मीराबाई और वल्लभाचार्य
रोचक तथ्य
Meerabai or Wallabhacharay-2, 1938
कृष्णदास अधिकारी की वार्ता से पता चलता है कि आचार्य महाप्रभु के कुछ निज सेवक मीराबाई को नीचा दिखाने का भी प्रयत्न किया करते थे। उस से इस विरोध के कारण का भी कुछ पता चलता है।
कृष्णदास अधिकारी एक बार द्वारिका गया। वहां से रणछोड़ जी के दर्शन करके वह मीराबाई के गाँव आया। वहां हरिवंश व्यास आदि कई प्रतिष्ठित वैष्णव ठहरे हुए थे। किसी को आए आठ, किसी को दस, किसी को पंद्रह दिन हो गए थे। कृष्णदास ने आते ही कहा में चलता हूँ। मीराबाई के बहुत रोकने पर भी वह न रुका तब मीराबाई ने श्रीनाथ जी के लिए कई मुहरे भेट देनी चाही पर कृष्णदास ने ली नहीं और कहा कि तू आचार्य महाप्रभु की सेवक नहीं होती है इसलिए हम तेरी भेंट हाथ से छुएंगे भी नहीं। यह कह कर वह चल दिया।
ऊपर के उद्धरण से स्पष्ट है कि वल्लभाचार्य जी के अनुयायियों का उस से कुछ सीमा तक अवश्य ही इस कारण विरोध था कि वह भी उन की अनुयायिनी नहीं बनी। आरंभिक अवस्था में प्रत्येक संप्रदाय में स्वभावतया प्रचार और प्रदर्शन का भाव अधिक रहता है। वल्लभ-संप्रदाय भी इस बात का अपवाद नहीं था, यह स्वयं कृष्णदास अदिकारी के शब्दों में स्पष्ट है। कृष्णदास जब मीराबाई की भेंट फेर कर चला आया तो एक वैष्णव ने उस से कहा ,तुम ने श्रीनाथ जी को भेंट नही ली। कृष्णदास ने कहा, भेंट की क्या पड़ी है। मीराबाई के यहां जितने भक्त बैठे थे उन सब की नाक नीची कर के भेंट फेरी है। इतने एक जगह कहां मिलते। ये भी जानेगे कि एक समय आचार्य महाप्रभु का सेवक आया था। उस ने भी जब भेंट नही ली तो उस के गुरु की तो बात ही क्या होगी।
ज्ञान पड़ता है कि मीराबाई को वल्लभ-संप्रदाय में दीक्षित करने के कुछ प्रयत्न हुए थे। बाद को तो वल्लभ-संप्रदाय को मेवाड़ में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई। 252 वार्ता के अनुसार मीरा की देवरानी अजबकुँवरबाई को विट्ठलनाथ ने अपनी शिष्या बना लिया और श्रीनाथ का मंदिर बन जाने पर औरंगजेब के समय में तो मेवाड़ वल्लभ-संप्रदाय का एक महत्वपूर्ण केंद्र ही हो गया। किंतु स्वयं मीरा को दीक्षित करने का कोई प्रयत्न सफल नहीं हुआ। मीराबाई का पुरोहित रामदास भी 84 वैष्णवन की वार्ता के अनुसार वल्लभ-संप्रदाय में दीक्षित हो गया था। पर वह तब भी दीक्षित नहीं हुई। एक दिन रामदास मीराबाई के ठाकुर जी के आगे कीर्तन कर रहा था। उस ने कीर्तन में आचार्य महाप्रभु का पद गाया। उस के समाप्त होने पर मीराबाई ने कहा, श्री ठाकुर जी का पद गावो। इस पर आचार्य महाप्रभु का अपमान समझ कर रामदास बड़ा क्रुद्ध हुआ और मीराबाई को बुरा-भला कहता हुआ उस के यहां से अपना कुटुंब ले कर चला गया। मीराबाई के बुलाने पर भी वह उस के यहां न गया। मीराबाई ने घर बैठे ही रामदास की वृत्ति देनी चाही। पर उस ने यह कह कर नही ली कि आचार्य महाप्रभु पर तेरी सम दृष्टि नहीं है, तेरी वृत्ति ले कर हमें क्या करना है? हमारे तो सर्वस्व आचार्य महाप्रभु ही है।
ये उद्धरण इतने विस्मयकारक है कि सहसा इन पर विश्वास करने का जी नहीं चाहता। इस लिए देखना चाहिए कि वार्ता और उस में दी हुई ये घटनाएँ कहां तक प्रामाणिक है।
वार्ता की ऐतिहासिक प्रामाणिकता को जाँचने का कोई विशेष साधन उपलब्ध नहीं है। उस का रचयिता कौन है, इस का भी निश्चित ज्ञान हमें नहीं है। स्वयं वार्ता में कहीं उस के लेखक का नाम नहीं दिया हुआ है। इधर कुछ लोगों का विश्वास चला आता रहा है कि यह वल्लभाचार्य के पौत्र और विट्ठलनाथ के पुत्र गोकुलनाथ की लिखी हुई है जिन का रचना-काल पंडित रामचंद्र जी शुक्ल के अनुसार स. 1625 से 1650 तक माना जा सकता है। (हिंदी-शब्दसागर, भूमिका, पृ. 209) स. 1909-1911 की नागरी-प्रचारिणी सभा की खोज-रिपोर्ट में हरिराय के नाम से एक चौरासी वैष्णवन की वार्ता (स. 115-बी) का उल्लेख है। आदि-अंत के अवतरणों से मालूम पड़ता है कि यह भई थोड़े से भेद से गोकुलनाथ की समझी जाने वाली वार्ता ही है। पर रिपोर्ट वाली 84 वार्ता के आदि-अंत में भी रचयिता का नाम नहीं दिया हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार, हरिराय आचार्य जी का शिष्य और उन के पुत्र विट्ठलनाथ तथा पौत्र गोकुलनाथ दोनों का समकालीन था। 252 वैष्णवन की वार्ता में दी हुई गंगाबाई क्षेत्राणी की वार्ता से पता चलता है कि गंगाबाई की मृत्यु के समय स. 1736 में हरिराय विद्यमान था। उस समय वह मेवाड़ में श्रीनाथ के मंदिर का महंत था। इस में संदेह नहीं कि हरिराय तथा गोकुलनाथ ने ब्रजभाषा गद्य में अच्छी टीकाएं लिखी है, जिन की भाषा वार्ता ही के समान सुंदर ओर सजीव है। परंतु हरिराय के भावना, सन्यास-निर्णय, निरोध लक्षण और शिक्षा पत्री तथा गोकुलनाथ के सर्वोत्तम स्तोत्र टीका आदि ग्रंथों में लेखकों के नाम स्पष्ट रूप से दिए हुए है, जब कि वार्ताओं में किसी का नाम इस प्रकार नहीं दिया गया है। ऐसा जान पड़ता है कि वार्ता किसी एक व्यक्ति की लिखी हुई नहीं है। संभवत बहुत सी वार्ताएं मूल-रूप में स्वयं आचार्य जी के मुख से सुनी गई होगी। कुछ अन्य लोगों ने अपनी आँखों देखी कहीं होगी। फिर परंपरा से कानो-कान चली आती होगी। गोकुलनाथ या हरिराय इन के लेखक तो क्या संग्रहकर्ता भी थे या नहीं, नहीं कहा जा सकता। परंतु इस से मीराबाई-संबंधी इन प्रसंगों की प्रामाणिकता में कोई अंतर नहीं आता। इन प्रसंगों के पीछे यदि ऐतिहासिक आधार न होता तो ये पीछे से वार्ता में न आ पाते। मीरा का महत्व सर्वकालीन है। ऐसे व्यक्तियों को सब लोग अपनाने का प्रयत्न करते है। समय की दूरी जब तुच्छ कलहों की तात्कालिक तीव्रता को शिथिल कर डालती है तब ऐसे व्यक्तियों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने की इच्छा होती है, मतभेद दिखाने की नहीं। उस से जान पड़ता है कि इन बातों के पीछे अवश्य ऐतिहासिक आधार है। और ये उस समय की लिखई या कहीं हुई है जब कि अभी ताजी ही थी। इन में कोई बनावट भी नहीं जान पड़ती। यदि कोई बनावट हो तो अधिक से अधिक इतनी ही कि रामदास से मीराबाई के लिए जो दुर्वचन कहलाए गए हैस वे अतिरंजित हो। कृष्णदास वाला प्रसंग तो इतना निश्छल है कि इस के सर्वथा सत्य होने में कोई संदेह ही नहीं जान पड़ता।
