पदमावत में अर्थ की दृष्टि से विचारणीय कुछ स्थल - डॉ. माता प्रसाद गुप्त
पदमावत में अर्थ की दृष्टि से विचारणीय कुछ स्थल - डॉ. माता प्रसाद गुप्त
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रोचक तथ्य
Padmawat me arth ki darshti se vicharniy kuch sthal- Anka-1, 1961
जायसी का पदमावत हिन्दी के मध्ययुगीन साहित्य में अनेक कारणों से एक अत्यन्त विशिष्ट स्थान रखता है, किन्तु उसी प्रकार अनेक कारणों से इसका अध्ययन उस ढंग से नहीं दिया जा सका था जैसा इस महान् कलाकृति के लिए अपेक्षित था। इन में से एक बड़ा कारण इसके पाठ की अव्यवस्था थी। इसकी उलझी हुई पाठ-परंपरा के कारण विभिन्न संस्करणों ही नहीं प्रतियों में भी प्राप्त पाठ मूल से इतना दूर हो गया था कि बहुधा वह या तो निरर्थक और या तो अस्त-व्यस्त हो गया था। प्रायः दस वर्ष पूर्व इसी दृष्टि से जायसी-ग्रंथावली (हिन्दुस्तानी एकेडेमी, प्रयाग) को प्रस्तुत करते हुए इसके पाठ की समस्या को लेखक ने सुलझाने का एक प्रयास किया था, जिसने अपनी सीमाओं के होते हुए भी जायसी के अध्ययन को पिछले दस वर्षों में कुछ न कुछ आगे बढ़ाया है। इसी प्रकार का दूसरा कारण पदमावत की एक ऐसी सर्वांगीन टीका का अभाव था जो ऐतिहासिक और भाषा-वैज्ञानिक पद्धति पर उसकी भाषा का विश्लेषण करते हुए जायसी की उक्तियों के आशय को सुलझा कर प्रस्तुत करती। इस अभाव की पूर्ति पाँच वर्ष हुए डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने पदमावत की संजीवनी व्याख्या (साहित्य सदन, चिरगाँव) प्रस्तुत करके की। पदमावत पर टिप्पणियाँ और टीकाएँ पहले भी थीं, किन्तु ऐतिहासिक और भाषा-वैज्ञानिक पद्धति पर प्रस्तुत की गई पदमावत ही नहीं कदाचित् हिन्दी के किसी भी प्रमुख ग्रंथ की यह पहली टीका थी। इसने अवश्य ही जायसी के अध्ययन को बहुत आगे बढ़ाया है, और इसके लिए हमें डॉ. अग्रवाल का कृतज्ञ होना चाहिए।
जिस समय मैंने जायसी ग्रंथावली का संपादन किया था, उस समय मुझे उसके पाठों को सुलझाने में जहाँ प्रतियों के बहिर्साक्ष्य पर विचार करना पड़ा था, वहाँ रचना के अर्थ-विषयक अन्तर्साक्ष्य पर भी ध्यान देना पड़ा था। इधर कुछ अवकाश मिलने पर मैंने पदमावत के अर्थ के संबंध में और विस्तार से विचार किया है। मेरे अर्थ अनेक स्थलों पर प्राप्त टीकाओं-टिप्पणियों में दिए हुए अर्थों से कुछ भिन्न हैं, अतः मैं प्रस्तुत लेख में पदमावत के एक सौ छंदों में आने वाले ऐसे स्थलों के सम्बन्ध में अपने विचार पदमावत के पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत करना चाहता हूँ। यह संभव नहीं है और न आवश्यक ही है कि इस विवेचन में सभी टीकाओं-टिप्पणियों का उल्लेख करूँ, केवल डॉ. अग्रवाल की टीका उल्लेख करूँगा जो कि एकमात्र ऐसी टीका हैं जो जैसा ऊपर कहा जा चुका है ऐतिहासिक और भाषा-वैज्ञानिक-दृष्टि से प्रस्तुत की गई हैः-
(1) 50.1 चंपावति जो रूप उतिमाहाँ।
पदुमावति कि जोति मन छाहाँ।
डॉ. अग्रवाल ने प्रथम पंक्ति का अर्थ किया हैः चंपावती उत्तम स्त्रियों में रूपिणी (चांदी) है पदमावती रूप ज्योति (सुवर्ण) की छाँह उसके मन में पड़ी है। इस अर्थ में प्रकट है कि उतिमाहाँ का अर्थ उत्तम स्त्रियों में और रूप का रूपिणी (चाँदी) किया गया है। मेरा विचार है कि उतिमाह <उत्तमाह<उत्तम+आह=उत्तम दिन है, और रूप अपने सामान्य अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अर्थ होना चाहिएः चंपावती जो (अपने) रूप के उत्तम (सर्वोत्कृष्ट) दिनों में थी, उसका कारण यह था कि उसके मन की छाया में पद्मावती की ज्योति (भासित होने लगी) थी।
(2) 50.2 भै चाहै असि कथा सलोनी।
मेंटि न जाइ लिखी जसि होनी।
सलोनी का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने चाँदी मिले हुए सोने को शुद्ध करने की क्रिया-विशेष किया है, और टिप्पणी में बताया है, सोने में से चाँदी की मिलावट साफ करने के लिए सोने को पीट कर उसके पत्तर बनाते हैं और उन पत्तरों को कण्डे की राख, ईटों की बुकनी, सांभर नमक और कडुवे तेल की सलोनी में डुबो कर कंडे की ऑच में कई बार तपाते हैं, जिससे वह सलोनी चाँदी को खा लेती है और सोना शुद्ध हो जाता है। मेरा विचार है कि सलोनी का ऐसा कोई अर्थ सगत नहीं हो सकता है जिसमें चाँदी के-जिसे डॉ. अग्रवाल ने चंपावती माना है- सोने के द्वार- जिसे डॉ. अग्रवाल ने पद्मावती माना है- खा उठने की ध्वनि हो। यदि कथा में पद्मावती के जन्म के अंनतर ही चंपावती के मरण की बात आती होती, तो यह अर्थ संगत माना जा सकता था। मेरी समझ में सलोनी का सामान्य अर्थः सलोन<स+लवण=सलावण्य, सुन्दर ही यहाँ सगत है, यथाः
