Font by Mehr Nastaliq Web
Sufinama

आचार्य चन्द्रबली पांडे एवं उनका तसव्वुफ अथवा सूफ़ीमत डॉ. इन्द्र पाल सिंह

हिंदुस्तानी पत्रिका

आचार्य चन्द्रबली पांडे एवं उनका तसव्वुफ अथवा सूफ़ीमत डॉ. इन्द्र पाल सिंह

हिंदुस्तानी पत्रिका

MORE BYहिंदुस्तानी पत्रिका

    आचार्य चन्द्रबली पांडे की कुल साहित्यिक कृतियों का अध्ययन प्रस्तुत कर उनकी प्रतिभा और मनीषा का मूल्यांकन करना, यद्यपि असाध्य नहीं, तो भी परिश्रमसाध्य तो अवश्य है। आचार्य जी की प्रतिभा बहुमुखी है। भाषा, विचार, सम्पदान, साहित्यिक, समीक्षण, गवेषणादि, विविध क्षेत्रों की ओर उनकी पैनी दृष्टि गई है। और जिधर भी गई है विषय के मूल तक गई है। उनके सम्पूर्ण कृतित्व की समीक्षा, सम्प्रति, हमारा उद्देश्य नहीं है। प्रस्तुत लेख में हम उनके तसव्वुफ और सूफ़ीमत पर अपने विचार व्यक्त करेंगे।

    तसव्वुफ और सूफ़ीमत आचार्य जी की गवेषणात्मक और विचारात्मक प्रतिभा का अमर प्रमाण है। उनकी विनयशीलता, विनय-प्रच्छन्न गर्व, अजस्र किन्तु निष्काम परिश्रम परता आदि मानवीय चारित्रिक गुणों से लेकर उनका प्रखर सूक्ष्मेक्षण साधिकार-समीक्षण वृहद् अध्ययन, स्पष्ट और अच्युत विषय-स्थापन, मनन और चिन्तनादि अनेकानेक प्रतिभायें, प्रस्तुत ग्रन्थ में सम्मिलित हो कर स्फुट हुई हैं। ऐसा लगता है कि प्रारंभिक समर्पण से लेकर परिशिष्ट तक के प्रत्येक वाक्य में उनके व्यक्तित्व की कोई-न-कोई परिभाषा लिपटी पड़ी है।

    सर्वप्रथम हम आचार्य जी के समर्पण-वाक्य में सन्निहित तथा ध्वनित संकल्प को लेते है वे लिखते है, “आचार्ज शुक्ल जी के प्रसाद से कुलपति मालवीय जी की पूजा में उन्हीं के तुच्छ अन्तेवासी की समर्थ हिन्दी संसार को भेंट।“ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तथा प्रातः स्मरणीय महामना मदन मोहन मालवीय के प्रति अपार श्रद्धा ध्वनित होती है इस संकल्प-वाक्य में। “श्रद्धामयोअयं पुरुषः यो यच्छद्धः एव सः”- उपनिषद वाक्य के अनुसार मनुष्य श्रद्धामय है, जो जिस पर श्रद्धा करता है वह वही हो जाता है। ‘जायसी-ग्रन्थावली’ तथा ‘भ्रमर-गीत’ की भूमिकाओं, ‘गोस्वामी तुलसीदास’ अथवा, ‘चिन्तामणि’ के निबन्धों में हम आचार्य शुक्ल की जिस प्रखर उपेक्षा, सूक्ष्मक्षिका वृत्ति तथा गंभीर चिन्तन-शैली, जिस अनुशीलन, आडम्बरहीन किंवा समर्थ अभिव्यक्ति का दर्शन करते हैं, ठीक वे ही तत्व गुण-परिणाम की प्रक्रिया से मानो डॉ. पांडे में विकसित हो गये हैं। महामना मालवीय का प्रकाण्ड पांडित्य और ओजस्विनी, अमृतवर्षिणी वाग्मिता मानों पांडे जी की लेखनी में उतर आई हो। पांडे जी के श्रद्धालु अन्तःकरण ने उक्त श्रद्धेयों की आत्माओं को उनके सारे धर्मों के साथ मानो प्रपानक की भाँति पी लिया है।

