हज़रत मख़्दूमा बीबी कमाल, काको
बिहार में मुसलमानों की आमद से पहले काको में हिन्दू आबादी थी, यहाँ कोई राजा या बड़ा ज़मीं-दार बर-सर-ए-इक़्तिदार था। काको में खुदाई में बरामद होने वाले पुराने टीले और क़दीम ईंटें इस बात की शाहिद हैं। अता काकवी का कहना है की
काको के बहितरे टीले और गढ़ इस बात की गवाही भी देते हैं। काको में पुराने मकानात बनाने के लिए गिराए जाने पर पुरानी इ’मारात की दीवारें और मूर्तियाँ कसरत से बरामद हुईं हैं, जिस से इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यहाँ के रहने वाले बौद्ध मज़हब के पैरो-कार रहे होंगे और महाराजा अशोक के ज़ेर-ए-असर होंगे
बिहार में मुसलमानों की हुकूमत इख़्तियारुद्दीन मोहम्मद बिन बख़्तियार ख़िलजी (Deth Year1207/9) (Time 1192-1204) की फ़ुतूहात से हुई, लेकिन ये भी हक़ीक़त है कि उस हुकूमत से पहले ही बिहार के मनेर शरीफ़ में सूफ़ियों की आमद हो चुकी थी। इमाम मोहम्मद ताज फ़क़ीह ने, काको से 67 Km. पर बसे मनेर पर फ़तह पाई। उन के साथ चंद लोग थे, कहते हैं की उन मे शैख़ अब्दुल क़ादिर जिलानी के भांजे मीर क़ुतुबी अब्दाल, रुकनुद्दीन मीर गिलानी और मीर क़ुतुब सालार रब्बानी अदि थे। मनेर की फ़त्ह की फ़ारसी तारीख़ को दीन-ए-मोहम्मद शुद-क़वी से देखने पर पता चलता है कि यह 576 हिज्री (1180) का हुआ था।
जन्ना चाहिए कि काको में कसरत से सूफ़ी-संत गुज़रे हैं, जिन में मख़दूम शैख़ सुलैमान लंगर-ज़मीन, शाह इज्ज़ काकवी, शाह क़यामुद्दीन, शाह रुकनुद्दीन, सय्यद इब्राहीम ज़िंदा-दिल, सुलैमान सय्याह, शाह मोबारक काकवी और शाह मोहम्मद बिन दरवेश अदि शामिल हैं। इन सभी बुज़ुर्गों के नाम मशहूर नहीं हो पाए, क्योंकि काको को कई मर्तबा आतिश-ज़दगी का सामना करना पड़ा है। इस की वजह से काको के पुराने सफ़ीने बर्बाद हुए है। हम्द काकवी लिखते हिं की
तेरहवीं सदी हिज्री के आख़िर में 2 मई 1874 को सनीचर के दिन और दूसरी बार 17 अप्रैल 1897 को भी सनीचर के दिन काको में ऐसी आग लगी कि सारी बस्ती धूँ-धूँ कर जल उठी। इस आग में काको के लोगों का सारा सरमाया जल कर ख़ाक हो गया
इस आग के बारे में यह कहावत मशहूर है कि - सारा काको जल गया और बीबी कमाल सोई रहीं
काको की प्रसिद्ध महिला सूफ़ी हज़रत मख़्दूमा बीबी कमाल की ज़िंदगी के बारे में कुछ ही बातें मालूम चल पाईं। इस में हम जैसे लोगों की ही ग़लती है कि हम आप की जीवनी को इकट्ठा न कर सके।
आपका नाम बीबी हदिया है और बीबी कमाल के नाम से जानी जाती हैं, लोग इन्हें ‘‘हिंद की राबिआ बसरी’’ भी कहते हिं। आपकी पैदाइश के बारे में सहीह जानकारी दस्तियाब नहीं है। कुछ लोगों का कहना है कि आप की पैदाइश काशग़र (ईरान) में हुई। हम्द काकवी की तहरीर से भी यही बात ज़ाहिर होती है कि हज़रत शहाबुद्दीन पीर जग-जोत काशग़र हुकूमत की मुलाज़मत तर्क कर के अपनी बीवी-बच्चों को साथ लेकर काशग़र से निकले और लाहौर होते हुए बिहार आए। बताते चलें कि आप पीर जग-जोत की ही बेटी हैं। आप की पैदाइश 1204 के आस-पास बताई जाती है। आपकी माँ का नाम बीबी नूर उ’र्फ़ मलिका-ए-जहाँ (सय्यद वजीहुद्दीन की बेटी) है।
