कबीर के कुछ अप्रकाशित पद ओमप्रकाश सक्सेना
गुजराती हस्तलिखित पद-संग्रहों में हिन्दी पद विषय पर शोध-कार्य करने के सिलसिले में जब मैं गुजरात गया तो मुझे कुछ समय तक अहमदाबाद में रह कर वहाँ की गुजरात विद्या-सभा तथा आचार्य निवास और बड़ौदा के मगन भाई के हस्तलिखित संग्रहों को देखने का अवसर मिला। इन संग्रहों में गुजराती लिपि में लिखित हिन्दी की अनेकों प्रतियाँ है, किन्तु 1 म, 1, 3 आ, 895, 1038, 1000 गु संख्या की प्रतियाँ विशेष महत्वपूर्ण है, जिनमें कबीर के ऐसे पद संग्रहीत है जो आज तक किसी भी पुस्तक में प्रकाशित नहीं हुए।
छहों प्रतियाँ अच्छी दशा में है किन्तु प्रारम्भ से अन्त तक ध्यानपूर्वक देखने पर भी लेखन-कला की जानकारी न हो सकी। लिपि के अध्ययन से पता चलता है कि ये छहों प्रतियाँ सत्रहवीं शताब्दी के आसपास की है। इन प्रतियों में कबीर के अतिरिक्त रामानन्द, तुलसीदास, परमानन्द, सूरदास, दादू और अग्रदास आदि के पद प्राप्त होते है। यदि कवि सगुण धारा का भी है तो केवल उसके निर्गुण पद ही इन प्रतियों में विशेष रूप से संकलित किये गये है जिससे ज्ञात होता है कि ये प्रतियाँ किसी निर्गुण पन्थी साधु की है।
विभिन्न प्रतियों में ये सभी पद एक ही स्थल पर क्रम से नहीं प्राप्त होते। अतः ऐसा लगता है कि इनका संतुलन विभिन्न अवसरों पर विभिन्न सूत्रों से हुआ होगा। कबीर के प्रकाशित हिन्दी पद कबीर-ग्रन्थावली बीजक सन्त कबीर तथा गुरु-ग्रंथ साहिब में प्राप्त होते है। इन समस्त पुस्तकों में कबीर के ये पद प्राप्त नहीं होते। इसीलिए इन्हें अप्रकाशित कहा गया है। सम्भव है कि इनमें से कोई पद अन्य पाठ-भेद से अन्यत्र प्राप्त हो जाय, किन्तु जहाँ तक मेरी जानकारी है वे पद इस रूप में अभी तक कहीं भी प्रकाशित नहीं हुए हैं।
पदों की प्रतिलिपि करने में मैंने पर्याप्त सतर्कता रक्खी है। जैसा पाठ प्राप्त हुआ है वैसा ही लिखा गया है। पाठ को शुद्ध करने की चेष्टा नहीं की गई है। लिपि और लिपिकार दोनों के गुजराती होने के कारण यह कहना कठिन है कि जो पाठ प्राप्त है, वह प्रामाणिक है। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि कबीर के दो शताब्दी पश्चात् इन पदों का इस रूप में गुजरात में प्रचार था।
सातवें पद में हैरण, आठवें में मारण तथा नवें में पकडाबी और थी आदि शब्द गुजराती भाषा तथा उच्चारण के धोतक है। ण राजस्थानी प्रभाव का सूचक है। विद्वानों ने प्राचीन राजस्थानी तथा गुजराती को एक समान माना है। सम्भवतः ये पद राजस्थान से गुजरात की ओर गये है या इन पर किसी राजस्थानी लिपिकार या गायक का प्रभाव है। सप्तमी विभवित में थी शब्द का प्रयोग गुजराती भाषा की