    उक्त ग्रन्थ को पांडेजी ने ग्यारह प्रकरणों तथा दो परिशिष्टों में विभाजित किया हैं। सूफ़ीज्म सूफ़ीमत को लेकर पूर्व और पच्छिम के विद्वानों ने बहुत कुछ ननु-नच, क्षुण्ण-क्षोद उपस्थित किया है किन्तु विषय का जितना प्रशस्त और सर्वांशतः परिपूर्ण प्रतिपादन पांडे जी कर गये हैं उतना और कोई नहीं। तसव्वुफ शब्द की व्यख्या, सूफ़ीमत के उद्भव, विकास और परिपाक, सूफ़ियों की आस्था, मत के प्रतिपादन अथवा प्रिय की प्राप्ति के साधन, सूफ़ी-साहित्य आदि से सम्बद्ध प्रकरण पांडे जी के शोधात्मक प्रयास हैं और प्रातः इतिवृत्तात्मक हैं। किन्तु इतिवृत्तों की नीरसता का परिहार पांडे जी ने बड़ी पटुता से कर डाला है। प्रत्येक प्रकरण के प्रारम्भ में और यथावसर मध्यान्त में भी, वे बड़ी ही काव्यात्मक शैली में शीर्षकों की स्वतन्त्र व्याख्या करते चले हैं। काव्यात्मकता, आलंकारिकता, लाक्षणिकता और विनोदमयता का पुट दे-देकर उन्होंने इतिवृत्त-जन्य रूक्षता को सरस बना दिया है। साधन शीर्षक पाँचवे प्रकरण में पांडे जी ने तसव्वुफ अर्थात् सूफ़ीमत के उन साधनों का वर्णन किया है जिनका उसने प्रचारार्थ सहारा लिया। ये साधन हैं, प्रेम, सुरा, संगीत, रसायन और योगादि। इस संबंध में इस्लाम के कार्यकाण्ड-सलात, जकात, सौम और हज्ज आदि का विवरण उन्होंने इस प्रकार दिया है- “अच्छा, तो उक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि जीवन में जो काम एक बार करना हो (हज्ज), वर्ष में जिसका आश्रय एक मास लेना हो (रमजान, सौम, रोजा) कुछ हो जाने पर जिसका प्रबन्ध करना हो (जकात), दिन में पाँच बेर के लिए जिसका विधान हो (सलात, नमाज) यह किसी प्रेमी वा वियोगी के काम का नहीं हो सकता।“ विवरण का क्रम इसी प्रकार विस्तृत होता चलता हैः- “परन्तु जैसा पहले कहा जा चुका है, हृदय को ऐसे परम हृदय की और व्यक्ति को ऐसे परम व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती है जिसके संसर्ग में वह यहाँ तक आना चाहता है कि उसको किसी प्रकार का भी मध्यस्थ खलने लगता है। उस समय दृष्टि में प्रियतम, सृष्टि में प्रियतम, कण-कण में प्रियतम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं रह जाता।“

