कबीरपंथी और दरियापंथी साहित्य में माया की परिकल्पना - सुरेशचंद्र मिश्र
कबीरपंथी और दरियापंथी साहित्य में माया की परिकल्पना - सुरेशचंद्र मिश्र
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सम्पूर्ण सृष्टि-व्यापार का अवलोकन करने पर यह जिज्ञासा होती है कि इसका विकास किन तत्व से सम्भव हुआ। सृष्टि के जिन रूपों का प्रत्यक्षीकरण हम करते हैं, उनके गुणों को हम जिस रूप में देखते हैं, मूल रूप में उन्हें वैसे ही होना चाहिए। सांख्य मतानुसार जिस सत्कार्यवाद को मान्यता की प्रतिष्ठा प्रदान की गई है उसका तात्विक विवेचन करने पर इस प्रकार का विचार सुनिश्चित किया जाता है कि किसी वस्तु अथवा कार्य में जिन गुणों का भान होता है, जिससे उनकी उत्पत्ति हुई, उसमें सूक्ष्म रूप से अवययों को अनिवार्य रूप से विद्यमान होना चाहिए। बौद्ध एवं कणाद आदि इसी प्रकार की धारणा में विश्वास करते है कि किसी भी पदार्थ का पूर्णरूपेण विनाश सम्भव नहीं, क्योंकि किसी न किसी रूप में उसका परिणाम स्थिर होता रहता है, वैसे ही किसी वस्तु का नाश न होकर केवल रूप परिवर्तन ही सम्भव है। एक वस्तु के नाश के पश्चात दूसरे पदार्थ की रचना होती है। जिस प्रकार बीज वपन के पश्चात् उसका एक मात्र आखार परिवर्तन होता है, नाश नहीं, अंततः पेड़ की सृष्टि होती है। सांख्य शास्त्र की मान्यतानुसार इस संसार में जिस वस्तु का पहले कोई अस्तित्व नहीं, वह कभी उत्पन्न ही नहीं हो सकती। अर्थात् नई वस्तुओं का उत्पादन सर्वथा असम्भव है, क्योंकि शून्य से एकमात्र शून्य की ही उत्पत्ति सम्भव है और कुछ नहीं। छान्दोग्य उपनिषद में बतलाया गया है कि कथमसतः सञ्जायेत् जो है ही नहीं उसका द्वारा जो है वह किस प्रकार प्राप्य है? सृष्टि के मूल कारण के लिए उपनिषदों में असत् शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है। असत् शब्द से नाम रूपात्मक प्रत्यक्ष स्वरूप अर्थात् अवस्था का अभाव ही विवक्षित है। दूध के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ से दही की सम्भावना नहीं है, इस पर ध्यान से विचार करने पर निर्णय लिया जा सकता है कि पानी से दही नहीं निकल सकती, तिल के अतिरिक्त बालू से तेल नहीं निकाला जा सकता। इन सबका अभिप्राय यह है कि जिसमें मूल रूप में गुण विद्यमान ही नहीं है उससे अभी जो अस्तित्व में है वह किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। यही कारण है कि सांख्य मतानुयायियों ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि किसी कार्य के वर्तमान द्रव्यांश मूल कारण में भी किसी ने किसी रूप में अवश्य ही विद्यमान रहते है। इसी सिद्धांत को सत्कार्यवाद कहा गया।
अखिल सृष्टि में हमें अनेक नाम रूप देखने को मिलते है। उदाहरणार्थ, वृक्ष, पशु-पक्षी, कीट, पतंग, पत्थर, सोना-चाँदी, पत्थर, हीरा, जल, वायु आदि। इनके विविध नामों के साथ गुणों में यह पार्थक्य दृष्टिगोचर होता है। सांख्य मतावलम्बियों का विचार है कि वास्तव में यह पार्थक्य उन वस्तुओं के मूल रूप में नहीं, प्रत्युत समष्टिगत रूप से समस्त पदार्थ मूलतः एक ही हैं। अर्वाचीन रसायन शास्त्रवेत्ताओं ने गवेषणात्मक ढंग से विभिन्न पदार्थों का भेदीकरण कर बासठ मूल तत्वों का अन्वेषण किया, किंतु अब पाश्चात्य विद्वानों ने निष्कर्ष निकाला है कि ये मूल-तत्व स्वयंसिद्ध एवं स्वतंत्र नहीं हैं, क्योंकि इन सब का आधार कुछ और ही है। इन सब में समष्टि रूप से कोई एक ऐसी शक्ति केन्द्रित है। जो समान रूप से अब समष्टिगत नाम सांख्य दर्शन में प्रकृति है। जिस प्रकार किसी जगत् के समस्त वृक्षों को एक-एक से जिस समूह का निर्माण होता है उसे हम जंगल के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहते। उसी प्रकार से सम्पूर्ण सृष्टि के एक कण का यदि हम समीचीन नाम रखना चाहे तो प्रकृति को ही स्थान देना होगा। प्रकृति का अभिप्राय मूल का है, इसके अनन्तर जिन वस्तुओं की रचना होती है उन्हें विकृति अथवा मूल द्रव्य के परिणाम स्वरूप माना जा सकता है।
