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समा’ के आदाब

डाॅ. अब्बास नीयाज़ी

समा’ के आदाब

डाॅ. अब्बास नीयाज़ी

MORE BYडाॅ. अब्बास नीयाज़ी

    समा’ के जाइज़ होने या होने की बहस के बर-तरफ़ ,इसके आदाब को समझना और उन पर ’अमल करना बेहद ज़रूरी है। इस दौर में जब सूफ़ियाना मूसीक़ी या सूफ़ियाना कलाम के नाम से जो तमाशा बनाया जा रहा है उस में ये समझना ज़रूरी है कि सूफ़िया-ए-किराम ने समा’ सुनने की जो इजाज़त दी है उस में आदाब-ए-समा’ किस क़दर ज़रूरी हैं। समा’ सिर्फ़ तफ़रीह-ए-तबा' के लिए नहीं सुना जाता बल्कि एक ’इबादत के तौर पर रुहानी ग़िज़ा हासिल करने के लिए सुना जाता है, और ग़िज़ा को उस के मख़्सूस तकल्लुफ़ात के साथ लेने से सिर्फ़ उस का मज़ा दो-बाला हो जाता है बल्कि उस की तक़्वियत भी बढ़ जाती है। दूसरी तरफ़ उन तकल्लुफ़ात को नजर-अंदाज़ करने से मुज़िर्र असरात रू-नुमा होते हैं और बद-हज़मी होने का ख़तरा भी होता है। लिहाज़ा समा’ के ज़ाहिरी और बातिनी आदाब यहाँ बयान किए जा रहे हैं जिसका लिहाज़ रखना बे-हद ज़रूरी है।

    पहला अदबः वक़्त, जगह और हाज़िरीन की रि'आयत हैः

    औलिया-ए-किराम ने समा’ में तीन बातों को ख़ास-तौर से ज़रूरी बताया है। जिसमें समा’ सुनने का वक़्त या’नी समा’ को उन औक़ात में सुनना चाहिए जिनमें दूसरी तब'ई या शर’ई मशाग़िल हों, मसलन खाना पीना फ़ंक्शन में मश्ग़ूल होना, नमाज़ पढ़ना या तिलावत करना वग़ैरा वग़ैरा। इन हालात में ज़ेहन पूरी तरह से ख़ाली नहीं होता। दूसरी चीज़ जगह है। मुराद ये है कि समा’ को शारे'-ए-'आम पर या ऐसी जगह जिसकी ज़ाहिरी हालत अच्छी हो सुनना चाहिए। शोर-शराबा, नजासत की जगह समा’ सुनने से दिल के मुतग़य्यर होने का अंदेशा रहता है। और रूह को यकसूई हासिल नहीं होती। आज-कल अक्सर सड़कों के किनारे मज़ारों पर या बाज़ारों में टेंट लगा कर क़व्वाली सुनने का बहुत क़ा’इदा हो गया है, जो समा’ के आदाब के बिल्कुल ख़िलाफ़ है।

    दूसरी रि’आयत मज्मा’ या हाज़िरीन-ए-मज्लिस से है। इस से मुराद ये है कि समा’ ऐसे लोगों के दरमियान सुना जाए जिनको समा’ की अहमियत और उसके आदाब से वाक़फ़ियत हो। समा’ का एहतिमाम अहल-ए-दिल हज़रात के लिए किया जाना चाहिए अक्सर मस्नू’ई सूफ़ी हज़रात ’अवाम की तवज्जोह अपनी तरफ़ करने के लिए मस्नू’ई, मज़्हका-ख़ेज़ हरकतें करते हैं। खड़े हो कर कैफ़ियत दिखाने की कोशिश करते हैं, कपड़ों को फाड़ने का दिखावा करते हैं और नोटों को क़व्वालों की तरफ़ उछाल कर एक तमाशा बरपा करते हैं। ये सारी हरकात आदाब-ए-समा’ के मुनाफ़ी हैं। कलाम सुनकर वज्द में आना, रोना या रक़्स करना ग़लत नहीं होता मगर इसमें किसी तरह का तसन्नो’ का दख़्ल नहीं होना चाहिए।

