ख़्वाजा इसहाक़ मग़रिबी और कुछ बातें
शैख़पुरा ज़िले के मटोखर शरीफ़ में मौजूद ख़्वाजा इसहाक मग़रिबी की दरगाह बीसवीं सदी तक उन चंद मक़ामात में शुमार होती थी, जिन्हें हुकूमती अनुदान दिलाने की कोशिश में कई आला ओहदे-दारों ने भरसक मेहनत की। अख़्तर ओरेनवी की एक किताब के अनुसार, शहज़ादा अज़ीमुश्शान को भी इस सिलसिले में एक अर्ज़ी भेजी गई थी, मगर शायद उनके नसीब में हज़रत की ख़िदमत नसीब न थी।
ज़मानों बाद, फ़रवरी 2025 में दरगाह और तालाब के सौंदर्यकरण के लिए बिहार की हुकूमत ने तक़रीबन 50 करोड़ रुपये का बजट बनाया है। ख़ैर! आज भी दरगाह अक़ीदत-मन्दों से खचाखच भरी रहती है। लोग चाहे जिस मज़हब से हों, लेकिन ज़ाहिरी तौर पर उनके दिलों को सुकून इसी दरगाह से हासिल हो रहा है।
हज़रत ख़्वाजा इसहाक मग़रिबी के बारे में :- आपका आगमन ईरान के हमदान शहर से हुआ। उस शहर में ख़्वाजा इसहाक के पिता की एक वाटिका थी, उसी वाटिका में काम करने वालों से जुड़ा एक वाक़िया पेश आया। आपके पिता को शायद ग़लत जानकारी दी गई थी। इसके बाद आपने अपना घर, परिवार और वतन त्याग दिया और मख़दूम-ए-जहाँ हज़रत शैख़ शरफ़ुद्दीन अहमद यहया मनेरी की शोहरत सुनकर बिहार शरीफ़ के इलाक़े में पहुचें। मख़दूम-ए-जहाँ की ख़ानकाह में रहे, वहीं से उन्होंने फ़ैज़ हासिल किया और फिर उन्हीं के इशारे पर मटोखर की ज़मीन को अपना रिहाइश-गाह और बाद में आराम-गाह बना लिया।
आपका सिलसिला-ए-बैत, ख़िलाफ़त-ओ-इजाज़त, पैदाइश की जगह और वालिदैन का नाम, ये सब अब तक तारीख़ के गर्द-ओ-गुबार में कहीं दबे पड़े हैं, जो अभी तक पूरी तरह सामने नहीं आ सके हैं। जबकि, डॉ शमीम मुनेमी की माने तो आपके फ़ारसी शेर उच्च कोटि के हैं और विभन्न पुस्तकालय में रखे हुए हैं। उम्मीद है लोग इस पर काम करेंगे और बुज़ुर्ग के लेख को प्रकाशित करने के तरफ़ क़दम बढ़ायेंगे।
ये मुहब्बत पुरानी है, जब मैंने किताब लिखने का इरादा किया, तो सबसे पहले ज़हन में शैख़पुरा शहर के बीच में आराम फ़रमा रहे, बुज़ुर्ग हज़रत मख़दूम शैख़ शोएब फ़िरदौसी बिन जलाल बिन अब्दुल अज़ीज़ बिन इमाम ताज फ़क़ीह का नाम आया। लेकिन उन पर हाल के वक़्तों में कोई मुकम्मल-पुख़ता काम नहीं हुआ और मेरी राय में उन पर एक मुकम्मल किताब तहरीर करने की ज़रूरत थी। सो, फ़िलहाल उसे मुल्तवी कर दिया।
इसके बाद जो शख़्सियत दिल में आई, वो थे ख़्वाजा इसहाक मग़रिबी। इसकी वजह भी अहम है, मुझे आज भी याद है, बचपन में मेरी ज़बान साफ़ नहीं थी। मेरे वालिद-ए-गिरामी सय्यद अहमद हुसैन अज़ीज़ी ने ख़ुदा से आपके वसीले से दुआ की और उसके बाद मेरी ज़बान साफ़ हो गई। बेशक! हम सबका यक़ीन है कि असली देने वाला सिर्फ़ वही ख़ुदा है लेकिन ये शेर यूँ दिल से निकलता है:
निगाह-ए-वली में वो तासीर देखी है
बदलती लाखों की तक़दीर देखी है..
ये शेर मुझ पर पूरा उतरता है। ख़ुदा का करम, आपका वसीला रहा।
हम बचपन से अपने वालिद साहब के साथ आपकी दरगाह पर जाया करते थे। चाहे आम दिन हो, उर्स का मौक़ा हो या फिर जुमा-जुमेरात। एक और वजह ये थी कि मेरे आबाई गाँव से हज़रत सय्यद मोहम्मद एजाज़ अख़्तर क़ादरी जुमेरात के रोज़ मटोखर शरीफ़ में फ़ातिहा पढ़ाने जाया करते थे। निस्बतन मेरी वालिदा उनकी मुरीदा हैं, इसलिए हम भी सय्यद साहब के साथ चल देते थे।
बचपन से ही हमने वो जगह देखी है जहाँ ख़्वाजा इसहाक नमाज़ पढ़ते थे। बाद में उसे एक छोटी सी बाउंड्री में महफ़ूज़ कर दिया गया, क्योंकि कुछ शरारती तत्वों उसे मिटाने की साज़िशों में लगे हुए थे। लेकिन-
क्या दबे जिसपे हिमायत का हो पंजा तेरा
शेर को ख़तरे में लाता नहीं कुत्ता तेरा
आज ख़्वाजा इसहाक का परचम यूँ बुलंद है कि बयान से बाहर है। मैंने इस शान में ये शेर अर्ज़ किया:
ख़ुदा की राह के राही, वली, आशिक़, मुजाहिद थे
कि हर आलम में उनके फ़ैज़ का अब तक उजाला हो
इसी कलाम में एक शेर मोहम्मद नाज़िर रज़ा क़ादरी ने मेरे लिए जोड़ा:
ख़ुदा आबाद रक्खे हज़रत-ए-अमजद का काशाना
कि इनके इल्म से सैराब ये सारा ज़माना हो
आपके मज़ार के सामने एक बड़ा तालाब है, जो वहां के ख़ादिम मोहम्मद शाकिर के बयान के अनुसार तक़रीबन 380 बीघा में फैला हुआ था। मशहूर है कि जिनों (जिन) ने उसे खोदा था, वो भी हज़रत के ज़िक्र करने और पास रहने वाले थे। उसके लिए मैंने ये कहा:
सुबूत-ए-फ़ैज़ देखो तालिबो! तालाब की सूरत
ज़िनों ने खोद डाला वो भी उस के ज़िक्र वाला हो
ख़ैर! मैं ख़्वाजा इसहाक़ मग़रिबी की तारीफ़ में कितना भी लिखूँ, कम है। लेकिन आज इतना कह कर भी दिल को कुछ सुकून मिला:
ये “अमजद” है बशर क्या, ख़ाक भी क़ाबिल नहीं उस के
मगर तौफ़ीक़ हो इतनी कि दर पर आशियाना हो
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