरे उन्हीं में से एक है। इस प्रकार सांपों का गोरख-संप्रदाय से अप्रत्यक्ष संबंध तो विदित होता ही है। गोरखनाथ सिद्ध थे, और उनकी आन मंत्रों में विद्यमान है। सांपों को कोलने में अथवा उनका विष उतारने में भी गोरख-विधि का उपयोग होता होगा। अतः गोरख-संप्रदाय से संबंधित होने के कारण गूगाजी में भी गुरू विषयक सिद्धि की स्थापना हुई होगी, औऱ गूगाजी सांपों से संबंधित हो गये होंगे। भआदों में जन्म लेने से जो मान्यता उन्हें मिली वह इस संयोग से और दृढ़ हुई होगी। यहाँ यह बात लिख देना आवश्यक है कि गोगाजी का संपेरों से भी कोई सीधा संबंध है, इसके प्रमाण नहीं मिले। नाथ संप्रदाय की सँपेरोंवाली शाखा भी गूगाजी को मानती है यह विदित अभी तक नहीं हो सका है। गूगा को मानने वाले औघड़नाथजी की परंपरा में ही प्रायः मिलते हैं। (3) गोगामेंडो अथवा गोगानो पशुओं के मेले के लिए प्रसिद्ध है, गोगाजी की कथा से यह विदित होता है कि माता से अपमानित होने पर वें घोड़े से बारह कोस का चक्कर लगाया, उसके बीच में घरती फट गयी, जिससे घोड़े के साथ गोगाजी समा गये। बारह को का वह घेरा जंगल हो गया। यह कथांश यह संकेत करता है कि जहां गोगाजी ने समाधि ली वहां गुरू गोरखनाथ विद्यमान थे। इसमें ऐतिहासिक गोरखनाथ का उल्लेख है या नहीं, यह तो दूसरी बात है, पर यह कथांश इतना तो अवश्य ही बताता है कि जहां गूगा ने समाधि ली वह स्थान गोरखनाथ का स्थान था। वह अवश्य गूगाजी से पूर्व गोरख के नाम से प्रसिद्ध रहा होगा। वही प्रसिद्धि वहाँ गूगा को मिली। यह बात लक्ष्य करने योग्य है कि समाधि से कुछ ही दूर, संभवतः एक कोस पर, एक गोरखटीला आज भी गोगानो में विद्यमान है। इस संभावना ने गूगा का नागों से संबंध दृढ़ किया होगा। और (4) इसमें भी कोई संदेह नहीं कि सिद्धों और नागों का एक विशेष प्रकार का संबंध लोकवार्ता मानती है। घर के व्यक्ति मृत्यु पाने पर सर्प-योनि में पितृ की स्थिति प्राप्त करते है। और घर में अपने प्रियजनों के बीच बने रहते हैं। जो व्यक्ति बहुत धन छोड़कर मरता है, वह साँप बनकर उसकी रक्षा करता है। इस प्रकार सर्पयोनि, पितृ योनि है अथवा प्रेत योनि है। गोगाजी मृत्यु के उपरांत भी सिरियल से मिलते थे, यह प्रेत की स्थिति है और इसके कारण उनका सांपों से संबंध परिकल्पित हुआ। (5) सांपों को भूमि-पुत्र माना जाता रहा है। भऊमि गोरूप होती है। गो की रक्षा में प्राण देने और भऊमि में समा जाने के कारण भई गूगा को सर्पों से संबंधित माना गया होगा। भूमि में समाकर गोगाजी पाताल में गये होंगे। पाताल ही सर्प-लोक है, क्योंकि वे वहीं के देवता है। सीता जब भऊमि में समायीं थीं तो पृथ्वी माता सर्पो द्वारा बाहित सिंहासन पर बैठ कर पृथ्वी में से निकली थीं।

    गाग के संबंध में मिलनेवाली लोकवार्ताओं में सर्पों या नागों से एक संबंध तो ब्रज की कहानियों में आता ही है कि गूगा ने बासुकी को अपने चमत्कार से विवश किया कि वह माँ की गाड़ी के बैलों को डल ले। इसके अतिरिक्त भी साँपों से कई संबंध ब्रज से बाहरवाली कुछ कहानियों में है। गूगा जब विवाह के लिए गये तो मार्ग में सर्पों ने एक झील के ऊफर गुल बना दिया था। जिससे बरात पार उतर सके। बूंदी शहर में, जो किसी-किसी वार्ता में गूगा की ससुराल मानी गयी है, बासुकी की आज्ञा से सर्पों ने कोट का घेरा डाल दिया था। लुधियाने में यह माना जाता है कि गूगा मूलतः नाग था, पर एक सुंदरी से विवाह करने लिए उसने मनुष्य रूप धारण किया, अंततः फिर नाग बन गया। यह भी कहीं माना जाता है कि बचपन में यह पालने में एक साँप का मुंह चचोरते देखा गया था। बासुकि नाग ने उसे सिरिअल से विवाह करने में सहायता दी थी। राजा ने जब सिरिअल का गूगा से विवाह करना अस्वीकार कर दिया तब बनखंड में जाकर गूगा ने बांसुरी बजायी झिससे बासुकि नाग आया और उसने तातिग नाग को उसके साथ कर दिया। तातिग नाग ने सिरिअल को डस लिया, फिर सँपेरा बन कर राजा के पास पहुँचा, और वचन लेकर कि राजा गूगा से सिरिअल का विवाह कर देगा, तातिग ने सिरिअल का विष उतार दिया। चम्बा की कहानी में बासुकि नाग गूगा का प्रतियोगी था, जिसे गूगा ने परास्त कर दिया था। कूलू की एक वार्ता में सुरयर नागनी बासुकी नाग की पुत्री थी। गुजरात की लोकवार्ता में गूगा के साथ साथ ही उसकी माँ के ही पेट से एक साँप भी पैदा हुआ था। इसी कारण उस सहजात को वह बहुत प्यार करता था। इस प्रकार लोकवार्ता ने गूगा और नाग के जिस संबंध की कल्पना की है, वह ऊफर बताये गये कारणों से ही सिद्ध नहीं होती।

    किन्तु इन सबसे भी अधिक, जो संभावना इन लोकवार्ताओं की झाँकी से मिलती है वह यह है कि नाग पाषंड भारत का एक मौलिक और प्राचीन, संभवतः वेदों से भी प्राचीन पाखंड है। यह एक लोक-संप्रदाय था। जब बौद्धधर्म लोक-संप्रदाय के रूप में खड़ा हुआ तो उसने नाग संप्रदाय को तो आत्मसात करने की चेष्टा की, और इसके लिए एक विधि का उपयोग किया। उसने नागों से किसी किसी प्रकार का संबंध स्थापित कर लिया। अतः नागों का बौद्ध-धर्म से घनिष्ठ संबंध हो गया। बौद्ध-धर्म के उपरांत नाथ संप्रदाय ने यही चेष्टा की, और बौद्ध-धर्म के अवशेष का नागों से जो संबंध रहा, वह गोरखनाथ से जुड़ा, वही जाहरपीर या गोगाजी से हो गया। जाहरपीर के वृत्त में कई बौद्ध अवशेष विद्यमान हैः---

    1. भगवान बुद्ध की माँ अपने मायके जा रही थीं, बुद्ध मायके में नहीं पैदा हुए बीच में एक कुञ्ज में पैदा हो गये। यह बात गूगा की कहानी में है। गूगा ने अपने नाना के घर जन्म लेना ठीक नहीं समझा, मायके के लिए बाछल चल पड़ी थी, पर बीच ही से लौटना पड़ा।

    2. भगवान बुद्ध ने एक नाग को अपने तेज से वश में किया था। पैदा होने के पूर्व ही गूगा ने अपने तेज से बासुकि को परास्त किया और उसे अपना आदेश पालने के लिए विवश किया।

    3. नागों ने भगवान बुद्ध के लिए पुल तैयार किया था। ऐसा ही पुल सर्पों ने एक झील के ऊपर गोगाजी और उनकी बरात के लिए किया था।

    4. भगवान बुद्ध का घोड़ा उसी दिन उत्तन्न हुआ था जिस दिन भगवान बुद्ध हुए थे। इसी प्रकार गूगा और उसके घोड़े नीला या जवाड़िया का जन्म भी साथ-साथ हुआ था.

    जे. पी. ऐच. वोगल, पी-ऐच. डी. ने अपनी पुस्तक, इंडियन सर्पेंट लोर में नाग-पूजा के मूल और महत्व पर संक्षेप में विचार करते हुए कई मतों का उल्लेख किया है, जिन्हें हम अत्यन्त संक्षेप में यहां देते हैः

    मत माननेवाले साहित्य

    1 नाग मूलतः सर्प नहीं थे। जेम्स फरगुसन ट्री एंड सर्पेंट वरशिप

    ये सर्पपूजक थे। ये उत्तरी (1838)

    भारत में बसे हुए थे और

    तूरानी शाखा की आदिम

    जाति के थे। इन्हें आर्यों

    ने आकर अपने आधीन

    किया। आर्य या द्रविड़

    सर्पों की पूजा करने वाली

    नहीं थें।

    2 नागों का संबंध उन दैत्य- प्रो. ओल्डनवर्न Die Religion des Veda

    सत्ताओं से है जिनका

    सबसे अच्छा स्वरूप में प्रगट

    होता है। ये मनुष्य के रूप में

    भी दिखायी पड़ते हैं। इनका मूल

    वह भावना है जो पशुओं और

    मानवों में अधिकांशतः अभेद

    मानती है, इसी भावना के परिणाम

    स्वरूप नाग देखने में आदमी लगते

    हैं जबकि हैं वे वस्तुतः सर्प। एक

    बौद्ध ग्रंथ के अनुसार उनका सर्प-

    स्वभाव दो अवसरों पर उद्घाटित

    होता हैः यौन समागम तथा शयन में।

    3 नाग सारसः जल आत्माएँ हैं। वे हेन्द्रक कर्न Over den Ver-

    प्राकृतिक शक्तियों के मानवीकरण हैं। moldelijkan

    साँपों की तरह गुंजलकें आकाश के नाग oorsprong der

    हुए, ये ही झीलों और तालाबों में पृथ्वी Naga-Vercerin

    पर उतार लिये गये, और अन्त में विषधर -ge Bijdr, Etc

    सर्पों से इनका एकीकरण हो गया।

    4. नाग सूर्यवंशी एक जाति थी, फनधारी 1. डॉ. सी. ऐफ. 1. The Sun

    नाग इसका टोटेम था। उत्तरी भारत ओलधम and the Serpe-

    में तक्षशिला इनका प्रधान नगर था। 2. ई. डब्ल्यू हॉपकिन्स nt (London.