बाँहन्ह बाहूँ टाड सलोनी। (219.5)
हौं साँवरि सलोनि सुभ नैना। (443.2)
(3) 50.6 जस औधान पूर होइ तासू।
दिन दिन हिएँ होइ परगासू।
औधान के संबंध में डॉ. अग्रवाल की टिप्पणी हैः औधान-सं. आधान (गर्भाधान)>अवधान (वकार प्रश्लेष)>औधान। मेरी समझ में अवधान एक भिन्न शब्द है, वह आधान से बना हुआ नहीं हैः एकVधा के पूर्व आ जोड़ने से और दूसराVधा के पूर्व अब लगाने से बना है। दोनों के अर्थों में अवश्य अंतर साधारण है।
(4) 52.8-9 रामा आइ अजोध्याँ उपने (उपनी ?) लवण बतीसौ अंग।
रावन राइ रूप सब भूलै दीपक जैस पतंग।।
राइ के संबंध में डॉ. अग्रवाल की टिप्पणी हैः राइ-राना धातु=रमण करना (बुल्के, राम कथा पृष्ठ 53) इस प्रकार राइ का अर्थ डा. अग्रवाल के अनुसार हुआ रमण करके किन्तु यह अर्थ संगत नहीं है, सीता के साथ रमण करने की सभावना राम के लिए विवाह के अनतर और रावण के लिए सीता-हरण के अनंतर ही हो सकती थी, और यहाँ पर प्रसंग इस प्रकार के संयोग के पूर्व ही किसी रमणी के रूप पर दीपक के ऊपर पतिंगे के समान किसी प्रेमी के सब-कुछ भूल बैठने का है। मेरी समझ में यह राइ<रागिन्=प्रेमी है, जो प्रसंग-सम्मत भी है।
(5) 57.8-9 मारै सोइ निसोगा डरै न अपने दोस।
केला केलि करै का जौं भा बैरि परोस।।
निसोगा पर डॉ. अग्रवाल की टिप्पणी हैः निसोगा=बेफिक्र, निश्चिन्त, परलोक या धर्मकार्य से बेखबर, जिसे अपने पापो का शोक या चिन्ता नहीं, यथाः हिआ निसोगा जाग न सोई। (42.7)। किन्तु मेरी समझ में यह निसोग<णिस्सूग<निःशूक=निष्करुण, निष्ठुर है, वह मारता ही इसलिए है कि निष्करुण है यदि वह निष्करुण न होता तो न मारता। अपने दोष से डरने की बात भी इसी का समर्थनकरती है। शोकहीन होने की बात कहकर दोष या पाप से न डरने की बात कहना युक्तियुक्त नहीं प्रतीत होता है।
(6) 59.4 कोइ सु गुलाल सुंदरसन राती।
कोइ बकौरि बकचुन बिहँसाती।
बकचुन का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने गुच्छों किया है। यह अर्थ उन्होंने किस प्रकार किया है, यह यहाँ नहीं कहा है, किन्तु 377.5 में यह शब्द पुनः आता है और वहाँ टिप्पणी दी हैः छोटी गठरी या गुच्छा, यथा जाही जूही बकचुन लावा। (35.6)। किन्तु गठरी अर्थ वाला अवधी शब्द बकुच। <बोग़चः (फ़ा.) है, और बकुचा यो बोगचा से बकचू और उसका बहु. बकचुन नहीं हो सकता है। मेरे विचार से यह बकचुन <मचकुन्द<मुचुकुन्द है, जो एक प्रसिद्ध भारतीय पुष्प रहा है, और उपर्युक्त तीनों स्थलों पर इसी अर्थ में आया है। म का ब में इस प्रकार का ध्वनि-परिवर्तन साधारण है, यथा, बोलसिरी अथवा बोलसरि<मौलिनी (35.7, 59.5, 377.6)।
(7) 63. 8-9 मुहमद बारि परेम की जेउँ भावै तेउँ खेल।
तीलहि फूलहि संग जेउँ होइ फुलाएल तेल।।
डॉ. अग्रवाल ने प्रथम पंक्ति का अर्थ किया हैः प्रेम के जल में जैसा मन भावै वैसा खेलो। वारि= जल संस्कृत और प्राकृत में नपंसुक लिंग शब्द रहा है और हिन्दी में पुल्लिंग, यथाः
मरिबे को बारानमी बारि सुरसरि को।----तुलसी
और यहाँ पर बारि परेम की कहा गया है, जिससे यह प्रकट है कि यह बारि स्त्रीलिंग है। मेरी समझ में यह बारि बारी है, जो जायसी में अन्यत्र भी इसी प्रकार आया है, यथाः
घरी सो बैठि गनै घरिआरी।
पहर पहर सो आपनि बारी। 42.2
इन बारी का अर्थ फेरा या अवसर है, और वह वेला से व्युत्पन्न है। अतः मेरे विचार से विवेच्य प्रथम पंक्ति का अर्थ होगाः मुहम्मद करते है, प्रेम (के खेल) की बारी ऐसी होती है कि जिस प्रकार चाहे उसे खेल ले।
(8) 64.3 कत खेलँ आइउँ एहि साथाँ।
हार गँवाद चलिउं सै हाथाँ।
डॉ. अग्रवाल ने प्रथम पंक्ति का अर्थ किया है, क्यो मैं इनके साथ खेलने आई? किन्तु यहाँ साथ<सार्थ=टोली, जन-समुदाय अर्थ में प्रयुक्त लगता है, और एहि साथाँ का अर्थ होगा इस अर्थ (टोली) में।
(9) 71.3 सुख कुरिआर फरहरी खाना।
विष या जबहिं बिआध तुलाना।
डॉ. अग्रवाल ने कुरिआर का अर्थ कुरलना, शब्द करना और फरहरी का फलाहार या फल-फूल (फलपुष्प>फल हुल्ल>फरहुरि) किया है। किन्तु मेरा विचार है कि कुरिआर-कुल्ल-आर<कूर्द+ जाल=फूद-फाँद है, और फरहरी<फल+फली है, अर्थ होगा सुख की फूद-फाँद थी और फल-फलियों को खाना था।
(10) 71.4-5 काहे क भोग बिरिख अस फरा।
अडा लाइ पंखिन्ह कहँ धरा।
होइ निचिंत बैठे तेहि अड़ा।
तब जाना खोचा हिय गड़ा।
अड़ा का अर्थ पक्षियों के बैठने का अड्डा करते हुए डॉ. अग्रवाल ने टिप्पणी में लिखा है बहेलिए अड्डे पर लासा लगाकर उसे हरी डालों से ढक कर खड़ा कर देते है, पक्षी उसे वृक्ष समझ कर उस पर आ बैठते हैं और फँस जाते हैं। किंतु लासा खोंचे में लगाया जाता हैः
पाँच बान कर खोंचा लासा भरे सो पाँच।
पाँख भरे तनु अरुझा कत मारे बिनु बाँच।। (69.8-9)
और कथा में ऐसे अड्डे पर बैठने का उल्लेख भी नहीं होता हैः छंद 69 में जहाँ हीरामणि के फँसाए जाने का वर्णन किया गया है, कहा गया है कि उसने और पक्षियों के साथ देखा कि एक बन्दर चला आ रहा था, और पक्षी तो जिससे भयभीत होकर उड़ गए किन्तु हीरामणि उसकी (फलवती) शाखाओं को देखकर फूल उठा और आकर उस वृक्ष पर बैठ गया, इसी समय लासे से लिप्त खोंचा चुभाकर ब्याध ने उसे फँसा लिया। प्रकट है कि प्रसंग में अड़ा से तात्पर्य वृक्ष के रूप में बनी हुई उस टट्टी से है जिसे ब्याध ने हरी-भरी डालियों से तैयार किया था। अतः मेरी समझ में यह है अड़ा<अड्ड(दे.)=आड़, जो पदार्थ आड़े आता हो। टट्टी की आड़ में शिकार की लोकोक्ति इसी प्रक्रिया की ओर संकेत करती है।
(11) 71. 6 सुखी चिंत जारब बन करना।
यह न चिंत आगे है मरना।
करना का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने कर्तव्य किया है, किन्तु मेरा विचार है कि यह करन<करण= साधन, जीविका का साधन है। धन जोड़ना कर्तव्य नहीं माना गया है, इसलिए वह प्रसंग-सम्मत नहीं प्रतीत होता है।
(12) 72.5 भै बिआधइ तिस्ना सँग खाधू।
सूझै भुगुति न सूझ बिआधू।
प्रथम पंक्ति का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने किया हैः खानेवाले के साथ तृष्णा, यही सारा रोग है, और टिप्पणी में लिखा हैः खाधू-सं. खादुक=भोजन खानेवाला। किन्तु खाधू<खादुक=दुःखदायक, कष्टकारण, उत्पीड़क हैं, भोजन खानेवाला नहीं और प्रथम पंक्ति का अर्थ कदाचित् होगा, तृष्णा के साथ हमें यह दुःखदायक व्याधि भी हुई कि...........।
(13) 74.7 लाख करोरन्हि बस्तु विकाई।
सहसन्हि केर न कोइ ओनाई।
ओनाई का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने सौदा झुकता (या पटता) था, किया है। किन्तु यह ओनाना भिन्न है, इसका अर्थ है सुनना, या ध्यान देना। अर्थ होगा सहस्रों को तो कोई सुनता ही नहीं था, अथवा सहस्रों पर कोई ध्यान ही न देता था। कोइ से इस अर्थ की पुष्टि होती है, यदि ओनाना सौदा पटने के लिए प्रयुक्त होता, तो कोई के स्थान कुछ या उसका कोई समानार्थी होता, कोई व्यक्ति के लिए ही व्यवहृत होता है। ओनाना का यह प्रयोग अन्यत्र भी मिलता हैः
सप्त दीप के बर जो ओनाहीं।
उतर न पावहिं फिरि फिरि जाहीं। (53.7)
करहिं पयान भोर उठि नितहि कोस दस जाहिं।
पंथी पंथाँ जे चलहिं ते का रहन ओनाहिं।। (136. 8-9)
(14) 76.3 सुआ को पूँछ पतिंग मँदारे।
चलन देखि आछै मन मारे।
प्रथम पंक्ति का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने किया हैः पर वहाँ सुग्गे को कौन पूछे जो मदार के पेड़ का एक पतिंगा मात्र है? और टिप्पणी में कहा हैः पतिंग मदारे- मदार के पेड़ के पतिंगे की भाँति तुच्छ, अथवा मदार पर लगने वाले भुए के सदृश आकार वाला तुच्छ कीड़ा। किन्तु मेरा विचार है कि मँदार<मंद+आरअ<मन्द<+कारक=अनभला करने वाला है। ठीक इसी अर्थ में आगे कवि ने मँदचाला शब्द का प्रयोग किया हैः
देखु यह सुअटा है मँदचाला।
भएउ न ताकर जाकर पाला। (85.5)
मदार के पेड से सुए का कोई संबंध नहीं सुना जाता है।
(15) 76.4-5 बाँभन आइ सुआ सौं पूछा।
दहु गुनवत कि निरगुन छूछा।
कहु परवते जो गुन तोहिं पाहॉ।
गुन न छिपाइअ हिरदै माहाँ।
सौं का अर्थ सम्मुख लेते हुए डॉ. अग्रवाल ने इन पंक्तियों का अर्थ किया हैः इतने में ब्राह्मण ने सुग्गे के सम्मुख आकर पूँछा, यह गुणवन्त है, अथवा निर्गुण और कोरा मूर्ख है? हे पक्षी, तुमसे जो गुण हों बताओ, गुण को अपने भीतर ही न छिपा रखना चाहिए। मेरा विचार है कि सौ <समम्=साथ, से है, और अर्थ होगाः (इसी समय) ब्राह्मण ने (वहाँ) आकर सुए से यह समझने के लिए कि वह गुणवान है अथवा निर्गुण, यह प्रश्न किया, ऐ सुए, जो गुण........। डॉ. अग्रवाल के किए हुए अर्थ में यह नहीं आता है कि ब्राह्मण ने से के सम्मुख किससे प्रश्न किया, और उसने क्या उत्तर दिया, अथवा उसके उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही उसने पुनः सुए से कैसे कुछ कहना प्रारंभ कर दिया।
(16) 77.2 अब गुन कवन जो बँदि जजमाना।
घा लि मँजूसा, बेंचै आना।
डॉ. अग्रवाल ने इन पंक्तियों का अर्थ किया है, अब मुझमें गुण कहां जो किसी जजमान का बंदी हूँ, जो मुझे पिटारी में डालकर बेचने लाया है? मेरी समझ में जजमान पुण्यात्मा उपाधि का प्रयोग संबोधन के रूप में उस ब्राह्मण के लिए शुक्र ने किया है जो प्रश्न कर रहा था, और आना का अर्थ लाया नहीं बल्कि अन्य अर्थात् व्याध है। अर्थ होगाः अब मुझमें कोन सा गुण (शेष) है जब कि हे जजमान (पुण्यात्मा), मैं बंदी हूँ और मुझे मंजूषा में डालकर अन्य (कोई) बेंच रहा हैं?
(17) 78.2 कत रे निठुर जिउ बधसि परावा।
हत्या केर न तोहि डरु आवा।
कहेसि पंखि खाधुक मानवा।
निठुर ते कहिअ जे पर मँसुखवा।
डॉ. अग्रवाल ने उपर्युक्त तृतीय-चतुर्थ पंक्तियों का अर्थ किया हैः व्याध ने उत्तर दिया, पक्षियों के खाने वाले तो मनुष्य है, अतएव उन्हें निष्ठुर कहो जो पराया मांस खाते है। (मैं तो केवल उन्हें पकड़ने वाला हूँ)। टिप्पणी में उन्होंने कहा हैः खाधुक-सं. खादुक (खानेवाला)> खाधुक, खाधू (72.5)। खाधुक <खादुक तक तो ठीक है, किन्तु खादुक <उत्पीड़क, दुःखशयक है, जैसा ऊपर हमने 72.5 में भी देखा है, खानेवाला नहीं। खानेवाला के अर्थ में खादक है और उत्पीड़क के अर्थ में खादुक है। (देखिए मोनियर विलियम्स कृत संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी)। अतः मेरे विचार से पंखि खाधुक मानवा का अर्थ होगा पक्षियों का उत्पीड़क वह मानव, अर्थात् व्याध, और यही कहेसि क्रिया का कर्ता है, व्याध को अन्यत्र से लाने की आवश्यकता नहीं है।
(18) 86.5 नागमती नागिनि बुधि ताऊ।
सुआ मँजूर होइ नहिं काऊ।
ताऊ का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने उसकी किया है, किन्तु उसकी के लिए ताही होता। ताऊ< ताव< तावत्= तव, उस समय है। अतः प्रथम पंक्ति का अर्थ होगा, नागमती उस समय (जिस समय उसने सुए को मारने के लिए कहा) नागिन की बुद्धि की(हो रही) थी।
(19) 89. 3 एतनिक दोस बिरचि पिउ रूठा।
जो पिउ आपन कहै सो झूठा।
दोस बिरचि का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने अपराध करने से किया है, किन्तु दोस बिरचि का अर्थ कदाचित् दोष (हुए होने) की कल्पना करके लेना चाहिए।
(20-21)89.8-9 मैं पिय प्रीति भरोसे गरब कीन्ह जिस माँह।
तेहि रिसिहौं परहेलिउँ निगड़ रोस किअ नाँह।।
डॉ. अग्रवाल ने दूसरी पंक्ति का अर्थ किया हैः उस ईर्ष्या के कारण मुझे तिरस्कृत होना पड़ा, स्वामी ने मुझ पर अत्यधिक क्रोध किया है। किन्तु परहेलिउँ=तिरस्कृत हुई नहीं है, बल्कि परहेलिउँ=प्रहेला की, तिरस्कार किया हैं।
उपर्युक्त पंक्तियों के निगड़ के संबंध में टिप्पणी देते हुए डॉ. अग्रवाल ने लिखा हैः निगड़=निःसीम, अमर्यादित, अत्यधिकः सं. निर्ग्रथित> निगडिडय> निगड़। किन्तु निगड़<सं. निगड=बेड़ी है। इस प्रकार मेरी समझ में दूसरी पंक्ति का अर्थ होना चाहिएः उसी (गर्व के) आवेश में मैने (स्वामी की) प्रहेला की तो नाथ ने (मेरे पैरों में) रोष की बेडी डाल दी।
(22) 94. 5 सुनि सो समुंद चखु भे किलकिला।
कँवलहि चहौं भँवर होइ मिला।
किलकिला का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने किलकिला समुद्र किया है, जिसका वर्णन आगे छंद 155 में आया है, और प्रथम पंक्ति का अर्थ किया हैः समुद्र तुल्य उस पद्मावती का वर्णन सुन कर मेरे नेत्र भी किलकिला समुद्र की भाँति क्षुब्ध हो गए। किन्तु समुद्र की बात सुनकर किलकिला समुद्र होना युक्ति-युक्त नहीं लगता है। मेरी समझ में यह किलकिला किलकिल= समुद्र की हिलोर है, जिसके आधिक्य के कारण ही आगे छंद 155 में समुद्र को इसी नाम से अभिहित किया गया हैः
पुनि किलकिला समुँद महँ आए।
किलकिल उठा देखि डरु खाए।
गा धीरज वह देखि हिलोरा।
जनु अकास टूटै चहुँ ओरा। (155.1-2)
(23) 95.7 चहू खड के बर जो ओनाही।
गरबन्ह राजा बोलै नाहीं।
ओनाही का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने किया है आकर झुकते है, किन्तु ओनाना एक ठेठ अबनी धातु है जिसका अर्थ होता है सुनना, सुनकर आना, सुनकर आदेश का पालन करना, और इसी अर्थ में यह धातु पदमावत में भी प्रयुक्त हुई है, यथा---
करहि पयान भोर उठि नितहि कोस दस जाहिं।
पंथी पंथाँ जे चलहिं ते का रहना ओनाहि।।(136.8-9)
(देखिए ऊपर आई हुई 74.7 विषयक टिप्पणी भी।)
(24-25) 99.5 कोवंल कुटिल केस नग कारे।
लहरन्हि भरे भुअग बिसारे।
डॉ. अग्रवाल ने नग का अर्थ नाग और बिसारे का विषधर किया है, किन्तु मेरी समझ में नग < नग्ग<नग्न है। नाग के अर्थ में भुअंगतो बाद में सादृश्य-कल्पना में आना है। इसी प्रकार बिसारे मेरी समझ में <विषाक्त अथवा विषालु है, विषधर के अर्थ में तो भुअंग आता ही है। विषधर के लिए जायसी सर्वत्र बिसहर का प्रयोग करते हैं।
(26) 99. 8-9 अस फँदवारे केस वै राजा परा सीस गियँ फाँद।
अस्टौ कुरी नाग ओरगाने भै केसन्हि के बाँद।
ओरगाना का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने अधिपति किया है। ओरग<ओलग्ग<अब-लागू, सेवा करना, चाकरी करना है। (पाइअ सद्द महण्णवो)। इसी धातु से बने हुए ओलग्ग और ओलग्ग< अवलग्न है, जिनका अर्थ सेवक, नौकर है (पा. स. म.)। इसी ओलग्ग में ओलग्गाना उसी प्रकार बना है जैसे तिलंगा से तिलंगाना। अवधी में- आना या आन का ऐसा प्रोयग व्यापक रूप से मिलता है। यथा जुलाहा से जुलाहान, या जोलहाना, पासी से पसियान या पसियाना, तुर्क से तुरकाना। अतः ओरगाना से आशय भृत्य-समुदाय से है।
(27) 102.2 उहै धनुक उन्ह भौंहन्ह चढ़ा।
केइँ हतियार काल अस गढ़ा।
हतियार का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने हथियार किया है, किन्तु यह हत्यारा< हत्याकारक है। इसका स्त्रीलिंग रूप हत्यारिनि अन्यत्र आया हैः
हत्यारिनि हत्या लै चली। (196.2)
वह हत्यारिनि नखतन्ह भरी। (482.7)
(28) 103.1 नैंन बाँक सरि पूज न कोऊ।
मान समुँद अस उलबहिं दोऊ।
उलथहि का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने उलीचते हे किया है। मेरी समझ में उलथना (<उल्लस्त) होना है और उल्लत्य<उल्लस्त ( Vउत्+लस्)= ऊपर आया हुआ, बाहर निकला हुआ है, अतः उलथहिं का अर्थ होगा, ऊपर उठते हैं, यथाः
उठहिं तुरंग लेहिं नहिं बागा।
चाहहि उलथि गगन कहँ लागा। (103.3)
(29) 103.7 समुँद हिडोरकरहिं जनु झूले।
खंजन लुरहिं मिरिग जनु भूले।
लुरहिं का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने लोटते हो किया है, किन्तु यह लुर<लुलू=लोक होना, चंचल होना है। खंजनों का लौटना नहीं, उनकी चंचलता ही नेत्रों के प्रसंग में वर्णित होती है।
(30) 104.3 वारहिं पार वनावरि साँधी।
जासौं हेर लाग, बिख बाँधी।
बिख बाँधी का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने किया है, विष के कारण ऐंठन, विष बुझे बाणों के घाव की अत्यन्त पीड़ा युक्त ऐंठनः सं. बन्धिका >बधिआ>बाँधी= अंगों की जकड़न, ऐंठन। किन्तु बरौनियों के प्रसंग में मेरी समझ में यह विष बाँधी यहॉ उसी प्रकार आया है जिस प्रकार उन्हीं के प्रसंग में अन्यत्र बिख बाँधे आया हैः
भौहैं धनुक नैन सर साँधे।
काजर पनच बरुनि बिख बाँधे।। 619.4)
और यह बाँधी<बन्धित=संश्लिष्ट, संयुक्त है। यह विवेचनीय स्थल पर बनावरि का विशेषण मात्र है। उद्धृत पंक्तियों का अर्थ होगा, इस पार से उस पार तक (बिरौनियों की) वाणावली साँधी हुई है, और जिनके सम्मुख वह देखती है, उसी से वह विष-संश्लिष्ट (वाणावली) लग जाती है।
(31) 105.1 नासिक खरग देउँ केहि जोगू।
खरग खीन ओहि बदन सँजोगू।
डॉ. अग्रवाल ने सँजोगू का अर्थ तुलना करते हुए दूसरी पंक्ति का अर्थ किया है, उसके मुख की कल्पना में हीन उतरते के दुःख से ही तलवार कृश रहती है। किंतु विचारणीय यह है कि मुख की तुलना तलवार से नहीं की जाती है। यहाँ प्रसंग नासिका का है, जिसकी तुलना खड्ग से की जाती है, अन्यत्र भी नासिका की तुलना खड्ग से हुई है, यथाः
नासिक खरग हरे धनि कीरू। (475.1)
इसलिए मेरी समझ में यहाँ संयोग का सामान्य अर्थ सम्बन्ध ही करना चाहिए और दूसरी पंक्ति का अर्थ करना चाहिएः उसे (नासिका को) उसके (सन्दर) वदन (मुख) का संयोग प्राप्त है यह देखकर खडग क्षीण रहता है।
(32) 105.4 सुआ सो नाक कठोर पवारी।
वह काँवलि तिल पुहुप सवारी।
पँवारी का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने लुहार की छेद करने की सुम्मी किया है। प्रसंग यहाँ छिद्र करने का नहीं है, यहाँ तो प्रसंग स्पर्श की कठोरता तथा कोमलता का है। शुक्र की नाक कठोर होती है और यह कोमल है। मेरी समझ में यह पँवारी<पवालीय=मूर्गे की है। शुक्र की नासिका प्रबाल के समान लाल और कठोर होती ही है।
(33) 105.2 सूक आइ बेसरि होइ उआ।
बेसरि को डॉ. अग्रवाल ने टिप्पणी में सं. द्वयस्त्र (द्वि+अस्र)>बेसर बताते हुए कहा हैः मूल में बेसर मन्दिरों के उस भूमितल के लिए प्रयुक्त होता था जो आयत या वृत्ताकार न होकर चैन्यघरों की भाँति एक ओर से गोल और एक ओर से द्वयस्त्र या दो कोने वाला होता था। किन्तु बेसर में एक भी कोना नहीं होता है। मेरी समझ में बेसरि <द्वि+स्रगिका है। बेसर में दो वृत्त होते हैं, एक बाहर का वृत्त और दूसरा अंदर का वृत्त, और दोनों वृत्तों की परिधियां ऊपर मिलती हुई होती है तथा नीचे आते हुए एक दूसरे से अधिक-से-अधिक दूर होती जाती है। इसीलिए द्विस्रगिका नाम पड़ा हुआ ज्ञात होता है। यही स्रग>सर नौसर हारू में भी अन्यत्र आता है।
(34) 108.8-9 भावसती ब्याकरन सरसुती पिंगल पाठ पुरान।
बेद भेद सैं बात कह तस जनु लागहि बान।।
इन पंक्तियों का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने किया है, भास्वती ज्योतिष, व्याकरण, पिंगल और पुराणा (धर्मग्रंथों) के पाठ में वह साक्षात् सरस्वती के समान है, बेद के रहस्य के नियम में अपनी ओर से ऐसे वचन कहती है कि सुनने वाले के हृदय में बाण जैसे चुभ जाते है। मेरी समझ में सरसुती से कवि का तात्पर्य उस समय के बहुपठित अलंकार-ग्रंथ सरस्वती कण्ठाभरण से है और पाठ से आशय शास्त्र या आगम से है (पा. स. म.)। दोनों पंक्तियों का अर्थ होगाः भास्वती (ज्योतिष), व्याकरण, सरस्वती कण्ठाभरण (अलंकार), पिंगल, शास्त्रों पुराणों और वेदों के भेद की बातें वह स्वयं (अपने आप) इस प्रकार कहती है कि मानो सुनने वालों को वाण लगते हों।
(35) 109.5 अगिनिबान तिल जानहुँ सूझा।
एक कटाख लाख दुड जूझा।।
सूझा का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने दिखाई देता है किया है। किन्तु जानहु के साथ इस अर्थ में सूझा संभव नहीं है क्योंकि जानहुँ में सूझना निहित है। अर्थ होगाः यह तिल मानो विशुद्ध अग्निवाण है।
(36) 190. 6-7 खिन खिन जबहिं चीर सिर गहा।
काँपत बीज दुहूँ दिसि रहा।
डरपहिं देव लोक सिंघला।
परै न बीज टूटि एहि कलाँ।
कला का अर्थ अंश लेते हुए डॉ. अग्रवाल ने अन्तिम पंक्ति का अर्थ काय है। कही इस बिजली की कला न टूट कर गिर पड़े। किन्तु मेरी समझ में कला का अर्थ ढंग है। अर्थ होगाः कहीं इसी ढंग से (काँपते-काँपते) वह बिजली टूट न पड़े।
(37) 111.1 बरनौ गीवँ कूँज कै रीसी।
कंजनार जनु लागेउ सीसी।
दूसरी पंक्ति का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने किया हैः अथवा कमल की नाल मानो शीशी में लगा दी गई है। किन्तु मेरी समझ में यह सीसी फा. शीशः से बनी शीशी नहीं है, यह सीस<शीर्ष= स्तबक है। (पा. स. म.)।
(38) 111.6 पुनि तिहि ठाउँ परी तिरि रेखा।
घूँटत पीक लीक सब देखा।
तिरि का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने तीन किया है, किन्तु परी तथा रेखा के एक वचन रूपों से यह अर्थ संभव नहीं लगता है। मेरी समझ में तिरि<तिरिअ<तिर्यक्=वक्र, कुटिल, बाँकी है।
(39) 113.4 जोवन बान लेहिं नहिं बागा।
चाहहिं हुलसि हिएँ हठि लागा।
डॉ. अग्रवाल ने बान का अर्थ बाण करते हुए पहली पंक्ति का अर्थ किया हैः वे यौवन के बाण बाग नहीं मानते (वश में नहीं है)। किन्तु बाणों के साथ बाग की कोई संगति नहीं है। मेरी समझ में बान<बण्ण<वन्य=जंगली अशिक्षइत (अश्व) है। तुल. बनमृग मनहुँ आनि रथ जोरे।–रामचरित मानस।
(40) 114.1 पेट पत्र चंदन जनु लावा।
कुंकुह केसरि बरन सोहावा।
दूसरी पंक्ति का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने किया है, वह कुसुम और केसर के वर्ण जैसा सुशोभित है। किन्तु इस अर्थ में पुनरुक्ति है। क्योंकि कुंकुम और केसर एक ही हैं। मेरी समझ में केसर से यहाँ पर अभिप्राय पुष्परेणु से है और कुंकुह केसरि का अर्थ होगा कुंकुम का पुष्परेणु।
(41) 114.7 नाभी कुंडर बानारसी।
सौंहँ को होइ मीचु तहँ बसी।
कुंडर का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने कुंड किया है, किंतु कुंडर<कुण्डल है।
(42) 115.2 मलयागिरि कै पीठि सँवारी।
बेनी नाग चढ़ा जनु कारी।
कारी का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने काला किया है, किन्तु यह कालीय है, जिसे कृष्ण ने नाथा था। आगे कवि ने कहा भी है-
किस्न क करा चढ़ा आहि माथ
तब सो छूट अब छूट न नाथ। (115.5)
(43) 115.6 कारी कँवल गहे मुख देखा।
ससि पाछें जस राहु बिसेखा।
यहाँ पर भी डॉ. अग्रवाल ने कारी का अर्थ काला नाग किया है, किन्तु कारी कालीय है, जैसा वह ऊपर के स्थल पर है।
(44) 117.1 नाभी कुंडर मलै समीरू।
समुंद भँवर जस भँवै गंभीरू।
यहां भी कुंडर का अर्थ डा. अग्रवाल ने कुण्ड किया है, किन्तु वह<कुण्डल है, जैसा वह ऊपर 114.7 में है।
(45) 117.3 चंदन माँझ कुरंगिनि खोजू।
दहुँ को पाव को राजा भोजू।
पहली पंक्ति का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने किया है, नाभि कुण्ड से नौवें चरण में हिरनी का पद चिन्ह (गुह्यस्थान) बना है। किन्तु मेरी समझ में यह कुरगिनि खोज की कलाना नाभि के लिए ही है, नाभि कुण्ड के नीचे की शब्दावली छंद में नहीं आती है। छंद की आरंभिक पंक्तियों से अंतिम पंक्तियों तक नाभि का ही वर्णन हुआ है, इसलिए यह कल्पना भी नाभि के लिए ही मानी जानी चाहिए। डॉ. अग्रवाल ने अपने अर्थ के समर्थन में निम्नलिखित छंद उद्धृत किया हैः-
अन्यत्र भीष्साद् गांगेयादन्यत्र च हनुमत।
हरिणी खुस मात्रेण मोहितं सकलं जगत्।।
किन्तु यह असंभव नहीं है कि प्रयुक्त कल्पना को इस उक्ति से लेते हुए भी जायसी ने उसको नाभि पर चिपका दिया हो।
(46-47) 117.8-9 बेधि रहा जग वासना परिमल मंद सुगंध।
तेरि अरघानि भँवर सब लुबुधे तजहिं न नीबी वध।।
पहली पंक्ति का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने किया है, उसकी सुगन्धि से संसार बेधा हुआ है, उसकी परिमल भेद की तरह सुगंधित है। टिप्पणी में उन्होंने बताया है कि मेद एक प्रकार की सुगन्धि होती थी जो अबुल फ़जल के अनुसार बिल्ली की जाति के किसी जानवर के बहे हुए मद को सुखा कर बनाई जाती थी। (आईन 30, पृ. 85)। इसी प्रकार परिमल को उन्होंने समर मंदिर की गंध माना है। किन्तु जैसा उन्होंने स्वयं भी अन्यत्र उल्लेख किया है। (दे. 36.4 की मेद विषयक टिप्पणी) यह मेद आईन के अनुसार किसी पशु की सुगंधित नाभि से बनाई जाती थी, इसलिए मेरी समझ में मेद सुगंध से कवि का तात्पर्य पद्मिनी की सुगंध युक्त नाभि से है और वासना तथा परिमल उसी सुगंधित नाभि के है। अन्यत्र कवि ने वास, परिमल और आमोद-सुगंध के तीन प्रकार कहे है।
चलीं सबै मालति सग फले कँवल कमोद।
बाँध रहे गन गंध्रव वास परिमलमोद।। (59.8)
कोश-ग्रंथों के अनुसार वास या वासना हल्की सुगंध को और परिमल भीनी सुर आमोद कड़ी सुगंध को कहते है। (देखिए मो. वि.)। अतः प्रथम पंक्ति का अर्थ है सुगंध (सुगंध युक्त) मेद (नाभि) की वासना (हल्की सुगंध) और परिमल (भीनै जगत् बिद्ध हो रहा था।
(48) 121.6 अब जिउ तहाँ इहाँ तन सूना।
कब लगि रहै परान बिहूना।
परान बिहूना का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने प्राण से हीन होकर किया है। किन्तु बिहून वि+धू=पृथग् करना, अलग करना है, (पा. स. म.) इसलिए बिहूना का अर्थ से पृथग् किया हुआ।
(49) 122.1 सबन्हि कहा मन समझहु राजा।
काल सतें कै जूझि न छाजा।।
काल सतें का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने काल की शक्ति से किया है और टिप्पणी में लिखा सत से, प्रकाश से बल से। किन्तु जूझना किसी व्यक्ति से पड़ता है, उस की शक्ति से समझ में यह सतें < सत्रा =साथ, से है (देखिए सत्रा-मो. वि.)।
(50) 122.2 तासौं जूझि जात जौं जीता।
जात न किरसुन तजि गोपीता।
इन पंक्तियों का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने किया है, उससे शुद्ध ठीक है जिसे जीता जा सके न होता तो कृष्ण जी गोपियों को न छोड़ जाते (अर्थात् कृष्ण में गोपियों से जूझने की शक्ति थी किन्तु गोपियों से कृष्ण के युद्ध करने का वर्णन या उल्लेख कीहं नहीं मिलता है, प्रेम के निर्वाह के ही प्रसंग मिलते है। मेरी समझ में अर्थ होगाः उस (काल) से यदि युद्ध जीता जा सकता, तो कृष्ण (अपनी प्रेमिका) गोपियों को त्याग कर (इस पृथ्वीतल) से,
(51) 125.5 जौ पै नाहीं अस्थिर दसा।
जग उजार का कीजै बसा।।
डॉ. अग्रवाल ने बसा का अर्थ रहकर किया है किन्तु इस अर्थ में क्रिया का रूप बसा = बसा हुआ है। अर्थ होगाः यदि हो न हो (जगत् की) दशा स्थिर नही तो जगत् उजाड़ हो तो, और बसा हुआ तो क्या कीजिए?
(52) 126.4 मेखल सिंगी चक्र धँधारी।
जोगौटा रुद्राख अधारी।।
चक्र के संबंध में डॉ. अग्रवाल ने टिप्पणी ने कहा है चक्र सभत छोटा ओरु अपनी जिसे पवित्री भी कहा जाता है (ब्रिग के आधार पर शिरफ)। किन्तु यह चक्रता वही है गौ विष्णु के अस्त्रों में प्राचीन काल से रहा है, और अब भी अकाली सिक्खों के द्वारा सिर पर पगड़ी के साथ बाँध कर धारण किया जाता है। योगों के वेष से प्रस्तुत हुए मनोहर का वर्णन करते हुए मंझन ने भी इसे मस्तक पर धारण कराया है।
चक्र माथ मुख भसम चढ़ावा। (मधु 172.4)
(53) 127. 8-9 हौं रे पँखेरू पंखी जेहि बन मोर निवाहु।
खेलि चला तेहि बन कहँ तुम्ह आपन घर जाहू।
पँखेरू के संबंध में डॉ. अग्रवाल ने टिप्पणी दी हैः पँखेरू-सं. संक्षिप्त पक्खीरूब<पखइ रूअ>पखेरू। किन्तु पक्षी को पक्षि रूप कहना युक्तियुक्त नहीं है, शब्द का यह इतिहास भी संदिग्ध लगता है। पँखेरू <पक्षधर=पंखों को धारण करने वाला, पक्षी है।
(54) 128.1 चहुँ दिसि आन सोंटिअन्ह फेरी।
मै कटकाई राजा केरी।
कटकाई का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने कटक दल की यात्रा किया है, किन्तु मेरी समझ में कटकाई < कटकिका= छोटी सेना है। यथाः
तौ कत लीन्ह संग कटकाई।– रामचरित मान,
(55) 128.2 जाँवत अहै सकल ओरगाना।
साँबर लेहु दूरि है जाना।
ओरगाना का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने प्रधान सामन्त आदि किया है। किन्तु यह ओरगाना भृत्य-समुदाय है। (देखिए ऊपर 99.8-9 के ओरगाने के संबंध का विवेचन)
(56) 128.7 मंत्रा लेहु होहु सँग लागू।
गुदरि जाइ सब होइहि आगू।
मंत्रा का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने दीक्षा-मंत्र किया है। किन्तु मेरे विचार से यह मंत्रा मात्रा सामान, शंबल है।
(57) 130.7 ओनहूँ सिस्टि जौ देख मरेवा।
तजा राज कजरी बन सेवा।
परेवा का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने पराया किया है। किन्तु यह शब्द रचना में अनेक बार आया है और <पारावत=कबूतर है जो प्रायः पक्षी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यहाँ पर परेवा से आशय पारावत या पक्षी के समान उड़ जाने वाला, अस्थिर है।
(59) 133.2 बार मोर रजियाउर रता।
सो लै चला सुवा परबता।।
रजियाउर का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने राज्यकुल किया है। यद्यपि उनका आशय संभवतः राजकुल से है। किन्तु मेरी समझ में यह रजियाउर<राज्य+आवलि राजकीय कार्यों की पंक्ति है। यह शब्द रजाउरि के रूप में अन्यत्र भी आता हैः
बनि राजा तो राज बिसेखा।
जेहि की रजाउरि सब किछु देखा। (330.5)
(60) 136. 8-9 करहिं पयान भोर उठि नितहि कोस दस जाहिं।
पंथी पंथाँ जे चलहिं ते का रहन ओनाहिं।।
ओनाहि का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने ठहरते है किया है, किन्तु ओनाना शब्द ठेठ अवधी का है, जिसका अर्थ है सुनना, सुनकर ध्यान देना अथवा सुनकर तदनुसार कार्य करना। यह शब्द रचना में अनेक बार आया है और सर्वत्र इन्हीं अर्थों में आया है। (देखिए ऊपर 74.7 तथा 95.7 में शब्द की विवेचना)
(61) 139.3 कया मलै तेहि भसम मलीजा।
चलि दस कोस ओस निति भीजा।
ओस में भीगने का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने पसीने से भींगना किया है। किन्तु मेरी समझ में ओस (<ओसा<अवश्याय) में भीगने से अभिप्राय आकाश के नीचे खुले के पड़ कर सोना है। योगी खुले में पड़ाव करते थे, इसलिए कवि ने उनका रात्रि में विश्राम करने को ओस से भीगना कहा है।
(62) 142.1 गजपति यह मन सकती सीऊ।
पै जेहि पेम कहाँ, तेहि जीऊ।
सीऊ का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने सीमा किया है। किन्तु सींच अथवा सींउ<सीमा है। सीउ<शिव है। शक्ति और शिव-दो मूलतत्व माने गए है। जायसी का कहना है कि मन ही शक्ति है और मन ही शिव है। कबीर ने भी इसी प्रकार कहा हैः
इहु मन सकती इहु मन सीउ।
इहु मन पंच तत्त को जीउ। (संत कबीर, गउड़ी 33)
(63) 142.5 औ जेइँ समुँद पेम कर देखा।
तेइँ यह समुद बुद बरु लेखा।
बरु का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने तरह किया है किंतु बरु <बरम बहुत हुआ तो अधिक से अधिक, भले ही, के अर्थों में प्रयुक्त होता है और यहाँ भी बहुत हुआ तो के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
(64) 145.7 हातिम करन दिया जौ सिखा।
दिया अहा घरमन्हि महँ लिखा।
दूसरी पंक्ति का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने किया है, उसी दान के कारण धर्मात्माओं में उनका नाम लिखा गया। किन्तु शब्द धरमिन्ह नहीं धरमन्हि है, अतः अर्थ होना चाहिएः क्योंकि दान देना (समस्त) धर्मों में लिखा था।
(65) 146.1 सत न डोल देखा गजपति।
राजा दत्त सत्त दुहुं सत्ती।
दूसरी पंक्ति का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने किया हैः राजा के पास दान और सत्य दोनों की शक्ति थी। किन्तु सती>शक्ति नहीं है, प्राकृत में शक्ति>सत्ति है, सती प्रसिद्ध सं. शब्द है और सत् से बना है। यह स्त्रीलिंग है किन्तु सूफ़ी कवियों द्वारा पुल्लिंग रूप में भी व्यवहृत हुआ है। मंझन ने अपने गुरु शेख मुहम्मद ग़ौस के लिए कहा हैः
सन नौ सै बावन जब भए।
सती पुरुष कलि परिहरि गए। (मधु. 39.1)
(66) 147.3 समुँद अपार सरग जनु लागा।
सरग न घालि गनै बैरागा।
दूसरी पंक्ति का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने किया हैः वैरागी राजा सोचने लगा कि कहीं आकाश न गिर पड़े। किन्तु धाल्<घल्ल=फेंकना, डालना है (पा. स. म.), गिरना नहीं। मेरी समझ में यह घालि <घल्ल=फेंकी या डाली जानेवाली वस्तु, घेलुआ है। अर्थ होगाः (किन्तु) वह स्वर्ग (आकाश) को घेलुवा (घेलुवे के बराबर) भी नहीं गिनता है।
(67) 148.1 केवट हँसे सो सुनत गवेंजा।
समुंद न जान कुँ आकर मेंजा।
गवेंजा का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने चर्चा, गवँई बातचीत किया है और कहा है कि इस समय अवधी में इसके स्थान पर गौंजा शब्द चलता है। किन्तु गौंजना का अर्थ अवधी में चर्चा करना नहीं है, लम्बी-चौड़ी हाँकना है। गवेंजा<गव्व+एज<गर्व्व+एज=गर्व का पवन, गर्व का झोंका, गर्वोक्ति है।
(68) 148.2 यह तौ चाल्ह न लागै कोहू।
काह कहौ जौ देखहु रोहू।
पहली पंक्ति का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने किया हैः यह तो चेल्हुआ मछंली है जो किसी को नहीं सताती। किन्तु किसी को के अर्थ में कोहू का प्रयोग रचना में अन्यत्र नहीं मिलता है और सवत्र केवल क्रोध के अर्थ में मिलता है। यहाँ भी कोह <क्रोध है। अर्थ होगा यह तो चाल्हा है इसी पर तुम्ह इतना क्रोध न लगना चाहिए।
(69) 148.7 तहाँ न चाँद न सुरुज असूधा।
चढ़ै सो जो अस अगुमन बूझा।
अगुमन का अर्थ डॉ. अग्रवाल ने आगे का भेद किया है। किन्तु अगुमन पदमावत का एक बहु-प्रयुक्त शब्द हैं, और सर्वत्र ‘आगे से’ या ‘पहले से’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
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