नामों के पश्चात् सृष्टि के अनन्त अंगों-उपांगों में निहित गुणों की ओर ध्यानाकर्षित करना है कि यदि इस मूल द्रव्य गुणों के विषय में एकता हो तो सांख्य मत द्वारा प्रतिपादित सत्कार्यवादानुसार एक ही गुण से जगत् के असंख्य गुण वाले पदार्थों की सृष्टि कदापि सम्भव नहीं। साथ ही जब हम सृष्टि का निरीक्षण करते हैं तो पता चलता है कि इसके विभिन्न अवयवों या अंगों में अनेक गुण पाये जाते हैं, इस विभिन्न गुणों वाली सृष्टि के विषय में भी दार्शनिकों एवं चिंतकों ने मान्यता दी कि चाहे कैसे गुणवाली वस्तु क्यों न हो, उसकी गणना अपने गुणों की दृष्टि से किसी एक के अन्तर्गत हो सकती है। अर्थात् उन्होंने समस्त गुणों को तीन कोटियों में विभक्त किया जो इस प्रकार है-सत्व, रज एवं तम। प्रथम, पूर्णरूपेण विशुद्ध एवं पवित्र या पूर्णावस्था है, द्वितीय ठीक उसके प्रतिकूलावस्था स्वीकार की जा सकती है। और तृतीय अवस्था का जन्म तब होता है जब द्वितीय गुणों वाली अवस्था का चरमोत्कर्ष होने लगता है। उस प्रकार शुद्धावस्था अर्थात् पूर्णावस्था को सत्वगुण, अवमावस्था को तमोगुण, इसके चरमोत्कर्ष वाली अवस्था का नाम रजोगुण है। सांख्यवादियों की धारणा है कि जगत् के समस्त पदार्थों में कोई न कोई गुण अवश्य ही विद्यमान रहते हैं। प्रारंभ में इन गुणों की गति समान रहती है। इस प्रकार की सृष्टि के आदि में थी और प्रलय के पश्चात् भी प्रकृति की इस प्रकार की साम्यावस्था तद्रूप ही रहेगी। साम्यावस्था का अभिप्राय पूर्णशांत अथवा पूर्ण गतिहीन है। किन्तु जब ऐसी अवस्था का आगमन होता है, जब कि इन गुणों का विकास साम्यावस्था को छोड़कर न्यूनाधिक क्रम से होने लगता है तभी सृष्टि का प्रारम्भ होता है। प्रश्न स्वाभाविक है कि इन गुणों में इस प्रकार का अंतर क्यों आ जाता है? इस प्रकार के क्रम को सांख्यवादियों ने एक सिद्धांत के रूप में ही स्वीकार किया है कि यही तो प्रकृति का धर्म है।
प्रकृति के इन तीनों गुणों के कारण ही इसे त्रिगुणात्मिका का कहा गया है, जो कि व्यक्त स्वयं और समभाव से अखिल सृष्टि में परिव्याप्त है। आकाश, वायु प्रभृति भेद तो कालान्तर में हो सके, यद्यपि समस्त पदार्थ पृथक् रूप से सूक्ष्म एवं व्यक्त है और इनमें विद्यमान होने वाली शक्ति, जिसे मूल प्रकृति कहा गया है, वह सर्वव्यापी एवं अव्यक्त है। यह ध्यान देने की बात है कि वेदान्त में प्रतिष्ठित परब्रह्म एवं सांख्य दर्शन की प्रकृति में पर्याप्त पार्थक्य है। इसका कारण है कि परब्रह्म तो चैतन्य एवं निर्गुण स्वीकार किया गया है, किन्तु इसके प्रतिकूल त्रिगुणों की साम्यावस्था रखने वाली प्रकृति तो जड़ एवं सगुण सिद्ध हुई। इसलिए दोनों में विरोधाभास प्रतीत होते हैं। प्रकृति को सांख्य दर्शन में भी नाम अक्षर दिया है और इसके द्वारा उत्पन्न सभी पदार्थों को क्षर। किन्तु इसका अभिप्राय पूर्ण विनाश नहीं अपितु रूप परिवर्तन ही है। प्रकृति के अन्य अनेक क्रियाओं के कारण इसके विविध नाम गिनाये गये है। यथा, प्रधान, गुणक्षोमिनी, बहुधानक एवं प्रसवधर्मिणी आदि। सृष्टि के मुख्य सम्पादन कार्य अपने ऊपर लेने के कारण इसे प्रधान कहा गया। प्रकृत अपने साम्यावस्या का भंग स्वतः करती है, इसलिए गुणक्षोभिनी कहा गया। समस्त पदार्थों के त्रिगुण रूप बीज वपन करने में एकमात्र प्रकृति ही सक्षम है, इसलिए उसे प्रसवधर्मिणी कहा गया। इसी प्रकृति को वेदान्तियों न माया नाम दिया। हीगेल के मतानुसार अखिल सृष्टि का मूल कारण जड़ और अव्यक्त प्रकृति ही है। इसी से उसने अपने सिद्धांत को अद्वैत कहा है।
सांख्य दार्शनिकों की धारणा है कि मन, बुद्धि एवं अहंकार पंचभूतात्मक जड़ प्रकृति के ही धर्म है, साथ ही इन सबकी उत्पत्ति भी सम्भव है। जड़ प्रकृति से चेतन जगत् की सृष्टि कैसे हुई, इसका समाधान यह है कि जिस प्रकार कोई भी अपने कंधों पर स्वतः नहीं बैठ सकता, उसी प्रकार प्रकृति का ज्ञाता जब तक प्रकृति से पृथक नहीं, तब तक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होनी असम्भव है- मैं यह जानता हूँ, वह जानता हूँ, आदि भाषा का प्रयोग भी वह नहीं कर सकता। व्यावहारिक दृष्टि से भी देखा गया है कि हम जो प्रत्यक्ष देखते है वह मुझसे भिन्न है। इसीलिए सांख्य वेत्ताओं का विचार है कि ज्ञाता एवं ज्ञेय देखने वाला और देखने की वस्तु या प्रकृति को मूलतः भिन्न भिन्न स्वीकार करना चाहिए।