शाह अता हुसैन फ़ानी ने अपनी किताब कंज़ुल-उल-अंसाब में आपकी वंशावली इस तरह लिखी है, बीबी कमाल बिंत शहाबुद्दीन पीर जग-जोत बिन मोहम्मद ताजुद्दीन बिन नासिरुद्दीन बिन यूसुफ़ बिन हम्ज़ा बिन हुसैन बिन क़ासिम बिन मूसा बिन हम्ज़ा बिन दाऊद बिन रुक्नुद्दीन बिन क़ुतुबुद्दीन बिन मोहम्मद इस्हाक़ बिन इमाम मोहम्मद जा’फ़र सादिक़ बिन इमाम मोहम्मद बाक़र बिन इमाम ज़ैनुल-उल-आबिदीन बिन इमाम हुसैन बिन इमाम अली मुर्तज़ा।
बीबी कमाल की ‘‘काको’’ में आमद का क़िस्सा मशहूर तो है, लेकिन ऑथेंटिक नहीं। आसार-ए-काको के लेखख लिखते हैं की और न अक़्ल ही उस को तस्लीम करती है कि एक ख़ातून का ऐसे पुर-आशोब दौर में इस तरह सफ़र करना मुम्किन हो सकता है
अक्सर लोगों का सवाल होता है कि बीबी कमाल की काको में तशरीफ़-आवरी कब और क्यों हुई? आपकी तशरीफ़-आवरी के बा’द आपके शौहर शैख़ सुलैमान लंगर-ज़मीन यहाँ तशरीफ़ लाए या आपके साथ ही यहाँ आए थे?
उन के काको आने की तारीख़ की सही जानकारी नहीं मिलती। वाक़िए के मुताबिक जब आप यहाँ तशरीफ़ लाईं, तो मियाने में सवार थीं, जिसे चार मुसलमान कहार उठाए हुए थे। आप के साथ एक उस्ताद शाह मोहम्मद फ़रीद (ये घोड़े पर सवार थे) और एक ख़ादिमा भी थी। यह ख़ादिमा बाद में ‘‘दाई बेगू’’ के नाम से मशहूर हुई। आप के साथ फ़हीम नाम का एक और ख़ादिम था। इन सभी के मज़ारात दरगाह शरीफ़ काको में है।
आपका निकाह इमाम मोहम्मद ताज फ़क़ीह की दूसरी बीवी के बेटे मख़दूम अब्दुल अज़ीज़ मनेरी के बड़े बेटे शैख़ सुलैमान लंगर-ज़मीन से हुई। शैख़ सुलैमान लंगर-ज़मीन मनेर शरीफ़ की महान हस्तियों मे से थे। बा’द में आप दोनों मनेर शरीफ़ से कूच कर के काको आयें। आप को एक बेटे मख़दूम शाह अताउल्लाह और एक बेटी बीबी दौलत उ’र्फ़ कमाल सानी थीं। बीबी दौलत का निकाह मख़दूम हुसामुद्दीन हाँसी हँसारवी से हुआ। इन दोनों के बेटे मख़्दूम ग़रीब हुसैन धक्कड़-पोश मह्सवी (802 हिज्री) थे, जो शैख़ अलाउद्दीन अला-उल-हक़ सुहरवर्दी के ख़लीफ़ा थे। जानना चाहिए की बीबी कमाल के नवासे धक्कड़-पोश और मख़्दूम अहमद चरम-पोश दोनों के गुरु एक, दोनों की सिक्षा एक और उम्र भी एक थी, धक्कड़-पोश मशहूर के ख़लीफ़ा सूफ़ी ज़ियाउद्दीन चन्ढोसी हुए। बीबी कमाल के दामाद शैख़ हुसामुद्दीन और नवासे धक्कड़-पोश का मज़ार महसी, उत्तर दिनाजपुर में है।
मख़्दूम शाह अताउल्लाह का निकाह कजांवाँ (बिहटा) में हुआ और वहीं उन की क़ब्र है। हम्द काकवी लिखते हैं की शाह अताउल्लाह के 6 लड़के थे, शफ़ीउद्दीन, शम्सुद्दीन, ताजुद्दीन, सिराजुद्दीन, सलाहुद्दीन और क़ुतुबुद्दीन
वाज़ेह हो कि ये ख़ानदान इमाम मोहम्मद ताज फ़क़ीह के ज़रिए क़ुदस-ए-ख़लील (मक्का) होते हुए मनेर शरीफ़ आया था। शाह अताउल्लाह के बेटे शाह ताजुद्दीन से काको, कजांवाँ, नौ-आबादा, मोड़ा तालाब होते हुए आज के मोहल्ला शाह टोला, दानापुर, पटना में आ कर ये ख़ानदान बसा। अब उन की औलाद ख़ानक़ाह सज्जादिया अबुल-उलाईया में आबाद-ओ-शाद है। इस बारे में शाह अकबर दानापुरी फ़रमाते हैं कि
आप हैं यादगार-ए-ताज-ए-फ़क़िह
थे जो इस सूबा के इमाम-ए-जिहाद
यही हज़रत हमारे जद्द भी थे
हम हैं अब्दुल अज़ीज़ की औलाद
पिसर-ए-ख़ुर्द थे ये हज़रत के
हुए ये भी मनेर में आबाद
ये घराना बड़ा मुकर्रम है
इस में इबाद इस में हैं ज़ुहाद
काको में आके इन बुज़ुर्गों ने
बा’ज़ नौ मुस्लिमों की की इम्दाद
फिर बिहार और नवादा उनसे बसा
पड़ी दोनों जगह नई बुनियाद
फिर ये फैले तमाम सूबा में
हर जगह पहुंचे ये फ़रिश्ता-नज़ाद
मोड़े से मेरे जद यहाँ आए
दानापुर में रहे वो दिल-शाद
(जज़्बात-ए-अकबर)
काको के नामकरण का कारण बड़ा दिल-चस्प है, शैख़ सुलैमान लंगर-ज़मीन की कोशिशों से कई लोग उनके मुरीद हुए। आप अपनी बीवी के साथ काको में आ बसे। ऐसा कहा जाता है की यहाँ ‘‘कोका’’ नाम के जादू-गर ने लोगों की ज़िंदगी बर्बाद कर रखी थी। कहते हैं कि आपकी बा-कमाल बीवी ने ग़ुस्से में आ-कर दुआ की और ख़ुदा ने उस बस्ती को उलट दिया। यह भी कहा जाता है कि उस तसर्रुफ़ में इतनी शिद्दत थी कि उस इलाक़े की तमाम ज़मीन ही तह-ओ-बाला हो जाती लेकिन जब शैख़ सुलैमान आ गए, तो ऐसा न हुआ। यही वजह है कि आपका लक़ब लंगर-ज़मीन पड़ा और इस बस्ती का नाम काको पड़ गया जो कोका की उल्टी शक्ल है।
फ़िरोज़ शाह तुग़लक जो हज़रत मख़दूम-ए-जहाँ शैख़ शरफुद्दीन अहमद का भक्त था, वह 759 हिज्री में दिल्ली से बिहार शरीफ़ जाते हुए काको से गुज़रा था। जिस जगह पर बीबी कमाल का ककच्चा मज़ार था वहीं पर उस का पड़ाव हुआ। बीबीपुर के लोगों ने बादशाह को ये ख़बर दी कि यहाँ पर हज़रत मख़दूम-ए-जहाँ की ख़ाला आसूदा-ए-ख़ाक हैं। यह सुन कर बादशाह ने हुक्म दिया की और बिहार के हाकिम के ज़रिए 760 हिज्री (1359) में रौज़ा-ए-बीबी-कमाल और ईद-गाह की तामीर कराई। दरगाह के आस-पास में ऐसे कई दूसरे बुज़ुर्गों के मज़ार हैं जो अपने समय के बड़े प्रसिद्ध सूफ़ी थे। जन्ना चाहिए कि यहाँ हज़रत मख़दूम-ए-जहाँ का चिल्ला-गाह भी था, जो बस्ती वालों के लिए एक नेमत से कम नहीं था। काको दरगाह का स्याह रंग का पत्थर और रौग़नी ईंट अदि बड़ी मशहूर हैं।
आपकी मिर्ती की तारीख़ नहीं मिलती। इतिहास-कार का क़याल है कि आपकी मिर्त्ति तक़रीबन 1290 से 1300 के दरमियान हुआ होगा। आप की मिर्त्ति का न कोई साल मालूम है न चाँद की कोई तारीख़ मगर पुराने ज़माने से न जाने किस रिवायत की बुनियाद पर फ़स्ली माह भादो के आख़िरी गुरूवार को आप का उर्स मनाया जाता है। इस उर्स में खीर का फ़ातिहा मशहूर है। उर्स के दौरान काको दरगाह पर एक भीड़ जमा होती है फोलों और चादरों का तोफ़ा पेश करती है और ये सिलसिला ख़ूब चल रहा है।
अदम की मंज़िल से डर ना अकबर न चोर इस में न इस में रहज़न
हज़ारों लाखों हैं आते-जाते ये रास्ता ख़ूब चल रहा है
(शाह अकबर दानापुरी)
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