कवि वृन्द के वंशजों की हिन्दी सेवा- मुनि कान्तिसागर - Ank-3, 1956
कवि वृन्द के वंशजों की हिन्दी सेवा- मुनि कान्तिसागर - Ank-3, 1956
भारतीय साहित्य पत्रिका
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कवित्व की प्रतापपूर्ण प्रतिभा सभी में समान भाव से नहीं पाई जाती। अनुभूति का समुचित वैयक्तिकरण ही यदि कवित है तो मानना पड़ेगा कि अनुभूति प्राप्त करने के लिए भी वैसी ही मानसिक पृष्ठ भूमि अपेक्षित है। किसी भी वस्तु विशेष के आन्तरिक रहस्य को समझना हरएक के लिए उतना सम्भव नहीं, जैसी जिसकी रसवृत्ति होगी वैसा ही उसे अनुभव होगा। रसग्रहण वृत्ति में भिन्नत्व का होना स्वाभाविक है। अन्तर के अमूर्त भावों को व्यक्त करने की उच्चतम क्षमता अत्यल्प व्यक्तियों में ही पाई जाती है। बहुत कम ऐसे व्यक्ति एवं परिवार मिलेंगे जिनको उत्तारिधकार में सम्पत्ति के साथ ज्ञान की परम्परा भी सम्प्राप्त हो। यद्यपि प्रतिभा वैयक्तिक होने के कारण साधना की परिणति है, तथापि भारतीय परम्परा में विश्वस्त मनुष्यों के लिए कुलागत एवं आनुवंशिक संस्कार का भई विशेष महत्व है। उच्चकोटि के संस्कार-सम्पन्न मानव का विकास सामान्य निमित्त को पाकर उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित हो जाता है। जब कि संस्कार-हीनों के लिए सतत् प्रयत्न भी विफल हुए देखे गये हैं। यहाँ जिन कवियों के सम्बन्ध में लिखा जा रहा है, उनके विषय में ऐसा लगता है कि कवित्व की मौलिक प्रतिभा पूर्वजों की चिरआचरित साधना द्वारा परम्परा के रूप में जीवित रही और आज भी है। मेरा तात्पर्य राजस्थआन के सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि वृन्द से है। इनके पिता रूपजी भी उच्च कोटि के कवि व ग्रंथकार थे। वृन्द कवि स्वूयं भी इतने उच्च कोटि के प्रतिभा-सम्पन्न आशुकवि थे कि औरंगजेब जैसे काव्य-रस-हीन व्यक्ति को भी प्रभावित कर उसके दरबार में प्रमुख कवि के रूप में रहे। इतना ही नहीं इनसे बादशाह इतना प्रभावित हुआ कि अपने पुत्र का प्रधान अध्यापक भी इन्हें ही नियुक्त किया। महाराजा राजसिंह ने कालान्तर में बादशहा से इन्हें माँगकर अपने यहाँ किशनगढञ में बसा लिया। तब से इनके समस्त वंशज यहाँ रहे और आज भी है। साहित्यिक जागरूकता एवं कविता के प्रति स्वाभाविक झुकाव आज भी इस परिवार की मौलिक निधि है। आश्चर्य की बात यह भी है कि जिस प्रकार कवि के वंशजों में कवित्व प्रतिभा का निखार होता गया, उसी प्रकार आश्रयदाताओं में भी कवित्व विषयक शक्ति का प्रवाह कुछ वर्ष पूर्व तक अविछिन्न गति से चला। महाराज मदनसिंह जी के पूर्व किशनगढ़ के सिंहासन पर ऐसा कोई नरेश नहीं हुआ जिसने कोई न कोई स्वतंत्र ग्रंथ न रचा हो। यहाँ तक कि रानियाँ भी कवयित्रियाँ थीं।
किशनगढ़ के राजघराने द्वारा भारतीय कला एवं साहित्य के विकास व संरक्षण में उल्लेखनीय योग प्राप्त हुआ है। इस वर्ष मार्च में मुझ हरिदुर्ग-कृष्णगढ़-किशनगढ़-गिरिधरनगर-नगधर जाकर वहाँ के राजकीय सरस्वती भंडार एवं तत्रस्थित अन्य पुरातन साहित्यक पंडितों के हस्तलिखित ग्रंथ-संग्रह देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। संग्रह के निरीक्षण-परीक्षण से ज्ञात हुआ कि आज भी किशनगढ़ में हिन्दी साहित्य के मुख को उज्जवल करने वाली विविध विषयक कईं महत्वपूर्ण कृतियां अन्वेषण की प्रतीक्षा में है। स्वयं शासकों के द्वारा रचित साहित्य भी इतने विपुल परिमाण में पाया जाता है कि यदि समुचित प्रकाशन की व्यवस्था हो तो कई ग्रंथावलियाँ तैय्यार हो सकतीं हैं। जिन महाराज राजसिंह के संबन्ध में प्रसिद्ध है कि वे कवि थे और वे ही साहित्यिकों की दृष्टि में अज्ञात हैं, जब कि सरस्वती भंडार में कई प्रतियाँ बहुत ही सुन्दर व सुवाच्य लिपि में अंकित है। शासकों का कला-प्रेम केवल साहित्यिक रचनाओं तक ही सीमित न था, न उन्होंने उच्च कोटि के हिन्दी के कवियों को समादृत करके ही स्वकर्तव्यों की इतिश्री समझी, बल्कि उन्होंने ललित कला की एक शाखा- स्थितिशील चित्रकला-के विकास पर भी स्थापित की, जिसमें सामान्य चितेरों तक को प्रतिदिन तीन रूपये मिलते थे। कलाकार निराकुल चित्तवृत्ति से यदि साधना में तन्मय हो जाय तो वह विश्व को बहुत कुछ दे सकता है। अर्थ और सम्मान दोनों ही यहाँ के कलाकारों को प्राप्त थे। इसी कारण से दत्तचित्त होकर किशनगढ़ के कलाकारों ने न केवल प्राचीनतम राजस्थानी चित्रकला एवं तदंगीभूत कलोपकरणों की ही रक्षा की, अपितु अपनी स्वतंत्र शैली का भी सूत्रपात किया, जो चित्रकला-समालोचक वर्ग में किशनगढ़ शैली के नाम से विख्यात है। किशनगढ़ शैली के चित्र बहुत दूर से ही पहिचाने जाते है। आँखों में एवं मुख मंडल पर जो स्वाभाविक ओज और आभा का अपूर्ण समन्वय पाया जाता है वह सचमुच प्रेक्षणीय है। यद्यपि डिकसन ने किशनगढ़ की चित्रशैली पर कुछ प्रकाश डाला है, पर वहाँ के वर्तमान नरेश श्री सुमेरसिंह जी के संग्रह में जो चित्र मैंने देखे, उससे तो मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अभी यहाँ के चित्रों का समुचित अध्ययन और मूल्यांकन नहीं हो पाया है। इन चित्रों का न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से महत्व है, अपितु हिन्दी जगत् के सुपरिचित विद्वानों के चित्र, बहुलता से सुरक्षित रहने के कारण, साहित्यिक दृष्टि से भी यह संग्रह बड़ा ही दिव्य है।
किशनगढ़ के शासकों का कला एवं साहित्य की विभिन्न शाखा व भाषाओं से कितना नैकट्य था इसका पता तो सरस्वती भंडार में संग्रहीत ग्रंथों से ही लगता है। जिस प्रकार चित्रशाला एक स्वतंत्र राजकीय विभाग था उसी प्रकार पुस्तकों का भी स्वतंत्र विभाग रहा जान पड़ता है। वहाँ के धूमि-धूसरित सरस्वती भंडार में छोटे बड़े कई परिमाण के गुटके एवं कई विभिन्न आकार के कटे हुए कागज एवं काटने के औजार व लेखन की अन्य सामग्री पड़ी हुई है। कुछ बस्तीं की टटोलते हुए कुछ पत्र ऐसे पाये गये, जिनमें ग्रंथों के क्रय-विक्रय का हिसाब व लेखकों के पारिश्रमिक का उल्लेख था। कादम्बरी, शिशुपालवध, कुमारसम्भव, आदि ग्रंथ, दस दस आने में सम्वत् 1761 में खरीदे गये। आठ प्रतिलिपि करने वाले वहाँ सदा के लिये नियत थे। तीन चित्रकार केवल ग्रथस्थ चित्रालेखन के लिए ही नियुक्त थे। प्रसंगतः एक बात का उल्लेख करना यहाँ आवश्यक जान पड़ता है, बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि महाराजा सावन्तसिंह-नागरीदास उच्चकोटि के कवि तो थे ही, साथ ही सफल चित्रकार भी थे। वहाँ कई ऐसे रेखाचित्र देखने में आए जिन पर उन्होंने स्वहस्त से अंकित किया है—
तस्वीर महा. सावन्तसिहं की वणायी।
कलाकार का हृदय ही कलाकार का समुचित सम्मान कर सकता है। शासन का कलाप्रेम केवल कागज के टुकड़ों पर ही व्यक्त नहीं हुआ, अपितु वह उनकी नस नस में व्याप्त था, यह विक्रम सम्वत् 1792 के एक विस्तृत चित्र से ज्ञात हुआ। इस चित्र में निम्न प्रकार के भाव अंकित हैः—
एक पालकी में कवि विराजमान है पूरे राजकीय सम्मान के साथ।
महाराणा स्वयं इस पालकी को उत्साहपूर्ण कंधा दिए हुए हैं।।
यह चित्र विद्वानों के प्रति आन्तरिक भक्ति का यह अविस्मरणीय प्रतीक है। भूषण और छत्रसाल की स्मृति इस चित्र को देखकर जग उठती है। यद्यपि इस कृति में कवि का स्पष्ट नाम निर्दिष्ट नहीं है, पर ऐसा अनुमान होता है कि ये हरिचरणदास ही होने चाहिए। वे बिहार के थे, जो किशनगढ़ आकर बस गये थे, मूलतः यहाँ के निवासी नहीं थे। वे ही उन दिनों वृन्दाबन से किशनगढ़ पधारे थे। यह चित्र वल्लभ कवि का नहीं हो सकता क्योंकि वे तो स्थानीय कवि थे ही। इसलिए ऐसा सम्मान बाहर के आंगतुक कवि को ही दिया जाना विशेष युक्तियुक्त प्रतीत होता है।
प्रस्तुत निबन्ध में, वृन्द के वंशजों की पूरी साहित्यिक सेवाओं का विवेचन तो सम्भव नहीं है। बल्लभ, दौलत, खुसराम और जयलाल के ग्रंथों के सम्बन्ध में ही संक्षेप में विचार किया जायेगा। यद्यपि, उपर्युक्त सभी कवियों के जन्मादि सम्वत् एवं उनके व्यक्तित्व को प्रकाशित करने वाले ऐतिहासिक साधन प्रयत्न करने पर भी उपलब्ध नहीं हुए हैं, किन्तु इनमें से कतिपय के ग्रंथों में रचना काल एवं उनका प्रणयन किस शासक समय में हुआ, इसका स्पष्ट निर्देश है। व्यक्ति के ऊर्ज्ज्वस्वल व्यक्तित्व का वास्तविक ज्ञान उसकी विचारधारा के अन्तः परीक्षण से ही हो सकता है। इनके ग्रंथ ही इनके गहन चिंतन एवं रसपरिपाक के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