    दूसरा अदबः शैख़ की मौजूदगीः

    समा’ का हक़ीक़ी लुत्फ़ शैख़ की मौजूदगी में ही आता है। मुरीदों या सामि’ईन की हालत पर नज़र रखने के लिए महफ़िल में शैख़ की मौजूदगी बे-हद ज़रूरी है। अगर शैख़ हयात से हों तो किसी अहल-ए-दिल बुज़ुर्ग शख़्सियत का होना ज़रूरी है। उसकी मौजूदगी से महफ़िल में रूहानियत का एहसास रहता है और उसके क़ल्ब की कैफ़ियत का असर बाक़ी तमाम हाज़िरीन पर पड़ता है। अगर शैख़ को कैफ़ियत होती है तो तमाम मज्मा’ पर उसका असर नुमायाँ देखा जा सकता है। दूसरी तरफ़ अगर महफ़िल में किसी मुरीद पर कैफ़ियत तारी होती है तो शैख़ की नज़र उसको तक़्वियत बख़्शती है। शैख़ अपने मुरीद की रुहानी हालत से वाक़िफ़ होता है। वो जानता है कि किस को कितनी और किस तरह की रुहानी ग़िज़ा की ज़रूरत है। दूसरी तरफ़ शैख़ की मौजूदगी में महफ़िल में कोई भी मस्नू’ई और ना-ज़ेबा हरकत करने की जुर्अत नहीं कर सकता।

    तीसरा अदबः हुज़ूर-ए-क़ल्ब और ’इश्क़-ए-मजाज़ीः

    समा’ के आदाब में इ’श्क़-ए-इलाही के साथ हुज़ूर-ए-क़ल्ब की भी शर्त है। समा’ में कलाम को पूरी तवज्जोह के साथ सुनना और उसको ’इश्क़-ए-हक़ीक़ी की तरफ़ मंसूब करना बहुत ज़रूरी है। अपनी नज़र को सामि’ईन के चेहरों पर कर के शैख़ के चेहरे पर मर्कूज़ करना चाहिए और अगर शैख़ मजूद हो तो शैख़ का तसव्वुर रखना चाहिए और अपने क़ल्ब की तरफ़ मुतवज्जेह रहना चाहिए। जो कुछ अल्लाह की रहमत से उसके बातिन पर ज़ाहिर हो उस पर निगाह रखनी चाहिए। कोई ऐसी हरकत करे जिससे अहल-ए-महफ़िल परेशान हों और उनकी तवज्जोह बट जाए। समा’ की महफ़िल में बा-वुज़ू और बा-अदब हो कर बैठना चाहिए। जब जिस्मानी थकान की वजह से हुज़ूर-ए-क़ल्ब कम होने लगे और नींद या जमाई आने लगे तो महफ़िल से उठकर चले जाना चाहिए। जितनी देर भी बैठे सर झुका कर इस तरह बैठे कि जैसे किसी सोच में मुसतग़रक़ हो, ताली बजाए नाचे कूदे, कोई ऐसी हरकत करे जिससे बनावट या रिया-कारी की बू रही हो। हाँ अगर बिला-इख़्तियार वज्द जाए और उस का इज़हार हो जाए तो उस में कोई हरज नहीं क्यूँकि क़ल्ब की कैफ़ियत को ज़ियादा रोकने से भी नुक़्सान का ख़तरा हो सकता है।

    रिवायत है कि हज़रत जुनैद बग़दादी रहमतुल्लाह ’अलैह का एक जवान-उल-’उम्र मुरीद जब कोई ज़िक्र सुनता तो बे-इख़्तियार वज्द में जाता। हज़रत जुनैद बग़दादी ने उस को अपने आप पर क़ाबू रखने की तलक़ीन फ़रमाई। उस नव-जवान ने अपने शैख़ की नसीहत पर ’अमल करने की कोशिश की, लेकिन क्यूँकि उस की विजदानी कैफ़ियत में तसन्नो’का कोई दख़्ल नहीं था, इसलिए ज़ब्त करना मुश्किल हो गया। अपनी उसी कैफ़ियत को ज़ब्त करने की कोशिश में अक्सर उस के हर बाल से पानी के क़तरात टपकने लगते। एक रोज़ वो अपनी बे-साख़्ता कैफ़ियत पर क़ाबू नहीं पा सका और एक ज़बर-दस्त चीख़ के साथ उस की रूह परवाज़ कर गई।

