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हज़रत शाह नियाज़ बरेलवी की शाइरी में इरफान-ए-हक़

अहमद फ़ाख़िर

हज़रत शाह नियाज़ बरेलवी की शाइरी में इरफान-ए-हक़

अहमद फ़ाख़िर

MORE BYअहमद फ़ाख़िर

    शाह नियाज़ बरेलवी सिलसिला-ए-चिश्तिया के सूफ़ी शो‘रा में गुहर-ए-आबदार की हैसियत रखते हैं, जिन्हें मब्दा-ए-फ़य्याज़ ने तसव्वुफ़-ओ-सुलूक के साथ साथ इर्फ़ान-ए-हक़ और ख़ुदी की तश्ख़ीस की बेश-बहा दौलत से भी सरफ़राज़ किया था। मौलाना रुम, जामी, हाफ़िज़ शीराज़ी, शैख़ सादी और अमीर ख़ुसरौ वग़ैरुहिम हैं, जिन्होंने अपनी शाइरी के ज़री'आ इर्फ़ान-ए-हक़ और ख़ुदी की तश्ख़ीस का वाज़ेह ऐलान किया है। शाह नियाज़ बरेलवी की शाइरी का दौर कम-ओ-बेश वही दौर समझा जाता है, जिस दौर में मीर तक़ी मीर, मुतवफ़्फ़ी और मुस्हफ़ी जैसे दीगर शोरा-ए-उर्दू के बाल-ओ-पर सँवारते हुए फ़ारसी ज़बान के असरात के तहत उन्ही ख़यालों को उर्दू का जामा पहना रहे थे। वाज़ेह हो कि देहली के दौर-ए-सानी के अहम नुमाइंदा शाइर ग़ुलाम हमदानी मुस्हफ़ी को शाह नियाज़ बरेलवी से शरफ़-ए-तलम्मुज़ हासिल है। जिसका ज़िक्र मुस्हफ़ी ने 'रियाज़-उल-फ़ुसहा में किया है। ये हमारे ज़हन-नशीं होना चाहिए कि इस वक़्त देहली के शोरा ईहाम-गोई को तर्क कर चुके थे, उनकी शाइरी में तसव्वुफ़ का असर महसूस किया जा सकता है। शाह नियाज़ बरेलवी ने बा-ज़ाबता तौर पर अपने लिए रस्मी शाइरी का मैदान मुंतख़ब नहीं किया; बल्कि जो कुछ क़ल्बी कैफ़ियात पैदा हुईं, उन्हें अपने मुरीदीन –ओ-हाज़िरीन के सामने पेश कर दिया। उन की शाइरी का सबसे अहम जुज़्व 'इशक़-ए-महमूद है, जिसकी तालीम सूफ़िया की तालीमात का जुज़्व-ए-‘आज़म है। शाह नियाज़ बरेलवी की शाइरी का जब हम मुतालआ करते हैं, तो उन की शाइरी में एक मुकम्मल काइनात खुल कर सामने आती है। उन की शाइरी फ़ारसी और उर्दू दो हिस्सों में मुंक़सिम है, ता-हम उन की शाइरी का अस्ल जौहर फ़ारसी शाइरी में नज़र आता है। उनके पीर-ओ-मुर्शिद शाह फ़ख़्रुद्दीन थे, शाह फ़ख़्रुद्दीन मशाइख़-ए- चिश्त में एक नुमायाँ मक़ाम के हामिल हैं। शाह नियाज़ बरेलवी को कई उलूम-ओ-फ़ुनून पर दस्त-रस हासिल थी। अरबी, फ़ारसी ज़बान पर उन्हें ख़ुसूसी मलका हासिल था, जिसका इज़हार उनकी शाइरी के मुतालआ से भी होता है। फ़ारसी शाइरी इस अह्द के अह्ल-ए-इल्म और सूफ़िया की ज़बान थी, फ़ारसी शाइरी अपनी मिसाल आप है, उर्दू ज़बान इनके अह्द में नई-नवेली ज़बान थी, उर्दू में भी उनके अश्आर बर-जस्ता और बर-महल हैं। दीवान-ए-नियाज़ बरेलवी मुरत्त्बा डॉक्टर अनवारुल-हसन के मुताबिक़ प्रोफ़ेसर ख़लीक़ निज़ामी ने नियाज़ बरेलवी की 8 तसानीफ़ का ज़िक्र किया है, जिसमें तोहफ़ा-ए-नियाज़िया, हज़रत नियाज़ बे-नियाज़, हाशिया शर्ह-ए-चग़मनी, दीवान-ए- नियाज़ फ़ारसी, उर्दू, रिसाला तस्मियतुल-मरातिब, रिसाला राज़-ओ-नियाज़, शर्ह-ए-क़साइद-ए-अरबिया, शम्सुल-ऐन-शरीफ़ और मज्मू‘आ-ए-क़साइद-ए-अरबिया क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं”।