ऐतिहासिक दृष्टि से इन घटनाओं में कोई असंभवता भी नहीं। वल्लभाचार्य जी का जन्म स. 1535 में हुआ था और गोलोकवास स. 1587 में। ये तिथियाँ संप्रदाय में भी मान्य समझी जाती है और उस से बाहर भी। मीराबाई पहले महाराणा कुंभ की स्त्री समझी जाती थी। परंतु अब मुंशी देवीप्रसाद, श्री हरविलास सारडा और महामहोपाध्याय डाक्टर गौरीशंकर हीराचंद ओझा, राजस्थान के ये तीनों प्रमुख इतिहासविद उसे एकमत हो महाराणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र कुमार भोजराज की स्त्री मानते है। वार्ता भी समय की दृष्टि से इस को पुष्ट करती है। मीरा के संबंध में अब तक जो कुछ ऐतिहासिक तथ्य है उन से इतना निश्चित है कि मडते के राव वीरमदेव के छोटे भाई रतनसिंह की इस पुत्री का जन्म स. 1555 के लगभघ, विवाह 1573 के लगभग, वैधव्य 1575 के लगभग और निधन 1603 के लगभग हुआ। इस प्रकार वार्ता में दी हुई ऊपर की घटनाओं के सत्य होने में कोई ऐतिहासिक व्यवधान नहीं है। क्योंकि मीरा और आचार्य जी दोनों समकालीन थे।
वार्ता के ऊपर दिए हुए उद्धरणों से मीराबाई के महत्व पर बहुत प्रकाश पड़ता है। वह सब संतो का, संप्रदाय-भेद का विचार किए बिना, समान रूप से आदर करती थी। उस की बड़ी उदार धार्मिक भावना थी। वल्लभ-संप्रदाय की न होने पर भी उस ने उन के मंदिर में भेंट भेजनी चाही। उस के विरोधियों ने भी उस से कटु वचन नहीं कहलाए। वह बड़ी सहिष्णु थी। कृष्णदास ने उसे नीचा दिखाने का प्रयत्न किया, रामदास ने उसे गालियां तक दी, फइर भी उसे उद्विग्न नहीं कर सके। रामदास को तो वह घर बैठे वृत्ति देने तक को तैयार थी। उस के महत्व को वल्लभाचार्य जी स्वयं जानते होंगे। किसी सामान्य व्यक्ति को दीक्षा के लिए तैयारन न करा सकने पर उन के भक्तों की उतनी खीझ न होती जितनी वार्ता से प्रकट है।
वल्लभाचार्य जी भी उस काल के बहुत बड़े महात्मा थे। मीरा के साथ उन के भक्तों के बेढंगे व्यवहार में उन का हाथ कदापि नहीं हो सकता, किंतु मीरा से उन का अवश्य ही गहरा तात्विक भेद था, जिस ने शिष्यों में जा कर दूसरा रूप धारण कर लिया। गोविंद दुबे की वार्ता से पता चलता है कि यह भेद इतना गहरा था कि उस के कारण मीराबाई से अपने अनुयायियों का संसर्ग भी वल्लभ-संप्रदाय के कुछ आत्मजन अवांछनीय समझते थे।
मीराबाई ने भी मतभेद को छिपाया नहीं है। उस की ओर से हमारे सामने दो अर्थ-गर्भित तथ्य है। जब कि सूरदास सरीखे महात्मा जो स्वयं दीक्षा देते थे, जिन के स्वयं बहुत से भक्त थे, वल्लभाचार्य जी के सेवक हो गए तब भी मीरा ने उन से दीक्षा नहीं ली। दूसरे वल्लाभाचार्य जी के पदों को मीरा अपने ठाकुर जी के उपयुक्त नहीं मानती थी। परिणाम इस से यह निकलता है कि मीराबाई पर पहले ही से कोई गहरा रंग चढ़ा हुआ था, जो वल्लभ-संप्रदाय के रंग से कदापि मेल नहीं खाता था। इस प्रकार 84 वार्ता के ये उल्लेख मीरा के मत को समझने में प्रकारांतर से हमारी मदद करते है।