एकमात्र प्रकृति के माध्यम से ही सृष्टि का विकास सम्भव नहीं, इसीलिए सर्वप्रथम सर्वनियंता परब्रह्म की परिकल्पना की गई, जिसे सर्वोपरि प्रतिष्ठित कर पुरुष नाम से अभिहित किया गया। सृष्टि का विकास इन्हीं प्रकृति एवं पुरुष के योग से स्वीकार किया गया है। पुरुष का अस्तित्व तो प्रकृति से भिन्न है, त्रिगुणात्मक प्रकृति जो कि सगुण है, उसके प्रतिकूल पुरुष निर्विकार एवं निर्गुण है। प्रकृति स्वयं जड़ हैं, किन्तु पुरुष सचेतन है। प्रकृति के माध्यम से ही समस्त कार्य सम्पन्न होते हैं और पुरुष उदासीन एवं अकर्ता है। प्रकृति अंधी है, पुरुष साक्षी। पुरुष एवं प्रकृति को अनादि स्वीकार किया गया है। वैसे भी इनकी स्थिति समष्टिगत रूप से सर्वग्राह्य है। प्रकृति एवं पुरुष को छोड़कर तीसरा और कोई तत्व सृष्टि का कारण नहीं। निर्गुण पुरुष जब कुछ नहीं करता तब किस प्रकार सृष्टि का विकास हुआ? इसका समाधान यह है कि बछड़े के निकट रहने पर जिस प्रकार गाय के स्तन में दूध आ जाता है, लोहे में चुम्बक के पास रहने से आकर्षण शक्ति का संचार हो जाता है, उसी प्रकार जब प्रकृति एवं पुरुष का संयोग होता है तब प्रकृति अपने गुणों का प्रसार पुरुष के समक्ष करने लगती है। यद्यपि पुरुष चेतन एवं ज्ञाता है तथापि निर्गुण होने के कारण वह स्वयं कोई कार्य करने में अशक्त है और ऐसी क्षमता के बावजूद ज्ञान का उसमे अभाव है, परिणामस्वरूप उसको भान हीं होता कि क्या करना है? ऐसी अवस्था में प्रकृति एवं पुरुष का संयोग अंधे एवं लंगड़े की जोड़ी के सदृश होता है। जैसे लँगडा अंधे के कंधे पर बैठकर मार्ग प्रदर्शित करे और वह उसकी सहायता से चले, वैसे ही सृष्टि का सम्पादन होता है।
सृष्टि के प्रारम्भ में अव्यक्त और अनित्य परमतत्व जिस देश-काल आदि नाम रूपात्मक सगुण-शक्ति से व्यक्त अर्थात् इस दृष्टिगोचर होने वाली सृष्टि का निरूपण हुआ, उसी को वेदांतियों ने माया कहा है। ब्रह्म अविनाशी एवं प्रकृति नाशशीला है। ब्रह्म द्वारा माया पर जो स्थायी आवरण प्रत्यक्ष इन्द्रियगोचर है, उसी को सांख्यशास्त्र में त्रिगुणत्मिका प्रकृति के नाम अभिहित किया गया है। सांख्यमतानुयायियों की धारणा है कि पुरुष एवं प्रकृति दोनों स्वयभूं एवं स्वतंत्र हैं, परन्तु माया का अस्तित्व सदा परिवर्तनशील है। उनके अनुसार यह मान्यता समीचीन नहीं। नासदीय सुक्त की शब्दावली में कहा जा सकता है कि यह विषय मनुष्य के लिए ही नहीं प्रत्युत देवताओं के लिए भी गूढ़ एवं अगम्य है। इसीलिए इससे अधिक नहीं कहा जा सकता कि ज्ञानदृष्टि से निश्चित किए हुए निर्गुण परब्रह्म की ही यह अतर्क्य लीला है। वेदांत सूत्र में इस प्रकार का वर्णन आया है कि मायात्मक कार्य अनादि है। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान ने भी इस बात का समर्थन किया है कि प्रकृति स्वतंत्र नहीं है, मेरी माया है। पुनः उन्होंने बताया है कि प्रकृति यानी माया और पुरुष दोनों अनादि है।
माया को ब्रह्म की शक्ति स्वीकार किया गया है। जब वह माया के संयोग से विश्व की रचना करता है तब उसकी उपाधि ईश्वर की हो जाती है। इसीलिए श्रुति में प्रयुक्त कारणोपाविरीश्वर के अनुसार आत्मा अपने कारण शरीर माया से मिलकर ईश्वर के नाम से विभूषित किया जाता है। श्वेताताश्वतरोपरिषद में कहा गया है कि माया को प्रकृति जानना चाहिए और माया से युक्त आत्मा को ईश्वर, मायाच्छन्न होने पर उस ब्रह्म का निर्गुण स्वरूप सगुण रूप में परिणत हो जाता है। अखिल सृष्टि के समस्त कार्य व्यापारों का हेतु एक मात्र माया को स्वीकार किया जा सकता है। वेदांत में जगत् ब्रह्म का विवर्त रूप अथवा भ्रामक प्रतीत होने वाला परिवर्तित रूप स्वीकार किया गया है, किंतु जगत् माया का परिणाम है। द्रष्टा भ्रमवश रज्जु में सर्प की प्रतीति कर लेता है, इस प्रकार की कल्पना का आधार उसकी विवर्त शक्ती ही समझी जायगी। ठीक उसी तरह यह जगत् भी अज्ञानस्वरूप समझा जाता है।
सृष्टि विषयक प्रसंग में ईश्वर माया पर निर्भर करता है। एवं ईश्वर का अस्तित्व सृष्टि में केन्द्रित है। माया को परमेश्वर की बीज शक्ति स्वीकार किया गया है। जिसके कारण ब्रह्म एक होते हुए भी अन्तत नाम-रूपों से विभूषित किया जाता है (एकएव परमेश्वर कूटस्थ नित्यो नाम धातुः अविद्यया माया वितत् अनेकधा विभाव्यते)। ब्रह्म को इस जगत् का निमित्त एवं उपादान कारण बताया गया है, परंतु वह निर्विकार एवं निष्क्रिय है। प्रश्न उठता है कि फिर वह ब्रह्म सृष्टि किस प्रकार सम्पन्न करता है! माया को ब्रह्म की शक्ति स्वीकार किया गया और माया एवं ब्रह्म के द्वारा सृष्टि का विधान माना गया है। किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि माया एवं ब्रह्म दो विभिन्न सत्ताएँ है। ब्रह्म के अतिरिक्त जगत् में कुछ और है ही नहीं। माया एवं ब्रह्म का सम्बन्ध उसी प्रकार एक है जिस प्रकार अग्नि एवं उसकी दाहक शक्ति। व्यावहारिक दृष्टि से हम देखते हैं कि व्यक्ति की इच्छा शक्ति के बिना कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता, साथ ही व्यक्ति बिना इच्छा के भी रह सकता है। लेकिन इच्छा की संभावना बिना शक्ति के नहीं। उसी प्रकार माया ईश्वर की इच्छा शक्ति है, साथ ही मानसिक क्रिया भी। जिस प्रकार स्वप्न में मानसिक सृष्टि का ताना-बाना बुना जाता है उसी प्रकार यह विश्व भी ईश्वर की मानसिक शक्ति माया द्वारा ही रचा गया। माया संवालित ब्रह्म विश्व का हेतु बनकर ईश्वर कहा जाता है। जगत् के कारण भूतब्रह्म से जिसकी सत्ता है, जो आकाश आदि कार्यभूत पदार्थों से पहचानी जाती है और आकाशादि कार्यों के उत्पादन में समर्थ सद्वस्तु (ब्रह्म) की शक्ति रूपा वह माया है, उसका कोई स्वरूप नहीं है। इसीलिए उनका निर्बचन सद् एवं असद् दोनों रूपों से नहीं हो सकता। वह न भिन्न है न अभिन्न और न भिन्नाभिन्न उभयस्वरूप ही। माया सद्सद विलक्षण तथा भिन्नाभिन्न विलक्षण है, वह न सांग है न अंगहीन है। इस प्रकार उसे अनिर्वचनीय बतलाया गया। इन गुणों के होते हुए भी वह अभाव रूप नहीं। माया के परिणाम स्वरूप अखिल जगत् की सृष्टि होती है और जगत् रूपी महाप्रपंच का केन्द्र भी माया ही है। ऐसी अवस्था में माया की स्थिति भाव रूप है। वह जगत् का कारण है, इसीलिए उसमें सत्य रण एवं तम गुण भी विद्यमान है। यही उसके गुण एवं स्वरूप दोनों है जिसके परिणाम स्वरूप माया को त्रिगुणात्मिका नाम से सम्बोधित किया गया। जैसा ऊपर बताया गया है, इन रूपों के होते हुए भी माया भाव रूप ही है। तब भी जब मनुष्य में ज्ञानोदय होता है तब सारी द्विधा लुप्त हो जाती है। जैसे सूर्य के आलोक से अंधकार का नाश होता है। किन्तु इस प्रकार का ज्ञान तार्किक धऱातल पर अप्राप्य है, अतः माया को ज्ञान का विरोधी बताया गया, अर्थात् आत्मचिंतन द्वारा जब जीव में मूल चेतना एवं तत्वज्ञान मुखरित हो उठते हैं, तब इस अंधकारमय माया के समस्त प्रपंच विलीन हो जाते है। गीता में भगवान ने बतलाया है मायेब में प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्तिते। माया का सत्ता न तो परमार्थिक है और प्रतिभासिक ही, अपितु एक मात्र व्यवहारिक ही है। उसका आश्रय जीव है एवं मूल विषय ब्रह्म। माया मनुष्य पर एक ऐसा आवरण डाल देती है है जिससे वह अपना वास्तविक स्वरूप भूल जाता है।
श्रुतियों में माया को निम्न स्थान प्रदान किया गया है। युक्ति के द्वारा उसका स्वरूप अनिर्वचनीय हैं और लौकिक जगत् में उसकी क्रियाएँ पूर्णरूपेण सत्य प्रतिभासित होती है। शंकराचार्य माया को इस जगत् का हेतु सिद्ध करते हुए गुणों एवं विशेषणों को इस प्रकार बतलाया है----
अव्यक्त नाम्नी परमेश शक्तिः
अनाद्य विद्या त्रिगुणात्मिका परा।
कार्यानुमेया सुधिचैव माया,
माया जगत्सर्वमिदं प्रसूयते।।
माया की दो शक्तियाँ स्वीकार की गई, प्रथम आवरण एवं दूसरी विक्षेप- इनके परिणामस्वरूप जगत् का यथार्थ स्वरूप लुप्त हो जाता है और एक ऐसे रूप का प्रतिपादन होता है जो तात्विक तौर पर निःसार एवं असत्य है। किन्तु उससे बढ़कर सत्य एवं श्रेष्ठ कोई रूप रह ही नहीं पाता, जिसमें लिप्त होकर संसारी जीव अभीष्ट से वंचित रह जाते हैं। इस प्रकार इन्हीं शक्तियों के परिणामस्वरूप ब्रह्म का वास्तविक रूप छिप जाता है और उसमें अवस्तुरुप जगत् का भान होने लगता है। उपर्युक्त दोनों शक्तियाँ क्रमशः तमों एवं रजोरूपा और परस्पर पूरक है। आवरण का अर्थ है पर्दा डालना एवं विक्षेप का अर्थ है वास्तविक वस्तु के स्थान पर दूसरी वस्तु ला देना। वेदांत में इस प्रकार की चर्चा मिलती है कि माया की आवरण शक्ति जीव के ज्ञान नेत्रों के आगे आकर ब्रह्म के वास्तविक रूप को उसी प्रकार ढँक लेती है जैसे एक छोटा-सा मेघ का टुकड़ा द्रष्टा के नेत्रों को ढँककर अनेक योजन विस्तृत सूर्य को छिपा लेता है।
आवरण शक्ति के माध्यम से ईश्वर का वास्तविक रूप ढँक जाता है, तब माया की दूसरी शक्ति विक्षेप जगत् के विविध मायिक प्रपंचों में जीव को उलझा देती है और जीव को तात्विक रूप में उसी प्रकार भ्रम होने लगता है जिस प्रकार द्रष्टा को रज्जु में सर्प की भ्रांति हो जाती है।
माया के अस्त्र-शस्त्र, काम-क्रोध, राग-द्वेष आदि है, जो जगत् में अनन्त रूप धारण कर जीवों के नेत्र, बुद्धि और दर्शन शक्ति पर शरीर, अस्मिता, अभिमान का पर्दा डाल देते है। इसमे जीव अपने वास्तविक स्वरूप को भूल कर यह समझने लगता है कि मै अनन्त, अनादि, शाश्वत, अजर, अमर परमात्मा नहीं हूँ, मैं हाड़-मांस का एक पुतला मात्र हूँ अर्थात् विनाशशील हूँ। माया के दुर्दमनयी प्रकोपों के कारण ही सम्पूर्ण जगत् चक्षुहीन हो असंख्य सांसारिक क्लेशों से विक्षिप्त होकर अनन्त जन्मों के भयावह चक्कर में चक्की के आटे के सदृश पिसता रहता है और माया सदा उसे सत्य सन्मार्ग से विचलित करती रहती है।
इससे यह निष्कर्ष निकालना सरल है कि अखिल विश्व ही माया के अनन्त प्रपंचों का क्रीड़ा-स्थल है। इस क्रीड़ा में माया एक ऐसी सुषुप्ति है, जिसमें संसारी जीव अपने अभीष्ट को भूल कर सो जाते है। ये समस्त खेल एकमात्र जीवों के लिए ही है, ईश्वर इस माया से निर्लेष भाव से अपना सम्बन्ध रखता है। यही जीवों को सीधी राह से उलटी ओर खींच ले जाती है। इसी कारण माया को अविद्या तथा अज्ञान कहा गया है।
माया को गुणों की दृष्टि से दो भागों में विभाजित किया गया है, एक विशुद्ध सत्व गुण प्रधान एवं दूसरा मलिन सतोगुण प्रधान, अर्थात् अविद्या। माया का विशुद्ध सत्व स्वरूप उसकी सूक्ष्मातिसूक्ष्म अवस्था है। ऐसी परिस्थिति में सतोगुण की ही प्रधानता होती है। माया के कारण जब उस परमतत्व में क्रिया उत्पन्न होती है, तब उसके अलग-अलग अनंत एवं व्यष्टिगत रूप में अविद्या कहा जाता है। अविद्या माया जीवगत अभावरूप तथा अज्ञानरूपी होती है।
जिस माया का चित्रण ऋग्वेद में अलौकिक पराक्रम कलाबाजी के रूप में हुआ, उपनिषदों में उसे दृढ़ दार्शनिक पृष्ठभूमि प्राप्त हुई और सांख्य तथा वेदान्त में इसका इतना गहन विवेचन हुआ कि उसका लेखा-जोखा रखने के लिए स्वतंत्र ग्रंथ की आवश्यकता है।
उपर्युक्त मान्यताओं का प्रभाव निर्विवाद रूप से सम्पूर्ण संत साधना पर पड़ा, जिससे संत कबीर एवं दरिया भी अपने को मुक्त न कर सके। किस प्रकार और किस रूप में मायावाद का ताना बाना इनके द्वारा बुना गया, इसका उल्लेख यहाँ वांछनीय है।
दोनों पंथो में माया का जो विशद वर्णन किया गया है। उसमें पर्याप्त सादृश्य खोजा जा सकता है। इन सन्तों की रचनाओं में जहाँ कहीं भी ईश्वर की विभूतियों का वर्णन पाया है वहाँ माया की शक्तिमत्ता का भी चित्रण हुआ है। सृष्टि का विकास क्रम इन्हीं के अस्तित्व एवं सहयोग से हुआ। सृष्टि का विकास सत्पुरुष द्वारा प्रारम्भ होता है। सत्पुरुष त्रिगुणातीत है और सृष्टि त्रिगुणमय।
उपनिषदों में इस बात का स्पष्ट उल्लेख, मिलता है कि सृष्टि के पूर्व एकमात्र सत् अथवा अद्वैत ब्रह्म का ही अस्तित्व था। तपैच्छत् बहुस्याम् प्रजायेति अर्थात् उसके हृदय में जब अनेकत्व या बहुत्व की लिप्सा जाग्रत हुई तब उसने सृष्टि का प्रारम्भ किया। इस प्रकार की धारणा का समर्थन लगभग अनेक भारतीय धर्मग्रंथ करते है। इन दोनों पंथों की मान्यतानुसार इस त्रिगुणात्मिका सृष्टि के पहले वह तरम तत्व अमर लोक में विराजमान था, तब विश्व शून्याकार था अथवा चारों ओर अंधकार छाया हुआ था। ऐसी अवस्था में सत्पुरुष के मन में जब सृष्टि की इच्छा जाग्रत हुई, तब उसने निरंजन तथा आद्या नाम्नी नारी को जन्म दिया। निरंजन एवं आद्या दोनों क्रमशः मन एवं माया के प्रतीक है, समस्त दुख-सुख इन्ही के संसर्ग से विकसित होते है।
इस प्रकार देखा जा सकता है कि माया एवं जगत् का अटूट सम्बन्ध है, यहाँ तक कि अखिल जगत् ही माया-जन्म है। इसलिए यदि इसे निखिल सृष्टि से पृथक् कर दिया जाय तो शून्य के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं बचता। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि माया के कारण ही सृष्टि सम्भव हुई है। तुलसीदास ने स्पष्टतः उल्लेख किया है कि अखिल ब्रह्मांड ही माया है। जहाँ तक मैं मेरा और तू तेरा का सम्बन्ध या द्वैत भाव की दौड़ है वहाँ तक माया का सुविशाल साम्राज्य छाया हुआ हैः
मैं अरु मोर तोर मैं माया। जेहि बस कीन्हें जीव निकाया।
गो गोचार जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई।।
रा. मा. 3।15।2
किन्तु माया को सृष्टि का मूल कारण स्वीकार करना समीचीन नहीं। मूल कारण तो पुरुष को ही माना जा सकता है। माया को उपादान कारण बतलाया जाता है, क्योंकि वह अकेले सृष्टि का विकास करने में सक्षम नहीं है। सम्पूर्ण जगत् के प्रत्येक जीव पर माया का भयावह प्रकोप इस तरह छाया हुआ है कि सब के सब अपने अभीष्ट से वंचित हो चुके है। व्यावहारिक जीवन में उनके क्रिया-कलाप कितने मोहक एवं सत्य से प्रतीत होते है कि उन्हें छोड़कर अन्यत्र कहीं जाने का विवेक रहा ही नहीं जाता। यहीं कारण है कि संत-साधना वाले समस्त कवोयं ने जीवन में जितने भी सुख-विलास के प्रसाधन हो सकते है, उन्हे मायाजनित ही स्वीकार किया है और माया के लिए उनसे तुलनीय रूपक भी ढूँढ निकालने का प्रयास किया है। मानवीय धरातल पर लौकिक एवं पारलौकिक दो पहलू ही विशेष महत्व रखते है, जिनमें तात्विक दृष्टि से पूर्ण विरोधाभास परिलक्षित होता है। यही कारण है कि लौकिक जीवन का सत्य आध्यात्मिक जगत् के लिए असत्य एवं व्यर्थ सिद्ध होता है। दूसरी ओर, माया का आवरण आध्यात्मिक सत्य भी मिथ्या एवं व्यर्थ सिद्ध होता है। माया की यही सफलता है कि वह जीव को अपने कठोर फन्दे में बाँधकर अपने अभीष्ट से बहुत दूर ले जाकर भटकाती फिरती है। किन्तु उसका यह मिथ्या एवं भयावह कुचक्रपूर्ण, आडंम्बर आध्यात्मिक दृष्टि से पूर्ण असत्य है। कबीर एवं दरिया दोनों इस विषय के पूर्ण समर्थक है।
कबीरपंथ की मान्यतानुसार माया का प्रभाव अखिल विश्व पर है। ज्ञानप्रकाश में ऐसा उल्लेख है कि मायाजाल में जगत् बँधा हुआ है और त्रिविध काल की कला में सब चूर हो रहे है। माया में लिप्त होकर समस्त जीव अपने अभीष्ट अर्थात् आदि परब्रह्म की स्मृति पूर्णरूपेण भूलकर अपने मार्ग से विचलित हो गए है। सम्पूर्ण जगत् पर माया का आतंक इस प्रकार छाया हुआ है कि सब ज्ञानहीन होकर इसके इन्द्रजाल में उलझे हुए है। परिणामस्वरूप उन्हें यम का शिकार बनना पड़ रहा है। यहाँ तक कि त्रिदेवों की भी इस माया से रक्षा न हो सकी।
इसी तरह दरियापंथ में भी मायावी दुनिया से प्रेम रखने वालों को दाख-छोहारें जैसे अमृत फल के भोग से विमुख होकर विषमय सेमर के फूल में अनुरक्त घोषित किया गया है। इस प्रकार देखा जाता है कि कबीरपंथ एवं दरियापंथ दोनों की रचनाओं में बड़े अच्छे रूपकों के माध्यम से जगत्-प्रेम को निःसार एवं व्यर्थ सिद्ध कर अज्ञानी जीव के लिए एक अमर संदेश दिया गया हैः
शुगना सीमर सेइया, दो ढेंढी की आश।
ढेंढी फुटी चनाक दै, शगुना चला निराश।।
शगुना सीमर बेगि तजु, घनी बिगूचन पांख।
ऐसा सीमरस सेवे, जाके हृदय न आंख।।1
बीजक, पृ. 135
सेमर फूल जस किरुवां आवा। देखि फूल बहु हरष बढ़ावा।
चुंगल गारत सुआ उड़ानो। रोम रोम मिथ्या कर जानो।।
जाना नहीं विवेक बिचारा। ठोक कपार चलो झखमारा।।
माया रूप आहि इमि भाई। जिमि फूल सेमर सुन्दरताई।।
ज्ञानस्थिति बोध, पृ. 139
दाख छोड़ सुगना उड़ि गएऊ। मास विते इहवां चलि आएऊ।।
अब सुगना तुम करो उपासा। बहुरि गए सेमर के पासा।।
चोंच के मारे सुआ उड़ि गएऊ। मुरछि गए तावर तन अएऊ।।
लाल फूल बिसवास लो भैऊ। उड़ि गइ माया भवन नहिं रहेऊँ।।
ज्ञानमूल, पृ. 387
माया के विविध रूपक