    तक्षक उनका नायक था। 1905)

    1. ऐपिक माइथोलोजी

    5. यह मान्यता कि मृत राजा प्राचीन

    काल में सर्प-योनि में जन्म लेते थे,

    इसी कारण उनकी पूजा प्रचलित हुई।

    6. नागपूजा का मूल जटिल है। किसी एक

    बात की उसका कारण नहीं माना जा

    सकताः—

    1. सर्प की पशु रूप में पूजा है।

    2. सर्प केल हरने के साम्य से जल,

    स्रोत तथआ नदीं के देवी-देवताओं का

    प्रतीक भी यह हो गया है।

    3. इसमें वैदिक अहि की जैसी जिससे

    तूफान और प्रकाश के अंधकार से होनेवाले

    संघर्ष विषयक महान गाथा का संबंध भी

    दिखायी पड़ता है।

    7. नागपूजा के आरंभ का पहला बीज वस्तुतः

    सर्प के भय से ही उगा। तब उनके विशिष्ट

    स्वभाव के कारण विविध कल्पित तत्व

    जुड़ेः 1. साँपों को पृथ्वी, अंतरिक्ष और स्वर्ग

    में व्याप्त 2. उनमें माना गया। विलक्षण

    शक्तियों की उद्भावना की गयी।

    (अ) वर्षा में बिलों में पानी भरने से इनके बाहर निकलने से उद्भावना कि सर्पों में वर्षा लाने की चमत्कारिक शक्ति है।

    (आ) उसके चलने में आवाज होने, से उद्भावना- नाम लेते ही प्रकट होते हैं। अतः इनका नाम लेना ही वर्जित हो गया।

    (इ) सर्प दो जीभें निकालता है इससे उद्भावना कि सर्प हवा पीकर जीता है। हवा खाकर रहना तपस्वी का चरम उत्कर्ष, अतः सर्प तपस्वी की आदर्श।

    (ई) केंचुली उतारना देखकर उद्भावना कि इस कचुली में आंख से लगा लेने पर आदमी अदृश्य हो सकता है। केंचुली में चमत्कारक गुण माना गया है। इसीसे सर्पों को अमर माना गया कि वे केंचुली उतारकर नया शरीर धारण करते हैं और अमर हो जाते है।

    (उ) सर्प काटने से तुरंत मृत्यु होने के कारण उद्भावना कि सर्पों में वह जादुई शक्ति होती है जिसे तेजस कहते हैं। उनके नथुनों से आग की लपटें निकलती है। साँप अपनी सांस से ही प्राण ले सकता है।

    (ऊ) झील आदि के निकट मिलने से और बिलों में प्रवेश करने और निकलने से उद्भावना कि ये पाताल निवासी है।

    (ए) जंगलों तथा घास-पातों में घूमने के कारण उद्भावना कि ये औषधियों के ज्ञाता हैं।

    (ऐ) सर्प का प्रादुर्भाव वर्षा में, अतः उद्भावना कि ये उर्वरत्व के देव हैं।

    (ओ) हवा खाकर रहने से तपस्वी भाव का फल (औ) से मिल कर ये संतान प्रदान कर सकते हैं।

    (अं) घरों में दिखलायी पड़ते हैं, उद्भावना, कि ये घर के देवता है। इसी का विस्तार कि ये पुरखे हैं जो इस योनि में आये हैं।

    (अः) घरों में जमीन में प्राचीन लोग धन गाड़ते थे। बिलों से सर्प निकलता देख उद्भावना कि पुरखे धन की रक्षा के लिए सर्प बने हैं।

    (क) ऐसी अद्भत कर्मो के कारण नागों को देवता माना गया। उन्हें रूप बदलने वाला भी माना गया। रूप बदलने में मनुष्य रूप को प्रधानता मिली।

    इस समस्त ऊहा-पोह के उपरांत भी यह प्रश्न उठता है कि नाग और नागजाति में अभेद कैसे हुआ। नाग पशु का नाम है या जाति का नाम है, या दोनों की अलग-अलग उद्भावना है। किन्तु इससे भी अधिक महत्व की समस्या यह है कि नाग और नाग-जाति का संबंध कब और कैसे हुआ? यह संबंध आरंभ में संयोग से हुआ होगा। जहाँ नाग लोग रहते होंगे वहीं सर्प भी विशेष होंगे। इनके प्रति उनका आकर्षण हुआ होगा, उनका ज्ञान प्राप्त किया होगा, उन पर अधिकार किया होगा और उनसे अपना धार्मिक संबंध जोड़ा होगा। तब नाग और नाग-जाति का संबंध टोटेमधारी जाति के जैसा ही बनेगा। इस संबंध के स्थिर हो जाने के उपरांत और नाम पड़ जाने पर उक्त कारणों से नाग लोग उसकी पूजा में प्रवृत्त हुए होंगे, और उसके आधार पर उन्होंने अपनी जाति का पाखंड का बहुत प्रचार था जैसा ऊपर बताया जा चुका है। डब्ल्यू. डब्ल्यू. हण्टर, सी आई. सी. ई., ऐल. ऐल. डी. ने दि इण्डियन एम्पायर (लंदनः 1882) में (पृ. 171-173) बताया है कि बैद्धधर्म ने आर्य-पूर्व की इन जातियों को भारतीय तंत्र (Indian Polity) में घुला-मिला लेने में बहुत प्रयत्न किया था। यूनानी-बाख्त्रिक तथा सिदियन आक्रमणों (327 ई. पू. से 544ई.) के दीर्घ संघर्ष-युग में भारतीय आदिम जातियों ने पूर्वापर अधिक महत्व प्राप्त किया होगा, चाहे शत्रु के रूप में, चाहे मित्र के रूप में। इसके बाद ये जातियाँ पूर्व में उत्तरी भारत के अच्छे क्षेत्रों में बिखरी मिलतीं है। अब भी ऐसे ध्वस्त नगरों और किलों को हम अवध और उत्तरी भारत में विद्यमान् पाते हैं, जिनका संबंध इन आदिम जाति के लोगों से स्थानीय वार्ता में बताया गया हैः, ये जातियाँ इस क्षेत्र का कभी शासन करतीं थीं। जनगणना के फलस्वरूप इनके अस्तित्व की और पुष्टि हुई है। इसी में तक्षकों का उल्लेख हंटर महोदय ने किया है- इसी संबंध में वे कहतेः ये सिदियन तक्षक ही वस्तुतः महान् नागजाति का स्त्रोत माने जाते हैं- ये तक्षक या नाग संस्कृत-साहित्य में और कला में बहुत प्रमुख स्थान रखते हैं। आज भी इन्हीं के नाम की नाग जाति विद्यमान है। संस्कृत में तक्षक और नाग दोनों का अर्थ साँप होता है अथवा सपुच्छ दानव। तक्षकों को सिदियन टक्कों से संबंधित माना जाता है, अतः प्रमाणाभाव में अनुमान से एलखान के दूसरे पुत्र नगस से इन नागों की उत्पत्ति बतायी जाती है, जो संदिग्ध है। ये दोनों नाम संस्कृत के लेखकों के द्वारा विविध अनार्य जातियों के लिए उपयोग में लाये गये है। महाभारत में पांडवों ने खांडव वन के रिवाजों और देवताओं ने भारतीय वस्तु तथा चित्र-कला को बहुत अधिक प्रभावित किया है। चीनी भाषा में प्राचीन भारत की नाग-भूगोल का पूरा विवरण दिया हुआ है। नाग-राज्य बहुत से थे और शक्तिशाली थे। बौद्धधर्म ने अनेक नाग राजओं को अनुयायी बनाया था। इस नाग-संप्रदाय को च्युत करके बौद्ध धर्म ने बुद्ध के समय में ही नाग-संप्रदाय के अनुयायी नागों को अपने वश में कर किया, और अपना अनुयायी बनाया। भगवान बुद्ध का नागों से घनिष्ठ संबंध हो गया, और बौद्ध धर्म का जो सिद्धों में उसने परिणति पायी और तब नाथों से उसका गठबंधन हुआ। उनके माध्यम से गुरु गुग्गा को नाग-संबंध प्राप्त हुआ। और यह संबंध उन कारणों से विशेष रूप से पुष्ट हुआ जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है।

    यक्ष और गुरू गुग्गा

    गुरू गुग्गा का नागो से संबंध तो लोक-वार्ता में भी प्रसिद्ध है। उन्हें नाग-देवता ही माना जाता है। किन्तु गोगाजी विषयक अनुष्ठानों का समाधान इस से नहीं होता इसीलिए यहीं हमें एक और संभावना पर विचार करना है। क्या गूगा का यक्ष-पूजा से कोई संबंध हो सकता है। बौद्ध युग में, नहीं, बुद्ध के समय में ही, यक्ष प्रायः एक-सी ही प्रतीत होती है। यक्षों की भगवान बुद्ध ने जिस विधि से वश में किया, कुछ वैसी ही विधि नागों के लिए भी रही। यहां तक कि यक्षों और नागों के प्रमुख नामों में भी बहुत साम्य मिलता है। यक्षों के स्थानों पर भी बुद्ध और बौद्धों ने युक्ति से अधिकार किया था। अतः यक्ष-पक्ष का लोक में उस आधार पर कुछ कुछ प्रभाव रहना ही चाहिये जो बौद्ध धर्म के विकास अथवा ह्रास की कड़ी के रूप में प्रस्तुत हो। आज भी लोकवार्ता में ब्रज में यक्ष जखया के नाम से पूजा जाता है। साधारणतः यक्ष पूजा वीर के नाम से होती है। अनेकों वीरों के थान आज भी जहाँ तहाँ बिखरे पड़े है। (देखियेः जनपद वर्ष 1, अंक 3, वैशाख संवत 2010, वीर-बरह्म नामक लेखकः डा. वासुदेव शरण अग्रवाल। तथा ब्रजभारती)। गुरू गुग्गा के पाखंड में जिन बातों से यक्ष प्रभाव सूचित होता है वे ये हैः-

    1. गूगुल का महत्व।

    2. सिर आने की प्रक्रिया।

    3. नागों से संबंध।

    4. यक्ष-ध्वज।

    5. जागरण।

    6. यक्ष प्रश्न।

    7. वीर पूजा।

    1. यक्षों का संबंध गुगूल से है, यह बात इससे सिद्ध है कि संस्कृत में गूगल का नाम ही यक्षधूम है। गुरू गुग्गा का जन्म लोकवार्ता के अनुसार गुगूल से हुआ है। फल तो काछल ले गयी थी, बाबा गोरख की झोली में गूगुल ही था जो बाछल को मिला। इस प्रकार गुग्गा का जन्म ही यक्ष योनि से लोकवार्ता के द्वारा संबद्ध हो जाता है। परा-प्राकृतिक जन्म संबंध में देवी फल का अभिप्राय (कथानक रूढ़ि) बहुत प्रचलित है। कथासरित्सागर में महारानी वासवदत्ता ने पुत्र कामना से शिव का व्रत किया। शिव प्रसन्न हुए। उन्होंने वरदान दिया कि पुत्र होगा। एक रात को स्वप्न में एक जटाधारी ने आकर वासवदत्ता को एक फल दिया।

    इसी स्थल पर पेंन्जर महोदय ने टिप्पणी में बताया है कि मार्खे, समाज तथा रिवाजों में परा-प्राकृतिक उत्पत्ति के समस्त प्रश्न पर दी लीजेंन्ड ऑफ परशिअन्श खंड 1 में पृ. 71 से 181 तक हार्टलैंड ने भली प्रकार विचार किया है। (वी. शीविन (V. Chauvin op cit, V.P. 43) के Conception extraordinaries शीर्षक भी देखिये।)

    परित्यागसेन, उसकी धूर्त स्त्री और उसके दो बेटों की कहानी में ....... दोनों पत्नियों को दुर्गा से दो देवी फल मिलते हैं। यह कहानी Ocean of story V. II, P. 136 में दी हुई हैं। अध्याय cxx में भावी सम्राट् विक्रमादित्य की माँ को शिव ने संतान निमित्त एक फल दिया। यह फल कभी आम होता है। स्टोकस में, पृ. 91 पर लीची फल दिये गये है। अन्य कहानियों में अनार दिया गया है।

    किन्तु गुग्गा के संबंध में टाड ने जौ का उल्लेख किया है, और ब्रज में तथा टेम्पल के पंजाबी गीतों में गूगुल आता है। ब्रज लोकवार्ता में यक्ष-पूजा आज भी जखैया के रूप में होती है। जखैया पर घेंटे (शूकर के बच्चे) बलि दिये जाते है। घेंटो का हिन्दू समुदाय में भंगियों और महतरों से ही विहित संबंध है। अतः भारतीय रिवाज में दूरान्वय से यक्ष या जखैया का पूजनें वाला समुदाय कभी महतरों में परिज्ञात हुआ। गुरू गुग्गा के प्रति महतोरं की भक्ति का एक जातीय कारण यह भी हो सकता है।