अपनी विशेषता है। इसके अलावा अन्य पदों की भाषा वही है जो उत्तर भारत के पदों की है। कबीर का रचनाकाल ईसा की 15वीं शताब्दी है। ये उनके मत का प्रचार तथा प्रभाव गुजरात में अधिक था, यह सर्वविदित है। आज भी गुजरात में कबीर पन्थी साधुओं के अनेक केन्द्र है। नर्मदा के तटवर्ती स्थान भरौंच से 13 मील दूर पर शुक्रतीर्थ के निकट एक द्वीप में एक बहुत बड़ा वटवृक्ष है जिसे कबीर बट कहते हैं। ऐसी किम्बदन्ती है कि अपनी गुजरात यात्रा के समय कबीर ने इसे स्पर्श कर हरा कर दिया था। इसी यात्रा के दौरान में गुजरात के सोलंकी राजा ने पुत्र-प्राप्ति के लिए कबीर से प्रार्थना की थी। फिर भी कबीर की गुजरात यात्रा एक विवादग्रस्त प्रश्न है।
अन्त में एक प्रश्न उठता है कि वास्तव में ये पद कबीर द्वारा ही रचित है या कबीर के पश्चात् किसी अन्य कबीरपन्थी साधु के बनाए हुए है। पदों की भाषा तथा वस्तु के अध्ययन से पता चलता है कि इनके कबीर कृत होने में कोई सन्देह नहीं है। नीचे कबीर के उन अप्रकाशित पदों को दिया जा रहा है-----
हस्तलिखित प्रति सं. 1 म
(1)
कित गये पंच किसान हमारे।
आय दिवान गाव मध बैठे, लेखे कागद डारे।
निकसी बाकी पकर मुकवम सबही होय गये न्यारे
रुक गये कंठ शब्द नहिं उचरत, परे कष्ट अति भारे।
दगाबाज सो साझा किन्हों, वे साह विचारे।
सूको खेत बीज गयो निर्फल, रुक गये षार पनारे।
कबिरा गांव बौहोर नहि दसवो, उठि गये सीचन हारे।
हस्तलिखित प्रति सं. 1 आ
(2)
बुझउ खेल खिलारी रे।
चतुर सखी मिल खेल बिचारा आंखि मूंड अंधिवारी रे।
परम पियारी बेठन हारी ढूँढत है कछु पानी रे।
वे दोउ फुनि चहु दिस धावें, सून्य ही सून्य नयानी रे।
जब उन्ह सून्यरुप अवगाहा, तब इन्य येक बनाया रे।
येक रूप ओ एक नाभ करि, सून्य अकार छयाश रे।
उन्हें येक येक करि ढुडावो, दो ही रुप समानी रे।
वहीं वरन और वही नाम धरि, खोजत दोउ लजानी रे।
येहि भाँति नव निधि भेदि देनषों नाम येक नारी रे।
कहै कबीर आगीली बानी, नवधा भक्ति सवारी रे।
हस्तलिखित प्रति सं. 895 गु
(3)
प्रेम के वस पडे जन कोई, प्रम (के) बस परे।
घाट ओ घाट वाट व सभी, कोटिन में कोउ तरे।
दिपक देषी पतंग हलक्यो, जीव देत न डरे।
नाद घंटा सुनत आधा, मुषे तरन न चरे।
सकल बन में भमत भरा, सो बास कमल की करे।
श्वांत बुंद कु रट तब पीय, निसदिन पीउ पीउ करे।
चकोर कुं बल बोहोत चंद को, सो अंगन में परबरे।
जैसे हरिया लगत लकरी, सो भोमी पाउ न धरे।
सुरा बांधी रन चडे तोहु, मरन से न डरे।
सती अपने सत कारन, पीउ के संग जरे।।
नाम महातम रटत निसदिन, कारज उनका सरे।
कहे कबीर हरि तब पइये जो जीव ताही मरे।
(4)
आजन आजीयँ नीस सोय।
जाही अँजन तिमरनासे नैन निरमल होय।
