आगरा में ख़ानदान-ए-क़ादरिया के अ’ज़ीम सूफ़ी बुज़ुर्ग
आगरा की सूफ़ियाना तारीख़ उतनी ही पुरानी है जितनी ख़ुद आगरा की।आगरा श्री-कृष्ण के दौर से ही मोहब्बत और रूहानियत का मर्कज़ रहा लेकिन मुस्लिम सूफ़ियाना रिवायत की इब्तिदा सुल्तान सिकंदर लोदी से होती है, जिसने आगरा को दारुल-सल्तनत बना कर अज़ सर-ए-नै ता’मीर किया। ये रौनक़ अकबर-ए-आ’ज़म और शाहजहाँ तक आते आते दो-बाला हो गई। वैसे तो पूरे हिंदुस्तान में सूफ़िया उस अ’हद में हुए हैं लेकिन आगरा के लिए ये दौर सबसे सुनहरा दौर था । सिलसिला-ए-क़ादरिया के बड़े बड़े बुज़ुर्ग जिसमें अमीर सय्यिद इ’स्माईल क़ादरी ,हज़रत सय्यिद शाह रफ़ीउ’द्दीन मुहद्दिस क़ादरी (954) हिज्री, मीर सय्यिद जलालुद्दीन क़ादरी (983) हिज्री),हज़रत ग़ौस ग्वालियारी-ओ-फ़र्ज़ंद-ए-ज़ियाउद्दीन क़ादरी शत्तारी 1005 हिज्री, सय्यिद अ’ब्दुल क़ादिर बुख़ारी 1050 हिज्र, मीर सय्यिद अ’ब्दुल्लाह तबरेज़ी मुशकीं क़लम 1035 हिज्री शामिल हैं। ये तमाम आगरा को हुज़ूर ग़ौस-ए-आ’ज़म का फ़ैज़ बख़्शते रहे। फिर वो दौर भी आया कि आगरा से दारुल-सल्तनत दिल्ली हो गया और दिल्ली में ही बुज़ुर्गों क क़ियाम रहने लगा।
आगरा सूफ़िया से तो नहीं लेकिन नज़रों से ज़रूर दूर हो गया ।मुग़लों का ज़वाल, मराठों की हुकूमत और जाटों के हमलों ने आगरा और आगरा वालों को बहुत मायूस कर दिया। फिर 1857 ई’स्वी और 90 साल बा’द1947 में धीरे-धीरे शहर के शुरफ़ा-ओ-नुजबा जाते रहे लेकिन हज़रत सय्यिद अमजद अ’ली शाह के दादा हज़रत इब्राहीम क़ुतुब मदनी ने जो सिलसिला-ए-क़ादरिया का दरख़्त लगाया था वो हुज़ूर ग़ौस-ए-आ’ज़म की रुहानी तवज्जुह से सय्यिद अमजद अ’ली शाह और उनके ख़ानदान में लगातार बढ़कर क़ादरी सिलसिला की रूहानियत से ख़ल्क़-ए-ख़ुदा को छावँ देता रहा है। सय्यिद मुज़फ़्फ़र अ’ली शाह ईलाही आपके नबीरा-ए-सिब्त हैं और हज़रत सय्यिद मोहम्मद अ’ली शाह मयकश अकबराबादी भी आपके नबीर-ए-चहारुम हैं। गोया सय्यिद शैख़ अमजद अ’ली शाह क़ादरी हज़रत मयकश के दादा के दादा हैं।
हज़रत सय्यिद अमजद अ’ली शाह क़ादरी का ख़ानदानी पस-मंज़र:
हज़रत नसबन जा’फ़री सादात में से हैं। आपके जद्द हज़रत सय्यिद इब्राहीम मदनी क़ादरी आस्ताना-ए-सरवर-ए-काएनात हुज़ूर सरकार-ए-दो-आ’लम सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम के मुजाविर और शैख़-ए-वक़्त थे। ये हुसैनी ख़ानदान अपने इ’ल्म-ओ-अ’मल तक़्वा-ओ-परहेज़-गारी के लिए मशहूर था। आपका नसब पच्चीस वासतों से हज़रत इस्हाक़ मोहतमन इब्न-ए-इमामुल-मुस्लिमीन जानशीन-ए-रसूल हज़रत इमाम जा’फ़र सादिक़ तक पहुंचता है।
हज़रत सय्यिद इब्राहीम क़ुतुब मदनी जा’फ़री साहिब हुज़ूर सल्लल्लाहु अ’लैहि-व-सल्लम के हुक्म पर अपना महबूब शहर छोड़कर तब्लीग़-ए-दीन और हुक्म-ए-रसूल की तकमील में हिन्दुस्तान आ गए। गुजरात के रास्ते होते हुए आगरा आए। इसी शहर को अपना मस्कन बनाया जो उस वक़्त हिन्दुस्तान का दारुल-हुकूमत था नीज़ ये आगरा का सुनहरा दौर भी ।या’नी अ’ह्द-ए-जहाँगीर सलीम इब्न-ए-शहनशाह-ए-अकबर का अ’ह्द जो उस वक़्त दुनिया की सबसे ताक़तवर और ख़ुश-हाल रियासत होने के साथ साथ नज़्म-ओ-अतवार में इंतिहाई नफ़ीस हुकूमत थी।