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फ़ारसी लिपि में हिंदी पुस्तकें- श्रीयुत भगवतदयाल वर्मा, एम. ए.

हिंदुस्तानी पत्रिका

फ़ारसी लिपि में हिंदी पुस्तकें- श्रीयुत भगवतदयाल वर्मा, एम. ए.

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    दक्षिण भारत के पुस्तकालयों में मुझे कुछ पुस्तकें ऐसी मिली हैं जो फारसी लिपि में लिखी हुई है, परंतु उन की भाषा हिंदी है। उन हस्त-लिखित पुस्तकों पर जो उन के नाम, लेखक के नाम इत्यादि लिखे थे वह बहुदा पूर्ण-सूचक थे, क्योंकि उर्दू, फारसी जानने वाली सूची-कर्ता उन हिंदी वाक्यो को समझ नहीं सका था। हिंदी के शब्द जब फारसी लिपि में लिखे जाते हैं तो एक ही शब्द कई प्रकार से पढ़ा जा सकता है उदाहरणार्थ, मीन ही लीजिए- यह मैं, में, मीन और मियन आसानी से पढ़ा जा सकता है, ओर मलडन को मंडन, मुंडन और मिंडन पढ़ सकते हैं।

    यह पुस्तकें उर्दू या फारसी लिपि में इस लिए लिखि गई थी, कि बहुधा पढ़ने वाले गुण-ग्राहक विद्वान् मुग़ल बादशाहों के समय में फ़ारसी लिपि बहुत जल्दी पढ़ सकते थे, और हिंदी पढ़ने का मुहावरा उन्हें बहुत कम था। वह हिंदी के शब्दों के अर्थ तो जानते थे, परंतु नागरी लिपि आसानी से नहीं पढ़ सकते थे।

    ऐसी पुस्तकों के पढ़ने का अभ्यास करने, उन्हें संग्रह करने तथा हिंदी में लिप्यंतर करने से कुछ लाभ हो सकेगा, ऐसी मेरी धारणा है। एक तो हिंदी के पुराने आश्रय-दाताओं कवियों का पता चलेगा। यह भी बहुत संभव है कि कुछ ऐसी पुस्तकें मिल जायँ जो अब मूल नागरी में नहीं मिलतीं और अपने दूसरे वेष में जीवित है। कुछ शब्दों के उच्चारण पुराने समय में क्या थे इस का भी कहीं कहीं पता चलेगा। इसमें संदेह नहीं कि इन पुस्तकों का साहित्यिक शोध करने में उतनी ही कठिनाइयों का सामना होगा जितना एक धार्मिक सुधार में होता है। मैंने जो निम्नलिखित उदाहरणों में लिप्यंतर किया है उस में त्रुटियों संभवतः रह गई है। पाठकों से प्रार्थना है कि विचार करके मतलब समझ ले।

    ऐसी पुस्तकें बंबई, पूना और हैदराबाद (दक्षिण) के पुस्तकालयों में मिलती है। मैं इस लेख में दो तीन पुस्तकों का संक्षेप में दिगदर्शन मात्र कराता हूँ।

    पूना के ‘भारत इतिहास संशोधक मंडल’ की लायब्रेरी में एक पुस्तक ‘अर्जुन-सुभद्रा-हरण’ नामक है। इस में दोहे और चौपाइयाँ हिंदी भाषा में हैं, परंतु लिपि फारसी है। दूसरी पुस्तक ‘सूरसागर’ है। आज कल हमारे ‘सूर्य’ की बिखऱी हुई ज्योति का इकट्ठा करके एक शुद्ध संस्करण छापने का प्रयत्न यू. पी. में हो रहा है। ऐसे समय में कतिपय स्थानों पर मुक़ाबिला करने के लिए यह पुस्तक सहायता दे सकेगी।

    बंबई की ‘जामेअ मस्जिद’ की लायब्रेरी में फ़ारसी लिपि में कई हिंदी पुस्तकें हैं। उन में से कुछ का विवरण यहाँ दिया जाता है---

    एक पुस्तक के पृष्ठ पर नाम तो उर्दू में लिखा गया है- ‘रिसाला मौसोकी हिंदी’, परंतु अंदर पढ़ने से यह पता लगा कि उस में एक पुस्तिका ‘सुंदर-श्रृंगार’ नामक है, जिस के अंत में लिखा है ‘इति श्रीमन् महाकवि-राजविरचितम् सुंदरश्रृंगार समाप्तम्।’ इसी में ‘रूपमाला’ और ‘राग सागर’ पुस्तिकाएं है। यह पुस्तकें मुग़ल बादशाहों की नीति पर रोशनी डालती है, इनकी कविता भी अच्छी है, इस लिए उन से कुछ छंद उद्धृत करना कदाचित् अनुचित होगा।

    बंदना

    देवी पूज सरस्वती, पूजूं हर के पाय।

    नमस्कार कर जोर के, कहे महाकवि राय।।

    शाहजहाँ की प्रशंसा

    नगर आगरो बसत है, जमुना तट अस्थान।

    तहाँ पातसाही करे, बैठो साहजहान।।

    साह पत्रो कवि मुख तनिक क्यूँ गुण बरने जायँ।

    ज्वूँ तार सब गगन के, मुट्ठी में समायँ।।

    भैरवीं का रूप

    भैरों शषि छवि, तिर जदा, सेत बसन, तिर नैन।

    मुंडन की माला गरें, सुद्धँ रूप सुम्य दैन।।

    मालकोस का रूप

    मालकोस नीलो बसन, सेत छरी है हात।

    मोतिन की माला गरे, रसिक सखिन के सात।।

    (रूपमाला से)

    बादशाह के पूर्व-पुरूष

    जिन पुरखन के बंस मे, उपज्यो साहजहान।

    तिन साहन के नाँव की, अब कवि करे बखान।।

    (सुंदर सिंगार से)

    इस के आगे एक ‘छप्पय’ में, शाहजहाँ मुग़ल बादशाह, के पूर्वजों के नाम दिए है जो इतिहास-सिद्ध है, और शाहजहाँ के फरमानों की मुहरों में पाए जाते हैं। इस के आगे एक ‘कवित्त तृभंगी लच्छन’ दिया है, फिर दोहरे है---

    साहजहाँ तिन्ह कविन को, दीनो अगणित दान।

    तिन में सुंदर सिव कवि को, किवो बहुत सन्मान।।

    नक भूकन मंसब दए, हे हाथी सिर पाय।

    प्रथम देव ‘कवि-राय’ पद, बहुत ‘महाकवि-राय’।।

    विग्र म्हारियर मगर का, आसी है किवराज।

    तासों साह मबा करी, बने गरीब नवाज।।

    जब कवि को मग यो बढ्यो तथ फिर कियो बिचार।

    बरनो नायक नायिका, कियो ग्रंथ विस्तार।।

    सुंदर कृत सिंगार है, सकल रसन की सार।

    कवि धन्यो वा ग्रंथ को फिर सुंदरसिंगार।।

    (‘सुंदरसिंगार’ से)

    दोहरा

    जो सुंदर सिंगार कहे बढ़े गुन सुज्ञान।

    तिहि मानो संसार में कियो सुधा-रस पान।।

    सरबत सोरह से बरस बीते अठतर सीत।

    कातिक सुदि सतमीं गुरों, रचो ग्रंथ का प्रीत।।

    (‘सुंदरसिंगार’ से)

    बंबई के बेस्ट इंडिया प्रिस अब वेल्ज़ म्यूज़ियम में एक हस्तलिखित पुस्तक ‘नौरस नामा’ है, जिसे कहा जाता है कि इब्राहीम आदिल शाह सानी (1580-1627 ई.) ने लिखा था। परंतु ‘तारीख़े-आलम-आराए-अब्बासी’ में लिखा है कि यह पुस्तक मौलाना मलिक कुमी और मौलाना जहूरी ने लिखी थी, और बादशाह का नाम कर दिया था। अस्तु, ‘नौरस नामा’ के आदि में जो पंक्तियाँ हैं, वे मै यहां लिप्यंतर करके लिखता हूँ---

    नौ रस गाओ गात गुणि जन गजपती।

    जम जम जीयो आतिश ख़ाँ सदा मस्त हती।।

    चैत

    या चकरंग चंद्र चंदना रास मोती।

    या इंद्र इन्दु चंदना पेराक्त हती।

    या विद्या बीदहु (?) चंदना जल भागीरती।।

    अभंग

    या कपालि चंद्र चंदना मंडल बिनि भूती।

    या बदन छाइ चंद्र चंदना आरसी जोती।

    यो कवीत आखें इब्राहीम संसार गुरु पती।।

    उपरोक्त पुस्तकों की भाषा को तो ‘हिंदी’ कहने में कोई संदेह ही नहीं, परंतु कुछ पुस्तकें ऐसी भी हैं जो भाषा में उस समय की ‘उर्दू’ कही जाती है, परंतु उन से भी पता लगता है कि उस समय हिंदी की क्या दशा थी। सतारा के पास रियासत औंध के चीफ़ साहेब श्रीमंत बालासाहेब पंत प्रतिनिधि बी.ए. बड़े उदार, साहित्य और कला-प्रेमी हैं। आप की लायब्रेरी में एक हस्त-लिखित पुस्तक है जिस का नाम ‘इब्राहीम नामा’ है। यह पुस्तक भी उपरोक्त इब्राहीम आदिल शाह सानी की प्रशंसा में एक कवि अब्दुल ने लिखी थी, जिसे बादशाह ने देहली से बुलाया था। इस कविता की छंद-रचना तो फ़ारसी की धारा पर है परंतु भाषा ऐसी है जिस में अस्सी फीसदी हिंदी शब्द है। यह रचना सन् 1603-4 ई. में समाप्त हुई थी, जब कि उत्तर-भारत में शहंशाह अकबर राज्य करता था। ऐसी पुस्तकें भी हिंदी साहित्य के पुनीत भवन के एक कोने में स्थान पाने योग्य हैं। इन से हिंदी उर्दू की मित्रता और शत्रुता का पता चलता है। यदि हिंदी-भाषा के विद्वान् इन के संबंध में अपनी बहुमूल्य सम्मति दे तो इन का भी कुछ उद्धार हो जाय।

    यह सम्भव है कि ऐसी मिश्र भाषा को हिंदी के पुजारी हिंदी कहें, और उर्दू के परस्तार (पूजक) इसे उर्दू ने कहें। परंतु ऐसी पुस्तकों से यह पता अवश्य लगता है कि यह दोनों बहिनें कब तक और क्यों साथ साथ रहीं-सहीं, और हंसी-खेली, और फिर कब और क्यों इन में विछोह हो गया। ऐसी पुस्तकों के अवलोकन में कानों में ऐसी करुणामयी आवाज़ आने लगती है मानों उर्दू अपनी बहिन हिंदी से कह रही हैः---

    यार हम तुम एक थे हमसु बादामे दो मगर

    कौन सा पत्थर कि जिसने तोड़ दो टुकड़े किए।।

    इस का उत्तर हिंदी अपनी देववाणी में इस प्रकार देती हैः---

    अर्थ बस पर्थ सूर्यमित्या-वी-मतिरात्रयो।

    किं जानमधुना येन युथं युथ पयं वयम्।।

    उर्दू अपनी मस्जिद अलाहिदा ही बना रही है जिस में फारसी और अर्बी के स्तंभ लगाए जा रहे हैं, और हिंदी अपना देवालय अलग ही खड़ा कर रही है जिसमें संस्कृत के तोरण सजाए जा रहे हैं।

    ऐसी प्रवृत्ति हमारे देश तथा साहित्य के लिए कहाँ तक हितकर हो सकती है इस पर विद्वान विचार करें।

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