अतीतकाल से ही माया को त्रिगुणात्मिका स्वीकार किया गया है। इस मत से कबीरपंथ एवं दरियापंथ दोनों सहमत है। इन गुणों से जिस प्रकार सृष्टि का विकास होता है, उसी तरह इनसे अखिल सृष्टि बँधती भी है। इस प्रकार इन त्रिगुणों के रूप में माया का रूपक एक ऐसा कठोर फन्दा निर्मित होता है, जिसमें समस्त जीव बँध जाते हैं। इससे किसी भी स्थिति ने रक्षा सम्भव नहीं। इसीलिए श्री शंकराचार्य जी ने माया को बन्धन रूपा स्वीकार किया है और इसी मान्यता के अनुयायी कबीर भी है, क्योंकि उन्होंने भी माया को बन्धन रूपा बतलाया है। उन्होंने माया से अखिल जगत् को ही बंधा हुआ स्वीकार किया है। माया को ऐसी विषैली नागिन बताया है जो विष धारण कर सब के जीवन-पथ में बैठकर जगत् का भक्षण एवं सर्वनाश कर रही है। केवल कबीर ही ऐसे थे जो उससे बचकर भाग निकले। कबीरपंथी साहित्य में भी कबीर के सदृश ही माया को बन्धन रूपा स्वीकार किया गया है। अमरमूल में बतलाया गया है कि इसके कारण ही जगत् में द्वैत की परिस्थिति उत्पन्न हुई है। इसलिए इसका नाश होना नितांत आवश्यक है। इस स्वप्न की आशा के सदृश अवास्तविक ठहराया गया है। जो इसमें विश्वास रखते है उनका पतन अवश्यंभावी हैः-
मोहि निश्चय तुव पद विश्वासा। यह माया स्वपने की आशा।
जिन्ह जिन्ह माया नेह बढ़ाया। तिन्ह तिन्ह निज निज जन्म गंवाया।।
ज्ञान प्रकाश, पृ. 49
मदन साहब ने माया की उपमा एक ऐसी नाउन से दी है जो वेश परिवर्तन कर कर्म रूपी उस्तरा, नहत्री एवं कैंची से अखिल जगत् का मुंडन कर रही है। वह एक मोहिनी का रूप धऱ कर मनुष्यों को अपने कुचक्रों में फाँस रही है, जिसके रहस्य के विषय में किसी को विवेक नहीं है। उसने क्रमशः ब्रह्म, सनक, सनन्दन, नारद, शारदा, गौरी, गणेश, गोपीचन्द, भरथरी को अपना शिकार बनाया। अपने कुचाल से वह सब पर ठगविद्या का प्रभाल डाले हुए है। कि किसी को इन कष्टों के प्रति ज्ञान ही नहीं होता। माया की अपार महिमा एवं विशद लीला के चित्रण का होली से रूपक बांधकर धनी धरमदास ने बड़ा ही मनोग्राही वर्णन प्रस्तुत किया है। वह पंचतत्व एवं पच्चीस प्रकृति रूप सखियों के साथ हँसते हुए गीत गा रही है। कुमति एवं छल का डफ लेकर बड़ी तीव्र गति से बाजा बजाती हुई सबको अपने मोह पास में बाँध रही है। त्रिगुणों का तमूरा एवं आशा तथा तृष्णा की स्वरलहरी बड़े ही लय के साथ बज रही है। प्रत्येक दृष्टि से साज बाज हो चुका है, लोभ, मोह, रूप, पिचकारियों से दुर्मति का रंग घोल कर सब पर इस प्रकार फेंक रही है कि उसके इस कपट पूर्ण आचरण का शिकार सम्पूर्ण जगत् ही हो रहा है। सुर, नर, मुनि आदि में से कोई भी इसके कुकृत्य से बचा नहीं। माया अज्ञानों जीवों पर ही विजय प्राप्त कर सकती है, क्योंकि इन्हें ही उसके इन्द्रजाल का कुछ भी ज्ञान नहीं। परिणामस्वरूप वे इसे सांसारिक सुख वैभवादिक नकूवर प्रसाधनों को सर्वस्व स्वीकार कर लीन हो चुके है। इस रहस्य से सुरक्षा केवल कुशल एवं विवेकीं व्यक्तियों की ही सम्भव है, जिनके सन्निकट मायावी बन्धन पहुँच ही नहीं सकते।
माया को गुरुदयाल साहब ने एक कर्कशा नारी स्वीकार किया है, उसकी गणना डाइन, भूतनी एवं पिशाचिनी की श्रेणी में करते हुए उसके प्रति पूर्ण अविश्वास प्रकट किया है। माया के कार्यो में कोई स्थिरता नहीं है, क्योंकि किसी परिस्थिति में कुछ लोगों को निःशंक बना देती है और कभी मनुष्यों को विविध चिन्ताओं से व्यग्रकर अद्वैत ब्रह्म के विषय में विविध रहस्य उत्पन्न करती है। कबीरपंथी संतों के सदृश गुरुदयाल साहब ने इसे कोई स्थूल रूप प्रदान नहीं किया है। माया का आधार मानवीय अनन्त कल्पनाएँ हैं, साधारण जीवों की माया का निराकरण तो सम्भव है, किन्तु गुरुओं की वाणियों में जो भ्रमजाल रूपी माया जनित कल्पनाएँ है उनका कुछ भी निदान नहीं है।
दरियापंथी साहित्य का अध्ययन करने से पता चलता है कि उनके द्वारा प्रस्तुत माया के स्वरूप पर कबीरपंथ का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। दरिया साहब ने भी कबीर के सदृश माया को चूहड़ी बताया हैः
यह माया है चूहड़ी, अब चूहड़े की जोए।
बीच में झगड़ा लाय के, आपु किनारे होए।।
सहस्रानी पृ. 15 (पाण्डुलिपि)