अंग्रेज़ मुवर्रिख़ों के मुताबिक़ सबसे बड़ी इकॉनोमी थी। बहर-हाल हज़रत ने दरबार-ए-शाही से किसी तरह का कोई राबता क़ाएम नहीं फ़रमाया न कभी इल्तिफ़ात की नज़र डाली। यही सूफ़िया का तरीक़ अव्वल रोज़ से रहा है। अलबत्ता जहाँगीर का एक सिपहसालार ख़ान जहाँ लोधी आपकी शोहरत सुनकर मो’तक़िद हुआ और हल्क़ा-ए-मुरीदीन में शामिल हो गया ।एक मस्जिद और हवेली आपके लिए ता’मीर कराई जिसमें क़ुतुब-ख़ाना और मदरसा भी था। ये जगह जहाँ आगरा में पहले लोधी ख़ान का टीला कहलाती थी, अंग्रेज़ों के ज़माने में उस इ’लाक़े का नाम फ़िरिगंज पड़ गया जो शहर के बीच में वाक़े’ है।
हज़रत सय्यिद अमजद अ’ली शाह के वालिद हज़रत सय्यिद अहमदुल्लाह क़ादरी के ज़माने तक यहीं से सिलसिला-ए-रुश्द-ओ-हिदायत चलता रहा फिर वो अपने उस्ताद मौलाना शाह आ’दिल साहिब के पास तशरीफ़ ले आए जहाँ एक मस्जिद-ओ-मदरसा में दर्स-ओ-तदरीस का सिलसिला जारी फ़रमाया ।ये जग शाही मस्जिद और मदरसा-अफ़ज़ल ख़ाँ के नाम से मशहूर थी। अब ‘‘पंजा मदरसा’’ कहलाता है ।यहीं हज़रत शाह आ’दिल का मज़ार भी शाही मस्जिद के सहन में है। उस के सामने हज़रत अहमदुल्लाह क़ादरी का मज़ार भी एक ऊंचे चबूतरे पर है।
हज़रत सय्यिद अमजद अ’ली शाह ने अपने वालिद से तर्बीयत-ओ-ता’लीम हासिल करने के बा’द हज़रत मोहम्मद क़ादरी साहिब अपने ससुर से उ’लूम-ए-मख़्फ़ी हासिल किए जो हज़रत सय्यिद रफ़ीउ’द्दीन सफ़वी गिलानी मुहद्दिस की औलाद में से थे ।सय्यिद रफ़ीउ’द्दीन सिलसिला-ए-क़ादरिया के मशहूर शैख़ और हिन्दुस्तान के मा’रूफ़ आ’लिम-ए-दीन-ओ-मुहद्दिस हैं। आप सनद-ए-हदीस में इब्न-ए-हजर अ’स्क़लानी के दो वासतों से शागिर्द हैं।
सिलसिला-ए-नक़्शबंदिया चिश्तिया में पहले हज़रत को मौलाना ज़ियाउद्दीन बल्ख़ी से बैअ’त-ओ-ख़िलाफ़त हासिल थी। मौलाना ज़ियाउद्दीन बल्ख़ी ने ही विसाल से क़्ब्ल फ़रमाया था अब तुम्हें हज़रत ग़ौस-ए-पाक के साहिब-ज़ादे से मिलेगा जो अ’नक़रीब तशरीफ़ लाएँगे और मदार-ए-फ़ुक़रा उनकी ज़बान पर होगा।
इ’ल्म :
दर्स-ओ-तदरीस का शौक़ और इ’ल्म का मैलान हद दर्जा मौजूद था। इ’ल्म-ए-मा’क़ूल-ओ-मंक़ूल में दर्जा-ए-कमाल हासिल था। वक़्त के बड़े उ’लमा से ता’लीम-ओ-तर्बियत हासिल की। इ’ल्म-ए-उसूल-ए-तफ़्सीर और इ’ल्म-ए-हदीस-ओ-फ़िक़्ह में सनद हासिल थी। तसव्वुफ़ में इस दर्जा मह्व थे के बा’द के ज़माने में तसव्वुफ़ हर इ’ल्म पर ग़ालिब आ गया था। अक्सर मह्विय्यत और बे-ख़ुदी तारी रहती थी।
हम-अ’स्र:
हुज़ूर क़ुतुब-ए-आ’लम शाह नियाज़-ए-बे-नियाज़ से आपको ख़ास मोहब्बत और रब्त था ।क़स्र-ए-आ’रिफ़ां में है कि आपसे मुलाक़ात का शरफ़ भी हासिल हुआ। सिलसिला-ए-क़ादरी में दाख़िल होने और हुज़ूर शाह बग़्दादी साहिब से बैअ’त होने के बा’द तरीक़त का रिश्ता और क़रीब हो गया था।
शाह अ’ब्दुल अ’ज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी से भी ख़त-ओ-किताबत का सिलसिला क़ाएम रहा।
शाह मोहम्मदी “बेदार’’ अकबराबादी फ़ारसी के मा’रूफ़ शाइ’र और हज़रत फ़ख़्रुद्दीन फ़ख़्र पाक के ख़लीफ़ा थे ।हज़रत अमजद अ’ली शाह साहिब ने आपकी एक ग़ज़ल पर तज़मीन कही है जो दीवान में शामिल है। ये हज़रत के बहुत अ’ज़ीज़ और मुख़्लिस रुफ़क़ा में से थे। अक्सर मुलाक़ात का सिलसिला रहता था।
