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उमर ख़ैयाम श्रीयुत इक़बाल वर्मा, सेहर

हिंदुस्तानी पत्रिका

उमर ख़ैयाम श्रीयुत इक़बाल वर्मा, सेहर

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    रोचक तथ्य

    Umar Khaiyyam, Anka-4, 1932

    उमर ख़ैयाम के जीवन के संबंध में हमारी जानकारी बहुत थोड़ी है। वह अपनी जगत्प्रसिद्ध रूबाइयों का रचयिता था- इस के या अन्य कुछ बातों के अतिरिक्त उस महाकवि के जीवन-काल की अन्य घटनाओं का कुछ भी ठीक और सिलसिलेवार पता नहीं चलता। उस का पूरा नाम ग़यासुद्दीन अबुलफतेह उमर था और उस के पिता का नाम इबराहीम। उस ने अपना उपनाम ख़ैयाम रक्खा। कारण, वह उस के ख़ीमा बनाने के पैत्रिक व्यवसाय का परिचायक था। यद्यपि वह अपने व्यवसाय का संचालन बहुत दिनों तक कर सका, पर उस का उपनाम तो साहित्य-संसार में चिरजीवी हो कर ही रहा। ऐसे उपनाम ग्रहण किए थे। उदाहरण-स्वरूप वीररस के आचार्य और जगत्प्रसिद्ध फारसी पुस्तक शाहनामा के रचयिता फ़िरदौसी का नाम लिया जा सकता है। यह उपनाम इस कारण था कि फ़िरदौसी के पिता का पेशा ज़मींदारी और बागबानी था।

    हमारे चरितनायक का जन्म-संवत् निश्चित से ज्ञात नहीं हो सका। हाँ, अनुमानतः वह 1023 ई. कहा जा सकता है। जन्मस्थान ख़ुरासान का मशहूर शहर नीशापुर कहा जाता है, जो वर्तमान नीशापुर की पूर्व ओर बसा हुआ था। उस के भग्नावशेष अब भी उस के अतीत वैभव का पता देते है। यही नीशापुर केवल ख़ैय्याम, प्रत्युत अनेक महान आचार्यों, उद्भट विद्वानों और ख्यातनामा कवियों का जन्मस्थान एवं निवासस्थान था। वह विविध विद्याओं का प्रसिद्ध केंद्र भी था और वहाँ कई बड़े-बड़े विद्यालय भी खुले हुए थे, जिन से ज्ञान की अविरल धाराएँ प्रवाहित हो कर तृषित जनता की प्यास बुझाने का प्रयास कर रही थीं।

    उन्हीं विद्यालयों में से एक में उमर ख़ैयाम भी लगभग 16 वर्ष की आयु का हो कर, पढ़ने के लिए प्रविष्ट हुआ। अबुल क़ासिम और हसन बिन सब्बाह उस के समकक्ष थे। उन के गुरु इमाम मुवफ्फक़ के विषय में यह बात प्रसिद्ध थी कि उन के शिष्य साधारणतया सफलजीवी हुआ करते थे। इसी विश्वास पर इन तीनों छात्रों ने आपस में समझौता किया कि उन में से जिस किसी को भी अपने सांसारिक जीवन में किसी उच्च पद पर प्रतिष्ठित होने का सौभाग्य प्राप्त हो वह विद्यालय की इस समकक्षता को अवश्य ही अपना समकक्ष बनाए। बात पक्की हो गई और तीनों उपयुक्त समय की प्रतीक्षा में विद्योपार्जन करने लगे।