बल्लभ-
ये अपने पिता के बाद महाराजा राजसिंह की सभा के कवि रत्न थे। इनके दो ग्रंथ उपलब्ध हुए है, बल्लभ विलास और बल्लभ मुक्तावली। बल्लभ विलास का प्रसंग नायिका-भेद विषय़क ग्रंथ होने पर भई कवि ने इस ढंग से अपने विचार व्यक्त किये हैं कि पढ़ने वाले को एक सरस कथा का आनन्द आता है। विभिन्न प्रकृति की स्त्रियों के द्वारा भिन्न भिन्न रुचि की रस-सम्बन्धी सारी स्थिति स्पष्ट कराई गई है। उस समय इस ग्रंथ का इतना पठन पाठन था कि किशनगढ़ के राजाओं ने जो रस-सम्बन्धी ग्रंथ निर्मित किए हैं, उनमें भी बल्लभ के बिलास का प्रचुर परिमाण में उपयोग किया है। यही इसकी तात्कालिक प्रसिद्धि का सबसे बड़ा प्रमाण है। दुर्भाग्य से बल्लभ ने अपने ग्रंथों में रचना-काल नहीं दिया है। बल्लभ बिलास की 1835 वैशाख सुदी पूर्णिमा सोमवार की लिखित प्रति सम्मुख है, जिसका आदि और अन्त भाग इस प्रकार हैः—
आदि भाग
श्रीगर गणपति सारदा, हरिहर सुक श्री व्यास
दोष रहित दीणे उकति, मांगत कविता तास।
प्रसन्न होहिंगे देवता, कविता सुधरण काज,
प्रीत रीत चाहत कह्यों, देहु देव वर आज।
अंत भाग
यह विलास संघर्ष ही, मैं यह कह्यो सुभाव
एक त्रिया की प्रीत यह, ऐसी कही गनाय
सुक्रीया परक्रीया अवर, सामान्या नव अंग
छैल किरयो नहि आप बस, त्रिय भई विवस अनंग
गहिबे कुं भारत फंदा, परत त्रिया फंद आय
निकसत कसकत मेनसर, हिय सौं उलटि उपाय
मुगधा मध्या जे त्रिया, प्रौढ़ा प्रीति प्रवीन
अप अपनी कीनी सबनि, होत नांहि आघीन।।
कवित्त
पूरन प्रभु की कृपा पूरन भई है ऐसी दांन किरपान लिये सुन्दर सुजांन है।
विद्या के विधान बुधिवांन छलवान छैल जानत जिहांन जग देत जिन्हें मांने है।।
वस्त्रम सुकवि कहै बाजत निसान जहाँ रंगे किरपा न सुने जग में बषान हैं।
कौंन करैं मानता सौं सुंदर सुजांन नारि बारंबार बारी जात प्रानन के प्रान है।
दोहा
या पोथी कों सुनतही महाराजा राजान।
श्री मुषसों कहिकबु कवि किय वस्त्रम कौ सवानि।।
इस ग्रंथ की एक और प्रति कविवर खुसराम के- जो कवि श्री बल्लभ के प्रपौत्र थे- द्वारा लिखी हुई उपलब्ध हुई है जिसकी अंतिम प्रशस्ति इस प्रकार है—
इति श्री कवि बल्लभ कृत बल्लभ विलास सम्पूर्णम्।
सम्वत् 1887 का फाल्गुन शुक्ल 11 एकादशां मंगलवासरे मगनीरामेण लेखि कृष्णगढ़ मध्ये।
कविवर बल्लभ ने ग्रंथ के अतिरिक्त बहुत से प्रासंगिक कवित्त भी लिखे थे जिनका एक संग्रह किशनगढ़ के सरस्वती भंडार में सुरक्षित है। किशनगढ़ की प्राकृतिक सुषमा से प्रभावित होकर कवि वाणी का मौन सहन नहीं कर सका। फलस्वरूप किशनगढ़ पर 88 पद्य इतने भावपूर्ण लिखे हैं कि किशनगढ़ का सर्वांगपूर्ण शब्द-चित्र ही समुपस्थित कर दिया है। तात्कालिक नरुका परिवार पर कवि अप्रसन्न हुआ, परिणामस्वरूप शिष्टतावश जितने भी कटु वाक्यों का प्रयोग कवि कर सकता था कवित्तों में किया है। बल्लभ के पुत्र सनेहीराम थे, इनके फुटकर कवित्तों के अतिरिक्त कोई महाकाव्य कृति अवलोकन में नहीं आई।
दौलत-
ये बल्लभ के पौत्र व सनेहीराम के पुत्र थे। हिन्दी जगत में अद्यावधि किसी भी इतिहास में इनकी कृतियों का उल्लेख नहीं हुआ। रस प्रबोध और रितु सुख सार दो कृतियां उपलब्ध हुई है। रस प्रबोध, नायिका भेद विषयक महत्वपूर्ण कृति है। जिसके वर्णन में कवि ने अपने विषय को बहुत ही सुन्दर रीति से स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उपल्ध प्रति कवि के विचारों को प्रथम ही व्यक्त करने वाली जान पड़ती है- अर्थात् प्रथमादर्श है। कारण कि प्रथम पृष्ठ में अपने विषय के समर्थन के लिए कवि ने कहाँ से प्रेरणा ली इसका उल्लेख है एवं मतिराम कृत रसराज ग्रंथ से नायिका लक्षण स्वकृत लक्षण को स्पष्ट करने के लिए उद्धृत किया है एवं साहित्य दर्पण की एकाध पंक्ति भी आलेखित है। ग्रंथ का रचना काल 1846 असाढ कृष्ण दशमी गुरुवार, किशनगढ़ है और लेखन काल श्रावण वदी 11 रवि 1846 है। तात्पर्य यह है कि ग्रंथ रचना के ठीक 15 वें दिन पर यह प्रतिकृति तैयार हुई जो राजस्थान पुरातन मंदिर जयपुर में सुरक्षित है। क्रमांक 2250 साइज साढ़े आठ गुणा साढ़े आठ। लिपि अतीव सुन्दर व सुपाठ्य होने के साथ ही परिवर्तित विषय रक्ताक्षरों से आलेखित है। ग्रंथ का आदि अन्त भाग इस प्रकार हैः-
आदि भाग-
हित कर नर मुनि ध्यांन धरि, दानव देव समाज।
सुष सौं बितबत रेंन दिन, चितवत जे बृरराज।।
अंत भाग-
स्थाई संचारी सु ओ विभावादि सब गीत
बरने नहिं विस्तार सौं ग्रंथ बढन को मीत।।
कियौ भानु रसमंजरी रसतरंगिनी लेष
यह प्रबंध भाषा कियौ ताही को मत देष।।
कवि कुल मंडन वृंद जिहि प्रपितामह अभिराम
सुपितामह बल्लभ सुकवि पिता सनेहीराम।।
तिहि सुत कवि दोलत कियो लच्छन लच्छ समेत
रस प्रबोध दिय नाम कवि सोध लेऊ कर हेत।।
संवत षटयुग सिद्धिससि गुरु आसाढ़ उचार
बदि दशमी भो ग्रंथ यह कृष्णदुर्ग अवतार।।
इति श्री कवि दौलत विरचित रसप्रबोधाख्योयं प्रबंधः।।समाप्तः।।
ऋतु सुखसार-
ऋतु सुखसार दौलत की दूसरी कृति है जिसमें छहों ऋतुओं पर एक एक अष्टक व कुछ पद्य हास्य रस से सम्बद्ध हैं। रचना फुटकर पद्यों में होकर भी गुणों से गरिष्ठ है। कविवर ने यह कृति विक्रम सम्वत् 1855 पौष शुक्ल द्वादशी के दिन दोवान गोपालसिंह के पुत्र सावन्तसिंह के लिए निर्मित की और 1863 कार्तिक सुदी तृतिया बृहस्पतिवार को मगनीराम अर्थात् कविवर खुसराम (जो दौलत का पौत्र) ने कृष्णगढ़ में लिखी। आदि व अन्त भाग इस प्रकार हैः-
आदि भाग
दोहा
व्यापक सब जग ज्योति मय, रस मय ब्रह्म सरूप।
तिहि प्रताप दोलत कियो, रितु सुखसार अनूप।।1।।
सब जग पालक धर्ममति, श्री गोपाल दीवान।
तिहिं सुत सालमसिंह बलि, रिपु दल खंडन जान।।2।।
ताके सुत सामत सुमति वीर धीर दातार।
दौलत बरने हुकम तिहिं कवित पचास सुधार।।3।।
अंत भाग-
देस मरुधरा मेड़तें नगर बडनिकौ बास।
रूपनगर में मान नृप रखें कृपा कर पास।।
सुपितामह बल्लभ सुकवि प्रपितामह है वृन्द।
पिता सनेहीराम सुत दौलत कवि मति मन्द।।
पोस शुक्ल कवि द्वादशी, ठारह पचपन वर्ष।
दौलत रितुसुखसार किय, सुरगढ़ सामत हर्ष।।
इति श्री कवि दौलत बिरचित षडरितु बर्नने रितु सुख साराख्यो ग्रंथः समाप्तः सं. 1863 कार्तिक सुदि 3 तृतीयायां बृहस्पतिवासरे लिखितं मगनीरामेण स्वाध्ययनाय कृष्णगढ़ मध्ये।
संवत् विष्ठप अंग हैं सिद्धि हिमांशू नाम
कार्तिक सुदि तृतीया तिथिहि लिखितं मगनीराम।
देस मरुधर मांहि यह शहर कृष्णागढ़ नाम
तामे रितु सुखसार यह लिख्यो सुमगनीराम।
खुसराम—
कविवर खुसराम या मगनीराम कथित दौलत के पुत्र हैं। ये भी पिता के समान न केवल भावुक दृष्टि सम्पन्न कलाकार ही थे अपितु तात्कालिक जन जीवन के साथ इनका भी घनिष्टतम सम्बन्ध रहा जान पड़ता है। कविता के प्रति बचपन के ही इनके हृदय में पर्याप्त रुचि थी। यद्यपि इनके सांसारिक वैयक्तिक जीवन पर प्रकाश डाल सकें, ऐसे साधन प्रयत्न करने पर भी उपलब्ध नहीं हो सके, किन्तु उनकी स्वहस्त लिखइत कपितय प्रतियाँ मेरे निजी संग्रह में एवं राजस्थान पुरातत्व मंदिर जयपुर में सुरक्षित हैं, उनसे विदित होता है कि कविप्रिया, रसिकप्रिया, जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ इन्होंने सम्वत् 1857 में अपने हाथ से लिखी थीं। साथ ही तात्कालिक या निकटवर्ती कवियों के साथ भी इनकी घनिष्ठता थी जैसा कि बिहार निवासी किशनगढ़वासी ब्रजभाषा के अच्छे कवि हरिचणदास कृत भाषा-दीपक और सभा-प्रकाश आदि ग्रंथों की प्रतिकृतियों से सिद्ध है।
इनका कविता काल विक्रम सम्वत् 1874 से 1917 पड़ता है। पूर्वजों के प्रति इनके हृदय में अपार श्रद्धा थी अतः अपने प्रत्येक पूर्वज कवि के ग्रंथों का स्वहस्त से आलेखन किया और पुत्र पौत्रों में साहित्यिक भाव भरे। अभी तक यही माना जाता है कि इनके पुत्र बलदेव ही थे पर हरिचरणदास कृत भाषा-दीपक की लेखन प्रशस्ति से विदित हुआ कि छगनीराम भी इनके एक पुत्र थे। कविवर की निम्न कृतियां अद्यावधि उपलब्ध हुई हैः-
सं. ग्रंथ का नाम रचना काल पद्य सं.