    ताहम 'दीवान-ए-नियाज़’ को उनकी नुमाइंदा तस्नीफ़ समझा जाता है।

    इर्फ़ान-ए-हक़ या ‘‘ख़ुदी की तश्ख़ीस’’ के ज़ैल में अह्ल-ए-इल्म ने सफ़हात दर सफ़हात सियाह किए हैं, अलबत्ता उस की मुख़्तसर तारीफ़ ये है कि इन्सान ख़ुदा के पैग़ाम और दी हुई शरी‘अत के तक़ाज़ों को मुकम्मल तौर पर पहचाने, और उस के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारने की कोशिश करे। इरफान-ए-हक़ ये वही इल्हामी शय है, जिसकी तब्लीग़ के लिए ख़ुदा ने कम-ओ-बेश एक लाख चौतीस हज़ार से ज़ाइद अंबिया-औ-रुसुल को दुनिया में मब्ऊस किया। अंबिया-ओ-रुसुल के पैग़ामात की तब्लीग़ और उस के नुफ़ूज़ के लिए ही सूफ़िया का क़ाफ़िला हिन्दुस्तान वारिद हुआ, उन्हीं सूफ़िया के गिरोह के एक रुक्न शाह नियाज़ बरेलवी हैं। अपने मुर्शिद शैख़ फ़ख़्रुद्दीन के ईमा पर देहली से बरेली मुक़ीम हुए, और यहीं पूरी ज़िंदगी इर्फ़ान-ए-हक़ की तब्लीग़ के लिए वक़्फ़ कर दी।

    शाह नियाज़ बरेलवी की ज़िंदगी सिलसिला-ए-चिश्त के उसूलों के तहत इस्लाम की इशा‘अत के लिए वक़्फ़ थी, चुनाँचे उनकी शाइरी में इर्फ़ान-ए-हक़ और ख़ुदी की तश्ख़ीस की एक वसी‘अ काइनात आबाद है, जिसे जा-बजा मुलाहज़ा किया जा सकता है, अपनी एक फ़ारसी ग़ज़ल में कहते हैः

    ब-बुस्तान-ए-तजम्मुल गुल-'इज़ारे कर्द:-अम पैदा

    सरापा दिल-कशे, रंगीं-निगारे कर्द:-अम पैदा

    क़यामत-क़ामते, बाला-बलाए आफ़त-ए-जाने

    बुते ग़ारत-गर-ए-दीं सहर-कारे कर्द:-अम पैदा

    निगारे, काफ़िरे ज़ाहिद-फ़रेबे इश्वा-पर्दाज़े

    अजाइब दिल-रुबाए तुर्फ़:-यारे कर्द:-अम पैदा

    ग़ज़ल के इन अश्‘आर में आशिक़ाना कैफ़-ओ-सुरुर के साथ 'महबूब-ओ-मतलूब’ की तस्वीर देखी जा सकती है। महबूब कभी 'दिलकश’ कभी 'रंगीं निगार’ तो कभी क़यामत क़ामत-ए- बाला और 'आफ़त-ए-जाँ’ की शक्ल में नज़र आता है। हत्ता कि इश्क़-ए-हक़ीक़ी की सर-गिरानियाँ इस मक़ाम को भी पहुँच गईं कि महबूब को 'काफ़िर’ और 'ज़ाहिद फ़रेबे' भी कह दिया। इसे इश्क़ और उस के बे-तकल्लुफ़ाना रिश्ता से मु'अनवन किया जाना चाहिए कि आशिक़ अपने माशूक़-ए-हक़ीक़ी को काफ़िर और 'ज़ाहिद फ़रेबे' कह दे। इश्क़-ए-हक़ीक़ी में इन तकल्लुफ़ात की इजाज़त है या नहीं; लेकिन वो शो'रा जिनका तअल्लुक़ तसव्वुफ़ से है, अपने महबूब के साथ बे-तकल्लुफ़ नज़र आते हैं, ये इश्क़ का मुतालबा है या फिर रिश्ता की मेराज, कि आशिक़ अपने माशूक़ के साथ बे-तकल्लुफ़ नज़र आता है। उसी ग़ज़ल में ये भी कहा किः

    बिया जानाँ तमाशा कुन, चराग़ान-ए-तन-ए-सोज़ाँ

    ब-दागिस्ताँ दिल-ए-रंगीँ बहारे कर्द:-अम पैदा

    जिगर आतिश दिल आतिश, सीन: आतिश दीदा-हा आतिश

    ब-ईं हर चार आतिश कारोबारे कर्द:-अम पैदा

    फिर इश्क़ की सरगिरानियों और लज़्ज़त-ए-दीद की काम- जोइयों की तलब इस क़दर अपने शबाब को पहुँची कि रास्त तौर पर ये अपने महबूब से 'सरापा तजल्ली' की फ़र्माइश कर दी। दिल के 'दागिस्तान' में तन-ए-सोज़ाँ ने तेरी आमद की ख़ुशी में चराग़ाँ किया है, नीज़ जिगर-आतिश दिल-आतिश, सीना आतिश, और दीदा-हा आतिश के ज़रीए नख़्ल-ए-तमन्ना पैदा किया है, और यही मेरी हालत-ए-अस्ली है। नीज़ इस हालत और कैफ़ियत में हम तेरी 'तजल्ली' के मुंतज़िर हैं। ये कैफ़ियात ग़ज़ल के महासिन में शुमार की जाती हैं। आशिक़ाना लब-ओ-लहजे में दर-हक़ीक़त 'इर्फ़ान-ए-हक़' की तस्वीर की रुनुमाई गई है, जैसा कि इन अश्'आर के कैफ़ियात से भी महसूस किए जा सकते हैं। शाह नियाज़ बरेलवी के तसव्वुफ़ और उनके मस्लक का मग़्ज़ वहदत-उल-वजूद, जिसे हम दूसरे लफ़्ज़ों में 'हमा ऊस्त' भी कह सकते हैं, और यही नज़रिया उनकी शाइरी का भी मा-हसल है। अपने नज़रिया को शाह नियाज़ बरेलवी कुछ इस तरह साबित करते हैं, कहते हैं

    हुस्न-ए-जहाँ ज़-हुस्न-ए-रुख़-ए-दिलरुबा-ए-ऊस्त

    आब-ए-रवान-ए-गुलशनश अज़ जूय-हा-ए-ऊस्त

    गह शाख़-ओ-गाह बर्ग-ओ-गहे ग़ुन्च: गाह-गुल

    बिल-जुमल: ईं-हम: नश्व-ओ-नुमा-ए-ऊस्त

    सूरा-ए-नूर में ''अल्लाहू नूरुस्समावाती वल-अर्ज़ी'' अलख़ में बारी त'आला ने अपनी सिफ़ात बयान करते हुए कहा कि 'अल्लाह त'आला का नूर ज़मीन-ओ-आसमान में फैला हुआ है', जिसकी तफ़्सीर, उलमा ने कई तरह से बयान की हैं। सूफ़ी शोरा ने भी इस मज़मून को अपने अपने तौर पर ब-ख़ूबी अदा किया है। शाह नियाज़ बरेलवी ने इसी उन्सुर को अपने आशिक़ाना लब-ओ-लहजे और ज़ेर-ओ-बम में कहा कि दुनिया में जो कुछ है, और जहाँ रौशनी, हुस्न और रानाई नज़र रही है, ये तमाम मेरे महबूब के रुख़ के हुस्न का परतव है। इस से दो क़दम आगे बढ़ते हुए कहा कि दरख़्त में कभी शाख़, कभी बर्ग, कभी ग़ुन्चा, और कभी फूल जो उगता है, उस की नश्व-ओ-नुमा में मेरे महबूब के तसर्रुफ़-ए-ख़ास का दख़्ल है। फिर अपने महबूब के तसर्रुफ़-ओ-मिल्कियत का बयान कुछ इस तरह महबूबियत के अंदाज़ में किया है कि दिल अश-अश कर उठता है, कहते हैः