    सर्वप्रथम अबुल क़ासिम पढ़ाई से निवृत्त हो नौकरी की तलाश में इसफहान गया, जो सुलतान अलम अरसलान सलजूकी की राजधानी थी। वहाँ उस को कोई जगह मिल गई। पर आदमी था ईमानदार, मेहनती, शरीफ और खुशकिस्मत, अतः जल्द जल्द तरक़्क़ी पाता गया- यहाँ तक वह सुलतान का प्रधानमंत्री बन गया और निज़ामुल-मुल्क की उपाधि से विभूषित हुआ। शनैः शनैः उस के दोनों पुराने साथी भी वचनपूर्ति की आशा में उस के पास पहुँचे। निज़ामुल्-मुल्क ने उन के साथ साथियों का सा ही वर्ताब कर उन की बड़ी आवभगत की और अपना वादा पूरा करने पर तैयार हुआ। हसन को तो उस ने उसी की इच्छानुसार किसी उच्च सरकारी पद पर नियुक्त करा दिया जिस पर वह अपनी स्वाभाविक नीचता के कारण अंत तक टिक सका। परंतु ख़ैयाम तो था प्रकृत कवि, उसे सांसारिक वैभव की कब परवा हो सकती थी? उस ने केवल यही इच्छा प्रकट की कि मुझ गुज़र बसर के लिए नीशापुर में ही कोई जागीर मिल जाय कि निश्चित हो कर एकांत विद्या-व्यसन में समय बिता सकूँ। तदनुसार ख़ैयाम को 1200 तूमान (3000 रूपए) सालाना की जागीर मिल गई और नीशापुर में ही, उस ने अपने पूर्व निश्चय के अनुसार अपनी सारी आयु पुस्तकावलोकन और काव्य-प्रणयन में समाप्त कर दी। फिर वह आयु भी आजकल की कोई अल्पकालीन आयु थी, प्रत्युत पूरे 109 वर्ष की। यद्यपि आज उस की रूबाइयों के सिवा और कुछ भी उपलब्ध नहीं, पर सोचने की बात है कि उस ने अपने दीर्घकालीन अध्ययन एवं अध्यवसाय की बदौलत अपने अभ्यस्त हाथों से साहित्योद्यान की कितनी क्यारियों को कितने प्रकार के पुष्पों से भर दिया होगा। कदाचित् प्रत्युपकार-स्वरूप ही नीशापुर में उस की समाधि पर प्रकृति की ओर से अब तक बराबर फूल बरसाये जा रहे हैं। यह कवि की भविष्यवाणी थी जो आज भी सच उतर रही है।

    यों तो ख़ैयाम भाषा-संबंधी साहित्य के अतिरिक्त दर्शन, इतिहास, अंकगणित, ज्योतिष, खगोल इत्यादि कई विद्याओं का ज्ञाता था। अपने इसलामी धर्म-ग्रंथों से भी पूर्णतः अभिज्ञ था। पर यह सब होते हुए भी उस की वर्तमान विश्वव्यापी ख्याति की निर्माणकर्त्री तो केवल उस की रूबाइयाँ ही हैं जो फारसी क्या, संसार के किसी भी साहित्य में अपना जवाब नहीं रखती। ख़ैयाम कवि का हृदय रखता था और कवि की भावुकता भी। वह अपने सूक्ष्म विचारों को सूक्ष्म रीति से ही प्रगट करना चाहता था जिस के लिए रुबाइयाँ बहुत मौजूँ है। उस की एक एक रुबाई एक एक सूत्र है। जिस में काव्य है, कल्पना है, रस है और रहस्य है। वह अपनी थोड़ी बात को थोड़े में कह देता है और फिर वह अपने पाठकों की रुचि पर छोड़ देता है कि चाहे वे उसे थोड़े में समझ ले या बहुत में। उभय प्रयोजनों की दृष्टि से ही, कुशल कवि ने अपने कथन में बेहद सफाई लाने की कोशिश की है। फ़ारसी भाषा के नैसर्गिक माधुर्य ने तो मानों इन रुबाइयों के निमित्त सोने पर सुहागे का काम किया है। अतिरिक्त आकर्षण का यह भी एक कारण है।

    परंतु जो बात हमें सब से अधिक आकृष्ट करती है वह है ख़ैयाम के अपरिमित मदिरा-प्रेम का प्रस्फुटन। कदाचित् ही कोई ऐसा विषय हो जो उस की रूबाइयों में समाविष्ट हो। ईश्वर, धर्म, नीति, जीवन, मरण, पृथिवी, आकाश, स्वर्ग, नरक, सुख, दुःख, अमीरी-गरीरी, दोस्ती-दुश्मनी, मदिरा, प्रेमिका, इत्यादि, इत्यादि सभी पर कवि ने अपने विचार व्यक्त किए है। पर मदिरा की चर्चा से उस की तृप्ति नहीं होती। तद्विषयक रूबाइयों की केवल संख्या ही अधिकतम है, प्रत्युत उस का भाव इतना व्यापक है कि कोई भी विषय उस से अछूता नहीं बचा। उदाहरणार्थ हम यहाँ केवल ऐसी तीन रुबाइयाँ उद्धृत करना पर्याप्त समझते है, जिन में विषयों की विचित्रता कवि को अपना रंग दिखलाने से बाज़ नहीं रख सकी----