वल्लभाचार्य जी के पुष्टिमार्ग में कृष्ण-भक्ति की सार वस्तु है। इसीलिए वल्लभ-संप्रदायी कवियों ने कृष्णावतार की लीलाओं का विस्तार से वर्णन किया है। अष्टछाप के यशस्वी कवियों की रचनाएँ जिन्होंने पढ़ी है, वे इस बात को जानते है।
इस में संदेह नहीं कि प्रत्यक्ष मीराबाई भी कृष्णभक्त है। उस की वाणी में स्थल-स्थल पर कृष्ण का उल्लेख है। उस का बहुत-सा अंश कृष्ण ही को संबोधित कर कहा गया है। मीरा ने स्वयं कहा है कि मोरमुकुटधारी नंदनंदन ही मेरे पति है। गिरिधर गोपाल के अतिरिक्त किसी दूसरे से वह अपना संबंध ही नहीं मानती थी। कृष्ण ही की बाँकी-साँवली छवि, टेढी अलको और त्रिभंगी मूर्ति पर उस की लुभाई हुई आँखे अटकी रहती थी।
अपने आप को गोपी कल्पित कर वह भाग्यशालिनी गोपियों के भाग्य पर ईर्ष्या करती हैः-----
श्याम म्हांसूँ ऐंडो डोले हो।
और सूं खेलै धमार म्हांसूँ मुखहू ना बोलै हो।
म्हारी गलियां ना फिरै वाके आंगन डोलै हो।।
म्हारी अंगुली ना छुवै वा की बहियां मोरै हो।
म्हारो अंचरा ना छुवै वाको घूंघट खोलै हो।।
मीरा के प्रभु सांवरो रंग रसिया डोलै हो।।
परंतु यदि गहरे पैठ कर देखा जाय तो जान पड़ेगा कि उस का उतना ध्यान अवतार की ओर नहीं है जितना ब्रह्म की ओर। जिस नंदनंदन गिरिधर गोपाल के विरह में वह अँसुअन की माला पीया करती है जिस की बाट जोहते उस की छमासी रात बीतती है, जिस के रूप पर मुग्ध हो कर उसे लोक परलोक कुछ नहीं सुहाता, जिस से वह अपनी बांह मुडवाना और घूँघट खुलवाना चाहती है, जिस के लिए वह घायल हो कर तड़पती फिरती है, जिस को वह छप्पन भोग और छतीसो व्यंजन परसती है, जिस मिठ-बोला के लिए विकलता ने उस की दिल की घुडी खोली है वह पूर्ण ब्रह्म है। उसी निर्गुण का सुरमा वह अपनी आँखों में लगाती है। वह उसे पूर्ण-रूप से अपने अंदर देखती है। उस निर्गुण ब्रह्म का गगन-मंडल में निवास है। गगन-मंडल में बिछी हुई सेज पर ही प्रिय को मिलने की उत्कंठा वह अपने मन में रखती है। सुरति-निरति का वह दीपक बनाती है, जिस में प्रेम के बाजार में बिकने वाला (अर्थात् प्रेम का) तेल भरा रहता है और मनसा (इच्छा) की बत्ती जलती रहती है। उस का प्रेम-मार्ग उसे ज्ञान की गली में ले जाता है। उस का मन सुरत की आसमानी सैर में लगा हुआ है। वह अगम के देस जाना चाहती है, जहां प्रेम की वापी में शुद्ध आत्मा हँस क्रीड़ा किया करते है। राणा को डांट कर वह कहती है कि मै आज की नहीं तब की हूँ जब से सृष्टि बनी है। कबीर के मार्ग की भाँति उस की भी ऊँची-नीची रपटीली राह है, जिसे वह झीना पंथ (सूक्ष्म-ज्ञान-मार्ग) कहती है। निर्गुणियों का अभ्यास मीरा के निम्नलिखित पद में आ गया है----
नैनन बनज बसाऊं री जो मैं साहिब पाऊं री।
इन नैनन मोरा साहब बसता डरती पलक न लाऊं री।
त्रिकुटी महल में बना है झरोखा तहां से झांकी लगाऊं री।।
सुन्न महल में सुरति जमाऊं सुख की सेज बिछाऊं री।
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर बार बार बलि जाऊं री।
इस में त्रिकुटी-ध्यान और भ्रू-मध्य-दृष्टि की ओर स्पष्ट संकेत है। मीरा का ध्येय है पूरन पद। निरंजन का वह ध्यान करती है। अनाहत नाद को सुनती है और आदि अनादि साहब को पाकर भवसागर से तर जाती है।