    वज्द की ये कैफ़ियत रुहानी परवाज़ की इंतिहा पर होती है जहाँ से लौटना अक्सर मुश्किल हो जाता है। हज़रत क़ुतुबुल-अक़्ताब हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी का विसाल भी समा’ में आए विज्दानी कैफ़ियत में हुआ। जिसका बड़ा मशहूर वाक़ि’आ है कि एक रोज़ आप हज़रत ’अली सिज्ज़ी रहमतुल्लाह ’अलैह की ख़ानक़ाह में महफ़िल-ए-समा’ में तशरीफ़ रखते थे कि क़व्वालों ने अहमद जाम का ये कलाम पढ़ना शुरू’ किया।

    मंज़िल-ए-’इश्क़त मकाने दीगर अस्त

    मर्द-ए-ईं रह रा निशाने दीगर अस्त

    जब क़व्वाल इस शे’र पर पहुँचेः

    कुश्तगान-ए-ख़ंजर-ए-तस्लीम रा

    हर ज़माँ अज़ ग़ैब जाने दीगर अस्त

    आप पर रिक़्क़त तारी हुई और तीन रोज़ तक आप पर यही विज्दानी कैफ़ियत रही और इसी हालत में आपने विसाल फ़रमाया।

    हज़रत क़िब्ला नियाज़ बे-नियाज़ के जा-नशीन-ए-दोयम हज़रत सिराजुस्सालिकीन शाह मुहिउद्दीन अहमद ’उर्फ़ नन्हे मियाँ साहब क़िब्ला क़ुद्दिसा सिर्रह-उल-’अज़ीज़ एक बार महफ़िल-ए-समा’ में तशरीफ़ रखते थे कि क़व्वाल ने ये शे’र पढ़ना शुरू’ कियाः

    बाशद ईमान-ए-मुसलमाँ मुस्हफ़-ए-रू-ए-’अली

    सज्दगाह-ए-मास्त मेहराब-ए-दो अब्रू-ए-’अली

    इस शे’र की तकरार पर आपके क़ल्ब की कैफ़ियत बदलती चली गई और उसी कैफ़ियत में आपने अपना सर सज्दा में रखा और फिर वो सज्दा सज्दा-ए-आख़िर साबित हुआ और वहीं अप का विसाल हो गया।

    चिश्तिया सिलसिला की तमाम ख़ानक़ाहों में कम-ओ-बेश इन आदाब का लिहाज़ रखा जाता है। क़ुतुब-ए-’आलम मदार-ए-आ’ज़म हज़रत शाह नियाज़ अहमद क़ुद्दिसा सिर्रह-उल-’अज़ीज़ ने अपनी ख़ानक़ाह में जो आदाब-ए-समा’ राइज किए वो आज भी क़ाइम हैं। ख़ानक़ाह-ए-नियाज़िया में जो महाफ़िल-ए-समा’ होती हैं उनमें किसी तरह की तसन्नो’, बनावट या ना-ज़ेबा हरकात की इजाज़त बिलकुल नहीं होती। सभी मुरीद-ओ-सामि’ईन हज़रात बा-वुज़ू अदब के साथ साहिब-ए-सज्जादा की सर-परस्ती में समा’ में बैठते हैं और ’इबादत की तरह से पूरी तवज्जोह और हुज़ूर-ए-क़ल्ब के साथ समा’ की रुहानी कैफ़ियत से महज़ूज़ होते हैं। और अपने क़ल्ब को ’इश्क़-ए-इलाही से लब-रेज़ कर के उठते हैं। समा’ को ज़ियादा तूलानी करना भी आदाब-ए-समा’ को क़ाइम रखने में मंफ़ी साबित होता है। समा’ उतनी ही देर सुनना चाहिए जब तक इन आदाब को मलहूज़ रख सके। रात-भर क़व्वाली करना,मेले की शक्ल इख़्तियार कर लेता है और वो अहमियत-ए-हुज़ूर-ए-क़ल्ब ख़त्म हो जाती है।

    इन तमाम आदाब के साथ समा’ सुनना ही मुबाह और मुस्तहब होने की हद में आता है। तमाम अहल-ए-तसव्वुफ़ हज़रात को अपने मुरीदीन-ओ-मुतवस्सिलीन को इन आदाब की तलक़ीन करना चाहिए और इस पर ’अमल-पैरा हो कर मिसाल पेश करना चाहिए।

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