    हर-चंद ज़र्र:-ज़र्र: ज़-महर हस्त कामयाब

    ता-हम ब-गर्दिश अज़ पय-ए-मह्र-ओ-हवा-ऊस्त

    मन-लम यसअहू वुस्अतन अर्ज़िन ला समा

    बैतुल-मुक़द्दस दिल-ए-बे-शिर्क-ए-जा-ए-ऊस्त

    मज़कूरा बाला अश'आर में शाह नियाज़ बरेलवी ने जिस तरह अपने विज्दान और एहसास को लफ़्ज़ों का जामा पहनाया है, वो उनका ही ख़ास्सा है। उन्होंने कहा कि दुनिया की हर शय, ज़मीन-ओ-आसमान, शम्स-ओ-क़मर, शजर-ओ-हजर,आब-ओ-हवा वग़ैरा पर उसी का ख़ुसूसी तसर्रुफ़ है, उसकी मर्ज़ी और इजाज़त के ब-ग़ैर कोई चीज़ गर्दिश नहीं कर सकती; लेकिन तुर्फ़ा तमाशा तो ये है कि जो ज़मीन-ओ-आसमान की वुस'अत में समा नहीं सकता, वो मेरे दिल के निहाँ-ख़ाना में बिला शिर्कत-ए-ग़ैरे समाया हुआ है। इस बयान के बाद 'इर्फ़ान-ए-हक़' की मज़ीद तशरीह की कोई गुंजाइश नहीं बचती है। ज़बान की सलासत और तरकीब-ए-बयान अछूते अंदाज़ और दिलकश पैराए में है। इसे हम शाइराना तअल्ली नहीं कह सकते; बल्कि ये क़ुव्वत-ए-फ़िक्र का इज़हार है। इर्फ़ान-ए-हक़ का एक पहलू ये भी मुलाहिज़ा करें।

    ख़याल-ए-दोस्त दर दिल आँ चुनाँ अस्त

    कि आलम जुमल: दर चश्मम निहाँ अस्त

    अगर ख़्वाहम कि बीनम ख़्वेशतन रा

    हमी-बीनम कि जानानम अयाँ अस्त

    ब-बीं दर सूरतम बा-चश्म-ए-तहक़ीक़

    हक़ीक़त रा मजाज़म नर्दबाँ अस्त

    वुजूद-उल-कुल्ली इन्दी फ़ी-नियामी

    नुमूद: मा-सिवा वहम-ओ-गुमाँ अस्त

    आशिक़ाना पैराए और कैफ़-ओ-मस्ती के आलम में साफ़ लफ़्ज़ों में कहा कि मेरी नज़र में 'महबूब' के सिवा कोई और शय है ही नहीं। ज़मीन-ओ-आसमान, ताज-ओ-तख़्त और बादशाही-ओ-सल्तनत की कोई वक़'अत और हैसियत मेरी नज़र में नहीं है। अपने नज़रिया को मज़ीद वाज़ेह करते हुए कहा कि अगर किसी तौर ग़ैरों की तरफ़ नज़र भी कर लूँ, तो उस में भी महबूब को अयाँ देखता हूँ, गोया किः

    जिधर देखता हूँ, जहाँ देखता हूँ

    तुझी को अयाँ और निहाँ देखता हूँ

    फिर उसी जज़्बा-ए-आशिक़ाना में ये भी कह दिया कि यही मेरे लिए मेराज है कि इन तमाम अनासिर को, जो कि मजाज़ हैं, हक़ीक़त (इर्फ़ान-ए-हक़) के लिए ज़ीना तसव्वुर करता हूँ। ये वही इर्फ़ान-ए-हक़ है, जिसकी तालीम सूफ़िया ने दी है, और यही उन्सुर शाह नियाज़ बरेलवी का तुर्रा-ए-इम्तियाज़ भी है। मौलाना रुम की मस्नवी पढ़ डालें, इस मस्नवी का तकमिला और ख़ुलासा 'इर्फ़ान-ए-हक़' की शक्ल में आशकारा होगा, शाह नियाज़ बरेलवी इसी रिवायत को अपनी ग़ज़लों में आगे बढ़ाते हुए नज़र आते हैं।

    अगर दानी कि हर शय हस्त ला-शय

    ब-दाँ कि हर मकाँ हम ला-मकाँ अस्त

    दिला सिर्र-ए- हक़ीक़त कस न-दानद

    मगर साहब-दिले कू रम्ज़-दाँ अस्त

    नियाज़ ईं गुफ़्तगू अज़ मन म-पिन्दार

    कि ने गुफ़तार नाए रा ज़बाँ अस्त

    इश्क़ की तबीअत में जौलानी होती है, ये उफ़्ताद-ए-तब्अ भी है, तो उसे बुर्राक़-ओ- वक़्क़ाद की सिफ़त भी वदीअत की जाती है; लेकिन यही इश्क़ जब महबूब का सामना करता है, तो उस की ये तमाम सिफ़तें मुन्कसिर-उल-मिज़ाजी में तब्दील हो जाती हैं ता-हम जब नसीबे में हिज्र ही हिज्र हो, तो फिर यही इश्क़ 'तूफ़ान' की शक्ल इख़्तियार कर लेता है। इश्क़ की कुछ सरगिरानियाँ देखें, शाह नियाज़ बरेलवी कहते हैः

    क़यामत ग़ुलग़ुल-ओ-ग़ौग़ास्त दर जोश-ओ-ख़रोश-ए-तू

    कि यक सर-गोश-ए-आलम पुर-शवद अज़ हाय-ओ-हु-ए-शूरत

    बरामद हर चे अज़ दिल बर ज़बाँ-हा फ़ाश-गो दिल

    कि हुशयाराँ बरा-ए-बे-हशी दारंद माज़ूरत

    जवाब-ए-रब्बि-अरिनी, लन-तरानी नशनुदी हरगिज़

    ब-इश्क़-ए-आतिशीं-रूए ब-शुद सोज़ान-ए-तन तूरत

    इश्क़ के इद्दआ क़वी होते हैं और इसकी अक़्ली दलीलें भी होती हैं, और यही उस की कुल काइनात भी है। तजल्ली, तूर, इश्क़-ए-आतिशीं वग़ैरुहुम की तल्मीहात इश्क़-ए-महमूद के ही शायाँ हैं। मूसा अलैहिस्सलाम की गुज़ारिश, हक़ तआला का 'लन-तरानी' से जवाब, और फिर इसरार पर तजल्ली के वुक़ूअ पर बे-होशी का बयान ये हक़ीक़त से तअल्लुक़ रखते हैं; लेकिन मजाज़ में इस की इजाज़त है, और जब इश्क़ महमूद हो, तो फिर इन इस्तिआरों को आशिक़ाना कैफ़-ओ-कम में बयान करना इश्क़-ए-महमूद का लाज़िमा है। इश्क़-ए-महमूद की सरगिरानियों ने उन्हें इस मक़ाम पर ला खड़ा कर दिया कि वो वसूक़-ए-कामिल के साथ ''जवाब-ए-रब्बी-अरिनी, लन-तरानी न-शनूदी हरगिज़' कह सकते हैं, इन अनासिर के इज़हार के लिए इश्क़ को बुर्राक़ और वक़्क़ाद भी होना चाहिए, शाह नियाज़ बरेलवी ने अपनी जौदत-ए-तब्'अ और वक़्क़ाद तबी'अत के ब-मूजिब इस उन्सर के इज़हार से सुख़न-वरी और इश्क़-ए-महमूद में अपने मरातिब का वाज़ेह इज़हार किया है। फ़ारसी ग़ज़लियात में उनकी शाइरी के अस्ल जौहर खुल कर सामने आते हैं। एक मशहूर-ए-ज़माना फ़ारसी ग़ज़ल जो अपनी तमाम ख़ूबियाँ के साथ अहल-ए-ज़ौक़ को मुतवज्जेह करती है, उसके चंद अश'आर देखें, इर्फ़ान-ए-हक़ के मज़ाहिर को किस ख़ूबी के साथ मुलाहज़ा किया है, कहते हैः

    ईं हम: बह्र-ओ-बर्र मनम, वीं हम: ख़ुश्क-ओ-तर मनम

    क़तर: मनम गुहर मनम, मन मनम, मन मनम

    शाहिद-ए-दिलरुबा मनम, मुत्रिब-ए-ख़ुश-नवा मनम

    सम्अ मनम, बसर मनम, मन मनम मन मनम

    हुस्न-ओ-जमाल-ए-हक़ मनम, इज़्ज़-ओ-जलाल-ए-हक़ मनम

    हशमत-ओ-जाह-ओ-फ़र्र मनम, मन मनम, मन मनम

    तूती-ए-सद-ज़बाँ मनम, बुलबुल-ए-नग़्मा-ख़्वाँ मनम

    रौज़ा मनम, शजर मनम, मन मनम, मन मनम

    इर्फ़ान-ए-हक़ इस अम्र की गवाही नहीं देते कि जो कुछ मुलाहज़ा किया उस पर बे चूँ-चरा आमन्ना-ओ-सद्दक़ना भी कह दिया गया, बल्कि उसके लिए आज़माईश-ओ-इम्तिहान के मराहिल से भी गुज़रने होते हैं। उस के जल्वे कभी फ़रेब की सूरत में नुमायाँ होते हैं तो कभी यक-लख़्त हक़ीक़त में नज़र आते हैं; लेकिन आफ़रीं तो ये है कि उन्होंने जो कुछ मुलाहज़ा किया, परखा, उसे हक़ीक़त की नज़रों से देखा और फिर यही इश्क़ एक असासा-ए-ज़ीस्त बन कर रह गया। इस इम्तिहान और फ़रेब-ए-नज़र की तकमील उस वक़्त होती है, जब महबूब की नज़र-ए-इनायत हो जाए। ये वही इशक़ है, जिसकी कार-फ़रमाईयाँ और सर-गिरानियाँ बसा-औक़ात उस नुक्ता-ए- शबाब को पहुँचती हैं कि मुकम्मल तब-ओ-ताब के साथ ऐलान करना पड़ता है कि हम ' कुफ़रिस्तान' में इस्लाम यानी मज़हब-ए-इश्क़ पर कारबंद हैं। इस इश्क़ में कोई दख़ील-ओ-शरीक नहीं, कहते हैः