यह कबीर की निर्गुण-भावना के सर्वथा मेल में है। उसी तात्पर्य के सहित कबीर की प्रायः सारी शब्दावली मीरा में मिलती है। कबीर से यदि मीरा में कोई अंतर है तो यही कि मीरा को मूर्तियो से चिढ़ नहीं। प्रियादास ने तो उसे अपूर्व मूर्ति पूजक माना है। उस के अनुसार, पिता के घर में ही उस का गिरिधर लाल की मूर्ति से प्रेम हो गया था। जब विवाहोपरांत पतिगृह जाने लगी तब उस ने सब वस्त्राभूषण छोड़ माता-पिता से गिरिधऱ लाल की मूर्ति माँगी, उसी को अपना पति समझा और अंत में उसी में समा गई। कबीर के साथ इस सादृश्य और भेद का कारण यह है कि उस ने रामानंद के शिष्य और कबीर के गुरुभाई रैदास से अथवा उस की वाणी से आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त की थी। मीरा के नाम से मिलने वाली वाणी में कई स्थान पर रैदास उस का गुरु बताया गया है। कबीर की समकालीन और उस से पहले कुछ संतों तथा कबीर के अतिरिक्त रामानंद जी के अन्य शिष्यों की यह विशेषता जान पड़ती है कि वे निर्गुण के प्रति अपनी ऊँची से ऊँची अध्यात्मभावना को मूर्तियों के समक्ष प्रकट करने में कोई प्रत्यक्ष विरोध नहीं मानते थे। नामदेव विठोबा की मूर्ति के सामने घुटने टेक कर निर्गुण निराकार की स्तुति करता था। इसी प्रकार रामानंद जी के अन्य शिष्य शालग्राम के प्रति आदर-भावना रखते थे। उस की सगुण-भावना निर्गुण-भावना का प्रतीक मात्र थी। वह अवतार भावना की विरोधिनी नहीं है परंतु उधर उस का उतना ध्यान नहीं। वल्लभ-संप्रदाय के कवियों की भाँति उस का उद्देश्य कृष्ण की लीलाओं का वर्णन करना नहीं, अपनी अनुभूति का प्रकाशन करना था। वह परब्रह्म-कृष्ण की गोपी थी। कबीर की भाँति वह प्रेम लक्षणा अर्थात् दशधा भक्ति की मानने वाली थी, जो निर्गुण-मार्गियों की विशेषता है। जो कुछ रैदास ने राम का नाम ले कर कहा है वह मीरा ने कृष्ण का नाम ले कर। कदाचित् कृष्ण-नाम से प्रेम का कारण यह हो कि वह जन्मी भी कृष्ण-भक्त परिवार में थी और ब्याही भी कृष्ण-भक्त परिवार में। उस के पति के यशस्वी पूर्वज महाराणा कुंभ ने तो राधामाधव संबंधी मधुर काव्य गीतगोविंद पर सुंदर टीका उस समय लिखई थी जब कि वल्लभ-संप्रदाय अभी अस्तित्व में नही आया था।
यह भी छिपा नहीं है कि वल्लभ-संप्रदाय भी प्रेम-मार्ग है परंतु नवधा भक्ति का, जो निर्गुणोपासना का विरोधी है। भ्रमरगीत में सगुण की आराधिका गोपियों के हाथों सूरदास ने निर्गुण-ज्ञानी उद्धव की जो दुर्दशा कराई है उस में निर्गुणोपासना के प्रति वल्लभ-संप्रदाय की विरोध-भावना का स्पष्ट प्रतिबिंब है। यहां पर गोपियों के चुटीले तर्क की एकाध बानगी दे देना काफी होगा-----
(1) सुनिहै कथा कौन निर्गुण की रचि पचि बात बनावत।
सगुन सुमेर प्रगट देखियतु तुम तृन की ओट दुरावत।।
(2) रेख न रूप बरन जाके नहिं ताको हमै बतावत।
अपनी कहौ, दरस ऐसे को तुम कहूँ ही पावत।।
वल्लभाचार्य जी और मीरा के बीच गहरे तात्विक मतभेद के ही आधार पर हम वार्ता में लिखित उपर्युक्त घटनाओं को उन के उचित रूप में समझ सकते है।
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