1 नीति प्रबोध 1874 56
2. खुशबिलास 1904 715
3. वैराग्य विनोद 1905 35
4. श्री देवी स्तुति 1907 11
5. काली स्तुति 6
6. गंगानवक 1913 9
7. यमुनाष्टक 1914
8. शांतिनवक 1914
9. रसनिबन्ध 1914 181
10. शीतला चरित्र 1915
11. गणेश आरती 1916
12. सबद 1920
13. अलंकार लहरी
14. श्यामाजी की आरती 6
15. भैरव जी की आरती
16. बाला जी की आरती 3
17. पुष्कराष्टक
18. पृथ्वीसिंह शिकार वर्णन
19. गूढ़ दोहा
20. रत्नविजय कवित्त
उपर्युक्त कृतियों में रस निबन्ध और खुशबिलास ही मुख्य है। शेष कृतियों का नामोल्लेख केवल इसीलिए कर दिया है कि इनके निर्माण में कवि ने सम्वत् का निर्देश किया है। रचनाएँ सामान्य हैं। परिचय आगामी पंक्तियों में दिया जा रहा है।
खुसराम के साहित्य के सम्बन्ध में एक बात ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथस्थ में सामयिक प्रसंगों पर जो गूढ़ विचार व्यक्त किये गये हैं वे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। इनकी कीर्ति को प्रज्वलित करने के लिए जितने ग्रंथ पर्याप्त है उससे भी कहीं अधिक महत्व उन कवित्तों का है जो कवि न विशिष्ट प्रसंगों को चिरस्थायी बनाने के लिए लिखे और जिनका सम्बन्ध तात्कालिक राजकीय पुरुष, व्यापारिक, नागरिक एवं जनता के विभिन्न लोकनायकों से है। ऐतिहासिक दृष्टि से इन कवित्तों का विशेष महत्व है। विशेष कर व्यक्तियों का कवित्तों में वर्णन आया हैः-
गम्भीरमल मोती सिंह चन्द्रभान
चिमन सिंह नरूका इन्द्र मल पुरोहित शिवनाथ
केसरीचन्द व्यास मनीराम रामनाथ मोहता
सोमजी भुणोत सहसकरण मोहता लख्मीचन्द यति (अजमेर)
हमीरमल मोहता चिमन जी बाफणा रिद्धकरण मोहता
पूनमचन्द घडिया सिद्धकरण मोहता रूपराज लूणिया
सालिगराम सोजावत चान्दसिंह गम्भीरमल
दोलतराम धूत माणिकचन्द रामदयाल
बदनमल फतेहनाथ अजगरअली
रावराजा रामसिंह पीरजादा मदनसिंह
नेमीचन्द घडिया जगन्नाथ वक्षी बागमल महकतिया
जशरूप मोहताजी बुधसिंह दीवान
रामचन्द्र ढड्ढा गजमल लूणिया छगनीराम छाजेड
पारख हरकचन्द रणधीरसिंह माणकचन्द ढड्ढा
दीवान किशन सिंह सिंधी रतनचन्द हरगोबिन्द जोशी
हिन्दुसिंह लाला शम्भुनाथ फौजसिंह
पुरोहित मेघराज दीवान सालिगराम शिबलाल बौहरा
छत्ता मल राणा जोरावरसिंह राणा स्वरूपसिंह
गिरधरसिंह ओनाडसिंह मेहता फतेहसिंह दीवान
महेशदास भुणोत बाफणाजी हरकचन्द
प्रतापमल मोहता हमीर चोरडिया भैंरूलाल गोलेछा
पृथ्वीसिंह का फाग वर्णन सेरसिंह (उदयपुर) आसाराम बूंदी
सूरजसिंह चिमनसिंह रतनराज
उपर्युक्त सभी व्यक्ति न केवल किशनगढ़ के या राज्य के ही थे अपितु सम्पूर्ण राजस्थान से इनका सम्बन्ध था। कवि के सकत बीपी शाकद्वीपीय ब्राह्मण होने के कारण इनका विशेष सम्बन्ध ओसवाल समाज से ही था। कारण कि ओशवालों के सामाजिक व्यवहार में सेवकों का स्वतंत्र स्थान उन दिनों था। नेग दस्तूर लेने के लिए इन्हें राजस्थआन में भ्रमण भी करना पड़ता था। यदि कोई दाता मुक्त हस्त से दान देता तब तो उसकी प्रशंसा के पुल बंध जाते पर ऐच्छिक दान न मिलने पर ये सेवक कभी कभी द्वैपायन ऋषि के अवतार भी हो जाया करते थे। कवि खुसराम स्वयं भी इसके अपवाद नहीं है। अजमेर और किशनगढ़ के प्रमुख नागरिक श्री गजमल लूणिया (जिनकी गली आज भई अजमेर में विख्यात है) पर कवि अप्रसन्न था। अतः इनके विरुद्ध शिष्टता के नाते जितने अपशब्दों का प्रयोग वह कर सकता था उसने किया है।
कवि धर्म से किस परम्परा में विश्वास करता था निश्चित रूप से कहना इसलिए कठिन है कि उसने सभी परम्पराओं के संबंध में स्तुति, स्तोत्रादि साहित्य का सृजन किया है। इससे ऐसा लगता है कि वे सभी धर्मों के प्रति समान आस्था रखने वाले थे। किशनगढ के प्रति कवि का इतना मोह रहा है कि वहाँ का शायद ही कोई देवस्थान या सुन्दर प्राकृतिक स्थान बचा हो जिन पर इनके विचार कविता के रूप में न फूट पड़े हो।
खुसराम न केवल सांसारिक वासना-वर्द्धक साहित्य के ही स्रष्टा थे अपितु पारलौक्कि जीवन के प्रति भी पूर्ण जागरूक तत्वदर्शी के रूप में रहे जान पड़ते है। विक्रम सम्वत् 1917 तक ये विभिन्नरूपेण साहित्यिक साधना में निमग्न रहे। अंतिम समय पर कवि ने अपनी अंतिम रचना सबद के रूप में की जिसमें त्याग, वैराग्य, समत्व आदि आध्यात्मिक भाव छलक रहे हैं। कवि जीवन के अंतिम क्षण के शांतिपूर्ण बीतने की इष्ट से प्रार्थना करता है। विक्रम सम्वत् 1920 में इनका देहान्त हुआ जैसा कि कवि के पुत्र के द्वारा लिखइत निम्न दोहे से सिद्ध है—
संवत् जानौ व्योम कर षंडहि रवि अरु आनि
पिता गये स्वर्गलोक में भाद्रहि रवि कुरु जानि।
दादाजी मगनीराम जी देहान्त हुआ जी साल री दुयो।
खुसराम कृत महत्वपूर्ण कृतियों का परिचय इस प्रकार है—
नीति प्रबोध-
56 पद्य की यह कृति कुंवर शैरसिंह को पढ़ाने के लिए ही कवि ने लिखी है, जैसा कि अंतिम पद्यों से स्पष्ट है। इसमें राजाओं के दैनिक कृत्यों का सामान्य विवेचन है। राज्य-संचालन में किन किन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए, किन किन परिस्थितियों में शत्रु व मित्र के साथ कैसा व्यवहार रखना और प्रधान मंत्री से लगाकर सामान्य राज कर्मचारी के साथ कैसा सम्बन्ध होना चाहिए आदि महत्वपूर्ण ज्ञातव्यों का इसमें जो संग्रह किया गया है वह तात्कालिक राज्य-संचालन पद्धति पर अच्छा प्रकाश डालता है। इस कृति पर महाराजा राजसिंह द्वारा रचित राजप्रकाश का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। कहीं कहीं शब्द साम्य भी है। दिखने में यह रचना अवश्य ही लघुतम है पर गुणो की दृष्टि से कम गरिष्ठ नहीं। कृति का आदि और अन्त भाग इस प्रकार हैः—
आदि भाग
श्री गणाधिपत्ये नमः
श्री गुरु गनपति के चरन सविनय करौं प्रनाम
ताकी कृपा कटाछते सिद्ध होत सब काम।।
छन्द ललित त्रिभंगी
दिवस रैन हिय ध्यान धर नर मुनि रहत अनंद
ऐसे प्रभु सिर नायके नित बंदौ नंद नंद।
बंदौ नंद नंदा आनंद कंदा काटे फदा बृज चंदा
सेवै सब देवा कर पद सेवा भये न पावे विधि छंदा
अघ मर्दनकारी कंसप्रहारी कुंज बिहारी चिर नंदा
जय जय सुखकारी कृष्ण मुरारी गिरवरधारी गोविंदा।
अत नृप वंश बर्ननं
राजसिंघ महाराज के वीरसिंघ सुत वीर
ताके सुत थे ऐमसिंघ सूरजसिंघ रस धीर।।
रूपनगर गढ परगने है सूरजगढ नाम
लोक प्रसिद्ध रलावता रमणीयक सुभधाम।।
उदे उद्य श्री उमगते पावै प्रजा अराम
सुखद सरोवर बाग जुत ओम घोम अभिराम।।
सूरज प्रगट नरसे तहां राजवंस अबतंस
सुबुध सुजान उदार अति को मगि करौं प्रसंस।।
कवित्त
सुकवि कुलप धीर वीर कुल भूषन है जाकी महि मंडल में कीरत अमाप है।
पौरस प्रसिद्ध पूर परम प्रकासमान भा,मान बाढै आन अरितन ताप है
कवि खुसराम राग रंग रिझबार महा भैरजांन बुद्धि को विधाता किधौं आप है
ऐसो महाराज आज सूरज नरेस ताको दिन दिन अधिक दिनकर सो प्रताप है
अथ राजपत्नी वर्णनं
दोऊ कुल परम पवित्र चित्त सुद्ध जाको सब ही सौ मनोज्ञ मृदु बानी है
जामै सुभ स्वच्छ सब लखन विशेषिय तब पतिव्रत पारबै को जैसी शिवरानी है
कवि खुसराम त्यौं सुहाग कमल सो लसै सुबुध सुजान ऐसी हौ बरबानी है
राठबर बंस अंसधारी नृप सूरज राजावत राजत विशेष महारानी है
है सूरज महाराज कै तनुज तीन परबीन
महावीर जसवंत सुत पुनि अर्जुन जस कीन।।
सेरसिंह लघु तनुज तिहि हे वर बुद्धि समेत
हुकम कियो नृपनीत कौं ताहि पढावन हेत।।
कहयो नित्य राजाँनकी नीत रीत व्यवहार
शीघ्रे समझ पावे इसी करियें कछू निहार।।
ताकौ हुकम प्रमान कर रति मति हितकर सोध
सुगम ग्रंथ मासा कियो नाम जु नीत प्रबोध।।
अन्त भाग
अथ कवि वंश वर्णन
कवि कुल भूषन सुभूषन सभा के वृन्द भए वरदाई ते प्रसिद्ध जगनाम है
राठवर वंस महाराजा राजसिंघ ताकौं राखे सनमान बहु देके धनधाम हैं
ताके सुत बल्लभ सुबल्लभ नराधिप के सुकवि पद पायो अस्सांनी अभिराम हैं
सुबुध सनेहीराम ताके सुत दौलत यौं सुकवि विष्यात सब सास्त्र ही के धाम हैं।
दोहा
च्यार तनुज ताकै बड़े महा सुकवि अखैराम
सब ही ते लघु तनुषमति मंद महा खुसराम।।
कृष्ण दुर्ग पुनि मैडते है जु हमारे वास
नृप सूरज सुभ दृष्टिकर रखे आपके पास।।
श्री सूरज महाराज के हुकम प्रमान विचार
कियो जु नीत प्रबोध यह मरी मति अनुसार।।
ह्वै पुनरुक्त क्रमादि जो दूषन सबै निहार
स्मृति आयो त्यौंहि कह्यो लीज्यों सुकवि सुधार।।
संवत् षट 6 मुनि 7 सिद्धि 8 ससि 1 गुरु आश्विन शुभवार। सुद आठै अजमेर में भयो ग्रंथ अवतार।।56।।
इति श्री कवि खुसराम कृत नीत प्रबोधाख्योयं प्रबंध समाप्तः।।
सं. 1876 पोस कृष्ण सप्तम्यां गुरुवासरे मगनीरामेण लेखि अजमेर मध्ये।
खुस विलास-
प्राचीनतम लोकभाषा विषयक कृतियों में विलास संज्ञक रचनाएं प्रचुर परिमाण में उपलब्ध होती हैं। प्रस्तुत खुसविलास भी उसी परम्परा का अनुकरण है। कवि की समस्त रचनाओं में यह कृति सब से बड़ी और सार-गर्भित है। इसमें सात विलास-परिच्छेद हैं। पद्य संख्या 715 है। प्रथम में श्रृंगार रस को प्रमुखता देते हुए कवि ने नायक और नायिकाओं के प्रसिद्धतम भेदों पर मार्मिक और बोधगम्य भाषा में पर्याप्त प्रकाश डाला है। छठवें विलास में श्रृंगारादि नवरसों पर पांडित्यमय शैली में गम्भीर विचार व्यक्त किये हैं। शेष प्रकरणों में भाव, अनुभाव, संचारीं भाव एवं उद्दीपनादि का विशद् वर्णन किया है। सप्तम विलास में कवि ने अपने वंश व आश्रयदाता राजा तथा दीवान का वर्णन किया है। इस प्रकरण के 21 वें पद्य में अपने अन्य नाम मगनीराम का भी उल्लेख कर दिया है।
यद्यपि मूल ग्रंथ में नहीं पर अंतिम लेखन प्रशस्ति में इस बात का सूचन है कि प्रस्तुत कृति का प्रणयन कवि ने स्वपुत्र बलदेव के लिए किया है। छासठ पत्रक से कुछ पंक्तियों से ऊपर तक के भाग की प्रतिलिपि भी बलदेव ने ही की है, शेष भाग लेखक के हस्ताक्षरों से अंकित है। ग्रंथ का आदि और अन्त भाग इस प्रकार हैः---
आदि भाग
श्री महागणाधिपतये नमः
अथ कवि खुसराम कृत खुसबिलास लिख्यते
दोहा-
श्री गुरु गनपति सारदा वरदा बुद्धि विकास
ताकौ बंदन कर करौ कविता खुसबिलास।।
अर्थ गुरुदेव स्तुति
कवित्त
सुकृत करम दिल मरम बिहंडन है मंडन सुधर्म प्रतिपालन की पज है।
वेद विधि गावै आधि व्याधि जाबै जन जाकें ओर ताके भये सिद्ध काज है
कहै खुसराम ताहिके अधार भव पाई होय हृदय सिंघासन विराज है
सुर मुनि ध्यावै कंज चरण कहावै धन्य ऐसे गुरुदेव गुरु गरीब नवाज है।।
अथ गनपति स्तुति
छप्पय
मधुप गुंड मद तुंड सुंड गज गर्जित घनरब
ललित ललाट सिंदुर करन चल दुख भजात भव
एक दंत अति दयावंत दीरघ दुति दाता
अष्टसिद्ध नब निद्धि वृद्धि वर बुद्धि बिधाता
खुसराम आदि सोधत सदा सिर सुखदायक चंद वर
विनति बहार सुनिये करो गवरिनद आनंदकर।।
अथ सरस्वती स्तुति
कवित्त
अति उमंगी रस सरब सुरंगी मन मुनिजन सगुन ओ निर्गुननि वाहिनी
ब्रह्म विष्णु शिव सनकादि वेद गाई आदि अभै वर विद्या अक्षमाला अवगाहिनी
कहै खुसराम वरदाई विप्र देवन की सेवन की सोभा सुधा बानी की प्रवाहिनी
सारद के चंदसों प्रकासित मुखारबिंद हृदय कवीन्द्र के विराजै हंसवाहिनी।।
दोहा
शुचि रसके अधिपति कहे श्री बृंदावन चंद
ताकि त स्तुति कौ कहौ तातै होत अनन्द।।
छंद ललित त्रिभंगी
दिवस रैन हिय ध्यान धर नर मुनि रहत अनंद
ऐसे प्रभु सिर नायकै नित बंदों नंद नंद।।
बंदौ नंद नंद आनंद कंदा काहै फंदा बृजचंदा
सेबै सब देबा कर पद सेवा भेद न पावै बिधि छंदा।।
अघ मर्दन कारी कंस अयारी कुंज बिहारी चिरनंदा
जय जय सुखकारी कृष्णमुरारी गिरवरधारी गोविंदा।।
दोहा
सब कविकौ सिरनायके यौं उमंग मन धार
ग्रंथ नाम दीनौ भलौ खुसबिलास सुखसार।।
कवि खुसराम कियो प्रगट यथा बुद्धि अनुसार
जो कछु सुद असुद्ध हो लिजौ सुकवि सुधार।।
अंत भाग
अथ नृपवंश कवि वंश वर्णन
दोहा
मरुधर मांही मेडतो गहर सहर नाम
तहां बडन का बास है बन उपबन अभिराम।।
चार भुजा बकुंठपति जहां बिराजत आप
मालक महर करै प्रसिद्ध हरै त्रिबिधि तन ताप।।
तहां वरदाई विप्र कुल भए वृंद कवि राज
बिचरत दिल्ली सहरमें सोभित सभा समाज।।
तहां बिराजत मान नृप मारू महिष मरद
पातिसाह मरजी लिये गैनिनि करै जरद्ध।।
ताके सुत नृप राजसिंह कंवर पदे अभिराम
ताहि पढ़ावन को रखे वृंद सुकवि सुन धाम।।
पढ़ि पढ़ि गुन गाहक भए गुनिजन के सुखदैन
वीर पराक्रम भीमसो अति सरूप मनु मैन।।
रूपनगर गढ़ गढ़पति मारू कुल रविचंद
अविचल राज करै अवनि सोभत तहां कवि वृंद।।
तिन सनेह निज संग में निज मरजी में लाय
बृंद नंद बल्लभ सुकवि कियउ पढाय पढाय।।
फिर अति महर निगाह कर करी धान्य धन वृद्धि
बल्लभ बल्लभ हेत पुनि भए कलपतरु सिद्धि।।
राजनंद बहादुर बली सहर कृष्णगढ़ आप
जोधनगर जयनगर के बीच सुथआने थाप।।
कृष्णदुर्ग बंकट बिकट बैरिन को भयभीत।
जल अथाह सर बागबन मन सुख पावे मीत।।
जुरै जुद्ध कर क्रुद्ध जब तहां भय अरिजेर
आन बहादुर सेर की डग्ग अडग्ग सुमेर।।
बल्लभ सुत तिनपै रहै सुकवि सनेहीराम
महाराज निय महरकर दीने धन धर धाम।।
नंद बहादुर के नृपति भए बिरद बुधवान
पंडित सुकवि समाज के हृदय बसै हुय प्रान।।
नंद सनेहीराम के दौलत सुकवि विख्यात
सुभ कविजन की मंडली गुन कविता सरसात।।
ताकौ नृप विरदेस अति राखे कर सनमांन
विरद नंद परताप नृप माने सुभ गुन ज्ञान।।
नृप प्रताप नंदन भए श्री कल्यान महाराज
छत्र छत्रधारीन के मनु सोबत सुरराज।।
तिनके पुत्र महाबली मोकमसिंह नरेस
दै दुर्जन सिरमाल दिल कीने खुसी महेस।।
तिन के पुत्र प्रसिद्ध है पृथीसिंह नरनाह
सुजस बितांन तन्यौ रहै निस दिन बुद्धि अथाह।।
छत्र छांह तिनकी बसै दौलत सुत खुसराम
पृथीसिंह महाराज को शुभचिंतक गुन ग्रांम।।
न्यात जात व्यवहार में मगनीराम कहात
कविता छंद प्रबंध में कवि खुसराम विख्यात।।
तिन दिलके हुल्लास कर खुस विलास किय ग्रंथ
पढ़ै सुनै सुख पाय है जो जानै रस पंथ।।
जोर जोर जस जुगत सौ पढ़वौ करौं विचार
पृथीसिंह महाराज को यह दिल में अवतार।।
अथ आशीर्वाद वर्णन
कवि बरदाई गाई की रति सवाई रहो समता कौ पाई रहो तेज मारतंड की
रहो खुसराम महाराजा पृथीसिंह जू को जसको वितांन चहूं ओर नव खंड की
दिलके हुलास तैं विलास रहो मित्रन पै यत्र तत्र सत्रुनपै त्रास मेजदंड की
बीरवल बिक्रम सो प्राक्रम अखंड रहो संवत् अनंद रहो आयु मारकंड की।
अथ जस प्रताप वर्णन
कमध करारो क्रूर मोकम नरेन्द्र नंद, कंस अरि दुष्टनिकों मारत मुरारि
वीर क्रम विक्रमी रराहु अवगाह औ, उछाह कर प्राक्रम बखांन त्रिपुरारि
कहै खुसराम अवतारी है उदित भानु, भारी सुखमाहै सुर इंद्र के अगारलौं
परम प्रतापी पृथीसिंह महाराज ताको फैल्यो है प्रताप छिति पारावारलौं।।
पुनः कवित्त
सज्जन सनेही महाराजा मोकमेस नंद, आनंद कंद सुधा बैन परसीली है।
कहै खुसराम देख्यो विक्रम पराक्रम है, गौरिन के हेत रतिदेव गरबीलो है।
मांन में मिलित तेज मान कविराजन के, दांन में दिलीपनंद जैसौ फरसीलौ है।
गाजै गुन गौरव मैं छाजै छवि सौरभ मैं, राजा पृथीसिंघ राजैं रसिक रसीलो है।
अथ अमृत ध्वनि
धड धड धडकत धाड धड भड झड भजत अतप्प
पृथीसिंह नरनाहको तत्तत्तत्तप्प प्रत्तप्प
तत्तत्तप्पन प्रत्तप्पप्पुहमि प्रसिद्धप्परपर
बब्ब ब्यन बुलत्तत्तननि चत्त त्तर तर
तज्जुग यह यतज्जत्तिय सुनिय तुप्प धड धड
दिनकर दूजी धरनि पर कुल अबतर निसि पत्त
पृथीसिंह महाराज रण बंडव्बन बनपत्त
बंडब्बन बनपत्ति प्रबल परत्तप्पर पर
अग्ग भ्मगिय अडग्ग हुगि हुय षष्षष्षर षर
चच्चद्दल फल दुष्षव्बठकर अग्गग्गिन कर
भीमभ्भुज नृप मट ज्जुड रूप रत दिनकर
कर धर वीर महाबली पृथवीसिंह नृपषग्ग
चढ तुरंग बैरिन दलैं भग्ग हुरित अलग्ग
भग्ग हुरित अलग्गग्गहि अगमग्गहियत
बग्ग व्विस्तर दरिद्र ध्धर दर दुष्षद्द हियत
कित्तवकरत कबुल्ल वकहि बतरित्तप्पर धर
कित्तत्रर तरसुत्त तर तृण तवकक्कर धर
झटपट कटक चढै जबैं पृथीसिंह मल मट्ट
रज तुरंग चढि गगन रवि ढक्कढढ्कि यतबट्ट
ढक्कढ्ढकियत बटस्सुत अरि भभ्मम्मड कस जद्द धर कम धज्ज ध्धर
धुजलुद्दतष्टपट झझझच्छनन पगप्पप्पर पर भग्ग झझट पट
दोहा
अव्द बेद 4 नभ, निधि 9 अवनि 1 अगहन मास उचार
सुद द्वितिय गुरु कृष्णगढ भयो ग्रंथ अवतार
इति श्री कवि खुसराम कृते खुसबिलासे नृपवंश कविवंश बर्ननो नाम सप्तमो बिलास।।7।। सम्पूर्णम्।। संवत् 1908 का मिति सावण सुद 9 नवम्याँ भौमवासरे मगनीरामेणा लेखि कृष्णगढ़ मध्ये।।
दोहा
साढी छासटलौं लिखे पत्र तनुज बलदेव
ता पीछे पूरन लिखी मगनीराम सुबेस
चिरंजीव बलदेब के हेत बनाओ ग्रंथ
नवरस भाव विभाव के समझ लेहु शुभ पंथ
जो लिखियें जा ग्रंथकौं जामैं सरस सुबुद्धि
सोधि लेइ फिर ताहिकौ तब समुझो वह सुद्ध
लेखक पाठक्रयोः शुभं भूयात्।।श्रीरस्तु।।
वैराग्य विनोद
कवित्व की पूर्ण प्रतिभा का विकास जीवन के सर्वांगीण रहस्य को प्रगट करने में सक्षम होता हैं। यों तो कवि खुसराम कहने को दरबारी कवि थे एवं राग रंग की कृतियों में अपने महा प्रभुओं को प्रसन्न करने वाली रचना ही किया करते थे किन्तु जीवन का दर्शन ऐसा होता है कि कभी अन्तः चेतना उद्बुद्ध होने पर सांसारिक वरृत्तियों के प्रति औदासीन्य भी प्रगट हो जाती है। कवि के वैराग्य विनोद में उपर्युक्त विचार परम्परा सजीव ही उठी है। इसका रचना काल वि. सं. 1905 हैं। जीवन की क्षण भंगुरता एवं संसार की असारता व मानव जीवन की सार्थकता के मौलिक कारणों पर जितना सुन्दर एवं विचारोत्तेजक प्रकाश प्रस्तुत कृति में सुग्रथित है वह एक संत की चिराचरित साधना का सुस्मरण दिलाता है। यद्यपि पद्यों की संख्या अधिक नहीं है पर सीमित शब्दावली में कवि ने अन्तर के अमूर्त भावों को व्यक्त किया है। कला का वैशिष्ट्य इस अल्पाधार में पूर्ण प्रतिनिधित्व पा रहा है। आदि एवं अन्त भाग इस प्रकार हैः—
आदि भाग
गणाधितये नमः
अथ कवि खुसराम कृत वैराग्य विनोद लिख्यते
दोहा
जय जय सुखद सरस्वती जय गुरु ज्ञान प्रमोद।
सुख कँवल्यक कारणे किय वैराग्य विनोद।।
कवित्त
सुमरन साचो या अखंड जाति ही को
जानगूढ गुरु जाप जू की साची सरनाय।
छिन मांहि वासाजाय करैगो मसांन ए
निसांना न रहेंगे एन संपत रह जायगी।।
कहै खुसराम भूल्यो भरमन को डोलैं मूढ़
पवन झकोर दीप जोति ज्यों बुझायगी।
कालको चक्रर रे चलैगो चहू और
तब भौंरपरी नाव जैसे आब डूब जायगी।।
अंत भाग
दोहा
इहि वैराग्य बिनोद कौ पढै सुनै चित्त लाय।
ज्ञान वृद्धि ताके हियैं पर अपवर्ग हि पाय।।
बतीसी बैराग्य की कीनी यथो विवेक।
कवि खुसराम विनोद सौं सुन सुख लेहु अनेक।।
पांडव 5 नभ. निधि 9 एक 1 हैं अष्ट असाढ सुमास।
कृष्ण दुर्ग सुद सप्तमी शुक्र सांत परकास।।
इति श्री कवि खुसराम कृत वैराग्य विनोद बत्तीसी सम्पूर्णः
संवत् 1905 का असाढ़ शुक्ल 7 शुक्रवासरे मगनीरामेणालेखि।।
कृष्णदुर्गे
हरिगुन सदा अदोष है यामैं दोष न देहु
कुकविन सौं नांही कहौं सुकवि समझके भेहु।।
देवी स्तुति
आदि भाग
तूं मोरी जजमांन सांवरी तू मोरी जजमान
ब्रह्मादिक सब तेरेई अनुचर तेरोई करत बखान
जननी तू मोरी जजमान
अंत भाग
उमग उमग मन मगन महोत्सव करत तिहारो ध्यानं
जननी तूं मोरो जजमान
सम्पूर्णम्—मगनीरामेचरणा लेखि कृष्णगढ़ मध्ये सम्बत् 1907
प्रथम बैसाख कृष्ण 11 चंद्रवासरे।। श्री कृत्याः जयास्तु।।
प्रति राजस्थान पुरातत्व मंदिर जयपुर में सुरक्षित है।
क्रमांक 2279
अन्य लघुतम कृतियों का संग्रह उपर्युक्त संग्रहालय में सुरक्षित है। उनका विशेष महत्व न होने के कारण ही इस निबन्ध में विस्तार न किया जा सका। ये सब कृतियाँ कवि की स्वहस्त लिखित ही हैं।
शांति नवक
यह कवि की आध्यात्मिक रस मूलक कृति है। इसमें जीव को लक्षित करते हुए कवि ने आत्मजयी होने की सूचना दी है। इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना ही आत्म जय है। आत्मजयी ही संसार का विजेता हो सकता है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मात्सर्य आदि विचार हैं। खुसराम ने इन पर विजय प्राप्ति का सरल मार्ग इन नव शांत रस मूलक पद्यों में बताया है। संसार को असारता सोमित शब्दों में इसमें सन्निहित है। आदि अन्त भाग इस प्रकार हैः---
आदि भाग
कवित्त
संतान कहो है यहाँ आतमा को सोध ह्वै
कर अरूढ़ा दिल साच अर्थ गूढ़ा कौ।
भोद गर्व गंज मंजु हृदय निहार यार
छाँड़ बरबाद छाँड़ ऊढा रू अनूढ़ा कौं।
कहैं खुसराम पर पंच कौं परग मत
सांच है कि झूठे पाछै लोग पूछ बूढा कौं।
ढूंढबात ऊंड़ी मूंड़ी ताग ताग जोग मूढ़
भय दुषताग अरै ढूंढ़ ढूंढ़ ढूंढ़ा कौं।।
अंत भाग
पति पुत्र बधू मित भ्रात रु तात चढ़े रहैं
स्वार्य ही के सदारथ सब झूठ प्रपंच।
कहैं खुसराम रे बैठ मती यह मोह महा
रथ अति क्रोध को मारयो कोलाहल क्यो
करैं लोभ को मारयो मचावत भारत अब
सुन्य पर हैं मति गुण्य हिये मधिराम को
नाम कैं पुण्य पदारथ।।
इति श्री मगनीराम कृति शांति नवक सम्पूर्णम्।।सं. 1914
असाढ़ कृष्ण 5 शुक्ल मगनीरामेणालेखि कृष्णगढ़ मध्ये।।
रस निबंध
प्रस्तुत कृति में नायक और नायिका भेद के वर्णन के बाद नव रसों का सुन्दर और प्रभावोत्पादक आलेखन है। कवि ने इसे भी सात भागों में विभक्त किया है। ऐसा लगता है, खुस विलास में जो रसादिका विवेचन है वह इतना शास्त्रीय है कि सामान्य पाठक को हृदयंगम करना कठिन हो जाता है इसीलिये सम्भवतः कवि ने सरल विवेचन इसमें प्रस्तुत किया है। आदि एवं अंत भाग इस प्रकार हैः-
आदि भाग
श्री गनेशायः नमः
अथ कवि खुसराम कृत रस निबंध लिख्यते
छंद चर्नाकुलक
ब्रह्म सरूप करैं सुख साता गनपति रिद्धि सिद्धि के दाता
सरसति चरन सरन कौं गहिहौं रस निबंध भाषा करि कहि हौं
पदिमनि पतरी बुद्धि अपारै चित्रिनि चित्र पवित्र निहारैं
हस्तिनि स्थूल चले गज चालहि संखिनि कलह करैं वे हाल हि
अंत भाग
अथ कवि वंश वर्णन
वंश उदैकारी कविराजा बृंद भए गुन छिति पर छाजा
ताके बल्लभ सुकवि विख्याता गुन गौरव में गनपति भ्राता
नंद सनेहराम जु ताके ताके दौलत कविता पाके
तिनके सुत खुसरांम कहावै रसनिबंध कर भाषा गावै
वेद4 इंदु 1 निधि8 ब्रह्म1 कहावै संवत माधव मास कहावै
शुक्ल पक्ष सातै 7 गुरुवारहि भो अजमेर ग्रंथ अवतारहि
।।इति सप्तमो निबंध।।
इति श्री कवि खुसरांम कृत रस निबंधाख्यों प्रबंध।
समाप्तः
न्यात जात व्यवहार में मगनीराम कहात
कविता छंद प्रबंध में कवि खुसराम विख्यात
संवत 1914 का बैसाख शुक्ल 7 सप्तम्यां गुरौ समाप्तिमभवत्, अजमेर मध्ये।
लेखक पाठकयो शुभं भूयात् मगनीरामेणालेखि
मूसक जल पवनादि तै रक्षा करौ सुजान।।श्री।।क्रमांक 2251 पत्र 18।
सा लहरी खुसराम हिय खुभी सुनौं कवि भूप
जो कछु सुद्ध असुद्ध ह्वै मो कौ जाने अबुद्ध
सुद्ध वृंद गादी निरखि करौ करीसर सुद्ध
उपलब्ध प्रति का अंतिम भाग
व्याघात
जो लायक नहिं ताहि सौ कारज ह्वै व्याघात
क्रोध भरो पियकौ कर लै पूरलनकी घात
बहुरि विरोधो तैं कहै कारन सोऊ व्याघात
विप्रनिकौं संग लेइक राज रण मे जात
जयलाल
कवि मगनीराम-खुसराम के पुत्र बलदेव थे। परन्तु इनकी कोई कृति या फुटकर कवित्त मेरे अवलोकन में नहीं आये। पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि बलदेव को साहित्यिक कृतियों से प्रेम अवश्य था जैसा कि खुशबिलास की अंतिम लेखन प्रशस्ति से ज्ञात होता है। उसमें बताया गया है कि बलदेव ने खुशबिलास के साढे छांसठ पृष्ठों की प्रतिकृति की एवं अतिरिक्त भाग स्वयं मगनीराम ने लिखा। लिपि से ज्ञात होता है कि बलदेव शुद्ध लेखक थे। अनुस्वार एवं अर्ध बिन्दु की जहाँ जैसी आवश्यकता अपेक्षित थी वहाँ बलदेव ने इस परंपरा का पूर्णतः पालन किया है।
कवि जयलाल बलदेव के पुत्र थे। पितामह खुसराम इन पर बहुत अनुराग रखते थे। असम्भव नहीं कि इनके द्वारा साहित्याध्ययन में भी जयलाल को पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई हो। खुसराम ने अपनी बहुत सी प्रतियों की प्रतिकृतियों की प्रशस्ति में सूचित किया है कि वे जयलाल के अध्ययनार्थ लिखी गईं। जैसा भी हो पर यह निश्चय है कि परपितामह द्वारा कविता की साधनापूर्ण अखंड परम्परा को जयलाल ने न केवल स्व-प्रतिभा के बल पर सम्भाले ही रखा अपितु वस्तुतः पांडित्य द्वारा काव्य विवेचन में भी इसका भलीभांति निखार किया। इनकी कविता-भक्ति एवं साहित्य विषयक ज्ञान बहुत ही प्रौढ़ एवं विलक्षण था। रस ग्राहक शक्ति जितनी इनमें प्रबल थी उससे भी कहीं अधिक वैयक्तिकरण का प्राबल्य था। इनके पांडित्यपूर्ण ओजस्वी साहित्यिक व्यक्तित्व के लिए जलवय शहनशाह इश्क की इश्क प्रकाशिका टीका ही पर्याप्त है। मूलतः यह कृति महाराजाधिराज पृथ्वीसिंह के द्वितीय पुत्र जवानसिंह द्वारा सं. 1945 प्रथम चैत्र शुक्ला पूर्णिमा को रची गई थी। इसके 45 पद्य है। जिस प्रकार कविवर बनारसीदास की समस्त रचनाओं का संग्रह बनारसी बिलास नाम से विख्यात है उसी प्रकार महाराजा जवानसिंह कृत रचना संग्रह का नाम रस-तरंग रखा गया है। इसमें उनके द्वारा रचित ईश-भक्ति मूलक पद, गोपीनाथ की दीक्षा, गिरधरजी एवं अन्य कोटि के गोसाइयों की विनतियाँ व बधाइयों का सुन्दर संग्रह हैं। प्रत्येक गद्य प्राचीन राग रागनियों में गुंफित है। नगधर आपकी छाप है। किशनगढ़ के राज परिवार में किंवदन्ती है कि जवानसिंह को खुसराम ने पढ़ाया था। पृथ्वीसिंह की सभा के रत्न तो कविवर थे ही।
जलवय शहनशाह इश्क इश्क चिमन और रसिक चिमन कोटि की कृति है पर टीकाकार ने अपनी पांडित्यूपर्ण विवेचना शक्ति द्वारा इसमें ऐसा प्राण संचार कर दिया कि संगीत और साहित्य की यह एक अपूर्व कृति बन गई। ब्रज गद्य के साथ अरबी फारसी शब्दों का इसमें इतना प्राचुर्य है कि जहाँ कहीं ईश भक्ति मूलक शब्द आया नहीं कि इन्होंने लैला मजनूं के स्नेह सूचक श्रृंगारिक शब्दों का प्रयोग बिना किसी संकोच के कर दिया। आशुक-माशूक, महबूब, कादर, नादर आदि शब्दों द्वारा प्रभु के श्री चरणों में किस प्रकार सर्वस्व समर्पित किया जाना चाहिए व किसके प्रति किस के हृदय में स्थायी अनुराग, प्रेम, श्रद्धा और भक्ति का स्रोत होना चाहिए आदि बातों पर इतना सुन्दर प्रकाश डाला है कि सम्पूर्ण विश्व के समस्त अंगोपांग एवं जीवन के दैनिक व्यवहार में प्रयुक्त उपादानों तक को भक्ति की इस विरह-वेदना मूलक दृष्टि से देखने की चेष्टा इसमें अन्तर्निहित है। इस टीका की महत्वपूर्ण विशेषताओं की ओर विज्ञों का ध्यान आकृष्ट करने के पूर्व एक बात की ओर और ध्यान आकृष्ट करना आवश्यक जान पड़ता है कि जयलाल के पूर्वज कवियों ने भिन्न-भिन्न विषयों पर प्रकाश डाला। एक ही व्यक्ति के लिए भिन्न 2 विषयों पर लेखनी चलाना उतना असम्भव नहीं जितना कि एक ही विषय को सर्वागपूर्ण रूप में विवेचन के साथ उपस्थित करना, वह भी तत्सम्बन्धी पुरातन ग्रंथों के उद्धरण से युक्त करके जो-श्रम साध्य है। यह कहना व्यर्थ है कि कलाकार का हृदय रसोन्मय का भव्य प्रतीक होता है। जयलाल का वाचन कितना विस्तृत गम्भीर एवं बहुमुखी था इसका वास्तविक परिज्ञान इश्क प्रकाशिका टीका के अंतः परीक्षण से होता है। जहाँ कहीं भी जिस किसी भी विषय का समर्थन कवि को करना पड़ा है वहाँ कवि ने न केवल इसे धर्ममूलक कृतियों तक ही सीमित रखा है अपितु अलंकार, काव्य, रस, ध्वनि, संगीत आदि अन्य समस्त विषयों के प्राचीन पंडितों के द्वारा रचित मूल ग्रंथों के उद्धरण भी दिये हैं। उदाहरणार्थ टीका में इन ग्रंथों का अधिक उपयोग किया गया हैः-
रस तरंगिणी उज्जवल गीत मणि विद्वन् मंडल
गीत गोबिन्द गोवर्द्धन सप्तशती अमर कोष
वास्तस्यायन सूत्र की जय मंडल टीका सूर सागर रसिक चिमन
बिहारी सतसई परमानन्द सागर 84 वैष्णवों की वार्ता
नागरीदास का समस्त साहित्य भागवत भाषा भूषण
सभा प्रकाश रस प्रबोध मनु स्मृति आदि।
अलंकार, संगीत और ध्वनि का इन्हें इतना सूक्ष्म ज्ञान था कि श्रुतियों तक का विशद् विवेचन पुरातन ग्रंथों के अधार पर किया है। जहाँ तक मेरा अनुमान है कवि श्री के सम्मुख इन विषयों पर विवेचना करते समय राधा माधव संगीत सार नामक कृति अवश्य ही रही होगी। यह महाराजा प्रतापसिंह द्वारा रचित संगीत का सर्व संग्रह है। गीत, वाद्य एवं नृत्यों का न केवल इसमें विस्तृत विवेचन ही है अपितु प्रत्येक वाद्यों के निर्माण एक नृत्य की परंपरा का तात्कालिक लोक-जीवन में प्रभाव आदि सम्पूर्ण विवेचन सक्रिय विदित होता है।
अलंकारों में संदेहालंकार, पर्यायोक्तिलंकार, विवस्वरालंकार, हेतु अलंकार, पर्यायालंकार, समलंकार, उदात्तालंकार, काव्यलिंगालंकार, भावनालंकार, उत्प्रेक्षालंकार, परिकरालंकार, स्वभावोक्ति अलंकार, लुप्तोपमाअलंकार, समभेदरूपकालंकार, समुच्यालंकार एवं एखावली आदि अलंकारों का समावेश किया गया है। यहाँ पर स्मरण रखना चाहिए कि प्रथम और बत्तीसवें पद्यों की टीका स्वयं महाराजा जवान सिंह ने की है ऐसा टीकाकार स्वयं उल्लेख करते हैं। परमानन्द सागर, सूर सागर एवं नागरीदास के ग्रंथों का इतना अधिक प्रयोग किया गया है कि कई पद्य व दोहे ज्यों के त्यों उद्धरित कर दिये हैं। तात्पर्य यह है कि टीका बड़ी सुन्दर, विस्तृत, प्रभावोत्पादक एवं सारगर्भित तथ्यों का पुंज है।
वैसे जयलाल के समय मुद्रण कला सापेक्षतः विकसित हो चुकी थी। उस समय किशनगढ़ राज्य की ओर से कई ग्रंथों का प्रकाशन हुआ जिनके सम्पादक जयलाल थे।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि 1945 प्रथम चैत्र शुक्ल पूर्णिमा के दिन इस ग्रंथ की समाप्ति हुई और 1945 आश्विन शुक्ला दशमी के दिन हरिदुर्ग-किशनगढ़-में नृपाज्ञानुसार जयलाल ने टीका समाप्त की। टीका का आदि एवं अन्त भाग इस प्रकार हैः—
आदि भाग
।।अथ जल्वय शहनशाह इश्क लिख्यते।। राग सारंग।। इकताल।।
हुआ है अमल इश्क का दिल यार की जुटाई।
हैरत है मुझ को ए ज्यान यह क्या कह रहें खुदाई।।1।।
।।इति मूलं।।
।।श्री गोपीजन बल्लभाय नमः।। अथ जलवय शहनशाह इश्क की टीका इश्क प्रकाशित लिख्यते।।
सोरठा
जय जय नन्द किसोर
श्री राधा रस वस रसिक
जैसे चंद चकोर
विहरत जमुना तीर पर।।
यह जानऊ वृत्ताँत
जलदी टीका रचन को
नृप मन को सिद्धाँत
यथा योग्य जाहिर रहें।।
ग्रंथ कठिनता जाँन
पीछै टीका रचत जब
रहि जावैं कुछ हाँन
वक्ता के सिद्धान्त में।।
मंझन सुमति सुधार
खंझन को खंझन करो
समझऊ सब निरधार
इश्की जनके वचन में।।
दोहा
व्रज जन जीवन प्रान यह प्रथम सोरठा चीन
तिहिंकी टीका नृप करी पुनि जय कौं कहि दीन।।
त्यौं टीका जय कवि रचत रसिक चरन रजधार
जानऊ इस्क प्रकाशिका टीका नाम विचार।।
ऊबाह हैं अमल इति
या में ग्रंथ कर्ता कवि निज मन दशा कहत हैं
अथवा कवि ईश्वरसौं वीनती करें हैं
यार जो नटनागर रूप उजागर जाकी जुटाई हैं
सोई दिल में-इश्क का अमल कहिय राज हुआ है
फेर संबोधन दें कहैं हैं ए ज्यान ए नंदनंद प्यारे
मुझकों हैरत है। आश्चर्य है यह खुदाई हैं क्या अथवा
खुदाई कहर है ईश्वर की क्रूरता हैं
कहर खुदाईं कहिये को यह भाव हैं
जुटाई में आनंद तो अधिक हैं
परन्तु दुःसह हैं। सहिबे में आवें नहीं
अरु निज मन दशा के विषय में और अर्थ तो यही
परन्तु ए ज्यान यह संबोधन मस्त हाल में हैं।
अरु ग्रंथ कर्ता के दिल में इश्क को राज भयौ तासौं
इश्क के राज समाज वर्नन करिबे को ग्रंथकर्ता मन में उमंगधरी हैं।।
संदेहालंकार है
भाषाभूषण -
सुमरन भ्रम संदेह ए लच्छन नाम प्रकाश ।।इति।।
यहाँ जुदाई हैं अथवा इश्क को अमल हैं अथवा
कहर खुदाई हैं यह संदेह।।
राग सारंग लछना
कर धृत बीणा संख्या सहोपविष्टा च कल्पतरु मूले
दृढ़ तर निबद्ध कबरी सारंगा सा सु रागिनी प्रोक्ता।
सोरठा
व्रजजन जीवन प्रान
हैं इलाहि महबूब नित
कृष्ण करे जिहिं ध्यान
हैं अधीन जिनके सदा।। इति मूलं
या दोहा की टीका ग्रंथकर्ता
महाराज
आप निज बुद्धि सौं करी
अन्त भाग
या में ग्रंथ समाप्ति को संवतादि बर्नन है सो स्पष्ट हैं।।
ग्रंथ प्रशस्ति
दोहा
इश्क प्रकाशक वाक्य को रूपक इहिं विधि चीन
टीका इश्क प्रकाशिका नाम ग्रंथ को दीन।।
छप्पय
श्री बल्लभ मुख वाक्य भागवत भानु प्रमानौं
श्री विट्ठल मुख बचन सुधानिधि सम पहिचानौं
अष्ट छाप नक्षत्र गुरु जयदेव सुगानी
भानुदत्त कवि आदि की सु हीरा सी बाँनी
नागर चिराक इनसों हरैं इस्क प्रकाशिका मरम तम
है इश्क राजरूपक सुहित जयरचना खद्योत सम।।
कवित्त
इश्क की प्रकाशिका या रसिक विलास का हैं या कौं जोई जोइगो।
प्रेमपथ पेखिवे कौं परम प्रीतित पूर पावैंगो सहायता औ रसमैं समोइगो।
रसिक सराहबेको रसिक समाज बीच सुजस बढाईबे को नीकैं बीज बोइगो।
सुनि सुनि रीझि रिझि समझेंगौ पढैगौ याकौं इश्क मतबारे कौ इश्की सोई होइगौ।।
रसिक गुमानी ज्ञानी तिनकी दयावानीसों रसिकन सीखवे कौं सिक्षक कहानी है।
रसमें लुभानो मति इश्क ही के मानी जै हैं जाके बांचबेके हेत कीनी गुनवानी है।
सकल सरांनी अति उत्तम उठानी सुक्ति युक्त हैं अनुक्त उक्त नाहीं या पुरानी हैं।
इश्क राजधानी कौं सुहांतीं सरसांनीं करि नृपति जवानसिंह जी कैं दरमानी हैं।।
दोहा-
पैंताली उगनीस सुदि आश्विन दशमि विचार
किय टीका हरिदुर्ग्ग मधि नृप आज्ञा अनुसार।।
(इति श्री मन्महाराजाधिराज महाराज श्री पृथ्वीसिंहजी त द्वितीयपुत्र श्री जवानसिंह जी तदाज्ञानुसार कवि जय विरचितं जलवय शहनशाह इश्क की टीका इश्क प्रकाशिकासंपूर्णः।)
इति श्री मन्महाराजाधिराज महाराज श्री पृथ्वीसिंहजी त द्वितीय
पुत्र महाराज श्री जवानसिंजी कृत रस तरंगस्य प्रथम तरंग सम्पूर्णः।।