‘बज़्म-ए-आख़िर में मुफ़्ती इंतिज़ामुल्लाह शहाबी ने लिखा है कि आगरा में उर्दू का पहला मुशाइ’रा हज़रत मौलाना अमजद अ’ली शाह साहिब ने ही कराया था, जिसमें असदुल्लाह ग़ालिब और नज़ीर अकबराबादी भी शरीक हुए थे। इस से मा’लूम होता है कि हज़रत के हल्क़ा-ए-क़ुर्बत में आ’लिम, अदीब और सूफ़िया सब ही शामिल थे। शाह अकबर दानापुरी साहिब के दादा-ओ-पीर हज़रत क़ासिम अबुल-उ’लाई साहिब ने भी अपनी तहरीरों में हज़रत का ज़िक्र किया है।
अनवारुल-आ’रिफ़ीन में मोहम्मद हुसैन मुरादाबादी ने ,हज़रत सय्यिद अनवारुर्रहमान बिस्मिल साहिब ने सादात-ए-सूफ़िया में, क़स्र-ए-आ’रिफ़ां में मोहम्मद रहमान चिश्ती साहिब ने ,गुलशन-ए-बेख़ार में मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता ने, नग़मा-ए-अं’दलीब में हकीम ग़ुलाम क़ुतुबुद्दीन ख़ान बातिन ने, सवानिह-ए-उ’मरी ग़ौस-ए-पाक में मुफ़्ती इंतिज़ामुल्लाह सिद्दीक़ी ने, तज़्किरातुल-इलाही में मौलाना अबुल-हसन फ़रीदाबादी ने, यादगार-ए-शो’रा में मिस्टर इसपरिंगर ने ,नसब-ए-मा’सूमी में हकीम मा’सूम अ’ली ने, तारीख़-ए-मशाइख़-ए-क़ादरिया में डॉक्टर यहया अंजुम ने,फ़र्ज़ंद-ए-ग़ौस-ए-आ’ज़म में हज़रत सय्यिद मोहम्मद अ’ली शाह साहिब मयकश अकबराबादी ने मुफ़स्सल ज़िक्र फ़रमाया है।
सिलसिला-ए-क़ादरिया में बैअ’त:
हज़रत अमजद अ’ली शाह साहिब ख़ुद तहरीर फ़रमाते हैं जब फ़र्ज़द महबूब-ए-सुबहानी हज़रत शाह अ’ब्दुल्लाह बग़्दादी क़ादरी आगरा तशरीफ़ लाए और मुहल्ला ताज-गंज में क़ियाम फ़रमाया तो मैं हाज़िर-ए-ख़िदमत हुआ और क़दम-बोस हुआ। हज़रत ने मेरा सर अपने सीने से लगा लिया और मज्मा’-ए-कसीर में फ़रमाया मेरे बेटे अमजद अ’ली मैं आगरे में अपने जद्द हज़रत ग़ौस-ए-आ’ज़म के हुक्म से इसलिए आया हूँ कि तुम्हें ख़िर्क़ा-ए-बुज़्रगान,कुलाह-ए-इ’ल्म और ख़िलाफ़त इ’नायत करूँ। मैं हज़रत ग़ौस-ए-पाक के हुक्म की इत्तिबा’ में यहाँ तक पहुंचा हूँ। तुम्हें मुबारक हो कि ये दौलत बे-मांगे मिल रही है। ये सुनकर ख़ुशी की हद न रही और मुझ पर एक बे-ख़ुदी तारी हो गई। जब मुझे होश आया तो मैंने अ’र्ज़ किया कि ऐ मेरे आक़ा कमज़ोर च्यूँटी से पहाड़ का बोझ कैसे बर्दाश्त होगा ।हज़रत ने तबस्सुम फ़रमाया और इर्शाद फ़रमाया वल्लाहु ग़ालिबुन अ’ला अम्रिहि व-लाकिन्ना अक्सरन्नासि ला-या’लमून(क़ुरआन)।
ये मन्सब मेरे जद्द हज़रत ग़ौस-ए-आ’ज़म ने तुम्हें इ’नायत फ़रमाया है ।मेरे हाथ से लो और क़ुदरत-ए-क़ादरिया का तमाशा देखो।हज़रत ग़ौस-ए-पाक ने एक दुज़्द-ए-रू-सियाह को एक नज़र में क़ुतुब-ए-वक़्त बना दिया था। तुम तो शरीफ़-ए-क़ौम और साहिब-ए-इ’ल्म हो। सय्यिद हो और दरवेशों से निस्बत रखते हो ।तुम्हारे वालिद भी इसी सिलसिले से तअ’ल्लुक़ रखते थे। अगर तुम्हें अपनी शफ़क़त की वजह से इस नेअ’मत से नवाज़ा गया तो क्या बई’द है। फिर ग्यारवीं के दिन मुझे तलब फ़रमाया और शुरफ़ा ,नुजबा और मशाइख़ के एक बड़े मज्मा’ के सामने अपने हाथ से मुझे ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त पहनाया और अपने सर-ए-मुबारक की कुलाह मेरे सर पर रखी और इ’ल्म-ए-क़ादरी और ख़िलाफ़त-नामा जो मेरे पास मौजूद है, अ’ता फ़रमाया। और मुरीदों को हुक्म दिया कि इनको मेरा क़ाएम-मक़ाम और नायब समझते हुए हर महीने की ग्यारवीं और ख़ासकर बड़ी ग्यारवीं की फ़ातिहा में इनके मुआ’विन रहें और मेरे जद्द की नियाज़ उनको पहुचाएँ। बाल-बराबर इनके हुक्म से इन्हिराफ़ न करें। जो कोई इनके ख़िलाफ़ होगा वो मेरे और मेरे जद्द-ए-बुज़ुर्ग-वार के ख़िलाफ़ है। बहरामपुर में तलब फ़रमा कर इ’ल्म और ख़िलअ’त-ए-ख़ास अ’ता फ़रमाई। हज़रत अमजद अ’ली शाह साहिब आख़िरी वक़्त तक अपने शैख़ हुज़ूर बग़्दादी साहिब के पास हाज़िर होते रहे और रुहानी ता’लीम में हज़रत की नज़र-ए-करामत से मुस्तफ़ीज़ होते रहे।
हज़रत शैख़ मौलवी अहमद अ’ली चिश्ती ख़ैराबादी क़स्र-ए-आ’रिफ़ाँ में तहरीर करते हैं:
एक दिन हज़रत सय्यिद अपने हुज्रा-ए-ख़ास में तशरीफ़ फ़रमा थे और आपका ख़ादिम आपके दर्वाज़े पर खड़ा था। मौलवी अमजद अ’ली साहिब उस वक़्त रात का ज़िक्र कर रहे थे। रात निस्फ़ गुज़र गई थी कि आपके दिल में अचानक अपने पीर-ओ-मुर्शिद की ज़ियारत का शौक़ पैदा हुआ ।बे-क़रार हो कर हुज़ूर सय्यिद साहिब के हुज्रे की तरफ़ दौड़े आए।ख़ादिम ने रोका मगर आपने परवाह न की और हुज्रे के अंदर चले गए। देखा कि दो हम-शक्ल बुज़ुर्ग़ एक ही मुसल्ले पर तशरीफ़ फ़रमा हैं। दोनों की नूरानी शक्ल और चेहरों पर जाह-ओ-जलाल देखकर मौलवी अमजद अ’ली हैरान रह गए।ख़ामोश हो कर अदबन खड़े हो गए। बड़ी मुश्किल से कुछ देर बा’द अपने आपको हुज्रे से बाहर लाए ।सुब्ह हुई तो हज़रत ने फ़रमाया मौलवी साहिब रात तुमने जनाब-ए-ग़ौस-ए-पाक की ज़ियारत की है।अ’र्ज़ की या हज़रत मुझे तो दोनों शक्लें आपकी दिखाई दी थीं। मैं एक दूसर में फ़र्क़ नहीं कर सका ।मुझे ये भी मा’लूम नहीं हो सका कि आप कौन थे और हुज़ूर ग़ौसुल-आ’ज़म कौन थे। मैं रो’ब-ओ-जलाल की वजह से न क़दम-बोसी कर सका और न ही डर की वजह से कुछ इल्तिजा कर सका।आपने फ़रमाया इंशा-अल्लाह कुछ अ’र्सा बा’द तुम्हें क़दम-बोसी और इल्तिजा करने की सआ’दत हासिल हो जाएगी। ज़रा कुछ अ’र्सा रियाज़त करना होगी ।हमारे जद्द-ए-अमजद हज़रत ग़ौस-ए-आ’ज़म की शक्ल-ओ-सूरत हमसे मुशाबिह है। मौलवी साहिब एक अ’र्सा तक रियाज़त करते रहे।एक दिन आपने फ़रमाया मौलवी साहिब आज रात के आख़िरी हिस्से में हमारे हुज्रे में चले आना ,कोई ख़ादिम तअ’र्रुज़ नहीं करेगा।आप हुज्रे के दर्वाज़े पर पहुँचे ।दर्वाज़ा ख़ुद ब-ख़ुद खुल गया। अंदर गए दोनों हज़रात की ज़ियारत हुई और दोनों को पहचान कर हर एक की दस्त-बोसी अ’लाहिदा अ’लहिदा की, और क़दमों में दो-ज़ानू हो कर बैठ गए। बे-पनाह नेअ’मत हासिल हुई ।(सफ़्हा 374,375 )
इ’श्क़-ए-अहल-ए-बैत:
सय्यिद और सूफ़ी बातिनी शख़्सियत का एक ख़ास्सा ये भी हुआ करता है कि अल्लाह उस के दिल में अहल-ए-बैत की फ़ितरी और ख़ासी मोहब्बत होती है। हज़रत सय्यिद अमजद अ’ली शाह साहिब जद्द-ए-बुजु़र्ग-वार का ख़ून ही मुस्तफ़वी, हैदरी ,हसनी हुसैनी था। तो ये मुम्किन कहाँ था के आपका दिल मोहब्बत-ए-अहल-ए-बैत से ख़ाली होता ।इ’श्क़-ए-अहल-ए-बैत में सरशार रहते ।अमीरुल-मुमनीन हज़रत इमाम अली की शान में फ़रमाते हैं:
सुल्ताँ निशान-ए-हर दो-जहाँ मुर्तज़ा अ’ली
अस्ल-ए-वजूद-ए-कौन-ओ-मकाँ मुर्तज़ा अ’ली
है अ’ली की दोस्ती अमजद अ’ली मोमिन पर फ़र्ज़
वक़्त-ए-रुख़्सत ये सुख़न मुर्शिद मुझे फ़रमा गया
हर किसी को अहल-ए-आ’लम बीच है जाए-पनाह
या अ’ली अमजद अ’ली को है तुम्हारा आस्ताँ
हज़रात-ए-हसनैन-ए-करीमैन अ’लैहिस सलाम की मद्ह में फ़रमाते हैं:
गुल-ए-हुब्ब-ए-हुसैन-ओ-हम हसन दारद दिल-ए-पुर-ख़ूं
बिया असग़र तमाशा कुन बहार-ए-सहन-ए-बाग़म रा
दर मद्ह-ए-हज़रत-ए-आ’ज़म …
अस्सलाम ऐ शह-ए-जीलाँ-ओ-अमीर-ए-अ’रबी
जुज़ ज़ात-ए-शरीफ़-ए-तू ब-ईं ख़ुश-लक़बी