    मेरे दुःख भरे हुए सीने पर दया कर। मेरे बंदी जान ये दिल पर दया कर। मेरे पग जो शराबख़ाने की तरफ़ जा रहे हैं, उन पर भी करुणा कर और मेरे उन हाथों पर भी करुणा जो शराब का प्याला लिए हुए है।

    यह जो कुछ लौकिक रचना है सभी कल्पना और चित्र है। वह विज्ञ नहीं जो इस स्थिति को नहीं जानता। बैठ, शराब का प्याला पी और प्रसन्न रह। यह जो गूढ चिंता है इस से निवृत्त हो जा।

    यह दुनिया तो फिरने की जगह है, बैठने की। इस में जो बुद्धिमान हैं वही खोटे हैं और जो मस्त हैं खरे बने हुए है। जो दुःख की अग्नि है उस पर सुरारूपी जल डाल- इस में पहिले कि तू धूल में, अपनी मुट्ठी में हवा भरे हुए, मिल जाय।

    बात यह है कि कवि अपने सहृदय पाठकों को, उस मस्ती से महरूम नहीं रखना चाहता जिस में उसे स्वयं मज़ा आता है। फिर मज़ा भी कैसा? फर्ज़ी नहीं, बल्कि जो ठोस वस्तु से मिला करता है। कोई कुछ कहे परंतु हम यह मानने को तैयार नहीं कि ख़ैयाम शराब नहीं पीता था। हम यह नहीं कहते कि उस में ईश-प्रेम की न्यूनता थी या उस की बहुत सी रुबाइयों में देश-प्रेम संबंधी मदिरा का अर्थ नहीं निकाला जा सकता। परंतु कुछ रुबाइयाँ इतनी स्पष्ट है कि उन का कोई दूसरा अर्थ हो नहीं सकता।

    फ्रेडरिक रोज़ेन कृत रुबाइयात उमर ख़ैयाम की भूमिका में लिखा है कि बर्लिन की स्टेट लाइब्रेरी में उमर ख़ैयाम कृत नौरोज़ नामा नामी फारसी की गद्य पुस्तक है।

    इस में लिखा है कि----

    सुक़रात, बूअली सीना, मुहम्मद ज़करिया जैसे नामी हकीम इस पर सहमत है कि मानवी शरीर के लिये कोई चीज़ इतनी मुफ़ीद नहीं जितनी शराब- ख़ास कर वह शराब जो अंगूर से खींची गई हो। ग़म दूर हो कर दिल खुशी से भर जाता है। शरीर में शक्ति और मुख लालिमा आती है। बुद्धि में निखार और स्मरण-शक्ति में बल पैदा होता है। कृपण उदार हो जाता है, और कायर वीर। विद्वानों के कथानुसार शुद्ध सुरा पीने से मानवी प्रकृति के असली जौहर खुल जाते है.........।

    हमारा यह मतलब नहीं कि ख़ैयाम बेदीन था। लोग तो उसे प्रायः बेदीन ही कहा करते थे, इस लिए कि वह स्वच्छन्द था और महान दार्शनिक था पर वह ऐसा था नहीं। कवि की कविताएँ प्रायः उस के आंतरिक विचारों की धोतक हुआ करती है। उन्हीं से इत बात का पता चलता है कि वह मुसलमान था। लेकिन उस में किसी प्रकार कट्टरपन था। इस रुबाई से उस की अन्य मों के प्रति सहिष्णुता प्रकट होती है----

    मंदिर हो या काबा, दोनों पूजा के घर है। शंख का नाद पूजा का संगीत है।

    मस्जिद हो या गिरजाघर, तस्बीह हो या सूली का चिन्ह, ईश्वर साक्षी है कि सभी पूजा की निशानियाँ है।

    उस की स्वाभाविक विशालहृदयता इस कारण और बढ़ गई थी कि उस का संबंध सूफ़ी सम्प्रदाय से था जिसे हम अपने शब्दों में अद्वैतवाद कह सकते है। प्रमाण उस की यह रुबाई है----

    कभी तो परदे में छिप कर किसी को मुख नहीं दिखलाता और कभी तु सृष्टि के इन रूपों में प्रकट हो जाता है। यह अपना प्रकाश तू अपने को ही दिखाता है। अर्थात् तू स्वयं प्रकट होने वाला और स्वयं दर्शक है।

    और सब से बड़ा प्रमाण उस की वह मस्ती है जिस पर सूफ़ी सम्प्रदाय का एकाधिकार ही समझना चाहिए और जो उस के शब्द से टपकी पड़ती है। उस के विचार कितने विशद एवं विशुद्ध थे, इस का पता उस की नीति-विषयक रुबाइयों से लगेगा जिन की संख्या बहुत अधिक है।

    उदाहरण के लिए केवल दो रुबाइयाँ ही जाती हैं------

    दिल ज़माने से उपकारों की आशा कर। पदार्थों के लिये तू आस्मान की गर्दिश का भरोसा कर। तू दवा चाहता है और तेरा दर्द बढ़ जाता है। जो दर्द है उसे सहन कर और किसी से दवा माँग।

    अगर तेरे पास घोड़े, अख्र और जवाहिरात हैं तो इस दस रोज़ की दौलत पर घमंड कर। आस्मान के क्रोध से अपनी जान कोई बचा सका। आज उस ने घड़ा तोड़ डाला, कल प्याला तोड़ डालेगा।

    ऐसी भी अनेक रुबाइयाँ है जिन से यह विदित होता है कि ख़ैयाम पुनर्जन्म के विषय में विचार कर रहा था। वह किस निश्चय पर पहुँचा, हमें यह पता नहीं। इतना अवश्य मालूम होता है कि वह उस दशा में है जिसे हम संदिग्धता की दशा कह सकते हैं। दो रुबाइयाँ उस की इस द्विविध दशा को दिखाती हैं-----

    वह लोग जो कि आशाक के रहस्यों के ज्ञाता है और इस संसार को अलंकृत करते हैं- वह आते है और चले जाते हैं और फिर इस दुनिया में आते हैं। आस्मान के दामन से और पृथ्वी के नीचे एक जनता है जिसे ईश्वर में शांति प्राप्त होती है।

    सवेरे का समय है। ऐ! आनबान वाले उठ। धीरे धीरे मदिरा पी और चंग बजा। इसलिये कि जो लोग यहाँ है वह अधिक समय तक यहाँ रहेंगे और जो चले गए हैं फिर यहाँ आएंगे।

    एक शब्द में हम ख़ैयाम के धर्म को प्रेम-धर्म कह सकते है। उस प्रेम की केवल आध्यात्मिक अभिव्यक्ति नहीं होती प्रत्युत भौतिकता से भी उस का घनिष्ट संबंध है। दोनों ही प्रवृत्तियाँ पराकाष्ठा तक उन्नत होती है। परिणाम-स्वरूप प्रेमी का प्रेम एक ओर तो ईश्वर को अपना लक्ष्य बनाता है और दूसरी ओर वह साधारण मनुष्यों से गुज़र कर प्रेमिका के सौन्दर्य से सम्बद्ध हो जाता है। ख़ैयाम सिर्फ शराब की मुहब्बत का दम नहीं भरता, वह माशूक़ की भी पूजा करता है। उस की वे रुबाइयाँ भी पढ़ने के योग्य है।

    ख़ैयाम में एक खूबी और भी है जो उस की रुबाइयों में प्रायः सर्वत्र देखी जाती है। वह एक ही बात को बार बार कहता है परन्तु इस रीति पर कि वह पुनरुक्ति सी दिखती हुई भी उस के कथन को पुष्ट करे और नीरस होने के बजाय अधिकाधिक प्रभावोत्पादक हो।

    ख़ैयाम की कुल रुबाइयों की ठीक तादाद का अब तक पता नहीं, वह कमोबेश एक हज़ार बतलाई जाती है। उस की रुबाइयों में यदा-कदा अन्य फारसी कवियों की रुबाइयाँ भी शामिल हो गई है। कदाचित् इस कारण कि रुबाइयों का संग्रह कवि की मृत्यु के पश्चात् किया गया। जैसा कि बहुधा होता है, कवि की कीर्ति भी उस की मृत्यु के पश्चात् ही फैली और सारे संसार में फल गई। उसे पश्चिमी जगत में फैलाने का श्रेय फिट्ज़जेरल्ड नामी अंग्रेज़ कवि को प्राप्त है जिस ने सर्वप्रथम ख़ैयाम की 75 रुबाइयों का अँगरेज़ी कविता में अनुवाद किया था। यह अनुवाद सन् 1858 ई. में केवल 200 प्रतियों के संस्करण द्वारा प्रकाशित हुआ था जिन पर अनुवादक का नाम भी था। उस समय पुस्तक को किसी ने पूछा। उस का मूल्य 5 शिलिंग से घटा कर 1 पेनी कर दिया, फिर भी बात ज्यों की त्यों रही। शनैः शनैः पुस्तक गुणग्राहियों के हाथ पड़ी और फिर उस की क़द्र बढ़ चली। जहाँ पहले 10-5 वर्षों में नवीन संस्करण की नौबत आती थी वहाँ सन् 1881 ई. के बाद यह हालत हुई कि पुस्तक वर्ष में कई-कई बार छपने लगी और ख़ैयाम के साथ फ़िट्ज़जरेल्ड का नाम भी साहित्य-संसार में अमर हो गया। अंगरेज़ी में और अनुवाद भी हुए परंतु सर्व-प्रियता का सेहरा फ़िट्ज़जरेल्ड ही के सिर रहा। उस की भाषा इतनी सिजिल समझी गई कि अन्य कवियों ने भी उस का अनुकरण किया। और सच पूछिए तो भाषा-सौंदर्य के कारण ही उसे यह शुहरत नसीब हुई, अन्यथा तो उस ने अपने अनुवाद में मूल रुबाइयों का ही ख्याल रक्खा और उस ने अनूदित रुबाइयों का चयन ही अच्छा किया है। हाँ, फ़िट्ज़जरेल्ड ही ने अनुवाद में ग़लती की हो, सो बात नहीं है, बल्कि जितने भी अनुवाद अँगरेज़ी, फ्रांसीसी, जर्मन इत्यादि भाषाओं में छपे है उन सभी में यही दोष कमोबेश पाया जाता है- भले ही उनमें रुबाइयों की संख्या अधिक हो। मगर तारीफ़ की बात तो यह है कि ऐसा होते हुए भी ख़ैयाम अपनी मनोमुग्धकारी मौलिकता की बदौलत सभी पाठकों से बरबस अपनी प्रशंसा करा लेता है और साथ ही उस प्रशंसा का कुछ अंश अपने अनुवादकों को भी दे देता है। फिट्ज़जरेल्ड को तो इतना बड़ा अंश मिला है कि उस का प्रभाव समूची अँगरेज़ जाति पर भी पड़े बिना नहीं रहा। लंदन में तो उमर ख़ैयाम के नाम पर क्लब तक क़ायम हैं जिन के सदस्य साप्ताहिक अधिवेशनों में ख़ैयाम की रुबाइयों का पाठ करते है। यह है एक साहित्य प्रेमी जाति के साहित्य प्रेम का बढ़िया नमूना है।

    सभ्य संसार की बीसियों भाषाओं में इन रुबाइयों के अनुवाद हो चुके हैं और यही क्रम अब भी बराबर जारी है। हमारे देश की कई भाषाओं में अनुवाद हुए और हो रहे हैं। रुबाइयाँ आज क्यों इतनी सर्वप्रिय हो रही है, इस का कारण उन की वह विशेष रचना-शैली है जिसे आधुनिक संसार अपनाता चला जा रहा है। अधिक स्पष्ट शब्दों में, उन में उस रहस्यवाद की पुट का होना है जिसे संसार की वर्तमान एवं आगामी कविता का लक्ष्य समझना चाहिए और जिस लक्ष्य की प्राप्ति पर ही कविता अपनी सार्थकता प्रकट करने-अपने को चित्रित करने-में पूर्णतः सफल हो सकेगी।

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