कविवर जयलाल के हस्तलिखित ग्रंथ एवं उनके द्वारा रचित नव रात्र कवित्त राजस्थान पुरातत्व मंदिर, जयपुर में सुरक्षित है।
पृथ्वीसिंह सुजस पच्चीसी
कविवर की यह प्रशंसात्मक रचना है। इसमें मोकमसिंह के पुत्र पृथ्वीसिंह की आलंकारिक रूप से पर्याप्त गौरव गाथा वर्णित है। इसमें संदेह नहीं कि इस लघुतम कृति में कवि ने अपना साहित्यिक पांडित्य पर्याप्त प्रकार से बिखेर रखाह । बली, रामचन्द्र, हरिश्चन्द्र और शिवराज आदि नरेशों से पृथ्वीसिंह की तुलना की गई है। अनुप्रास अलंकार भावगाम्भीर्य एवं भाषा का प्रौढ़त्व सचमुच प्रेक्षणीय है। प्रसन्नता की बात यह है कि कवि ने इन पच्चीस पद्यों पर विवरण भई लिखा है जो तात्कालिक गद्य का नमूना तो है ही, साथ ही विषय के स्पष्टीकरण की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्यवश इसकी एक मात्र प्रति राजस्थान पुरातत्व मंदिर जयपुर में सुरक्षित है और वह भी दीमकों द्वारा भक्षित हैं। बहुत सा पाठ नष्ट हो गया है तथापि इसका अपना महत्व है। आदि एवं अन्त भाग इस प्रकार हैः-
आदि भाग
श्री गुरुभ्योनमः
अथ सुजस पचीसी लिख्यते
दोहा
गनपत गन पत शिव करन सरसत सरसत बैन
गुर वर बरसत वरसु सुर तिनकौं नत दिन रैन।।
हंस बंस अवतंस है भूपति श्री पृथवेस।
हंस संस ह्वै तेज ते कहौं सुजस तिह वेस।।
कमधज तैं कमधज नृपत वरधऱ बर धर पुंज।
निज दल तै हूकम बल्लभ के सब सर्ण।।
अन्त भाग
दोहा
जय भाष सदा नीत रीति ध्रमलीन।
श्री पृथिसिंघ की सुजस पचीसी कौन।।
यामैं काहु अशुद्ध जो माफ करहु कवि ईस
कहाँ श्लेष कहा जमक है कहाँ अमिधा जुबरीस।।
इति श्री मन्महाराजाधिराज महाराजा श्री श्री 108 श्री श्री पृथ्वीसिंघ जी कस्य कवि जय लालेन कृतं सुजस पच्चीसी संपूर्ण।। सं. 1831 का द्वितीय प्रसाढ़ कृष्ण 5 रवौ कृष्णगढ़ मध्ये स्वयं लिखितें।।
उपर्युक्त कृति का कविकृत विवरण इश प्रकार हैः
श्री गुरुभ्यो नमः
अथ सुजस पचीसी की टीका लिख्यते
गनपति इति। नमस्कारात्मक मंगलाचरन है तहाँ कविवचन सर्वत्र। गनपत जोगपौसुजी हैं ताकौं रैंन दिन नत नमस्कार करौं हौं, कैसे है गनेसजी तिनके शिव करने को नाम सर्वजनों के कल्पान करने को पत कहियैं पण है तिनं को ऐसे तू गन नाम जान। अथवा गणेशजी गन पत गनों के पत मालिक है फेर कैसे कहै शइव करन कल्यान के करन वाले। सरसत जा सरस्वती जो ताकौं भी नव नमस्कार करौं हौं कैसे कहैं सरस्वती जी सरसत जो कामल बैंन वचन ताकौं देत है। अथवा सरसत बैंन स कहियैं वा सरस्वती है सो रसतैं वचन देत हैं। अतवा सर नाम सार तिनमें सत नाम साचे बैन देत है उत्तमों से उत्तम यह अर्थ।।
छंद के बस तैं गुर कौं, जैसे बिहारी एवं दरा बद रहा।
बादर कौं बदरा कहयो। गुरवर गुर श्रेष्ठ कौं भी नमों हों कैसे कहैं गुरु गुरु कहियें भारी जो वर है वरदान हैं नाम देवै हैं।
अथवा गुरवर जो भारो वर है सो वै गुरु श करैं है यह ध्वनि
सो रसतैं सरस तातैं वर हैं ताकौं पद आकांक्षित हैं जमकालंकार भाषा भूषन जमक शब्द वह हीर है जुदो ह्वै जाय। दोहा नाम।।
हंस बंस इति।।
हंस बंस जो सूर्य बंसों राजा हैं तिन मैं अवतंस हैं ऐसे महाराज पृथ्वी सिंघ जी है। फर जिनों के तेज तैं हंसजो सूर्य हैं संस ह्वै संसित होता है यह सूर्य है या नहीं यह अर्थ तिनको वे ससुन्दर सुजस है ताकौ कहौं हौ। आवृत्ति दीपाकालंकार। आवृत्ति दीपक तीन विध आवृति पद की होय, पुनि है आवृति अरथ की दूजैं कहि मत सोय। पद अरु अरथ दुहून की आवृति तीवैं लेख। दोहा नाम।।
कमधज इति। कमधज जो राठवर तिनतैं ओर नृपत हैं सो कमधज हैं कम पराक्रमी हैं यह लौकिक हैं या मैं तो कछु भी धज नहीं है वर धर वर जो बल धर जो पृथ्वी ता कौं वरध नाम बधाई हुई रखुंज नाम राखौ। अथवा वर श्रेष्ठ जो धर है ताहि ओर वैसे ही यहाँ जकार निश्चय मैं वा पादपूरण। निज दल तैं नाम नाम आप के दल तैं हुकम अहल है। दल ते फौज तैं रिपु रिपु पुंज समूह सो दलित है।
जमकालंकार दोहा नाम।।
उपंसहार-
उपर्युक्त पंक्तियों से स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में वृन्द के वंशजों की परम्परा ने जो योग दिया है वह उल्लेखनीय है। राजघराने को भी इसी परम्परा ने साहित्यिक सेवा के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि कला के क्षेत्र में भी उत्प्रेरित किया। सम्पूर्ण कवि परम्परा किशनगढ़ राज्य के जन मानस में इस प्रकार घर किए है कि आज भी प्रासंगिक रूपेण बहुत से पद्य जन कंठ में सुरक्षित हैं जो अवसर पाकर मुखरित होकर हृदयतंत्री के तारों को झंकृत कर देते हैं। यद्यपि किशनगढ़ राज्य में हिन्दी साहित्य की दृष्टि से अद्यावधि समुचित शोध कार्य नहीं हुआ है। यदि अन्वेषण और अनुशीलन किया जाय तो निस्संदेह बहुसंख्यक नूतन साहित्यिक कृतियाँ समुपलब्ध हो सकती हैं। जहाँ पर इतना बड़ा कविता प्रेमी परिवार लगभग दो शताब्दियों तक रहा हो वहाँ उसका सार्वभौमिक सांस्कृतिक प्रभाव न पड़ा हो यह तो माना ही नहीं जा सकता।
रूपनगर, सलीमाबाद, मसौदा और किशनगढ़ ये उस समय की सांस्कृतिक और साहित्यिक चेतना के प्रमुख केन्द्र थे। जहाँ माता सरस्वती के बरद पुत्र न केवल नूतन साहित्यिक सृजन में ही तन्मय रहा करते थे अपितु एक ऐसा भी वर्ग था जो केवल पुरातन महत्वपूर्ण ग्रंथ स्थवांङ्य की प्रतियाँ कर भंडार की वृद्धि करता था।
किशनगढ़ के राजकीय पुस्तकालय में पंडितों द्वारा आलेखित पर्याप्त प्रतियाँ सुरक्षित हैं उनमें से कतिपय सचित्र भी हैं। सलीमाबाद तो निम्बार्क सम्प्रदाय का केन्द्र ही है और वहां इस सम्प्रदाय का सबसे बड़ा साहित्यिक भंडार अभी भी बताया जाता है। यों तो अजमेर के निकटवर्ती बहुत से ऐसे ग्रंथ मेरी सूची में है जहाँ पुरातन ग्रंथ एवं चित्रों का संग्रह असुरक्षित उपेक्षित दशा में बिखरा पड़ा है। राजस्थान शासन का प्राथमिक कर्तव्य होना चाहिए कि इन सांस्कृतिक प्रतीकों के सक्रिय अनुशीलन के लिए प्रयत्नशील हों अन्यथा अवशिष्ट सामग्री से भी हमें हाथ धोना पड़ेगा।
किशनगढ़ के राजघराने द्वारा की गई हिन्दी सेवा और उसके निमित्त वृन्द की परम्परा ने जो योग दिया, ये विषय अवर्णनीय हैं। आशा है दूसरे स्वतंत्र निबन्ध द्वारा प्रकाश डालने का प्रयत्न किया जा सकेगा।
कविवर वृन्द की वंशावली
वृन्द
बल्लभ
सनेही राम
दौलत
खुसराम
बलदेव
जयलाल
यद्यपि अभी तक वृन्द के वंशजों के रूप में श्रीपथ विद्यमान हैं, जो स्वयं अच्छे कवि व कविता-पाठक हैं, पर निबन्ध का विषय जयलाल तक ही होने के कारण आगे की वंशावली देना समुचित प्रतीत नहीं होता।
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