    2. सिर आने की प्रक्रिया का संबंध सामान्यतः यक्षों से लगाया जाता है। यक्षों में कितनी ही प्रकार की शक्तियां मानी गयी हैं। ये चाहे जब, चाहे जैसा रूप बदल सकते हैं। ये अदृश्य हो सकते हैं। वस्तुतः जैन साहित्य के विद्याधर और यक्ष एक ही विदित होते हैं। कथासरित्सागर में पेंजर ने बतलाया है कि यक्ष के अर्थ ही हैं, विद्या-शक्तियों का धारण करनेवाला (बोइंग पजैस्ड आव मैजिकल पावर्स)। सिर आने को प्रक्रिया का अध्ययन किया जाय तो विदित होगा किस सिर आने के दो रूप हैं। एक तो देवता सिर आता है। देवता सिर पर इसलिये बुलाया जाता है कि उससे होने वाले अन्य अनेक कष्टों से छटकारा पाया जा सके और अभिलषित वस्तुओं का वरदान पाया जा सके। पीर अथवा देवी का सिर आना ऐसा ही होता है।

    दूसरे प्रकार में खोरवाला सिर आता है। किसी को खोर हो जाने पर उस खोर करने वाले को अनुष्ठान द्वारा बुलाया जाता है और उसे भाद देने की विधियाँ कीं जातीं है। भूत लग जाने या प्रेत लग जाने या मियाँ की खोर पर तो ये सिर आते ही हैं, साँप के काट लेने पर साँप भी सिर आता है। इस प्रकार के सिर आने का संबंध डैविल डान्स से है, जिसके संबंध में यह कहा गया है किः-

    A form of exorcism said to be allied to the Shamanism of Northern Asia, prevalent in Southern India and appearing also in Ceylon, Northern India, Tibet, etc. It is usually employed to entice the demon from the body of a sick person into the body of the dancer….. Devil dancing is found in the demonic Bon cult of Tibet.

    Devil Dances and devil beatin cerimonials found in various places in China may be a Lamaist importation. Data in incomplete. In Lamaist temples priests disguised as gods and devils attack each other in mock combat (R.D.J. Standard Dictinary of folklore, legend)

    वस्तुतः गुरू गुग्गा का प्रकार पहली कोटि का है। गुग्गा की खोर नहीं होती, यद्यपि जाहरपीर के गीत में आरंभ में ही, जब तक उसने जन्म भी नहीं लिया, वह वासुकि, अपने नाना और बाबा के सिर चढ़ा है, अपनी खोर की है। पर पाखंड अथवा संप्रदाय के रूप में वह खोर करने वाला नहीं, पहले उसकी मनौती की जाती है, पूजा की जाती है, तब वह सिर आता है, तब उसका आवेश होता है। अतः गुरू गुग् के जागरण में जो नाट्य होता है वह पारिभाषिक रूप में डेविल्स डान्स नहीं माना जा सकता। फिर भी लोकवार्ता और नृविज्ञान के विद्वान इसके मूल के संबंध में जो मानते हैं, वह सत्य ही विदित होता है।

    देवता या किसी आत्मा के सिर आने की भावना का आरंभ शामानिज्म से विदित होता है। इस शामानिज्म का संबंध बौद्ध श्रमण से है। श्रमण का समन, समन का शासन हुआ है। बौद्ध प्रचारक देश विदेशों में गये। ये प्रचारक ही नहीं थे, समाज के सेवक भी थे। चिकित्सा से इनका किसी किसी प्रकार का संबंध बैठता है। विदित होता है कि इन्होंने चिकित्सा की दो प्रणालिया अपनायीं 1. ओषधि आदि के द्वाराः जिसके आधार पर चले चिकित्सा-शास्त्र में आज भी एक अंग थेराप्युटिक्स कहलाता है। इस शब्द में थेर स्थविर का ही पर्याय है। 2. सिद्ध की आत्मा का आवाहन कर, उसकी सहायता से चिकित्सा करना। यही पद्धति शामानिज्म कही गयी। इसमें शमन शब्द बौद्ध श्रमण है। श्रमणों ने बौद्ध धर्म से आत्मावतरण का सिद्धान्त प्राप्त किया था, और किसी भी देश के आदि निवासियों के ऐनीमिस्टिक विश्वासों से उसका सामञ्जयस्य करके देवता, भूत-प्रेत के सिर आने के व्यवहार को ग्रहण किया होगा। ऐनिमिज्म+श्रमणीय बौद्धधर्म= शामनवाद।

    गुरु गुग्गा के संप्रदाय के साथ यह शामनिज्म=शामनवाद तो है ही क्योंकि जागरण होता है और गूगापीर सिर आता है। वह पुत्र प्रदान करता है, अन्य अनेक रोगों को दूर करता है आदि। यह बौद्ध परंपरा+यक्ष परंपरा मिलकर सिद्ध परंपरा में परिणत हुई, नाथों के लौकिक स्तर पर गृहीत हुई और वहाँ से गुरू गुग्गा के अनुयायियों ने ली। इनके साथ पट अथवा चंदोबे का विधान भी इस बौद्ध परंपरा की ओर संकेत करता है। बौद्धों में सिद्धों की जीवनी को प्रदर्शित करने वाले पट होते हैं जो धार्मिक अवसरों पर प्रदर्शित किये जाते हैं।

    इस प्रकार सिर आने की प्रक्रिया के साथ निम्न तत्तो का घनिष्ठ संबंध हैः-

    1. चंदोबा

    2. यक्षध्वज

    3. जागरण

    4. चाबुक

    5. यक्षप्रश्न

    चंदोबाः-

    जाहरपीर के जागरण में एक चँदोबा पीछे दीवाल पर टाँगा जाता है, उसके समक्ष जागरण के समस्त अनुष्ठान होते हैं। इस चंदोबें में गुरू गुग्गा के जीवन की कुछ घटनाएँ चित्रित रहती हैं। गुग्गा की कहानी की मुख्य-मुख्य घटनाएँ पहले कपड़े में से अलग अलग काट लीं जातीं हैं, फिर उन्हें एक पट पर सीं दिया जाता है। इसके मध्य में एक चक्र रहता है, तब शेष समस्त में घटनाओं के प्रतीक। यह चँदोबा पट-पूजा को अत्यन्त प्राचीन प्रथा का रूपान्तर है। आरंभ में ये पट पत्थर के बनते थे। जैनियों में आयाग पट का कितना महत्व है, सभी जानते हैं। बौद्धों में भी पत्थरों पर बुद्ध भगवान के जीवन की घटनाएं, जातक आदि की कथाएँ कथाएँ अंकित की जातीं रहीं है। जब बौद्ध लोग देश देशान्तरों में गये तो पत्थरों को ले नहीं जा सकते थे। तब संभवतः कपड़ों का उपयोग किया गया होगा। राहुल जी तिब्बत से अनेकों पट लाये थें। जिनमें सिद्धों के चित्र हैं। ये पटना म्यूजियम में हैं। ऐसे पट तिब्बत के बौद्ध मंदिरों में विशेष उत्सवों के अवसर पर टाँगे जाते थे। इन पटों पर चित्र अंकित करने की कला भारत में पुरानो प्रतीत होती है। जैन भगवती सूत्र में 15.0 में एक गोसाले मंखलीपुत्ते का उल्लेख है। मांख उन लोगों को कहते थे जो चित्र दिखा दिखा कर जीवन-यापन करते थे। मंखली वे होंगे जो ये चित्र बनाने का व्यवसाय करते होंगे। पतंजलि ने महाभाष्य (3,2,3) में कृष्ण लीला के चित्रों के प्रदर्शन की बात लिखी है। विशाखदत्त के मुद्राराक्षस (अंक 1) में यमपट दिखा-दिखाकर जीविका अर्जित करने वाले का उल्लेख है। यह विदित होता है कि इन पटों के दो रूप हो गयेः एक तो अत्यन्त आनुष्ठानिक जो धर्म-कार्यों के अवसर पर काम में लाये जाते होंगे। दूसरे सामान्य जिन पर कृष्ण-लीला या नरक-स्वर्ग चित्रित करके सामान्य साम्प्रदायिक भावना के साथ लोगों को दिखा-दिखाकर जीविका उपार्जित की जाती होगी। बंगाल की लोक-प्रवृत्तियों में ये दोनों प्रणालियाँ आज भी प्रचलित हैं। श्री आशुतोष भट्टाचार्य ने बाङ्लार लोकसाहित्य नामक पुस्तक में लिखा है- वर्तमाने प्रधानतः मेदिनीपुर, बाकुड़ा, वीरभूम अर्थात् पश्चिम बंगेर पश्चिम सीमान्तवर्ती कयकटि जिलाये चित्रकर वा पटुया बलिया परिचित एक श्रेणीर लोक वास करे। हिन्दू पौराणिक लौकिक देवदेवीर चित्र अंकन ताहादेर विवरण गृहे-गृहे करिया ताहादेर जीविका निर्वाह हइया थाके। ईहादेर व्यवहृत संगीत ईहादे निजेदेरइ रचित-इहाइ पटुवार गान वा पटुवा संगीत नामे परिचित।

    भट्टाचार्यजी ने पटवा जाति का कुछ विस्तृत वर्णन देकर यह अभिमत प्रकट किया है कि यह अनार्य जाति है। इस संबंध में उन्होंने एक युक्ति यह भी दी है कि पटवा जाति का एक वर्ग सँपेरा है। ये साँप खिलाते हैं। गीत गाकर पटों पर सर्पदेवी मनसा के चित्र दिखाकर जीविका उपार्जित करते हैं।

    पट-जीविका के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए भट्टाचार्य जी ने बाण भट्ट के हर्षचरित और विशाखदत्त के मुद्राराक्षक में इन्हें विद्यमान बताया है। अतः पट-जीविका को धारा छठी-सातवीं शताब्दी तक पहुँचायी है। उन्होंने बताया है कि इन पटों के मुख्य विषय तो हैः-

    1. बेहुला-लखीन्दर-मनसा विषयक

    2. रामायण विषयक

    3. भागवत विषयक

    इन मुख्य विषयों के अतिरिक्त कहीं-कहीं निम्न विषय भी पटों पर अंकित रहते हैः-

    4. पार्वतीर ऊंशंख परिधान,

    5. कमले कामिनी,

    6. गौराङ्ग-लीला

    7. गोसाईं पट

    8. साहेब पट

    9. डाकातेर पट इत्यादि

    यहीं भट्टाचार्यजी के एक निष्कर्ष का शब्दशः उल्लेख करना आवश्यक हैः-

    प्रधाने लक्ष्य करिवार कयेकटि विषय आछे-पटवागण महाभारतेर काहिनी-विषयक कौन पट अंकन करे ना एवं मनसा-मंगलेर विषय रामायण एवं कृष्णलीलार तुल्य प्राधान्य लाभे करे। एइजन्यइ बलियाछि जे, संभवतः पटवागन पूर्वे केवल मात्र सापूड़े वा वेदेर व्यवसायी छिल, सुतराँ सर्पेर अधिष्ठात्री देवी मनसारइ माहात्मय ताहारा पटेर मध्ये दियाओ प्रचार करित। अतएव कालक्रमे पटेर मध्ये अन्यान्य विषय वस्तु गृहीत हओया सत्वेओ मौलिक विषयटि इहादेर मध्ये केवल मात्र जे रक्षा पाइयाछे ताह नहे, समान प्राधान्य रक्षा करिते पारियाछे।

    इस विवरण से हमें पटवा जाति, पट तथा नाग या मनसा-मंगल के पारस्परिक घनिष्ठ संबंध की सूचना मिलती है। इन पटों से धर्म-पाखंड का संबंध होते हुए भी, ये जीविका निर्वाह के साधन रहे। द्वार-द्वार पर इन्हें दिखाकर इनके बहाने कुछ धार्मिक चर्चा और मनसा का प्रचार करते हुए अपनी जीविका के लिए कुछ भीक्षा या शुल्क पटवा लोग पाते रहे।

