जिक्र-ए-मुबारक ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी
नाम-ए-पाक आपका बख़्तियार और लक़ब क़ुतुबुद्दीन काकी था। आप काज़मी सादात से हैं।ब-तौर-ए-तबर्रुक आपकी करामतों का कुछ हाल क़लम-बंद किया जाता कि नाज़िरीन दाख़िल-ए-हसनात हों।
नक़्ल है कि जब आप पैदा हुए ठीक आधी रात थी। उस वक़्त इस क़दर नूर आप से ज़ाहिर हुआ कि तमाम घर पुर-नूर हो गया। हत्ता की आपकी वालिदा साहिबा को तुलू’-ए-आफ़्ताब का गुमान हुआ। और देखा कि हज़रत क़ुतुबुद्दीन साहब सज्दे में अल्लाह अल्लाह कर रहे हैं। आपकी वालिदा माजिदा हैरान हुईं और डर गईं ।जब आपने सर-ए-मुबारक सज्दे से उठाया तो नूर आहिस्ता आहिस्ता कम हुआ।एक ग़ैबी आवाज़ आई कि ये नूर जो तूने देखा ख़ुदा-वंद-ए-करीम के भेदों में से एक भेद था कि तेरे फ़रज़ंद के दिल में हम ने रख दिया।
मंक़ूल है कि चालीस रोज़ ’अलत्तवातुर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सलल्ललाहु ’अलैहि वसल्लम के बारगाह-ए-’आली से हज़रत ख़्वाजा मु’ईनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह ’अलैह के ख़्वाब में इशारा होता रहा कि ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त क़ुतुबुद्दीन को दे। ख़्वजा बुज़ुर्ग ने हसब-अल-हुक्म ख़िर्क़ा-ए-अक़्दस हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन को मरहमत किया और ख़ल्क़ की रहनुमाई के वास्ते हुक्म फ़रमाया।
नक़्ल है कि आप का लक़ब काकी यूँ मशहूर हुआ कि जब आप देहली में रहने लगे तो किसी से कोई चीज़ नहीं लेते थे और याद-ए-इलाही में मुस्तग़रक़ रहते थे । उन दिनों आपके यहाँ कोई लौंडी ग़ुलाम न था। लेकिन एक मुसलमान शरफ़ुद्दीन नामी दुकानदार बक़्क़ाल आप का हम-साया था। उसकी ’औरत हरम-ए-हज़रत से मोहब्बत रखती थी। औऱ कभी कभी आपके मकान में भी आती। एक वक़्त हज़रत के मकान में कोई चीज़ मौजूद न थी और एक दो फ़ाक़ा हो चुका था। हज़रत की हरम ने शरफ़ुद्दीन की ज़ौजा से कुछ दिरम क़र्ज़ लिए। एक रोज़ बक़्क़ाल की बीबी हज़रत के हरम साहिबा में कहने लगी कि ऐ बीबी अगर हम कुछ क़र्ज़ तुम्हें न दें तो तुम भूके मर जाओ। ये बात हज़रत की बीबी को बुरी लगी और ’अहद किया कि हरग़िज़ कोई चीज़ अब उस से क़र्ज़ न लूँगी। एक रोज़ ये बात हुज़ूर से ’अर्ज़ की। आपने ये बात सुन कर तअम्मुल किया और इर्शाद किया कि शरफ़ुद्दीन की बीबी से कोई चीज़ क़र्ज़ लेना नहीं चाहिए। और ज़रूरत के वक़्त एक ताक़ की तरफ़ इशारा कर के फ़रमाया कि उस में से बिस्मिल्लाह कह के काक निकाल लिया करो और मुत’अल्लक़ीन और जिसको चाहो दिया करो। चुनाँचे वो ताक़ बहुत से काक निकाल लेतीं और तक़्सीम किया करती थीं। चुनाँचे अब तक हज़रत के मज़ार पर काक बिकते हैं और मुसाफ़िर को तक़्सीम किए जाते हैं।
सियर-उल-मशाइख़ में लिखा है कि जब वफ़ात का वक़्त क़रीब पहुँचा तो हज़रत क़ुतुबुद्दीन साहब-ओ-क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी महफ़िल-ए-समाअ’ मे मौजूद थे और क़व्वाल ये बैत पढ़ रहे थे। बैत:
कुश्तगान-ए-ख़ंजर-ए-तसलीम रा
हर ज़माँ अज़ ग़ौब जान-ए-दीगर अस्त
इसके सुनने से ख़्वजा को असर हुआ और मस्त हो गए। चाहा कि ना’रा लगाएं। हज़रत क़ाज़ी हमीदुद्दीन रहमतुल्लाहि ’अलैह ने आपके दहन-ए-मुबारक के आगे दस्त-ए-हक़ परस्त रख दिया और फ़रमाया कि क्या तुम सब जहान को जलाना चाहते हो। हज़रत ख़्वाजा ने दहन-ए-मुबारक बंद कर लिया। आपके जिस्म-ए-अतहर पर आबले पड़ गए और चौदहवीं माह-ए-रबी’-उल-अव्वल सन 635 हिज्री में वफ़ात पाई। मज़ार-ए-मुबारक हुज़ूर-ए-पुर नूर का पुरानी देलही अल-मा’रूफ़ ब-(क़स्बा मेहरौली) में फ़ैज़-बख़्श-ए-’अवाम है।
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