गुरु सांईं गुरु ज्ञान बतावे, दिल की दुबध्या षोय।
वैद सांईं जै पीउ मेरे, फैर पीउ न होय।
सर्स साबु सूपड धोबी, गुरु का भी मल डारे धोय।
कहै कबीर हरि तब पैये, जो एका एकी होय।।
हस्तलिखित प्रति सं. 1000 गु
(5)
अपने साहब की बात री मैं कासे पूछूं।
जान सुजान पीआ प्रीत बना सबई बटाऊ लोक री।।
बरहे ने मार दे वानी की तीईआ तन कस बेहाल री।
नदिया नीर धार अति धार कोई न उतरा जात रे।
माया मोहो मदन के माते फरे बखअ कि घाट रे।
मूरख पांच अमांत संगी सुमर सुमर रे।।
दास कबीर पिआ बोहरि ना मिलवो जउ तरवर जरे पात री।
हस्तलिखित प्रति सं. 3 आ
(6)
जीवरे राम परम पद जपणा, प्रभु जी बिना नहीं कोई अपना।
माटी षण षण मेहेल बणाये, मुरष कहे घर मेरा।।
आवेगा जमरा तलब लगावे, तो नहीं मेरा नहीं तेरा।
हिंदू बोले राम ही राम, तुरकी बोले खुदाई।
हिंदू जाले मुसलमान गाडे, तो षाक मां षाक मलाई।
को लूटे धन जोबन बावरे, को लूटे सुन्दर नारी।।
राम परम पद कोउ न लूटे, कबीर भीखारी जप रे राम परम पद।
हस्तलिखित प्रति सं. 1038 गु
(7)
रमंना हे रे माधानां, रमो मं रमना हे रे।
छरचे गंधन वीचे अटकत नाहीं, कैवल मुती मेदांना।।
लेहे लगाम ज्ञान कर घोड़ा, सूरत निरत चीत मटका।
सेजे चडु सत्य गुरु जी के बचने, तो मीट गया मन का भटका।।
हिरण नाद ने बुदह थोंड़ी, रवी ससी खाली ना पड़ना।
आसन पाली मगन होकर बैठा, तो मीट गया आवागमना।।
बीता नाक मां त्रीभोवन सूझे, सदगुरु अलख लखाया।
जब कारण जोगी बाहर ढूंढत है, ते घट भीतर पाया।
ऐक मां अनेक अनेक मां एक ते अनेक नी पाया।।
ऐक देखी जब परचारे पाआ, तो ऐक मां अनेक समाया।।
नास कहु तो सद्गुरु की लाजे वणना से कोई जोगी।
कहेत कबीर सुनो भाई साधु, तो सत चित आनंद भोगी।।
(8)
प्रेम कटारी जेहे ने प्रेम की रे यागी,
मारण हारा रे सतगुरु सुरा, ते प्रेमासन पुरा।।
सुरत कमान सबद कारे भलका, मारी रे मन की छांह रे करका।
गहेल घु मेरे मरण की रे लागी, देवता पेवता मुंम तारे तागी।।
भीतर भलका रहा रे तन माही, सालत बुझत कल जारे मांही।
घायल की गति घायल बुझे, भीतर पीण पण बाहर नाहीं सूझे।।
कहत कबीर मुवरि मन माही, फेर मरने की आसा नाही।
(9)
आर भआ रे अला यार हमारा।
सब जीवन का प्राण अधारा।
में जुत ऐक ने दस दरवाजा।
तापर मला पढ़े नीवाजा।
पांच पीर करे कफराना।
भरी भरी रे भारे मोहना रे बाण।
पांच तीर बसे एक थान।
अन भंगर जे नावत खाना।
चंचल चित वाहां रे डराबी।
अन पांणी तो पकड़ावी।
सेत पान जो पावे बीडा।
सत लोक मां करत है क्रीड़ा।
नाम अक्षर सतगुरु ने पाइ।
आवागमन थी लीओ हे छांडाई।
केहत कबीर सुनो नर सोही।
प्रेम भगती बिना मुगती न होई।
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