क़ादिर तुई दाना तुई मुश्किल-कुशा सरवर तुई
इब्न-ए-हसन सफ़्दर तुई या ग़ौसुल-अ’ज़म अल-गग़ियास
मुहर्रम की बड़े नज़्र शहर में आप ही की तरफ़ से हुआ करती थी। इसमें कसीर ता’दाद में लंगर तक़्सीम किया जाता और महाफ़िल मुन्अ’क़िद होतीं। उन दिनों आपकी कैफ़िय्यत अ’जीब हो जाया करती थी।
अक्सर ख़ल्वत में ही रहते। आपने वसीयत में भी मुहर्रमुल-हराम के लंगर और नज़्र के एहतिमाम का हुक्म फ़रमाया।
मस्लक:
साहिबान-ए- तसव्वुफ़ की तरह आपका नज़रिया भी वह्दतुल-वजूद ही था। एक मक्तूब में जो हज़रत शाह मोहम्मदी बेदार देहलवी के नाम है, फ़रमाते हैं।
जुज़ ज़ात-ए-ख़ुदा दरीं जहाँ नीस्त
वल्लाह बिल्लाह दरीं गुमाँ नीस्त
बे-शक्ल-ओ-ब-शक्ल-ए-उस्त आ’लम
बे-शुबहा-ओ-ब-शुबहा उस्त आदम
( सफ़्हा नंबर136 ،अज़ दीवान-ए-उर्दू फ़ारसी अ’जाइब-ओ-ग़राईब-ए- सय्यिदद अमजद अ’ली शाह क़ादरी)
इन अशआ’र से अहल-ए-इ’ल्म-ओ-दानिश ब-ख़ूबी अंदाज़ा लगा सकते हैं कि ये ख़ास शैख़ अकबर इब्न-ए-अ’रबी का नज़रिया वहदतुल-वजूद है। ये सुफ़ियाना ता’लीमात का जुज़ भी है ।इस पर आपका पूरी ज़िंदगी अ’मल भी रहा।
अहल-ए-सुन्नत, हनफ़ीउल-मश्रब, श’रीअ’त के सख़्ती से पाबंद और फ़िक़्ह के बारीक रम्ज़-शनास, सुन्नत-ए-रसूल के पाबंद, क़ुरआनी हुसूल के दिल-दादा, तरीक़त को कभी श’तरीअ’त की ढ़ाल नहीं बनाया ,बल्कि हमेशा श’रीअ’त के बुनियादी उसूलों की पाबंदी से तक़्वा-ओ-ज़ोह्द-ओ-वरा’ और इस्तिक़ामत की मनाज़िल तय कीं।
अख़लाक़ः
इन्किसारी,हिल्म-ओ-बुर्दबारी, इन्सान-दोस्ती के कई मिसाली वाक़ेआ’त अपकी रोज़-मर्रा की ज़िंदगी में वारिद होते थे। मिस्कीनों, ग़रीबों पर इंतिहाई शफ़ीक़ थे। सादगी को तर्जीह देते। नफ़ासत-पसंद थे। अल-ग़र्ज़ एक रोज़ आपके शैख़ हुज़ूर बग़्दादी साहिब ने आपको कशकोल जो पानी से भरा था ले जाते देखा तो फ़रमाया, अमजद अ’ली “फ़क़्र में फ़ख़्र इख़्तियार करो ।हुक्म की ता’मील में आपने ज़ाहिरन शाहाना तर्ज़-ए-ज़िंदगी अपना ली। दिल में आख़िर तक क़लंदराना ‘ख़ू’ रही। आपकी ख़ानक़ाह से हज़ारों लोग खाना खाते और दुआ’ करते। अपनी हाजात बर लाते थे
।एक दीवान और चंद तहरीरें आपकी याद-गार हैं जिसमें चार क़साइद हज़रत इमाम अ’ली मुर्तज़ा पर, तीन हुज़ूर ग़ौस-ए-पाक पर और एक एक हज़रत बहाउद्दीन नक़्शबंदी रहमतुल्लाह अ’लैह और हज़रत ज़ियाउद्दीन बल्ख़ी रहमतुल्लाह अ’लैह पर ,251 के क़रीब उर्दू ग़ज़लें भी शामिल हैं। इस के अ’लावा पूरा दीवान फ़ारसी में है जो2413 फ़ारसी अश्आ’र,915 उर्दू अश्आ’र जिसमें एक मस्नवी क़ित्आ’त44 रुबाइ’यात,14 क़साइद पर मुश्तमिल है।1266 हिज्री में जाम-ए-जमशेद आगरा से शाए’ हुआ।
(सफ़्हा नंबर188 ,किताब हज़रत ग़ौसुल-आ’ज़म सवानिह-ओ-ता’लीमात मआ’ तज़्किरा-ए-फ़र्ज़ंद-ए-ग़ौसुल-आ’ज़म रहमतुल्लाहि अ’लैह, मुसन्निफ़ हज़रत सय्यिद मोहम्मद अ’ली शाह मयकश अकबराबादी रहमतुल्लाहि अ’लैह)।
आपके ख़ुलफ़ा-ओ-मुरीदीन की ता’दाद हज़ारों से मुतजाविज़ हैं । सिलसिल-ए-क़ादरिया में हिन्दुस्तान के मशहूर-ओ-मा’रूफ़ बुज़ुर्ग हैं जिनसे अब तक रुहानी फ़ैज़ जारी है। सज्जादा-नशीन दरगाह हज़रत सय्यिद अजमल अ’ली शाह जा’फ़री क़ादरी नियाज़ी आपके सिलसिला-ए-नसब में छट्टी पीढ़ी और मौजूदा वक़्त में आपके क़ाएम-मक़ाम और जानशीन-ए-नसबी-ओ-बातिनी हैं।
हर साल दो तारीख़ को रबीउ’ल-अव्वल में हज़रत का उ’र्स होता है।