    इन पटों के साथ एक और प्रकार के पट बंगाल में प्रचलित है। लेखक के शब्दों में तबे पूर्व बंगे एक श्रेणोर पट देखिते पाओया जाय, ताहा गाजीर पट नामें परिचित.......। हाते गाजो वा मूसलमान धर्म प्रचार कदिगेर अलौकिक जीवन-वृत्तांत समूह चित्र रूपायित हइया थाके। ..... धर्म प्रचारेर वाहन-साहित्य रस परिवेशक नहे.....।

    यद्यपि दो प्रकार के पटों का उल्लेख किया गया है, पर दोनों के साथ किसी किसी प्रकार की धार्मिकता अथवा पाखंड लगा हुआ है और दोनों के विषय-वस्तु का लक्ष्य और विधान प्रायः एक ही है। किसी किसी कथा को प्रस्तुत करने के लिए ही इन पटो का विधान हुआ है। उसके उपयोग भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न हो गये है। मूल के साथ मूल में टोने का भाव भी धार्मिक होगा। समस्त इतिहास पर दृष्टि डालने से विदित होता है कि इस प्रकार के जीवन-वृत्तों को धार्मिक भावना से अभिमंडित करके प्रस्तुत करने की प्रणाली जैनों और बौद्धों में प्रायः साथ-साथ मिलती है। नागों और यक्षों से इन दोनों का लौकिक धरातल पर घनिष्ठ संबंध था, अतः यह पट प्रणाली इन संप्रदायों ने लोक से ही ली होगी। चित्रांकन की कला का मौलिक संबंध असुर-संस्कृति से विदित होता है, वाणासुर को कन्या उषा चित्रकला में अत्यन्त निपुण थी। चित्रकला के विधान को असुरों तथा नागों ने पत्थर में शिल्प के लिए अपनाया होगा। वहां से बौद्धों और जैनों ने इसे ग्रहण किया, तब बौद्धों ने अपनी श्रमणीय और परिब्राजकीय आवश्यकताओं की दृष्टि से तथा भौगोलिक कारणों से भी वस्त्रों पर उसे उतारा होगा। तब पतंजलि के समय कृष्ण आदि के लिए भी इनका उपयोग होने लगा होगा। पटवा जाति के लोग ऐसे ही किसी बौद्ध वर्ग के होंगे जो पट बनाते होंगे। ब्रज में भी इस जाहरपीर का पौरोहित्य पटवा नाथों से संबंधित है। ब्रज में आज पटवों और संपेरों का संबंध नहीं मिलता, पर जैसा बंगाली क्षेत्र से हमें विदित हुआ है पटवों और सँपेरों का जातिगत संबंध है। पट के द्वारा सर्प की देवी (जो पश्चिम में देवता हो गया) का चित्र प्रस्तुत किया जाता होगा। बाद में पट मात्र से संबंध रखने वाले पटवा हो गये, और सर्पमात्र से संबंध रखने वाले सँपेरे हो गये। उनके मुख्य विषय का संबंध सर्प अतवा नाग से अवश्य बना रहा। बंगाल में मनसा-सर्पों की देवी है यही पट से संबंधित है, तो ब्रज में गुग्गा या जाहरपीर भी सर्प के देवता है और चंदोबा उनका वही पट है, जिस पर उनका जीवनवृत्त अंकित है, और गीतों के द्वारा जिसे गाया जाता है।

    श्री आशुतोष भट्टाचार्य जी ने बताया है किः-

    चित्र एवं गीति उभये मिलियाइ एकटि अखंड रसेर सृष्टि हय-एक हइते अत्ररके विच्छिन्न करा जायपना। सेइजन्य पटवार निजस्व संगीत व्यतीत केवल मात्र ईहादेर एइ अखंड योगायोगेर भितर दिया ईहादेर उभयेरइ रस सौन्दर्य विकास पाय।

    चित्र से गीत साकार होता है, गीत से चित्र को अर्थ मिलता है। यह जीविका के लिए पट के उपयोग के साथ है। गूगा के पाषंड में भी यह संबंध तो है। चंदोबा गूगा के जीवन-वृत्त को कुछ चित्रों के द्वारा अंकित करता है और जोगी उसी जीवन-वृत्त को गाता है गीत में। पर यह संबंध पट-जीविका व्यवसायी पटों की भांति उतना अनिवार्य नहीं। क्योंकि गुग्गा के जागरण में चित्र में कथा दिखाना अभीष्ट नहीं, गीत के द्वारा पीर का चरित्र-वर्णन सुनाना ही अभीष्ट है। दोनों का संबंध दर्शकों या प्रक्षकों से नहीं। दोनों का संबंध गुरू या पीर की पूजा, मनौती और अन्ततः उसके आह्वान के अनुष्ठान से है। अतः गीत भी इस अनुष्ठान का एक टोनेवाला अंग है। और चित्र भी उसी प्रकार एक टोनेवाला अंग है। दोनों अपने अपने निजी टोने विषयक गुण के कारण यहां आये है। टोने का यह गुण इन्हें आदिम प्रवृत्ति का अवशेष सिद्ध करता है। आदिम टोनेवाले चित्रों और गीतों से ही जीविका के पट-गीतों का आविर्भाव हुआ होगा। वहां से विविध क्षेत्रों में इन्होंने स्थान प्राप्त किया होगा। इस प्रकार हम देखते है कि पट का यक्षों से दूर का संबंध है। नागों से अवश्य निकट का संबंध है।

    ध्वजः

    चंदोबे के साथ एक ध्वज भी होता है। यह मोरपंखों का मुख्यतः बना होता है और तरह तरह के पदार्थ, झंडियाँ, घंटियाँ इससे लटकी रहती हैं, इस ध्वज का संबंध यक्षों से हो सकता है, क्योंकि औपषातिक सूत्र में यक्ष मंदिर का जो वर्णन दिया हुआ है, उसमें ऐसे ध्वज का उल्लेख प्रतीत होता है। यक्ष-मंदिर का यह वर्णन कुमार स्वामी के अंग्रेजी अवतरण से रूपान्तर करके यहां दिया जाता है।

    चम्पा के निकट पुण्णभई नामक चेइय (चैत्य) था। यह अत्यन्त प्राचीन था, जिसका वर्णन पहले जमाने में वृद्ध, यशस्वी, धनी और सुविख्यात लोगों ने किया है। यहाँ छत्र थे, ध्वजाएँ थीं, और घंटियाँ थीं, पताकाएँ थीं, पताकाओं पर पताकाएँ थीं जिससे यह सजा हुआ था और लोम हत्थ थे................

    चोड़े वर्तुलाकार दीर्ध झुके लहराये स्तबक थे, राद्य मधु गंध पुष्पो के, पांच रंगों के पुष्पों के, जो वहाँ बिखरे हुए थे। कालागुरु, कुंदरुवक और तुरक्क की प्रकम्पित धूम्रलहरियों की सुगंध से वह प्रसन्न था।...... यह चैत्य चारों ओर विशाल बन से आवृत था। इस बन के मध्य में एक चौड़ा स्थल था, वहां यह बताया जाता है कि एक विशाल और सुन्दर अशोक वृक्ष था जिसके नीचे यक्ष का स्थान था।

    इस वर्णन में और चीजों के साथ लोम हत्थ का उल्लेख है। कुमार स्वामी महोदय ने लिखा है कि पाली में लोम हत्थ का अर्थ होता है रोंगटे खड़े हीना (भय, आश्चर्य अथवा आनंद के कारण)। हो सकता है कि यहाँ इस शब्द का मात्र यही अभिप्राय हो कि देखने में भव्य। किसी वस्तु से अभिप्राय हो, अथवा इसका अभिप्राय याक की पूँछ के चँवर से हो जो कि यक्ष-मन्दिर के लिए ठीक है। पर वस्तुतः मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें से कोई भी अभिप्राय ठीक नहीं, लोम हत्थ मोरछली के बने इसी ध्वज को कहते हैं। मोरपंख जब खड़े लगाये जाते हैं तो लोम हत्थ की परिभाषा के अनुकूल ठहरते हैं।

    जाहरपीर की समाधि भी यक्ष की भांति एक विशाल जंगल में है, जिसके मध्य में गोगा का स्थान है। तवारीख राज श्री बीकानेर में लिखा है कि गोगा जी के स्थान के इर्द गिर्द दूर तक जंगल पड़ा हुआ है। जंगल में खैरी के पेड़ हैं। खैरी का गोंद उत्तम समझा जाता है। गोगा जी के बेहड़ (बणी) से कोई दरख्त (पेड़) काट नहीं सकता। यक्ष का वृक्षों से घनिष्ठ संबंध है। ये रुक्ख देवता हैं। भगवान बुद्ध का भी वृक्ष से संबंध है। गोगा का भी वृक्ष से संबंध है। पं. झावर मल्ल शर्मा ने एक और लोकवार्ता का उल्लेख किया हैः गाँव गाँव खेजड़ी गाँव गाँव गोगो, प्रत्येक गाँव में खेजड़ी का वृक्ष मिलेगा और उसके नीचे गोगा का थान।

    जागरणः

    जागरण इस समस्त आयोजन का एक प्रधान अंग है। वस्तुतः जागरण स्वयं कोई महत्व नहीं रखता। देवी-देवताओं की मानता में समय ही इतना लग जाता है कि रात्रि जागरण करना ही पड़ता है। ऐसे सभी कृत्य प्रायः रात्रि में ही होते हैं। जागरण का संबंध केवल जाहरपीर से ही नहीं, देवी आदि अन्य देवताओं से भी है। कुछ अन्य संस्कारों में भी वह अनिवार्य हैः विवाह में रतजगा अनिवार्य है। इस रतजगे में भी दैवी मानता होती है। आज के विवाह विषयक रतजगे में तांत्रिक प्रभाव की झलक स्पष्ट दिखायी पड़ती है। जागरण या रतजगा इसी सिद्धि-अनुष्ठान की दृष्टि से ऐसे अवसरों पर आवश्यक हो जाता है। डेविलडान्स में भी जागरण होता है। बंगाल में जाग-गान होते हैं जो जागरण के समय गाये जाते है। सोनाराय या सोना पीर नामक एक पीर का भी जागरण होता है। जागरण का कोई अनिवार्य नियमित संबंध यक्ष पूजा से हो, ऐसा विदित नहीं होता। श्री आशुतोष भट्टाचार्य ने जाग-गान और जागरण का मूल युद्ध विग्रहोपरान्त वीर यक्ष वर्णन की आदिम उनका स्थान सन्तों-पीरों ने ले लिया है, वैष्णवों के प्रभाव में चैतन्य आदि भी इस जागरण-मान के विषय बन गये हैं। किन्तु प्रतीत होता है कि वीर-परंपरा एक पहलू है। इसका दूसरा पहलू पीर-परंपरा है। पीरों का संबंध सिद्ध और सिद्धियों से है। इनमें जागरण का मूल होगा- किसी किसी प्रकार की तांत्रिक आवश्यकता। वीर-पीर दोनों परंपराओं के मिल जाने से तांत्रिक और औत्सविक धोनों प्रणालियां। आज के जागरण जाग-गान से संबंधित हो गयी हैं।

    चाबुकः-

    चाबुक या कोड़ा भी इस सिर आने की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है। यह देवी-देवता के सिर आने पर उपयोग में आता है। खेलने वाला इसे उछाल उछाल कर अपने शरीर पर ही प्रायः मारता है।

    यहाँ पर कुमार स्वामी जी ने माली अज्जनए (Ajjunae) के उपाख्यान का उल्लेख करते हुए अन्तोगददसाओ के छठे अध्याय से जवखमोग्यारपाणि के पाखंड तथा मन्दिर का वर्णन दिया हैं उसे दुहराना उचित होगाः-

    किंबहुना मोग्गारपानि अज्जुनए के विचारों को जान गया। वह उसके शरीर में प्रविष्ट हो गया (सिर गया), इस आवेश के बाद उसने लोहे का मुद्गल उठाया और छः धूर्तों और स्त्री को मारा।

    अज्जुनए पर जक्ख अब भी सवार था, और इसी दशा में अब वह प्रतिदिन छः मनुष्यों और एक स्त्री को मार डालने लगा।

    यहां यक्ष के सिर आने का अर्थात् शरीर में आवेश का प्रकरण प्रस्तुत है, और यक्ष के आवेश से युक्त अज्जुनए के हाथ में मुद्गल है, जिससे वह पुरुष-स्त्रियों को मारता है किन्तु गूगा के सिर आने की प्रक्रिया में मुग्दर नहीं चाबुक या कोड़ा है। यह मुग्दर दूसरों को प्रताड़ित करने के लिए है, स्वयं अपने को प्रताड़ित करने के लिए नहीं।

    लोकवार्ता में फूलैगेल्लेशन कोड़ो की मार, का एक विशिष्ट स्थान है। यह खोर भागने की विधियों में है। संसार भर में ऐसे खोर उतारने के अनुष्ठान में चाबुक या कोड़े का उपयोग होता है।

    यह बात ध्यान में रखने के योग्य है कि यह चाबुक-प्रहार उसी समय होता है, जब प्रथम आवेश होता है। पीर के साथ वीर पूजा का भी घनिष्ठ संबंध है। वीर अश्वारूढ़ है। वह इस पुरोहित के शरीर को अश्व अर्थात् अपने वाहन का प्रतीक समझता है, और उसे मारता है जिससे यह ध्वनि निकलती है कि पीरजी प्रार्थना सुनकर घोड़े पर सवार चाबुक फटकारते पहुँचे है।

    यक्ष प्रश्नः-

    जब सिद्ध होता है कि देवता सिर आगये, तब प्रश्न पूछे जाते हैं। कुछ इन प्रश्नों को यक्ष प्रश्न या ब्रह्मोद्य का नाम देते हैं, और इसके द्वारा यक्ष-प्रभाव दिखाते हैं। यक्ष-प्रश्न अथवा ब्रह्मोद्य वेदों में यक्ष का एक अंग माना जाता है, इसमें कुछ पहेलोबुझौवल जैसी चीज होती है। महाभारत में एक जलाशय के किनारे एक यक्ष ने पांडवों से प्रश्न पूछे हैं। पहले चार पांडव उन प्रश्नों का उत्तर दे सकनें के कारण मर गये, अंत में युधिष्ठर ने प्रश्नों का उत्तर दिया औऱ अपने भाइयों को पुनरुज्जीवित कराया। सिर आने वाला देवता अथवा पीर स्वयं प्रश्न नहीं पूछता। उससे प्रश्न पूछे जाते हैं, और ये सभी प्रश्न खोर के निराकरण के उपाय, सन्तान आदि प्राप्त करने के उपाय और भविष्य के ज्ञान के संबंध में होते हैं। अतः वैदिक अथवा पौराणिक यक्ष-प्रश्न से उसका संबंध ठीक-ठीक नहीं बैठता। यह स्पष्ट ही तांत्रिक अवशेष विदित होता है। देवता के सिर आने का अभिप्राय है उस देवता का सिद्ध होना, प्रत्यक्ष होना। सिद्ध या तांत्रिक जिस प्रकार सिद्ध हुए देवता से अपनी कामना-पूर्ति की याचना करता है, वैसी ही याचना यहाँ देवता से की जाती है।

    इस विवेचन से स्पष्ट विदित होता है कि जाहरपीर या गुरू गुग्गा पर यक्ष-पूजा का कुछ प्रभाव तो अवश्य है, पर वह आया उस जैसे अन्य प्रभावों के साथ लगकर ही है। यक्ष की अपेक्षा तो प्रेत-पूजा से इसका विशिष्ट संबंध प्रतीत होता है, प्रेत ही दूसरे के शरीर में आवेश के द्वारा अपना अभीष्ट पूरा करता है। पीर वस्तुतः प्रेत ही हो जाता है, क्योंकि मृत्य के उपरान्त ही सिर पर आकर अपना अस्तित्व बताता है और अपनी पूजा चाहता है। प्रेतात्मा का संबंध भी वृक्षों से होता है।

    यहाँ पर यह कह देना भी आवश्यक है कि कुछ विद्वानों की दृष्टि में प्रेत्मात्मा विषयक विश्वास भी यक्ष-मत का ही परिणाम है। इस संबंध में कुमार स्वामी के ये शब्द सामने आते हैः -

    “In fact, the idea of alternate human and Spirit birth, the idea, in fact, of Sansara seems to be inseparably bound up with the yaksha theology.”

    नागों और यक्षों का घनिष्ठ संबंध है। दोनों ही का स्वरूप एक दूसरे में घुलमिल गया है। अतः यह स्वाभाविक है कि जिस सिद्ध पीर अथवा वीर का नागों से संबंध हो, उसके पाषंड में यक्ष-प्रभाव के अवशेष भी परिलक्षित हों।

    वीर पूजाः-

    सिर आने की प्रक्रिया से ही नहीं वीर पूजा के भाव से भी जाहरपीर अथवा गुरू गुग्गा को यक्ष परंपरा की पूजा में मानना होगा। जैसा ऊपर बताया जा चुका है, कुछ विद्वान यह मानते हैं कि यह पीर शब्द ही वीर का रूपान्तर है और यह वीर शब्द वह वीर है जो यक्ष के लिए उपयोग में आता था। डा. वासुदेवशरण जी ने वरमवीर या ब्रह्मवीर से लेकर जाने कितने वीरों का उद्घाटन काशी विश्वविद्यालय के गोंड़े में किया है। ब्रह्म भी यक्ष का ही नाम था। केनोपनिषद् में प्रकट होने वाला यक्ष था, उसे उमा हेमवती ने ब्रह्म नाम दिया था। इन वीरों के थान जहाँ तहाँ बने मिलते हैं। ये वीर चौंसठ योगिनियों के साथ गिनती पर चढ़कर वामन हो गये। यहाँ पर यह वामन वावन (52) संख्या-सूचक से अधिक आकार धोतक बौने का समानार्थी विदित होता है। और यह यक्ष वामन ही है। वामन वीरों के फिर तो नाम भी गिनाये गये है। वीर विक्रमाजीत ने इन बावन वीरों को सिद्ध करके वश में कर लिया था, वस्तुतः विक्रमादित्य ने सभी विद्याएँ सीखीं थीं। वह यक्ष-विद्या, अथवा विद्याधर विद्या का पंडित था। तभी वीर कहलाता है। यह वीर विद्याधर है, यक्ष है, यह वह वीर नहीं जो अंग्रेजी हीरो का पर्यायवाची है। स्पष्ट ही यहाँ वीर विषयक दो परंपराएँ दिखायी पड़ती हैः

    1. वीरः यक्ष-परंपरा अथवा विद्याधर-परंपरा

    2. वीरः शूरवीर (हीरो) परंपरा

    पं. झाबरमल्ल शर्मा जी पंच पीरों पर विचार करते हुए उन्हें उस वीर परंपरा के आधीन माना है जो दूसरे वर्ग में आते हैं, और हीरो वरशिप के क्षेत्र में हैं। इस दूसरी वीर परंपरा से ही अश्व का घनिष्ठ संबंध होता है। गूगा अपने लोले बछड़े या जवाड़िया से बहुत ही घनिष्ठ संबंध है। ब्रज की लोकवार्ता में यह घोड़ा भी पीर माना गया है क्योंकि जिस प्रकार गुरू गुग्गा गूगल से उत्पन्न हुए उसी प्रकार यह घोड़ा भी उत्पन्न हुआ, और दोनों एक दिन एक समय उत्पन्न हुए। इससे दोनों का संबंध सगे भाइयों जैसा था। आज भी जिन्हें गोगा के दर्शन गोगाभेंड़ो में होते हैं, उन्हें वे घोड़े पर चढ़े ही दिखायी पड़ते है, क्योंकि वे घोड़े के साथ ही उस भूमि में समा गये थे।

    जहाँ पीर से वीर पर पहुँछकर हम यक्ष वीरों की परंपरा में पहुँचना चाहते थे वहाँ हमें अश्व के सहारे दूसरे प्रकार के वीरो के वर्ग में पहुँचना पड़ता है।

    अतः अब हम कह सकते हैं नाग-यक्ष समुदायों से रूपान्तरित बौद्ध धर्म की वह शाखा जो आदिम जातियों के संपर्क में आयी और जो तंत्र से होकर गोरख संप्रदाय में सम्मिलित हुई वह ऐतिहासिक वीरपूजा और उसके उपाख्यान से मिलकर गुरू गुग्गा या जाहरपीर की परंपरा बनी। मुसलमानों का प्रभाव भी इस पर पड़ा या दूसरे शब्दों में मुसलमानों ने भी इसे ग्रहण कर लिया। यह मुसलमान जोगियों के माध्यम से हुआ। इस प्रकार इस पाषंड ने सभी धार्मिक प्रवर्तनों का प्रभाव ग्रहण किया और उनका कोई कोई अवशेष अपने पूर्ण पाषंड में बनाये रखा।

    इसी के साथ एक और विशिष्ट बात इस पाषंड के साथ गुँथी हुई है। राजस्थान के इतिहासकार यद्यपि पंचपीर को पंचवीर मान कर राजस्थआन के पाँच बड़े बड़े वीर पुरुषों के नाम गिनाते हैं, पर गुरू गुग्गा के परिवार के, लोकवार्ता में मान्य पंचपीर कोई और ही हैः वे हैं-

    1. लोलाः लोलो घोड़ी का

    2. नरसिंहः ब्राह्मणी का पुत्र

    3. भज्जूः चमारी का पुत्र

    4. रतनसिंहः भंगिन का पुत्र

    5. जाहरपीरः बाछल का पुत्र चौहान

    ये पाँचों एक दिन, एक समय, एक ही विधइ से उत्तन्न हुए थे। गुरु गोरखनाथ के गूगुल थे।

    इस पंचपीपी विधान में एक अनोखी सामाजिक क्रान्ति के विधान के बीज मिलते हैं। सबसे उच्च वर्ण ब्राह्मण भी इन पंचपीरों में सम्मिलित है। सबसे निम्न-वर्ग भंगी भी यहाँ है। चमार भी सम्मिलित है और राजपूत भई। एक वर्ण इसमें नहीं है, वैश्य वर्ण। इसी के साथ एक यह तथ्य भी दृष्टव्य है कि वैश्यो से विशषतः अग्रवालों की मानता संबंधी नाता बहुत घनिष्ठ है।

    जाहरपीर के स्वरूप को समझकर यह कहा जा सकता है कि यह कोई संप्रदाय अथवा मत नहीं, क्योंकि उसकी कोई दार्शनिक व्याख्या करने वाली संस्था नहीं। इसे तो एक पाषंड (जिसे अंग्रेजी में कल्ट कहते हैं) मात्र ही माना जा सकता है, गुरू गुग्गा की मान्यता किसी आध्यात्मिक अभिप्राय से नहीं की जाती। गुरू गुग्गा की शरण में मोक्ष-प्राप्त करने अथवा ईश्वर-दर्श की अभिलाषा से कोई नहीं जाता। इसकी समस्त मान्यता का तत्व यही है कि इसकी पूजा से जीवन के विघ्नों से मुक्ति मिलने की संभावना है। साथ ही संतान, धन, धान्य में भी श्रीवृद्धि होगी। इस दृष्टि से पंचपीरों में विविध वर्णों के समावेश से किसी दार्शनिक, सामाजिक अथवा आध्यात्मिक समस्या पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ने की बात इससे सिद्ध नहीं होती। जिस युग में इस संप्रदाय का यह स्वरूप निश्चित हुआ, उस युग की मनोवृत्ति का इस पाषंड के स्वरूप निर्माण में किसी किसी सीमा तक हाथ अवश्य है। अपने इस स्वरूप से इस पाषंड ने एक बात तो निश्चय ही सुलभ कर दी कि जाहरपीर की सीमा में मेले आदि के अवसर पर, ऊँच नीच की पारस्परिक छूआछूत नहीं रही।

    निष्कर्षः-

    1. गोगाजी, गुरू गुग्ग अथवा जाहरपीर एक पाषंड हैं, संप्रदाय नहीं।

    2. इसका अनुष्ठानिक संबंध जोगियो से हैं। इन जोगियों का गोरख-संप्रदाय से दूर का संबंध रहा।

    3. जोगियों ने गोरख से संबंध रखते हुए गोगाजी के ऐतिहासिक व्यक्तित्व के साथ बौद्ध धर्म की उस परंपरा के पाषंड को अपनाया जिसमें यक्ष-नाग संस्कृति के अवशेष प्रबल थे, और जो आगे तंत्र, नाथ और मुस्लिम पीर परंपरा से प्रभावित हुई। किन्तु जिसकी आन्तरिक आत्मा एनिमिज्म की थी।

    4. ऐतिहासिक व्यक्तित्व के कारण वीर पूजा के भाव इससे संबद्ध हुए।

    5. गोगाजी के परिकर के पंचपीर पंचायनी पंरपरा के है। पंचपीरी परंपरा के तो अकेले गोगाजी है।

    6. इतने समस्त प्रभावों के होते हुए भी इस पाषंड का संबंध आदिम ऐनिमिस्टिक तत्वों से है। अनुष्ठान का समस्त विधान यक्ष-नागों से संबंधित चित्र-दर्शन, सिर-आना, चाबुक, जंगल में मढ़ी, ये सभी तत्व प्रागैतिहासिक हैं। यद्यपि आज इसका संबंध केवल भारत भूमि से नहीं, विश्व भर में ऐतिहासिक और टोटेमिस्टिक अवशेष जहाँ जहाँ मिलते हैं, गोगाजी विषयक अनुष्ठानों और तत्वों से मेल बैठ जाता है।

    7. इस प्रकार यह पाषंड भारत के प्राचीन और नवीन सभी सांस्कृतिक विशेष सूत्रों को आज भी सँजोये हुए चल रहा है।

    गुरू गुग्गा की कथा

    गुरु गुंगा, गुग्गा अथवा गोगा की कहानी के कई रूप प्रचलित हैं। वोगेल ने लिखा है कि गूगा बागड़ देश का राजा था। यह चौहान जाति का वीर राजपूत था और पृथ्वीराज का समकालीन था। एक अन्य परंपरा से यह अपने पैंतालीस पुत्रों और साठ भतीजों के साथ महमूद गजनी से युद्ध करते हुए मारा गया। एक तीसरी परंपरा के अनुसार यह औरंगजेब के समय में था। यथार्थ में इसके इतिहास के संबंध में कुछ भी निश्चित ज्ञान उपलब्ध नहीं। हाँ, लोकवार्ता का तानाबाना अवश्य पुरा हुआ है। हम सुनते है कि कैसे गुरू गोरखनाथ की कृपा से यह बाछल से उत्पन्न हुआ, यद्यपि काछल ने षडयन्त्र करके बाधा डाली थी, कैसे इसके धूर्त मौसरे भाई अरजन और सरजन ने इस पर आक्रमण किया, और वे युद्ध में हारे और मारे गये, कैसे माँ ने इसे शाप दिया और अन्ततः यह भूमि में समा गया, और कैसे यह मृत्यु के उपरांत भी अर्द्धरात्रि होने पर अपनी पत्नी से मिलने आता था। इसका भक्त घोड़ा जवाड़िया (जौ से उत्पन्न) इसके अद्भुत साहसों में महत्वपूर्ण भाग लेता है।

    अनेकों कहानियों में नागों से इसका घनिष्ठ सान्निध्य माना गया है। लुधियाना में तो यहाँ तक कहा जाता है कि पहले यह साँप था, एक राजकुमारी से विवाह करने के लिए इसने मनुष्य का रूप धारण किया। बाद में अपना मूलरूप ग्रहण कर लिया। कुछ कहते है कि पालने में यह जीवित नाग का मुख चूसते देखा गया था। वहुत सी कथाओं में, इसका बासक नाग से संबंध बतलाया गया है। जिसने इसे सिरियल (जो सुरैल, सुरजिल या छरिआल भी कही जाती है) से विवाह करने में सहायता दी थीं।

    राजा ने अपने वचन-भंग करके अपनी लड़की गूगा को नहीं दी, तो वह बन में गया, वहाँ बांसुरी बजाकर पशु-पक्षियों को मोह लिया। वासुकि नाग भी मुग्ध हुआ और उसने तातिग नाग को गूगा की सेवा में नियुक्त कर दिया। गूगा ने तातिग नाग को धूपनगर भेजा। यह नगर कारूं देश में था, जो जादूगरों का देश था। सिरियल को एक बाद के तालाब में नहाते देख कर तातिग सर्प बन गया। और सिरियल को डस लिया। फिर ब्राह्मण का वेष धारण करके सपेरा बन गया। राजा के सामने पहुँचाये जाने पर उसने राजा से यह लिखवाकर ले लिया कि यदि सिरियल ठीक हो गयी तो वह सिरियल का संबंध गूगा से कर देगा। तब उसने नीम का लहरा लेकर मंत्र पढ़ते हुए, अपने पैर के अँगूठे से सिरियल का विष चूस लिया। राजा ने सातवें दिन विवाह की तिथि निश्चित की। इतना कम समय होते हुए भी, गूगा चमत्कार पूर्वक समय से ही फेरों के लिए धूपनगर पहुँच गया।

    चम्पा में प्रचलित कहानी में बासकर नाग गूगा का मित्र नहीं, वरन् प्रतिद्वन्दी है। जब नायक एक बड़ी बरात के साथ अपने भावी ससुर की राजधानी (ससुर बंगाल का राजा बताया गया है) को चला तो बासक और उसके दल ने उसका सामना किया, जिसमें नाग हार गये और नष्ट हो गये। (Indian Serpernt Lore by Vogel pp. 26 ff.)

    यों तो हम ऊपर कई कथाओं का उल्लेख कर चुके हैं, जिनमें गोगाजी के संबंध में अलग-अलग विवरण दिया हुआ है। प्रत्येक वृतान्त में कहा गया है कि गोगाजी पृथ्वी में समा गये थे। क्यों समा गये थे? इसके भी दो कारण दिये जाते है। एक तो यह कि माता से अभिशप्त होकर उन्होंने पृथ्वी में समा जाने का विचार किया। वे सिद्ध थे। अतः पृथ्वी ने उन्हें स्थान दिया। दूसरा यह है कि गुरू गोरखनाथ ने अथवा स्वयं पृथ्वी ने उनसे कहा कि पृथ्वी में तो मुसलमान ही स्थान पा सकते हैं, तो गोगाजी भागरकर अजमेर गये, मुसलमान बने और तब मेड़ी पर आये जहाँ पृथ्वी फट गयी और वे उसमें समा गये। अभी तक गोगाजी के जिन वृत्तों का वर्णन हुआ है उनसे बिल्कुल भिन्न वृत्त पं. झावरमल्ल शर्मा जी मरु-भारती वर्ष 3, अंक 3, अक्तूबर 1955 राजस्थान के लोक-देवता (पृष्ठ 10-11) में दिया है। इससे भी पूर्व शोध-पत्रिका में उन्होंने विस्तारपूर्वक गोगाजी के वृत्त पर विचार किया है। शोध-पत्रिका के निबंध से आवश्यक अंश यहाँ उद्धृत किये जाते हैः-

    प्राप्त गीतों और परंपरागत बातों के आधार पर किये हुए अन्वेषण से यह प्रकट है कि गोगाजी चौहान दद्रेरा के राव थे और उनके अधीन 84 गाँव थे। पिता का नाम सूरजपाल और पितामह का नाम झींवा था। राठौड़ धांधलजी के पुत्र प्रणवीर पाबूजी के बड़े भाई बूड़ाजी की पुत्री केलणबाई के साथ गोगाजी का विवाह हुआ था। ककिया श्वसुर होने पर भी पाबूजी गोगाजी से अवस्था में छोटे थे। केलणबाई के विवाह में कन्यादान के समय पाबूजी ने राती घोली सांढ साँढ़िये देने का संकल्प किया था। केलणबाई के ससुराल जाने पर जब पाबूजी के संकल्पित साँढ़ साँढ़िये नहीं पहुँचे, तब उसकी अन्तःपुर में हँसी उड़ायी जाने लगी। इससे केलणबाई को बड़ा दुःख हुआ। तानों को सुनते-सुनते वह तंग गयी। अतएव उसने अपनी कष्ट-कथा सापालंभ पाबूजी को लिखकर उनके संकल्प की याद दिलायी। इस पर पाबूजी दूर-देशस्थ लंक-थली से जहाँ के उत्कृष्ठ श्रेणी के ऊँट-ऊँटनी प्रसिद्ध थे, बड़े साहस के साथ एक टोला (साँढ-साढ़ियों का समूह) घेर लाये और गोगाजी के भेंट कर दिया। गली-गली में ऊँट-ऊँटनी फैल गये। इस प्रकार पाबूजी अपने वचन का पालन कर यशस्वी बने।

    गोगाजी की माता का नाम बाछलदे और मोसी का नाम आछलदे था। आछलदे के गर्भ से सुरजन-अर्जुन दो भाइयों का जन्म हुआ था। समीपवर्ती गाँव में उनका निवास था। जमीन-जायदाद को लेकर गोगाजी से उनका विरोध हो गया। इसके परिणाम में बादशाह के दरबार में दिल्ली पहुँछ कर वे दोनों पुकारे और खास बादशाह की फौज चढ़ा लाये। फौज ने आक्रमण किया और गौएँ घेर लीं, जिसके लिए गोगाजी ने युद्ध किया। उनका बाला भानजा भी मार्ग में साथ हो गया। दोनों ओर से घोर युद्ध हुआ। किन्तु गोगाजी ने गौएँ छुड़ा ली। सुरजन-अर्जुन मारे गये। बहुसंख्यक योद्धा काम आये। जब गोगाजी की माता ने यह सुना कि, गोगाजी ने अपने मौसेरे भाइयों को मार डाला, तब वह क्रुद्ध हुईं। गोगाजी युद्ध में घायल हो चुके थे। इसके बाद ददेरा का निवास त्याग कर गोगाजी मैड़ी चले आये और वहीं उनका देहावसान हुआ।

    इसी संबंध में पं. झाबरमल्लजी ने कुछ अन्य रूप भी गोगाजी की कथा के दिये है। जिनमें से एक श्री मुंशी कन्हैयालाल माणिकलाल रचित Gurjar Problems के आधार पर लिखित भारतीय विद्या जनवरी, 1946 में प्रकाशित एक नोट का सारांश है। वह यह है कि गोगा चौहान को गूजर अपना एक पूर्व पुरुष मानते हैं। गुजरात में प्रति वर्ष गोगाराव का जुलूस निकाला जाता था जो पिछले 30 वर्षों से बंद हो गया है। वहाँ गोरखनाथ की एक मिट्टी की बड़ी-मूर्ति बना कर जुलूस के साथ गाँव के तालाब या नदी में पधरायी जाती थी। गोगा चौहान की कहानी एक बूढ़े सुलतान के कथनानुसार यह है कि गोगा चौहान एक राजा का पुत्र था। माता के गर्भ से उसका जन्म होने के साथ ही एक साँप का जन्म भी हुआ था, जिसका पालन उसकी माता ने किया। गोगा बड़ा होने पर अपने सहजात भाई साँप को बहुत चाहता था। जब वह साँप गोगा को छोड़ कर जाने लगा, तब कह गया कि जब कभी आवश्यकता पड़े, तब मुझे बुला भेजना, मैं आऊँगा और तुम्हें बचाऊँगा। जब गूजर मुसलमान बन गये, तब गोगा को जाहिर पीर कर स्वीकार कर लिया गया। अन्त में उस बूढ़े सुलतान द्वारा साँप निकलने पर गुजरात में गाया जाने वाला निम्नलिखित गीत भी उद्धृत किया गया है।

    1. दम मुदम गुगां मांडली

    दम गाना सुलतान

    गूगे हेंदु डेरे सेंदु

    बोलन भीये नाग

    2. एरे मुण्डे मातरी

    नागे हाथ पा

    बिछु-परिया गंदला

    मत खावन कायजा

    3. ज्यारत आवन ज्यारती

    लेणा गुगे का नाम

    जिस दम गुगा जामिया

    सुलखाणी थाम

    एक दूसरे वर्णन राजस्थान के महाकवि कविराजा सूर्य मलजी मिश्रण के वृहद ग्रंथ वंशभास्कर की तृतीय राशी के 32-35 मयूखों में दिये गये वृत्त के अनुसार है। वाणासुर के पुत्र रावण को मार कर अजमेर बसाने वाले अजयपाल चौहान के परपौत्र भीम का पुत्र गोगा चौहान था। उसकी माता का नाम मति था। वह विदर्भ के राजा की पुत्री थी। मति की छोटी बहिन नीति थी, जो गोड़ के राजा जयदेव को विवाही थी। उसके गर्भ से सुर्जन अर्जन नामक दो भाइयों का जन्म हुआ था। राजकुमार गोग शुक्ल पक्ष के चन्द्र की भाँति कला को बढ़ाता हुआ सोलह वर्ष की अवस्था में पहुँच कर अपने लिए निर्दिष्ट अशोक घोड़े पर आरूढ़ हो शिकार के लिये जाने लगा। सिंह और बराह उसकी शिकार के लक्ष थे। इसके बाद उसने रावणासुर के पुत्र जटासुर-वकासुर को उनके संगी साथियों समेत मारा। उस लड़ाई में गोग के शरीर पर छत्तीस घाव आये थे। पुत्र की इस विजय पर राजा भीम ने बहुत बधाइयाँ बाँटी और दान पुण्य किया। तत्पश्चात चन्द्रवंशीय बंगीय राजा श्रीधर की गुणनिधाना कन्या प्रभा के साथ गोग का विवाह सम्पन्न हुआ और राजा भीम ने रानी विदर्भ-कुमारी के साथ बन में योग मार्गावलम्बन पूर्वक ब्रह्मरंध्र मार्ग से देह त्याग किया।

    अठारह वर्ष की अवस्था में गोग चौहान पिता की गद्दी पर बैठा। उसका पुत्र शुभकरण भी पिता के समान ही विक्रमशील हुआ। गोग को तीर्थराज प्रयाग में गोतमवंशी कृपाचार्य से शास्त्र और शस्त्र-विद्या सीखने का सुयोग मिला। गोग का नाना निःसन्तान था, इसलिए उसने अपना राज्य गोग को सुयोग्य देख कर सौंप दिया और स्वयं अपनी रानी सहित वानप्रस्थाश्रम ग्रहण कर परलोकवासी हुआ। विदर्भाधिपति गोग के मातामह (नाना) की कनिष्ठा कन्या नीति गोड़ राजा जयदेव को ब्याही गयी थी। उसके दो पुत्र सुर्जन और अर्जुन गोग के मोसेरे भाई थे। जब गोग के इन दोनों मौसेरे भाइयों ने सुना कि नाना का देहान्त हो गया और उसका राजपाट गोग ने ले लिया, तब वे दोनों गोग के पास पहुँचे और साभइमान बोले-हमारा गोड़ कुल क्या निर्बल है कि तुमने अकेले ही नाना का धन-धाम सब कुछ ले लिया। उस पर तो तुम्हारा और हमारा समान अधिकार है। इसलिए आधा विभाग हमें दो। तुम कर्णाटक के राजा हो तो हम भी कंबोज के अधीश्वर हैं।

    यह सुन कर गोग ने कहा कि, पहले तो तुमको कुछ मिल जाता। नाना जी ने तुमको बुलाया नहीं, इसलिए मैं तुमको कुछ नहीं दूँगा। नानाजी लोकान्तरित हो गये और अब तुम हिस्सा लेने आये हो? यदि दान लेना चाहो तो सब का सब दे दूँ। किन्तु उसमें बल-प्रकाश का, गर्जन-तर्जन का काम नहीं। इस कथनोपकथन के परिणाम में सुर्जन-अर्जुन गोड़ ने लड़ाई ठानी और उस लड़ाई में गोग चौहान ने उनको पराजित कर दिया। तब तो सुर्जन-अर्जुन दोनों भाई सब राजाओं के पास पुकार कर थक गये, किन्तु उनका कोई सहायक नहीं हुआ। अतएव यहाँ से निराश होकर प्रतिहिंसा की भावना से अटक नदी उतर कर वे ईरान के बादशाह अबूफर के दरबाम में पहुँचे। उस बादशाह के पास बड़ी सेना थी। दोनों भाईयों ने उस प्रबल पराक्रमी यवन राज को गोग पर चढ़ाई करने के लिए उत्साहित किया।

    अबूफर अपनी बड़ी सेना के साथ गोग चौहान पर आक्रमण करने के लिए अग्रसर हुआ। अपनी नाक कटा कर दूसरो को अपशकुन देने वाले की भाँति सुर्जन-अर्जुन गोड़ उसके साथ थे।

    लंघि सिन्धु सनामयों सरिता अबूफर साह आयउ।

    और और लुहि तोरस जोर सोर मही मचायउ।।

    पाँछ योजन (बीस कोस) का भू-भाग सेना से बादलों की तरह छा गया-यवनों की इस चढ़ाई का संवाद सुनकर और एक की पराजय सबकी पराजय समझी जायगी, तथा हमारी भूमि पर दुष्टों का अधिकार हो जायगा-यह विचार कर गोग की सहायता के निमित्त बिना निमंत्रण ही-धर्मसम्मत नीति का अवलम्बन कर महामना राजा लोग एतक्र हो गये यथा-

    मिच्छ सों इक को बनै सु बनै समस्तन को पराजय

    इक्क कारण एह भुव जाय दुष्टन कै सु पै भय

    यों बिचारि महीप सज्जित व्है भये सब आनि इक्कत

    इतने वीर योद्धाओं को अपनी पीठ पर उपस्थित देखकर गोग ने कहा कि आप क्यों लड़े, पहले मुझे भिड़ने दीजिए। मुझ मार कर दुष्ट जब इधर को बढ़े तब आप सब जूझैं। यों गोग समुपस्थित ससैन्य राजाओं से बहीं ठहरे रहने का अनुरोध कर स्वयं रण के लिये सज्जित हुआ। उस समय वीरों का रूप बढ़ा और कायरों के मुख का पानी उतर गया। बादशाह अबूफर दो दिन का मार्ग एक दिन में ही तय कर सामने आया। उसने अपने तीस हजार घुड़सवार पहले ही गौएँ घेर लेने के लिए भेज दिये थे। गायों के घिर जाने पर त्राहि-त्राहि मची। पुकार सुनते ही गोग अपने अशोक घोड़े पर सवार होकर सजी हुई सेना के साथ चल पड़ा। पाँच कोस पीछा करके उसने यवनों की पीठ जा दबाई। बीस हजार शत्रुओं को मारकर उसने गोधन को छुड़ा लिया। इसके बाद भी चौहान दुश्मन को दबाये ही चला गया। गोग के भागनेय बाल ने खूब हाथ दिखलाये। पीछे से वे राजा लोग भी गोग की सहायता पर पहुँचे। कुरुक्षेत्र में भारत की तरह बड़ी घमासान लड़ाई हुई। नर्मदा के उस पार तक मुसलमानों ने डटकर मुकाबला किया-किन्तु बाद में उनके पाँव उखड़ गये और वे भागने लगे। हिन्दुओं के शस्त्रों की मार खाते-खाते वे बागड़ होते हुए हरियाने पहुँच गये। हरियाने में पहुँचते ही राजाओं ने घेरा दे दिया। गोग ने झपट कर अबूफर पर वार किया जिससे वह अपने घोड़े की रकाब में लटक गया। किन्नर ने अर्जुन गोड़ का सिर काट डाला। सुर्जन भाग गया। हरियाने तक सभी म्लेच्छ मारे गये, और चौहान की जीत के नगारे बजने लगे। इस लड़ाई में गोग के पक्ष के वे सब राजा भी मारे गये, जिनके नाम पहले दिये जा चुके हैं। अपने बचे हुए सब राजाओं को एकत्र कर गोगा ने कहा कि अब हमारी भी जाने की अवधि गयी है। मेरा पुत्र शुभकरण अब वयस्क वीर है। उसके छोटे भाई 15 वीरगति पा गये। वंशभास्कर कार के शब्दो में-

    अजित गती खट मित वरस, कलिजुग-जावतकाल।

    दिन जिहिं जनम्यो ताहि दिन, पहुँच्यो नृप पाताल।।

    निलय गोग चहुवान के, रचि जन-पद हरियान।

    ताकों सब पूजत जगत, अब लग नृप चहुवान।।

    गोग हि भूप प्रविष्ट गिनि नतिजुत रामनरेस।

    पूजित जाहिर पीर कहि, कतिपय जवन विसेस।।

    ताहि सर्पभय होत नहिं, वरनत जो यह बात।

    सर्पहु गोग प्रभाव सुनि, जवी निलय तजि ताज।।

    वंशभास्कर-रचयिता-वर्णिता गोग चोहान के चरित का यही सार है।

    एक और वृत्त का उल्लेख उन्होंने ऐसे किया हैः-

    सिरोही राज्य के रिटायर्ड लेंज रेवेन्यू ऑफिसर लल्लुभाई भीमभाई देसाई ने अपनी पुस्तक चौहान कुल कल्पद्रुम में पृथ्वीराज विजय और सिरोही राज्य के इतिहास से उद्धृत वंशावलियों में आये हुए चाहमान से 6ठी पीढ़ीस्थ गोपेन्द्रराज का ही नामान्तर गोगाराव अनुमान करते हुए लिखा है कि साँभर के चौहानों ने मुसलमानों के हमले में हर एक समय अपना बलिदान दिया है। बगदाद के खलीफा महमद बिन कासिम के साथ गोपेन्द्रराज उपनाम गोगाराव ने 11 लड़ाइयाँ लड़ीं और बारहवीं बार गौओं के रक्षणार्थ अपने 43 पुत्रों के साथ मारा गया। उसकी राणी मेलणदे राठोड़ कन्या महासती थी। गोगाराव के पीछे 35 राणियां सती हुईं। गोगाराव ने वि. सं. 782 में गढ़ साँभर में समर किया था। वर्तमान समय में इसकी गोगादेव के नाम से पूजा होती है। गोगाराव के युद्ध में वीर-गति-प्राप्त 43 पुत्रों के विषय में एक निशाणी है—

    अचलो ऊदो, असपत, लालचंद, केशव लाड़ो।

    प्रेमी, पीथल, दास, सदो, आसलमल्ल, छाँड़ो।।

    खेतसी, भीम, खगार, जोध, अमरो मान, जेतो।

    जसो, डुंगी, जसराज, नगधीर माधव, नेतो।

    हदो, कान, हरी, अंत पूते, गोर्धन, पचारण।

    विदो, वाग, वणिदास, नरू, आध वीजो नारायण।

    सुजो, सातल, सखसूर, गोगराज सुत एम लड़े।

    शाह समूद सुकर, मामली तिरयाली तण दिन पड़े।

    पं. झाबरमल्ल शर्माजी ने अपने बाद के निबंध में कुछ ऐतिहासिक विचार भी दिये है। वे लिखते हैः-