    दारद आज़ादी, तक़्यीदात-ए-वहमीं बे-गुमाँ

    हर कि दारद पाय दर-ज़ंजीर दर-ज़िंदान इश्क़

    काफ़िर-ए-इश्क़म म-पुर्स अज़ दीन-ए-मन,ऐ हमनशीं

    इश्क़ इस्लामस्त-ओ-दीं, दर मुल्क-ए-कुफ़रिस्तान-ए-इश्क़

    फ़ारिग़ अज़ रस्म-ओ-रह-ए-गब्र-ओ-मुसलमाँ साख़्त:

    मर्हबा सद-मर्रहबा बर लुत्फ़-ओ-बर एहसान-ए-इश्क़

    इर्फ़ान हक़ के इदराक के बाद इश्क़ की यही बे-नियाज़ियाँ होती हैं। वो सिर्फ़ इश्क़ के मज़हब ही को क़ुबूल करता है, इस के मा-सिवा जितने भी मशारिब हैं, उस से यक-गूना तनफ़्फ़ुर होता है, बल्कि अज़ ख़ुद उस से बो’द भी पैदा होता है, ब-शर्ते कि इश्क़ महमूद हो, इश्क़-ए-ग़ैर महमूद के नसीबे में ऐसी सआदतें नहीं होतीं। इर्फ़ान-ए-हक़ यानी हमा ऊस्त को अपनी एक ग़ज़ल में कुछ इस तरह बयान किया है, उनकी नज़र इस मक़ाम का इहाता किए हुई थी, कि जिसके इहाता के ब-ग़ैर कोई आशिक़ इश्क़ (तसव्वुफ़) के आला मदारिज को नहीं पहुँच सकता, वो कहते हैं:

    कसे कि सिर्र-ए-निहाँ अस्त दर अलन हम: ऊस्त

    उरूस-ए-ख़ल्वत –ओ-हम शम्अ-ए-अंजुमन हम: ऊस्त

    हमी सदाए ब-गोशम रसानद बाद-ए-सबा

    कि लाल:-ओ-गुल-ओ-नसरीन-ओ-नस्तरन हम: ऊस्त

    ज़-मुस्सहफ़-ए-रुख़-ए-ख़ूबाँ हमी नुमूद रक़म

    कि ख़त-ओ-ख़ाल-ओ-रुख़-ओ-ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन हम: ऊस्त

    ये वो मिसालें थीं, जो शाह नियाज़ बरेलवी की फ़ारसी शाइरी की जौहर-ए-अस्ली हैं।

    उर्दू शाइरी में इर्फ़ान-ए-हक़ इर्फ़ान

    उर्दू ज़बान से क़ब्ल दिल्ली में फ़ारसी शाइरी का ग़ुलग़ुला था, इस अहद में ख़ुसरौ, उर्फ़ी, नज़ीरी, तालिब, साइब, बे-दिल, हज़ीं फ़ारसी के नुमाइंदा शाइर समझे जाते थे, हमारे फ़ारसी अदब के सरमाया में जो कुछ भी असासा है, उन्हीं नुमाइंदा शोरा की तख़य्युलात का परतव है। ईरानी असरात के बाइस हिन्दोस्तान की फ़ारसी शाइरी पर भी तसव्वुफ़ का बड़ा असर है, इस अह्द के शोरा की शाइरी तसव्वुफ़ के इर्द-गिर्द घूमती नज़र आती है। दबिस्तान-ए-दिल्ली के नुमाइंदा शोरा के दो अदवार गुज़रे हैं, दौर-ए-अव्वल में ख़ान आरज़ू, आबरू, नाजी, मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ, अब्दुल-हई ताबाँ, हातिम, मुख़्लिस, और यक रंग जैसे शोरा शामिल हैं, ता-हम दौर-ए-अव्वल के शोरा में ईहाम-गोई का चलन ज़्यादा था, दौर-ए-सानी के शोरा ने ईहाम-गोई को यक-लख़्त तर्क कर देने में ही आफ़ियत समझी; लिहाज़ा इस से गुरेज़ क्या, इस तनाज़ुर में डॉक्टर ज़िया-उर्रहमान लिखते हैं:

    ''दबिस्तान-ए-दिल्ली के दौर-ए-अव्वल के शोरा में ख़ान आरज़ू, आबरू, हातिम, नाजी, मज़हर जान-ए-जानाँ, ताबाँ, यक-रंग, मुखख़्लिस वग़ैरा शो'रा हैं। इन शोरा के कलाम में ईहाम-गोई का बहुत रिवाज था; लेकिन बाद के शोरा ने ईहाम-गोई से गुरेज़ किया। दूसरे दौर में मीर, दर्द, सोज़, सौदा, वग़ैरा हैं। उनके यहाँ तसव्वुफ़ का रंग साफ़ दिखाई देता है''

    (उर्दू अदब की तारीख़ स० 43-44 नाशिरः तख़्लीक़-कार पब्लिशर, दिल्ली)

    दिल्ली के दौर-ए-सानी के शोरा में मीर तक़ी मीर, ख़्वाजा मीर दर्द,सौदा, नुमाइंदा शाइर हैं। इन शोरा के यहाँ तसव्वुफ़ की चाशनी बदाहतन महसूस की जा सकती है। उन्ही दिनों शाह नियाज़ बरेलवी अपने शैख़ शाह फ़ख़्रुद्दीन की ख़ानक़ाह में ज़ाहिरी-ओ-बातिनी उलूम की तकमील में मसरूफ़ थे, और ये वसूक़ के साथ कहा जा सकता है कि इन शोरा के अश'आर और इस के घन-गरज से दिल्ली के अह्ल-ए-इल्म आश्ना हुए होंगे। इस सिलसिले में कोई ठोस नक़ली दलील तो नहीं है, लेकिन गुमान-ए-अग़लब है कि इन शाइरों के असरात शाह नियाज़ बरेलवी ने भी क़ुबूल किए होँ, क्योंकि क़रीन-ए-ज़मान है। हिंदवी, रेख़्ता, रेख़्ती, या फिर उर्दू में सबसे पहली ग़ज़ल अमीर खुसरौ ने लिखी थी। हिंदवी की पहली ग़ज़ल में ही तसव्वुफ़ जलवा-गर है। उर्दू चूँकि आमी ज़बान थी, इसलिए सूफ़िया और अहल-ए-दिल ने अवाम की इस्लाह के लिए इसी ज़बान का सहारा लिया, चुनांचे उन्होंने भी इस ज़बान में शाइरी की और अपने नज़रियात-ओ-ख़यालात को आम किया। शाह नियाज़ बरेलवी का नज़रिया-ए-तसव्वुफ़ 'हमा ऊस्त' का है, अपने नज़रिया-ए-वहदत-उल-वुजूद' के ज़रीया 'इर्फ़ान-ए- हक़' को अपने अंदाज़ और मख़सूस तर्ज़-ए-नवा के साथ यूँ बयान करते हैः

    होता अगर उस के तमाशे में तहय्युर

    हैरत से मैं आईना नमत दंग होता

    गर शान पयम्बर की, बु-जहल पे खुलती

    इस्लाम के लाने में उसे नंग होता

    असरार-ए-हक़ीक़त के ख़बरदार जो होते

    हफ़ताद-ओ-दो मिल्लत में कभी जंग होता

    लफ़्ज़-ए-'जंग' को इस मक़ाम पर उन्होंने मुज़क्कर के सेग़े में इस्तिमाल किया है, जब्कि उमूमन लफ़्ज़ 'जंग' मूअन्नस लिखी और पढ़ी जाती है। ब-तौर-ए-मुज़क्कर इस्तिमाल करना क़ाफ़िया की पाबंदी है, या फिर उस वक़्त लफ़्ज़ –ए-'जंग' उर्दू में मुज़क्कर ही इस्तिमाल होती हो, ये एक अलग मौज़ू-ए-बह्स है। ता-हम हम इस मक़ाम पर उनके इर्फ़ान-ए-हक़ की बाबत गुफ़्तगू करते हैं। वो कहते हैं कि, ये इश्क़ की काम-जोईयाँ और उस की सर-गिरानियाँ हैं कि इस की उल्फ़त में मैं सरापा हैरत ही हूँ। दूसरे मिसरा में साफ़ लफ़्ज़ों में कहते हैं कि इर्फ़ान हर किसी के नसीब में नहीं; क्योंकि अबू-जहल पर नबी-ए-करीम (सल्ल०) की शान-ए-पैग़ंबरी मुंककशिफ़ होती, तो उसे क़ुबूल-ए-इस्लाम में कोई शर्मिंदगी होती, लेकिन उस के नसीब में क़ुबूल-ए-इस्लाम का शरफ़ हासिल करना लिखा हुआ था; इसलिए वो इस सआदत से हमेशा के लिए महरूम रहा। ये मज़मून क़ुरआन-ए-करीम की आयत-ए-मुबारका ''इन्नका ला तहदी मन अहबब्त'' की तफ़्सीर भी है। नीज़ उन्होंने एक तल्ख़ सच्चाई यानी मस्लकी तनाज़आत की तरफ़ भी इशारा किया है। उन्होंने कहा कि अगर 'हक़ीक़त' यानी 'इर्रफ़ान-ए-हक़' से हम अगर वाक़िफ़ होते, तो 72 फ़िर्क़ों की हमारे दरमियान जंग होती, इर्रफ़ान-ए-हक़ का तक़ाज़ा तो ये है कि मिल्लत के तमाम अफ़राद एक जिस्म एक जान बन कर रहें , यही तालीमात-ए-नबवी और फ़र्मूदात-ए-इलाहिया भी है। उर्दू शाइरी में इर्फ़ान-ए-हक़ की जल्वा देखें, कहते हैः

    यार को हमने जा-बजा देखा

    कहीं ज़ाहिर कहीं छुपा देखा

    कहीं मुम्किन हुआ कहीं वाजिब

    कहीं फ़ानी कहीं बक़ा देखा

    दीद अपने की थी उसे ख़्वाहिश

    आपको हर तरह बना देखा

    सूरत-ए-गुल में खिलखिला के हँसा

    शक्ल-ए-बुलबुल में चहचहा देखा

    ये ग़ज़ल, शाह नियाज़ बरेलवी की उर्दू शाइरी की मारूफ़ ग़ज़ल है। ये ग़ज़ल अहल-ए-इल्म-ओ-इर्फ़ान और शाइस्ता अफ़राद की महफ़िलों में भी पढ़ी जाती है, यह ग़ज़ल रिंद मशरबों के 'नाइट कलब' में भी ढोल और तबले के साथ गाई जाती है, जबकि ये ग़ज़ल अपने तक़द्दुस के तईं एहतिराम का मुक़तज़ी है। अल-ग़र्ज़, ये ग़ज़ल अपने लब-ओ-लहजा और अपनी हैअत और साख़्त के बाइस इर्फ़ान-ए-हक़ का इद्दिआ करती है। सच तो ये है कि इस इश्क़-ए-महमूद ने जब इर्फ़ान-ए-हक़ के पर्दा को वा किया, तो किसी को मंसूर बनाया, तो किसी को तख़्त-ए-शाह से उतारकर कासा-ए-गदाई और लिबास-ए-फ़क़ीरी अता कर दिया। इश्क़ की मुख़्तलिफ़-उल- जिहात नै-रंगियाँ हैं, कभी ये खाल खिंचवाता है, कभी तख़्ता-ए-दार पर चढ़ा देता है, कभी लिबास-ए-माशूक़ाँ में नाज़-ओ-इश्वा बर-दारियों के साथ तग़ाफ़ुल-केश होता है, तो कभी मूसा के इसरार पर फ़रोग़-ए-तजल्ली से तूर को ख़ाकिस्तर कर देता है। उर्दू ग़ज़लें उनके अपने मशहूर नज़रिए ''हमा ऊस्त' का आईना हैं। ज़बान-ओ-बयान पर क़ुदरत, इज़हार-ए-बयान में नुदरत, फ़साहत और म'आनी की बलाग़त में अपनी मिसाल आप हैं। फ़ारसी ग़ज़लें हों या उर्दू ग़ज़लें, उनमें ये तमाम शाइराना कमालात और नज़रियाती जमालियात देखे जा सकते हैं। उनका मशरब इर्फ़ान-ए-हक़ और इस के मुक्तज़ियात पर कारबन्द होने का है। उन्होंने साफ़ लफ़्ज़ों में कह दिया कि इश्क़ का तक़ाज़ा परेशानी-ए-ख़ातिर है, और यही परेशानी-ए-ख़ातिर हमारा ईमान है:

    क़ैद-ए-मज़हब सबब-ए-सलफ़-ए-तजर्रुद ता दीद

    दिल-ए-बे-क़ैद हर गब्र-ओ-मुसलमाँ बर-गश्त

    हर कि सौदा-ए-मोहब्बत ब-सर-ए-ज़ुल्फ़-ए-तू कर्द

    नक़्द-ए-जम्इयत-ए-दिल दाद-ओ-परेशाँ बर-गश्त

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