    तसव्वुफ वा सूफ़ीमत के उद्भव के सम्बन्ध में विद्वानों में मतबेद रहा है। इस्लाम धर्म के मानने वालों ने उसे इस्लाम का प्रसाद माना। निकल्सन तथा ब्राउन सदृश मर्मज्ञ और सुविज्ञ विद्वानों ने इसका मूल स्रोत कुरान तथा हदीस में माना है। मसीहियों ने इसे मसीही सिद्ध करने का प्रयत्न किया। कुछ मनीषियों ने इसका उद्भव नास्टिक मानी वा अफलातूनी मतों से बताया। सारांश यह कि तसव्वुफ के उद्भव के सम्बन्ध में डॉ. पांडे के पूर्व, केवल अनुमानों और दुराग्रहपूर्ण तर्कों की ही उद्भावना हो सकी थी, किसी सर्वसम्मत और बुद्धिग्राह्य निर्णय की नहीं। आचार्य चन्द्रबली पांडे की गंभीर प्रकृति, अध्ययन और मनन-चिन्तन से परिपुष्ट मनीषा साहित्य के सागर में इस प्रकार का मत्सयाखेट स्वीकार कर सकी। उन्होंने ग्रन्थ के प्रथम प्रकरण के आरम्भ में ही निर्भीक हो कर लिखा है--- सूफीमत के उद्भव के संबंध में विद्वानों में गहरा मतभेद है। वह मतभेद सूफीमत के दार्शनिक पक्ष की गहरी छानबीन का फल नहीं है। मत तो किसी वासना, भावना या धारणा की संरक्षा अथवा उसके उच्छेद के प्रयत्न का परिणाम होता है। अतः जो लोग उसके मर्म से परिचित होना चाहें उन्हें सर्वप्रथम उसके इतिहास पर ध्यान देना चाहिए। अपने मतों की स्थापना में लिया गया निकल्सन और ब्राउन प्रभृति पश्चिम के पंडितों का आधार ही इतना दुर्बल और छिन्न भिन्न था कि उस पर किसी पुष्ट निर्णय का निर्माण किया ही नहीं जा सकता था। पांडेय जी ने शोध-प्रक्रिया का मूल-मंत्र इतिहास के अध्ययन करने से किसी मत का सच्चा स्वरूप अपने शुद्ध और निखरे रूप में प्रकट होता है और उसके उद्भव तथा विकास का ठीक-ठीक पता भी चल जाता है। इसी आधार पर पांडे जी ने तसव्वुफ का मूल स्रोत इसलाम से परे, मुहम्मद साहब से आगे बढ़कर शमी जातियों की भाव-भूमि से निर्गत बताया है। उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि सूफीमत में स्वीकृत प्रेम और मादनभाव का मूल भी शामी जाति के संस्कारों में ही बद्ध है। स्त्री-पुरुष की सहज, लौकिक रीति को अलौकिक का जामा पहना कर सूफियों ने परम प्रेम का स्वरूप खड़ा किया। शामियों में भी, आर्यों की भांति, देवी-देवताओं को मान्यता दी जाती थी। बाल, कादेश, ईस्तर, प्रभृति देवी-देवताओं के मन्दिरों में भक्तगण अपनी सन्तानों को समर्पित कर देते थे। देवी-देवता तथआ उनके मन्दिरों में आये हुए अतिथियों को रति-दान द्वारा संतुष्ट करना इन देवदासों और देव दासियों का परम कर्तव्य माना जाता रहा। आगे चलकर यह प्रथा उच्छङ्खल होकर नग्न व्यभिचार में परिणत हो गई। यहोवा जैसे कुछ धर्मप्राण नेताओं ने इस प्रथा का विरोध किया। इससे अन्तर केवल यह पड़ा कि प्रकट, प्रत्यक्ष व्यभिचार अप्रकट, अप्रत्यक्ष प्रियतम के विरह में रूपान्तरित हो गया। रति का आलंबन अब क्षणभंगुर मानव होकर शाश्वत परम पुरुष हो गया। इश्क मजाजी अब इश्क हकीकी हो गया। इस शाश्वत सत्ता के प्रति मादन-भाव को जीवित रखने के लिए सुरा संगीतादि का भी सहारा लिया जाने लगा। पांडे जी कहते हैं—“निदान, हम देखते हैं कि वास्तव में सूफियों के प्रेम का उदय उक्त देवदास एवं देवदासियों में हुआ और कर्मकाण्डी नबियों के घोर विरोध के कारण उसको परम प्रेम की पदवी मिली।“