2 रबीउ’ल-अव्वल 1230 हिज्री को विसाल फ़रमाया।
लौह-ए-मज़ार पर ये तारीख़ कंदा है:
आ’रिफ़-ए-कामिल वली इब्न-ए-वली क़ुतुब-ए-दीं
आ’लिम इ’ल्म-ए-नबी काशिफ़-ए-राज़-ए-अ’ली
चूँकि ब-जन्नत रसीद जुमला मलाइक ब-गुफ़्त
वाक़िफ़-ए-राह़-ए-ख़ुदा सय्यिद अमजद अ’ली
शज्रा-ए-नसब:
सय्यिद अमजद अ’ली शाह, इब्न-ए-सय्यिद मौलाना अहमदुल्लाह अहमदी इब्न-ए-सय्यिद मौलवी इल्हामुल्लाह इब्न-ए-सय्यिद ख़लीलुल्लाह इब्न-ए-सय्यिद फत्ह मोहम्मद इब्न-ए-सय्यिद इब्राहीम क़ुतुब मदनी इब्न-ए-सय्यिद हसन इब्न-ए-सय्यिद हुसैन इब्न-ए-सय्यिद अ’ब्दुल्लाह इब्न-ए-सय्यिद मा’सूम इब्न-ए-सय्यिद ओ’बैदुल्लाह नजफ़ी इब्न-ए-सय्यिद हसन इब्न-ए-सय्यिद जा’फ़र मक्की इब्न-ए- सय्यिद मुर्तज़ा इब्न-ए-सय्यिद मुस्तफ़ा हमीद इब्न-ए-सय्यिद अ’ब्दुलक़ादिर इब्न-ए-सय्यिद अ’ब्दुस्समद काज़िम इब्न-ए-सय्यिद अ’ब्दुर्रहीम इब्न-ए-सय्यिद मसऊ’द इब्न-ए-सय्यिद महमूद इब्न-ए-सय्यिद हमज़ा इब्न-ए-सय्यिद अ’ब्दुल्लाह इब्न-ए-सय्यिद नक़ी इब्न-ए-सय्यिद अ’ली इब्न-ए-सय्यिद मोहम्मद असदुल्लाह इब्न-ए-सय्यिद यूसुफ़ इब्न-ए-सय्यिद हुसैन इब्न-ए-सय्यिद इस्हाक़ अल-मदनी इब्न-ए-इमामुल-मशारिक़-ओ-मग़ारब इमाम सय्यिद जा’फ़र सादिक़ इब्न-ए- इमाम सय्यिद मोहम्मद बाक़र इब्न-ए-इमाम ज़ैनुल-आ’बिदीन सय्यिद अ’ली बिन सय्यदुश्शुहदा इमाम हुसैन इब्न-ए-अमीरुल-मुमिनीन इमामुल-मुत्तक़ीन सय्यिद अ’ली मुर्तज़ा कर्रमलल्लाहु वजहहु अ’लैहिसस्लाम।
शज्रा-ए-तरीक़त:
इलाही सय्यदु-ख़ल्क़ हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि-व-आलिहि-व-सल्लम
इलाही अमीरुल-मुमिनीन-ओ-इमामुल-वासिलीन सय्यिदिना इमाम अ’ली इब्न-ए-अबी तालिब कर्रमल्लाहु वजहहुल-करीम
इलाही इमाम सय्यिदा शबाब-ए-अह्ल-ए-जन्नत सय्यिदिना हुसैन इलाही सय्यिदिना इमाम अ’ली ज़ैनुल-आ’बिदीन इलाही इमाम सय्यिदिना मोहम्मद बाक़र इलाही इमाम सय्यिदिना जा’फ़र सादिक़ इलाही इमाम सय्यिदिना मूसा काज़िम इलाही इमाम सय्यिदिना अ’ली रज़ा इलाही सय्यिदिना मा’रूफ़ अल-करख़ी इलाही सऊइदिना अल-सर-सक़ती इलाही सय्यिदिना अबी क़ासिम अल-जनअ’द बग़्दादी इलाही सय्यिदिना अबू-बकर शिबली इलाही सयीदिना अ’ब्दुल-वाहिद अत्तमीमी इलाही सय्यिदिना अबी-अल-फ़रह अत्तरतूसी इलाही सय्यिदिना अबी हसन हुँकारी इलाही सय्यिदिना अबी सा’द-अ-ल-मुबारक मख़्ज़ूमी इलाही सय्यिदिना शैख़ुत्तरीक़त-व-मा’दनुश्शरीअ’त-वल-हक़ीक़त हज़रत अल-ग़ौसुल-आ’ज़म अस्सयद शैख़ अ’ब्दुल-क़ादिर अल-गीलानी इलाही सय्यिदिना अ’ब्दुल-अ’ज़ीज़ गिलानी इलाही सय्यिदिना मोहम्मद हत्ताक इलाही सय्यिदिना शम्सुद्दीन इलाही सय्यिदिना शरफ़ुद्दीन इलाही सय्यिदिना ज़ैनुद्दीन इलाही सय्यिदिना वलीउद्दीन इलाही सय्यिदिना नूरुद्दीन इलाही सय्यिदिना दरवेश इलाही सय्यिदिना महमूद इलाही सय्यिदिना अ’ब्दुल जलील इलाही सय्यिदिना अ’ब्दुल्लाह बग़्दादी इलाही सय्यिदिना अमजद अ’ली शाह
(रिज़वानुल्लाहि अ’लैहि अजमई’न)
अर्बाब-ए-तारीख़-ओ-सियर तज़्किरा-निगार की नज़र में
क़ादरिया सिल्सिला के ज़ियदा-तर तज़्किरा में आपका ज़िक्र आसानी से मिल जाता है। उर्दू के क़दीम शो’रा पर लिखी गईं अक्सर किताबों में और ख़ास कर आगरा के सूफ़ी बुज़ुर्ग शो’रा में, आगरा के फ़ारसी शो’रा के उ’न्वान से मुफ़्ती इंतिज़ामुल्लाह शहाबी के मज़मून में भी आपका नाम-ए-नामी इस्म-ए-गिरामी शामिल है। आफ़्ताब-ए-अजमेर में भी तफ़्सीली बयान मौजूद है।
आगरा के फ़ारसी शो’रा
‘‘असग़र अकबराबादी मौलवी सय्यिद अमजद अ’ली शाह मुतवफ़्फ़ी1230हिज्री
आ’शिक़ चीस्त बे-क़रारीहा
ज़ीस्तन दर उम्मीदवारीहा
(शाइ’र आगरा नंबर 1936 जून ,जुलाई सफ़्हा नंबर 71)
जनाब हाफ़िज़ मोहम्मद हुसैन मुरादाबादी
सय्यिदुस्सनद मुहिब्बुल-फ़ुक़रा-वल-ग़ुरबा शैख़ुल-मशाइख़ तरीक़ा-ए-क़ादरी मौलवी अमजद अ’ली इब्न-ए-मौलवी सय्यिद अहमदुल्लाह जा’फ़री हज़रत सय्यिद अ’ब्दुल्लाह बग़्दादी के ख़लीफ़ा-ए-आ’ज़म थे ।उनके तरीक़े के लोग कहते हैं कि हज़रत सय्यिद अ’ब्दुअल्लाह इर्शाद-ए-हज़रत महबूब-ए-सुबहानी की ता’मील में उनकी ता’लीम के लिए बग़दाद से हिन्दुस्तान तशरीफ़ लाए थे। उनका नसब पच्चीस वासतों से हज़रत सय्यिद इस्हाक़ इब्न-ए-इमाम –ए-जा’फ़र सादिक़ तक पहुँचता है।
(अनवारुल-आ’रिफ़ीन सफ़्हा नंबर 598, मतबअ’ मुंशी नवल-किशोर लखनऊ)
हकीम क़ुतुबुद्दीन बातिन ने अपने तज़्किरे में उनका अहवाल क़लम-बंद किया है। उस का ख़ुलासा ये है।
‘‘असग़र-ओ-अमजद तख़ल्लुस मौलवी अमजद अ’ली ख़लफ़-ए- मौलवी अहमदी ज़ेब-ए-जद्द दिल्ली (आगरा),अपने फ़न के उस्ताद थे। हज़रत सय्यिद अ’ब्दुल्लाह साहिब बग़्दादी के अख़स्स-ए-ख़ासान-ए-औलाद-ए-महबूब-ए-सुबहानी से थे।ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त उनके से तन-ए-मुबारक को पैराया-ए-दीगर बाक़ी उ’म्र को बीच फ़क़्र के बसर ले गए। सदहा नाक़िसों के फ़ैज़-ए-अन्फ़ास-ए-मुतबर्रका से इस्तिफ़ादा-ए-कामिल लिया ।अहक़र उन के कलाम से मुस्तफ़ीज़ हुआ और अ’जब लुत्फ़ पाया।बंदगी-ए-वालिद-ए-मरहूम से बहुत रब्त था उनका कलाम उनको ज़ब्त था’’।
(गुलिस्तान-ए-बे-ख़ज़ाँ (नग़्मा-ए-अं’दलीब सफ़्हा नंबर 6,7 / तारीख़-ए-अदब-ए-उर्दू जिल्द दुवाज़्दहुम सफ़्हा नंबर 459,460)
नवाब मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता लिखते हैं:
असग़र तख़ल्लुस सय्यिद अमजद अ’ली अकबराबादी हकीम मोहम्मद मीर के जो मेरे वालिद के दोस्तों में थे बड़े भाई थे ।बुज़ुर्ग ख़ानदान के फ़र्द थे। सय्यिद अ’ब्दुलल्लाह बग़्दादी अलैहिर्रहमा से ख़िलाफ़त हासिल की और इज़्ज़त-ओ-वक़ार और तवर्रो’ के साथ ज़िंदगी बसर की
(गुलशन-ए-बे-ख़ार, सफ़्हा नंबर 81 )
हज़रत सय्यिद अनवारुर्रहमान बिस्मिल जयपुरी नक़्शबंदी बुख़ारी नियाज़ी
आप ख़लीफ़ा-ए-हज़रत सय्यिद अ’ब्दुल्लाह बग़्दादी अकाबिर-ए- औलिया-ए-उम्मत में से थे। असग़र तख़ल्लुस फ़रमाते थे। हज़रत अ’ब्दुल्लाह शाह ब-हुक्म-ए-हज़रत ग़ौस-ए-आ’ज़म आपकी तर्बियत-ए-बातिन के लिए बग़दाद से तशरीफ़ लाए थे। आपके नबीरा सय्यिद मुज़फ़्फ़र अ’ली शाह भी आगरा के मशहूर मशाइख़ में से थे ।आप नसबन सादात-ए-जा’फ़री में से हैं और अब तक सादात-ए-मेवा कटरा का हसब नसब मुसल्लम है। (सादातुस्सूफ़िया सफ़्हा नंबर137)
सीमाब अकबराबादी
‘‘सय्यिद अमजद अ’ली शाह जा’फ़री क़ादरी आपके जद्द-ए-पंजुम क़ुतुबुल-अक़्ताब मौलाना सय्यिद इब्रहीम क़ुतुब मदनी जा’फ़री मदीना मुनव्वरा से ब-अ’ह्द-ए-जहाँगीर आगरा तशरीफ़ लाए। ख़ान जहाँ लोधी जो जहाँगीरी अ’ह्द का मशहूर अमीर था आपका मो’तक़िद और मुरीद था उसने आपके लिए मदरसा,मस्जिद और मकानात अपने महल के क़रीब ता’मीर करा दिए थे ।जिस मक़ाम पर ये मकानात थे वो अब लोधी ख़ाँ का टीला कहलाता है ।आप सय्यिद अ’ब्दुल्लाह बग़्दादी रामपुरी के ख़लीफ़ा-ए-आ’ज़म थे। ,शाइ’री में असग़र तख़ल्लुस फ़रमाते थे। आपका मतबूआ’ दीवान मौजूद है ।1230 हिज्री में आपने वफ़ात पाई। मुहल्ला मदरसा में आपका मज़ार है।
(‘आगरा के सूफ़ी शो’रा,शाइ’र आगरा नंबर, जून1936 सफ़्हा नंबर52’)
डॉक्टर ग़ुलाम यह्या अंजुम (हमदर्द यूनीवर्सिटी,दिल्ली)
“आपको हज़रत सय्यिदिना ग़ौस-ए-आ’ज़म अ’लैहिर्रहमा -वर्रिज़्वान से वालिहाना लगाव था जिसका अंदाज़ा इस जोश-ओ-ख़रोश से होता है जिसका मुज़ाहिरा हर साल ग्यारहवीं के मौक़ा’ से किया करते थे ,आपने इंतिहाई पुर-वक़ार अंदाज़ में ज़िंदगी बसर की ।हर एक छोटे बड़े के दिल में आपका बे-हद एहतिराम था। ज़माना के मो’तबर और मुस्तनद लोगों में आपका शुमार होता था।”
(तारीख़-ए-मशाइख़-ए-क़ादरिया,जिल्द दोउम सफ़्हा 215،216 )
सई’द अहमद मारहरवी ने भी बोस्तान-ए-अख़्यार में हज़रत का ज़िक्र कई मक़ाम पर किया है। सवानिह सफ़ा नंबर50,51,52 पर हालात-ए-ज़िंदगी-ओ-मनाक़िब वग़ैरा ज़िक्र किए हैं।
मुफ़्ती इंतिज़ामुल्लाह शहाबी
महताब-ए-अजमेर ग़रीबनवाज़ में सफ़्हा 106,107,108 में109 में आपके ख़ुलफ़ा और सज्जादा-नशीन-ए-दोउम सय्यिद मुज़फ़्फ़र अ’ली शाह क़ादरी निज़ामी साहिब का ज़िक्र किया है, सफ़्हा नंबर112पर।
ख़ुलफ़ा:
ख़लीफ़ा फ़र्ज़ंद-ए-अकबर-ओ-जा-नशीन-ए-हज़रत-ए-सय्यिद मुनव्वर अ’ली शाह क़ादरी
हकीम सय्यिद नूरुद्दीन क़ादरी
सय्यिद इमामुद्दीन
मौलवी सय्यिद शरीफ़ुद्दीन
सय्यिद इमाम अ’ली
सय्यिद मोहम्मद वकीम
सज्जाद-गान
हज़रत सय्यिद मुनव्वर अ’ली शाह क़ादरी
हज़रत सय्यिद मुज़फ़्फ़र अ’ली शाह क़ादरी फ़ख़्री निज़ामी नियाज़ी
हज़रत सय्यिद असग़र अ’ली शाह क़ादरी नियाज़ी
हज़रत सय्यिद मोहम्मद अ’ली शाह क़ादरी नियाज़ी मयकश अकबराबादी
हज़रत सय्यिद मुअ’ज़्ज़म अ’ली शाह क़ादरी नियाज़ी
हज़रत सय्यिद मोहम्मद अजमल अ’ली शाह क़ादरी नियाज़ी
नमूना-ए-कलाम
मजाज़ से जो हक़ीक़त का हमने काम लिया
बुतों की देख के सूरत ख़ुदा का नाम लिया
सिवा-ए-खून-ए-जिगर के मिली न और शराब
मिसाल-ए-लाला ब-कफ़ जब से हमने जाम लिया
सनम को देख के मेहराब-ए-अब्रू-ए-ख़म-दार
गिरा था सज्दे को पर मुझ को हक़ ने थाम लिया
क़ज़ा के नीचे से छूटा नहीं कोई हर्गिज़
जो सुब्ह उस से बचे तो ब-वक़्त-ए-शाम लिया
अ’जब है फ़क़्र का आ’लम कि हम ने याँ असग़र
ख़ुदी को भूल गए जब ख़ुदा का नाम लिया
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जब हुस्न-ए-अज़ल पर्दा-ए-इम्कान में आया
बे-रँग ब-हर रँग हर एक शान में आया
अव्वल वही आख़िर वही और ज़ाहिर-ओ-बातिन
मज़्कूर यही आयत-ए-क़ुरआन में आया
गुल है वही सुंबुल है वही नर्गिस-ए-हैराँ
अपने ही तमाशे को गुलिस्तान में आया
हुर्मत से मलाइक ने उसे सज्दा किया है
जिस वक़्त की वो सूरत-ए-इन्सान में आया
मुतरिब वही आवाज़ वही साज़ वही है
हर तार में बोला वो हर इक तार में आया
नज़दीक है वो सबसे जहाँ उससे है मा’मूर
जब चश्म खुली दिल की तो पहचान में आया
बे-रँग के रँगों को यहाँ देख ले ‘असग़र’
सौ तर्ह से आ’लम के ब्याबान में आया
—————————-
अ’क़्ल को छोड़ के दिल इ’श्क़ के मैदान में आ
देख ले नूर-ए-ख़ुदा आ’लम-ए-इ’र्फ़ान में आ
वही सूफ़ी है कि मस्जिद में पढ़ेगा नमाज़
जाम पीता है वही मज्लिस-ए-रिन्दान में आ
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