    गोगाजी का जन्म ददेरा नामक स्थान में हुआ था। उनके पिता का नाम सूरजपाल था। भारतवर्ष के इतिहास में वीरता के लिए चौहान क्षत्रिय सुख्याति लाभ कर चुके है। जिन वंशों को भारत के सम्राट् पदासीन होने का गौरव प्राप्त है, उनमें एक चौहान वंश भी है। अपने हठ के लिये प्रसिद्ध दृढ़ प्रतिज्ञ हम्मीर चौहान ही था, जिसने अलाउद्दीन खिलजी के हृदय को अपनी वीरता से विकम्पित कर दिया था। दिल्ली के अंतिम हिन्दू सम्राट् पृथ्वीराज च्हान ने मुहम्मद गोरी की प्रबल पराक्रमी सेना को सात बार रणांगण से भागने के लिये विवश किया था। गोगाजी भी चौहान वंशोद्भव वीर थे। उनका विवाह धावलजी राठौर के बूड़ाजी की पुत्री केणलबाई के साथ हुआ था। वह पाबूजी राठोड़ को भतीजी थी। कन्या दान के समय पाबूजी ने साँड़ साँड़िये देने का संकल्प किया था। रिश्ते में ककियाश्वसुर होने पर भी पाबूजी, गोगाजी से उम्र में छोटे थे। पाबूजी की ओर से साँड़ साँड़िये पहुँचाने में बिलम्ब होता देख ससुराल वाले केलणबाई की हँसी उड़ाने लगे। इस पर केलणबाई ने सन्देश भेजकर उनके संकल्प का स्मरण दिलाया। पाबूजी ने दूर देशस्थ सिंध लंकयली से एक दो या पाँच चार नहीं बल्कि साँड़ साँड़ियों का एक बड़ा टोला, दल, बड़े साहस के साथ लाकर गोगाजी के गुवाड़े बाड़े भर दिये और यों अपना वचन पूरने का यक्ष प्राप्त किया। गोगाजी गोरखनाथ के सम्प्रदाय के अनुयायी थे। उस समय राजस्थान में प्रायः नाथों की ही शिष्य परम्परा फैली हुई थी। गोगाजी जैसे वीर थे, वैसे ही साधक भी थे। साँपों पर उनका असाधारण प्रभाव था। इस समय भी गोगाजी साँपों के देवता कहकर पूजे जाते हैं। कर्नल टाड के ऐंटीक्वटीज आफ राजस्थान के नवीन संस्करण के सम्पादक विलियम क्रुक उक्त ग्रंथ की पाद टिप्पणी में लिखते हैः-

    “Gugaji or Gogaji was killed in the battle with Ferozshah of Delhi at the end of the thirteenth Century A.D.”

    अर्थात् गोगाजी या गुग्गाजी तेहरवीं शताब्दी ईस्वी सन् के अन्त में दिल्ली के फीरोजशाह तुगलक की लड़ाई में मारे गये। यह सही है कि फीरोजशाह तुगलक का ददेरा पर आक्रमण हुआ था, किन्तु वह ईसा की 13 वीं नहीं-14वीं शताब्दी के अन्तिम भाग में हुआ था। श्री जगदीश सिंह जी गहलोत के मारवाड़ राज्य के इतिहास में गोगाजी का विक्रम संवत् 1353 में द्वितीय फीरोजशाह देहली के चढ़ाई करने पर वीरता के साथ लड़कर काम आना माना गया है। यदि गहलोत जी की राय में यह जलालुद्दीन फिरोज खिलजी है तो उसकी मृत्यु संवत् 1342 में हो चुकी थी। (देखिये मूल इतिहास) और संवत् 1353 में इतिहासवेत्ता मुन्शी देवीप्रसाद जी की यवनराज वंशावली के अनुसार फिरोज़ का भतीजा अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का बादशाह था। अस्तु, यह ध्यान में रखने की बात है कि फिरोजशाह तुलगक का समय ईस्वी सन् 1351 से 1388 तदनुसार विक्रम संवत् 1408 से 1445 है। रिपोर्टमर्दुमशुमारी राज मारवाड़ (सन् 1894ई.) में संवत् 1440 में फीरोजशाह तुगलक के समय में ददेरे पर आक्रमण होने का उल्लेख मिलता है। यह ईस्वी सन् 1383 होता है। यही गोगाजी के वीरगति प्राप्त करने का सही संवत् प्रतीत होता है। रिपोर्ट में लिखा हैः-

    गोगा चौहान, चौहानों में देवता हुआ है, जिसको साँप काटता है, उसके गोगा के नाम का डोरा बाँधते हैं। उसको ताती कहते हैं। गोगा का थान, जिसमें साँप की मूर्ति पत्थर में खोदी होती है अक्सर गाँवों में होता है और इसीलिये यह ओखाणा (प्रवाद) चला है कि गाँव-गाँव गोगा ने गाँव गाँव खेजड़ी। अर्थात् गाँव गाँव में गोगा गाँव गाँव में शमी (जांटी)। भाद्रपद कृष्णा 9 गोगाजी की पूजा का निश्चित दिन है।

    केसरिया कुँवर

    केसरिया कुँवर गोगाजी का आत्मीय पुत्र होना चाहिये। उसकी पूजा गोगा नवमी से पूर्व दिन अष्टमी को होती है। जिस प्रकार गोगाजी को नागरूप माना जाता है, उसी प्रकार कुँवर केसरिया को भी। मालूम होता है, केसरिया कुँवर गोगाजी से पहले दिन युद्ध में काम में गया था। केसरिया के स्तवन-गीत में महिलाएँ उसको पदमा नागण का जाया पद्मा नागिन से उत्पन्न, फुलन्दे का वीरा (भाई) तथा किस्तूरी का ढोला (पति) कहकर वन्दना करती हैं। गीत में मड़ी का भी नाम आता है, जिसको ददेरा छोड़ने के बाद गोगाजी ने अपना वासस्थान बना लिया था। गीत के अनुसार केसरिया का बाजा (युद्ध का मारू बाजा) धुर मड़ी अर्थात् ठेठ मड़ी में ही बजा, उनकी ध्वजा वहीं फहराई। उस समय तक इधर नागवंश का अस्तित्व बना हुआ था, केसरिया की माता नागवंश की थी, इसका गीत से आभास मिलता है।

    गुरु गुग्गा की इस समस्त कथा के विविध रूपों में केवल निम्न बातें समान हैः-

    1. गोगा जी अपनी माँ के इकलौते पुत्र थे।

    2. उनके दो मौसेरे भाई थे।

    3. गोगा जी और मौसेरे भाइयों में संपत्ति के लिए झगड़ा हुआ।

    4. मौसरे भाई मुसलमानों की फौजों को चढ़ा लाये।

    5. इन फौजों ने गायो को घेर लिया।

    6. गोगा जी ने गायो को छुड़ा लिया।

    7. युद्ध में मौसेरे भाई काम आये।

    8. मुसलमानी सेना हार गयी।

    9. मौसरे भाइयों की मृत्यु से गोगा जी की माँ उनसे नाराज हुईं।

    10. गोगा जी जमीन में समा गये।

    इन अभिप्रायों के अतिरिक्त शेष सभी अभिप्राय असामान्य और भिन्न-भिन्न हैं जो विविध लोकवार्ताओं से गोगा जी के वृत्त के साथ जुड़ गये हैं। गायों की रक्षा करने के कारण और मुसलमानों की विशाल सेना को हरा देने के कारण गोगा जी वीर-पूजा के अधिकारी हुए। वीर हो जाने पर उनकी अमित शक्ति में दिव्यता का आरोप हुआ, औस इस दिव्यता से सम्बन्धित अनेकों कहानियाँ तरह-तरह से उनके जीवन वृत्त से जुड़ गयीं। ऊपर का ढाँचा ऐतिहासिक विदित होता है। प्रचलित लोकवार्ता गीत में गोगा जी और मौसेरे भाइयों में संघर्ष का कारण असमीचीन है। गोगा जी अपने पिता की संपत्ति के अधिकारी हैं। उनके मौसेरे भाई अपनी मौसी यानी गोगा की माँ से कहते हैं कि हमें आपने पाला-पोसा है। हम आपके पुत्र ही हैं, जैसे गोगा जी हैं, अतः संपत्ति में से हमें भी अपने पुत्र के बराबर अधिकार दिलाइये। गोगा जी की माँ इस बात के लिए प्रस्तुत हैं। पर गोगा जी तैय्यार नहीं- अतः दोनों मौसेरे भाई मुसलमान राजा की शरण लेते हैं। यहाँ पर यह बात स्पष्ट है कि मौसेरे भाइयों का गोगा जी की संपत्ति में से हक चाहना अनुचित है। गोगा की माँ को भी इसके लिए प्रस्तुत नहीं होना चाहिये, और कोई शासक भी इस अनुचित माँग के लिए यथा संभव गोगा जी पर चढ़ाई नहीं करेगा। अतः सूर्यमल्ल जी का दिया हुआ कारण उचित विदित होता है। गोगा जी को नाना जी की संपत्ति अधिकार में मिली। नाना जी ने गोगा जी को पूरा राज्य सौंप दिया, और अपनी छोटी लड़की के पुत्रों को वंचित रखा। नाना जी की मृत्यु के उपरांत अर्जुन-सर्जुन मौसेरे भाइयों ने अपने हक़ का गोगा जी पर दावा किया, जो उनके अपने पुत्र की दृष्टि से समुचित था। गोगा जी ने देना अस्वीकार किया, यह गोगा जी की दृष्टि से भी समुचित था। गोगा जी की माता की स्वीकृति अर्जुन-सर्जुन के पक्ष में भी नैतिक दृष्टि से ठीक बैठती है। मुसलमान शासक को भी अर्जुन-सर्जुन का पक्ष अनुचित नहीं प्रतीत हुआ होगा। गोगा जी की माँ को अर्जुन-सर्जुन का मारा जाना भी इसलिए अधिक अखरा होगा कि उनका हिस्सा भी हम लोगों ने हड़प लिया है, और उन्हें मृत्यु के घाट भी उतार दिया। बहिन के पुत्रों पर ममता का यह रूप अनुचित नहीं।

    यह घटना पृथ्वीराज चौहान से पूर्व की भी हो सकती है, कम से कम पृथ्वीराज रासो के वर्तमान रूप में आने से पूर्व की तो अवस्य है, तभी इसे पृथ्वीराज चौहान से जोड़ दिया जाता है- चौहान और मुसलमानी आक्रमण इन दो बातों के आधार पर ही ऐसा हुआ है। जयचन्द और पृथ्वीराज को इसी कारण मौसेरे भाई बना दिया गया है, और जयचन्द ने मुसलमानों को भारत पर चढ़ाई करने के लिए निमंत्रित किया, इसका समाधान कर दिया गया है। इस सम्बन्ध में और अधिक ऐतिहासिक अनुसंधान की आवश्यकता है।

    1. घोड़े की कहानी

    2. गूगा के जन्म की कहानी- जिसके साथ गूगा के परिवार के लोकवार्ता विषयक पंचपीरों के जन्म की बात भी है।

    3. वासुकि नाग अथवा नागों से सम्बन्ध की कहानी

    4. सिरियल से विवाह की कहानी

    5. मृत्यु के उपरान्त भी सिरियल से मिलते रहने की कहानी।

    ये सभी लोकवार्ता से जोड़ीं गयी हैं। इसके लोकवार्ता के रूप और स्रोत पर ऊपर यथास्थान विचार हो चुका है।

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