    जिन कर्मकाण्डी नबियों ने, यहोबा के सेनानियों ने, इस मादन-भाव का अनुमोदन पाखंड के कारण नहीं किया उनको एक नया रोग इलहाम (दिव्य वाणी) का हो गया। इलहाम की अवस्था में आकर ये नबी (देवदूत) भक्तों, मुरीदों को अल्लाह और रसूल की दिव्य वाणियाँ सुनाने लगे। इलहाम की अवस्था में आने के लिये उल्लास आवश्यक होता था। उल्लास की प्राप्ति साकी के जाम, प्यालों और सुरा की घूँटों से होती थी। सूफियों की हाल वाली दशा का मूल नबियों के इसी इलहाम में छिपा है।

    यह कहा जा चुका है कि अवकाश पाकर, पांडे जी, अपने श्रद्धेय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की भाँति, गम्भीर विषयता का तनवा तथा इतिवृत्त की शुष्कता कम करने के लिये बीच-बीच में विनोद भी करते चलते हैं। नबियों के रति, आनन्द, उल्लास और सुरापानादि का वर्णन करते हुए आप बताते हैं कि उक्त नबी भावावेश में आकर कभी-कभी अपने शरीर पर घाव कर देते थे और “जनता पर प्रकट करते थे कि उन आघातों से उन्हें तनिक भी कष्ट नहीं होता, क्योंकि उन पर देवता की असीम कृपा है।“ इस स्थल पर आप लिखते हैं- “आगे चलकर सूफियों ने प्रियतम के घाव को जो फूल समझ लिया उसका मुख्य कारण यही है। देवता के प्रसाद को फूल समझना ही उचित था। हिन्दी कवि बिहारी ने भी सूफियों की देखा-देखी सरसई को कभी सूखने नहीं दिया, खोंट खोटं कर उसे बराबर हरा ही रहने दिया, क्योंकि उनकी नायिका को वह क्षत उसके प्रियतम से प्रसाद के रूप में मिला था जो प्रेम को सदा हरा-भरा रखता था।‘

    आगे के प्रकरणों में, सूफीमत का पूर्ण बोध कराने के लिये, पांडे जी ने सूफी साहित्य, अध्यात्म आदि पर भी बड़ी गम्भीरतापूर्वक विचार किया है। अन्त में सूफियों के भविष्य पर भी आपने अपनी साधु सम्मत्ति प्रकट की है। सूफियों की प्रशंसा करते हुए भविष्य नामक प्रकरण में लिखते हैं--- “बस, जब हम देखते है कि इस छल-छंद के युग में लोग अपनी कलुषित वृत्तियों की तृप्ति उके लिये अन्यों का विध्वंस देश, काल और जाति की ओट में गर्व के साथ करते हैं और साथ ही विश्व प्रेम का कीर्तन भी करते जा रहे है तब हमारी आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है और भुलावे के इस विश्व-प्रेम से हमें सन्तोष नहीं होता। विश्व-प्रेम की वास्तविक सफलता तो सूफियों के उस प्रेम पर अवलंबित है जो मनुष्य की सामान्य वृत्तियों को ऊपर उठा उसे सहज भाव-भूमि पर रख देता है जिसका कण-कण हमारा आलंबन है, उस लोभ या कपट-प्रेम पर कदापि नहीं जिसका सम्पादन, प्रेम की ओट में पश्चिम प्रितदिन करता जा रहा है।“

    सूफीमत पर लिखा गया पांडे जी का यह ग्रंथ अपने विषय पर आप्त और प्रमाणिक है। अद्यावधि अस्पृष्ट और अस्पष्ट विषय को हस्तामलक बना कर आपने साहित्य की जो सेवा की है उसका मूल्य तो आँका जा सकता है और तो चुकाया ही जा सकता है। साहित्य का यह निष्काम सेवक जीवन भर साहित्य-सेवा का भार ढोता ही चल बसा, संसार ने उसे क्या दिया? भूमिका में उन्होंने लिखा है--- ‘डासत ही भव-निसा सिरानी, कबहुँ नाथ नींद भरि सोयो।‘

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए