हज़रत शाह फ़रीदुद्दीन अहमद चिश्ती
काको अपनी ऐतिहासिक गरिमा, मार्गदर्शन और योग्यता के कारण सदा से विशिष्ट रहा है। यहाँ स्थित महिला सूफ़ी संत हज़रत मख़्दूमा बीबी कमाल की दरगाह देश भर में प्रसिद्ध है। बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहाँ आकर अपनी मनोकामनाएँ पूर्ण होते देखते हैं। यह स्थान मख़्दूमा बीबी कमाल की मुहब्बत और करुणा की छांव में सदा से आबाद और प्रसन्नचित्त रहा है।
इस कस्बे के पहले सूफ़ी हज़रत शैख़ सुलैमान लंगर-ज़मीन माने जाते हैं, जो बीबी कमाल के पति और हज़रत मख़्दूम-ए-जहाँ शैख़ शरफ़ुद्दीन अहमद याह्या मनेरी के रिश्ते में मामा और चाचा लगते हैं।
यहाँ अनेक सूफ़ी-संतों का आगमन हुआ है। पुराने समय में यहाँ क़ादरिया, फ़िर्दौसिया, चिश्तिया और अबुल-उलाईया जैसे प्रमुख सूफ़ी सिलसिलों का विशेष प्रभाव रहा है। यह स्थान एक समय सूफ़ी साहित्य, कवि सम्मेलनों, अदब, शोध और साहित्यिक गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था। इसकी महानता और प्रतिष्ठा पर विद्वानों में सर्वसम्मति रही है। वास्तव में, एक युग में यह स्थान पटना क्षेत्र का सांस्कृतिक केंद्र माना जाता था।
ग्यारहवीं सदी हिज्री के अंतिम चरण में मौलाना शाह अब्दुल ग़नी मुजद्ददी एक महान सूफ़ी-संत के रूप में प्रसिद्ध हुए। उनकी करामात और आध्यात्मिक प्रतिष्ठा आज भी लोगों के हृदय में जीवित है। आपने अपने ननिहाल—काको—को ही अपना निवास बनाकर यहाँ सूफ़ी साहित्य और आध्यात्मिक विचारों का प्रचार-प्रसार किया।
आपके वंश में हज़रत शाह फ़रीदुद्दीन अहमद चिश्ती जैसे प्रसिद्ध सूफ़ी चौदहवीं सदी हिज्री में हुए, जिन्हें अपने समय का मक़बूल बुज़ुर्ग माना जाता है। उन्होंने काको में ख़ानक़ाह फ़रीदिया की स्थापना की और लोगों को ईश्वर की इबादत के साथ-साथ मानव सेवा का जज़्बा और जुनून दिया।
ख़ानक़ाह फ़रीदिया आज भी काको की धरती पर एक जीवंत विरासत के रूप में मौजूद है, जबकि अधिकांश अन्य संतों और बुज़ुर्गों की स्मृतियाँ अब केवल पुस्तकों और लेखों में सिमट कर रह गई हैं।
शाह फ़रीदुद्दीन अहमद चिश्ती का जन्म 11 जुलाई 1882 को उनके ननिहाल मुफ़्तीगंज (जहानाबाद) में हुआ। उनका असल नाम फ़रीदुद्दीन और तरीखी नाम मोहम्मद फ़ज़ल-उर-रहमान था।
आपके पिता मोहम्मद हमीदुद्दीन एक विचारशील, उच्च-चरित्र वाले और सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त होने के बाद एकांतवासी (ख़ाना-नशीं) हो गए थे। आपकी पहली पत्नी ने संतान नहीं दे सकीं और जल्द ही स्वर्गवासी हो गईं। इसके बाद आपका दूसरा निकाह अपने चचेरे साले मीर अफ़ज़ल हुसैन की बेटी अज़ीज़-उन-निसा से हुआ। दुर्भाग्यवश, कुछ वर्षों बाद वे भी दिल के दौरे का शिकार होकर 29 ज़िल-हिज्जा 1307 हिज्री को चल बसीं।
इन हालात में, आपके पुत्र फ़रीदुद्दीन अहमद का बचपन का अधिकतर समय ननिहाल में बीता। आपके ख़ालू सय्यद मुहीउद्दीन आपको अत्यंत स्नेह और प्यार देते थे। आप बचपन से ही कम बोलने वाले, शांत स्वभाव के और अच्छे मिज़ाज के मालिक थे। आपकी प्रारंभिक तालीम घर के बुज़ुर्गों से हुई। रूहानियत, इर्फ़ानियत और तज़्किरा-ओ-तारीख़ से आपको विशेष लगाव था। यही कारण था कि एक समय के बाद आपकी निजी लाइब्रेरी एक शोध-प्रिय केंद्र बन गई, जहाँ लोग ज्ञान की तलाश में आते।
हम्द काकवी आपकी इल्म से प्रेम की मिसाल यूँ देते हैं:
और इसी तरह बिरादरम सय्यद शाह फ़रीदुद्दीन को भी किताबों का बड़ा ज़ौक़ था और उन्होंने भी शोअ’रा के दीवानों व कुल्लियात, तथा बुज़ुर्गान-ए-दीन के अहवाल-ओ-असार पर जो किताबें थीं, उनका अच्छा-ख़ासा ज़ख़ीरा जमा किया था। (आसार-ए-काको)
यौवनकाल से ही आपके स्वभाव में सह्व (अल्हड़ भाव) और सुक्र (ईश्वरीय चेतना) की गहराई और प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता था। आपके हृदय में प्रेम और जुनून की लहरें सदा हिलोरें मारती थीं। स्वभाव में इश्क़ और मोहब्बत की आग और करुणा का अनुपम संगम था।
आपके चेहरे पर शांति और क्षमाशीलता की आभा थी, तो वाणी में ऐसी मधुरता और नम्रता थी, जो सुनने वालों को अपने वश में कर लेती। आपकी बातचीत अत्यंत प्रभावशाली होती—जो एक बार आपकी महफ़िल में बैठता, वह सदा के लिए आपकी बातों का मुरीद हो जाता।
आपकी दरियादिली और उदारता मिसाल थी। जो कोई भी कुछ माँगता, आप बिना संकोच उसे दे देते। न धन के आने की खुशी होती, न जाने का दुःख। जो कुछ भी आता, वह सब जरूरतमंदों और चाहने वालों पर लुटा दिया जाता। उदारता और विलक्षण दिलदारी आपके स्वभाव के पसंदीदा पहलू थे।
अपने अंतिम समय में आपने संतोष को अपने जीवन का आभूषण बना लिया। आपके स्वभाव में सुरुचिता, शिष्टता, गंभीरता और परिपक्वता का ऐसा संतुलन था जो आपकी संपूर्ण आत्मिक महानता का परिचायक था।
शाह फ़रीदुद्दीन अहमद चिश्ती की प्रवृत्ति प्रारंभ से ही रूहानियत की ओर झुकी हुई थी। आप सांसारिक दिखावे से दूर, दिल की गहराइयों में ईश्वरीय सत्य की खोज में लीन रहते। एक दिन, किसी महफ़िल में आपको बिहार शरीफ़ स्थित ख़ानक़ाह मुअज़्ज़म के सज्जादा-नशीं हज़रत शाह अमीन अहमद फ़िर्दौसी की ज़ियारत का सौभाग्य प्राप्त हुआ। शैख़ की नज़र में ऐसी रुहानी तासीर थी कि आप उसी क्षण उनसे आध्यात्मिक रूप से जुड़ गए। उनके इश्क़ में डूबकर, आप भीतर से एक अजीब सी बेचैनी और बेक़रारी महसूस करने लगे। यही बेचैनी आपको अंततः बिहार शरीफ़ की ख़ानक़ाह की ओर खींच लाई, जहाँ आपने हज़रत शाह अमीन अहमद फ़िर्दौसी से बैयत की दरख़्वास्त की।
शाह अमीन अहमद ने आपकी रूहानी तबीयत को भाँपते हुए फ़रमाया:
आप में चिश्तिया रंग झलकता है।
इसके बाद, 1898 में उन्होंने आपको सिलसिला-ए-चिश्तिया में बैअ’त कर लिया और अपने योग्य व प्रतिभाशाली बेटे शाह वसीअ अहमद फ़िर्दौसी उर्फ़ 'बराती' की ओर तवज्जोह़ के लिए रवाना किया।
शाह फ़रीदुद्दीन अहमद चिश्ती ने तसव्वुफ़ की बाक़ायदा तालीम सिलसिला-ए-अबुलउलाईया के निर्धारित निसाब पर पूरी की। आपकी रूहानी तालीम व इर्शाद का सिलसिला लंबे समय तक चला, यहाँ तक कि आप आंतरिक ने'मतों से नवाज़े गए और आपको इजाज़त व ख़िलाफ़त से सम्मानित किया गया।
अपने मुर्शिद के हुक्म से आपने काको में ही हिदायत और रूहानियत का केंद्र स्थापित किया और बंदगान-ए-ख़ुदा की तालीम और तर्ज़ीह के लिए खुद को समर्पित कर दिया। आप लोगों को अख़्लाक़, इख़्लास, और तसव्वुफ़ की बुनियादी तालीम देते, उन्हें खुदा की याद और बन्दा-परवरी की राह पर चलने की प्रेरणा देते।
आपके अंदर गहरी आ'जिज़ी और फ़िरोतनी थी। आपने अधिकतर मुरीदों को सिलसिला-ए-चिश्तिया में बैअ’त किया। आपकी तालीम से मुतअस्सिर हो कर आपका हल्क़ा-ए-मुरीदान, मो’तक़िदान और मुतवस्सिलान सिर्फ़ काको तक महदूद नहीं रहा, बल्कि यह जहानाबाद, गया, और आस-पास के अतराफ़-ओ-अक्नाफ़ तक फैल गया।
शाह फ़रीदुद्दीन अहमद चिश्ती की रूहानी तबीयत बचपन ही से मख़्दूमा बीबी कमाल की ओर माइल थी। दरगाह की सरज़मीन पर आप अदब और विनम्रता के साथ नंगे पाँव हाज़िरी देते। आपने कभी उस मुबारक़ जगह पर जूतियाँ नहीं पहनीं — यह आपकी पूरी ख़ाकसारी और इन्किसारी का प्रतीक था। आपका इस दरगाह से जुड़ाव महज़ एक मुरीद की श्रद्धा नहीं, बल्कि एक मुग़्लिक मुहब्बत और रुहानी निस्बत का बयान था। इस दरगाह की अज़्मत को दिल से महसूस करते हुए आप वहाँ कभी भी जुलूस या दिखावे के साथ हाज़िर नहीं होते, बल्कि हमेशा क़ियाम की हालत में रहकर ताज़िमी अदब और बंदगी का इज़हार करते।
मख़्दूमा बीबी कमाल की तरह ही, आपको मख़्दूम-ए-जहाँ शैख़ शर्फ़ुद्दीन अहमद यहया मनेरी से भी बेपनाह मोहब्बत थी। आप तहज़ीब, अदब और मोहब्बत के साथ उनकी बारगाह में हाज़िर होते, और उनकी रूहानी अज़्मत पर फ़ख्र करते।
इसी तरह प्रसिद्ध सूफ़ी हज़रत सय्यदना अमीर अबुलउला से भी आपकी रूहानी निस्बत थी, क्योंकि जिन बुज़ुर्ग से आपने तसव्वुफ़ की सैराबी पाई — उनके सिलसिले में अबुलउलाईया रंग ग़ालिब था। तालीम-ओ-तर्बियत के दौरान, इस मोहब्बत और तसव्वुफ़ का ऐसा नशा तारी हुआ कि आप आगरा में हज़रत शाह मोहसिन अबुलउलाई दानापुरी (सज्जादा-नशीं ख़ानक़ाह सज्जादिया, दानापुर) के पास रहें और कई रोज़ उनके दरगाह सय्यदना पर मुराक़बे में गुज़ारे।
शाह फ़रीदुद्दीन अहमद चिश्ती की ज़ाती ज़िंदगी पर नज़र डालें तो मालूम होता है कि आपका पहला निकाह अपने ख़ालू सय्यद मुहीउद्दीन (मुफ़्तीगंज, जहानाबाद) की बेटी बीबी ज़ैनब से हुआ। ये एक पाक-साफ़, नेक-ख़सलत और इ’फ़्फ़त-ओ-पारसाई से भरपूर ख़ातून थीं। उनके अंदाज़ और अत्वार में शराफ़त और सलीक़ा झलकता था। मगर अफ़सोस, ज़िंदगी ने ज़्यादा वफ़ा न की और वो 1918 में इस फ़ानी दुनिया से रुख़्सत हो गईं। उनके तारीख़-ए-विसाल को मौलाना हाफ़िज़ अब्दुस्सुब्हान (मुर्ग़िया चक, नालंदा), जो हज़रत नूर मोहम्मद देहलवी के मुरीद और शागिर्द थे, ने इस मिस्रअ’ में समेटा:
जन्नतुल-फ़िर्दौस मक़ाम-ए-अबदी शुद (1336 हिज्री)
इस पहले निकाह से आपको एक बेटी और एक बेटा पैदा हुए:
बेटी का निकाह सय्यद मंज़ूरुर्रहमान अख़्तर काकवी से हुआ।
बेटे का नाम सय्यद शाह ग़ुलाम मुनइम (वलीउल-हक़ चिश्ती) था, जिनका निकाह पटना ज़िले के गाँव कोपा में हुआ। लेकिन अफ़सोस कोई संतान नहीं हुई। यहाँ वाज़ेह रहे कि आपको बैअ’त, इजाज़त और ख़िलाफ़त शाह वसीअ अहमद फ़िर्दौसी से हासिल हुई थी। पहली बीवी की मिरित्ति के बाद आपका दूसरा निकाह 1924 में हुआ। इस बार आपकी हमसफ़र बनीं — बीबी शकूरन, जो बिहार शरीफ़ के मीरदाद मोहल्ले से ताल्लुक़ रखने वाले सय्यद अज़ीमुद्दीन की बेटी थीं। बीबी शकूरन एक नेक सीरत, अख़लाक़-मंद और पीर-परस्त ख़ातून थीं। उन्हें सिलसिला-ए-फ़िर्दौसिया में शाह अबुल हसनात फ़िर्दौसी से बैअ’त हासिल थी। उनका विसाल 11 ज़ीक़ादा को हुआ। इस निकाह से दो बेटे हुए:
सय्यद शाह ग़ुलाम मुईनुद्दीन चिश्ती
सय्यद समीअ अहमद, जो अफ़सोस के साथ बचपन में ही मर गए।
शाह फ़रीदुद्दीन अहमद चिश्ती ने अपनी ज़िंदगी के आख़िरी दौर में भी ख़ुद्दारी और आज़ाद-मिज़ाजी का दामन नहीं छोड़ा। ज़िंदगी की आख़िरी उम्र तक अपने तमाम चाहने वालों को ख़ुद अंजाम देते रहे। जब उम्र की थकन ने ग़लबा किया तो ज़्यादा वक़्त अपने हुजरा में इबादत और तफ़क्कुर में गुज़ारने लगे। बिलकुल अपने पिता की तरह ख़ाना-नशीन हो गए थे।
एक रोज़ जब आप जुम्अ की नमाज़ से फ़ारिग़ हुए तो आपकी कैफ़ियत बदलने लगी। और फिर वो रूहानी लम्हा आया — 20 रबीउ'स्सानी मुवाफ़िक़ 15 दिसंबर 1954, शब-ए-जुम्अ, तक़रीबन 1 बजे रात, आपने अपने हुजरा में ही आख्ररी सांस ली।
आपको दफ़्न अपने दादा हज़रत शाह अब्दुल ग़नी चिश्ती के मज़ार के क़रीब, पाईं में किया गया।
आपके मुरीद सय्यद ग़ुलाम मुईज़ुद्दीन बल्ख़ी 'आसी' (दीघा, दानापुर) ने इस मिस्रअ’ से तारीख़ बरामद किया:
आह पीर-ए-तरीक़त उठ गया (1374 हिज्री)
मंज़ूरुर्रहमान अख़्तर काकवी ने भी आपके विसाल पर कई तारीख़ लिखी हैं, जो आज भी ख़ानक़ाह सज्जादिया अबुलउलाईया, दानापुर में महफ़ूज़ हैं। उन्हीं में से एक यादगार शेर ये है:
सय्यद वासिल ब-हक़्क़-ए-शाह फ़रीद जन्नती
नज़्द नबी-ओ-अस्फ़िया शाह फ़रीद जन्नती
(1374 हिज्री)
आपका सालाना उर्स हर साल बेहद एहतिमाम के साथ ख़ानक़ाह फ़रीदिया, शाह टोली, काको में मनाया जाता है। वाबस्तगान-ए-फ़रीदिया दूर-दराज़ के इलाक़ों से आते हैं, सलाम-ओ-नियाज़ पेश करते हैं और ख़ुलूस-ए-निय्यत के साथ मन की मुरादें लेकर रुख़्सत होते हैं। आपकी इंतिक़ाल के बाद आपके बड़े बेटे शाह वलीउल-हक़ चिश्ती आपके उत्तराधिकारी हुए। चूँकि वो ला-वलद रहे, इसलिए उन्होंने अपनी ज़िन्दगी ही में अपने छोटे भाई शाह ग़ुलाम मुईनुद्दीन चिश्ती को सज्जादगी की ज़िम्मेदारी सौंप दी थी। इस वक़्त सिलसिला-ए-फ़रीदिया के मौजूदा सज्जादा-नशीं,
आपके बेटे सय्यद शाह अली अहमद चिश्ती हैं, जो अपने बुज़ुर्गों की रूहानी रवायतों को बाक़ी रखने में सरगर्म हैं।
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