उन्होंने इसे काली नागिन बतलाया है। पुनः उसकी उपमा विषमय बेलि एवं वेश्या से दी है, जो व्यसनी जीवों को अपने वशवर्ती बनाए हुए है किन्तु साधु लोगों से दूर भागती है। माया मद में मस्त जनों को दरिया साहब ने अमृत से विमुख एवं विषपान करने वाला बताया है। तिस पर भी माया के कोट और भी नुकीले है। यह माया न तो किसी की अभी तक हुई है और न तो भविष्य में किसी की होगी। इसीलिए उन्होंने इस संसार को शोक एवं संतापना का सरोवर घोषित किया है। सांसारिक माया की उन्होंने एक कलवारिन से उपमा दी है, जो नशीली मदिरा का पान करा कर समस्त संसारी जनों को मोह ली है। काया वह रूपक मृगतृष्णा से बाँधते हुए वे कहते है कि जिस प्रकार मृग की प्यास कभी नहीं बूझती है ठीक उसी प्रकार मायाग्रस्त लोगों की मोहलिप्सा कभी शांत नहीं हो सकती। कबीरपंथ के अनुरूप ही दरिया साहब ने भी माया के लिए कल्पना की है कि वह एक ऐसी नारी है जो पंच-तत्वों एवं पच्चीस प्रकृतियां रूपी सखियों के साथ अपना बृहद् श्रृंगार कर मधुर चाल से चलते हुए जगत् में यत्र तत्र सर्वत्र कलह का बीज अंकुरित कर रही है। ज्ञान रतन में माया की तुलना एक दीपक से की गई है, जिस पर जीव रूपी पतिंगे मुग्ध हो, भस्मीभूत हो रहे हैं। मायावी जगत् के रंगसाज को देखकर दरिया साहब ने इसे मीना बाजार कहा है, जिसके चमत्कार को देख जीवों की दृष्टि भ्रमित हो जाती है।
मायावी जगत् में अनुरक्त प्राणियों की उपमा दोनों पंथों में चिर-प्रचलित विविध दृष्टांतों (श्वान, केहरि, गज, कपि एवं नलिनी के तोते आदि) से दी गई है, जिनसे उनके हृदय की अज्ञानता का भंडाफोड़ हो सके।
माया के अस्त्र-शस्त्रः-
माया के विविध क्रिया-कलाप पर दृष्टिपात करने पर प्रश्न उठता है कि वह अपने किन उपादानों के माध्यम से जगत् पर अपनी महिमा एवं गुण का प्रसार करती है। वे अवयव है-काम, क्रोध, मद एवं लोभ। इन्हीं के परिणामस्वरूप माया के अनन्त जंजालों की सृष्टि होती है, जिनसे विषयी एवं अज्ञानी जीव अपना सर्वनाश करते है। इन्हें कहीं-कहीं सैनिक बताया गया है और कहीं पर स्वंतत्र अस्त्र-शस्त्र के रूप में स्वीकार कर लिया गया है।
माया को दो रूप प्रदान किया गया है- एक तो मोटी माया एवं दूसरी झीनी। दोनों का लक्ष्य जीवों को अपने वशवर्ती बनाकर उन्हें क्लेशों द्वारा पीड़ित करना है। कबीरपंथी रचना सर्वज्ञ सागर में इस प्रकार का वर्णन उपलब्ध होता हैः-
ठग भरमावे बहुविधि लूटे। यम धन्धा से कबहुँ न छूटे।
मोटि अविद्या छुड़ावन लागे। झीनी महा अविद्या पागे।।
झीनी मोटी दोउ कष्ट सरूपा। कारण नास्ति परति यहि कूपा।।
सर्वज्ञ सागर, पृ. 146
मोटी माया के काम, क्रोध, मद, लोभ आदि सहायक अंग बताये गये है, जिनका मायावी आकर्षण जीवों को अनुरक्त करने में सफल होता है। कबीर तथा उनके अनुयायी सत साधकों ने इनकी भरपूर भर्त्सना की है और जीवों के लिए माया के इन उपदानों को भ्रमकूप एवं विषबेली की उपमा प्रदान की है, जिसमें समस्त जीव इस प्रकार उलझे हुए हैं कि विरक्ति असम्भव ज्ञात होती है।
जब चेतन दोउ नारि स्वस्था। कनक कामिनी जिव भ्रम कूपा।
विष की बेलि दोहू को जानी। लगे ताहि में जिव अज्ञानी।।
जीवधर्म बोध, पृ. 15
माया के इन्द्रजाल का वर्णन गोस्वामी तुलसीदास ने भूमि परता भा ढाबर पानी जिमि जीवहिं माया लपटानी कहकर बड़े अच्छे ढंग से किया है, जिसका पूर्ण साम्य कबीर पंथी साहित्य की निम्न पंक्तियों में देखा जा सकता हैः-
भूमि परी डाबर पहचानी। इमि जीवहिं माया लपटानी।।
अमर मूल, पृ. 178
कहने का अभिप्राय यह कि माया का कुचक्र एवं भयावह प्रकोप, ज्यों ही जीव जन्म लेता है, आकर घेर लेता है और इस प्रकार का क्रम जन्म से लेकर जीवन पर्यांत चलता रहता है। निरंजनबोध में काम एवं क्रोध का बंधन अति कठिन बताया गया है। क्रोधी जीवों की योनियों में जन्म लेना पड़ता है। ज्ञानप्रकाश में काम, क्रोध, तृष्णा, अहंकार, लोभ एवं मोह सब मन के विकार बताए गए है, जिनसे सब पथभ्रष्ट हो रहे हैं। सुख, सम्पति, सुत्रादि मायावी विकार स्वप्नवत एवं व्यर्थ बताए गए है। काम, क्रोध, मद, लोभ के कारण ही जीवों को चौरासी लक्ष योनियों में चाक के सदृश बार बार नाचना पड़ रहा है।
काम-
कबीरपंथी रचनाओं में इस प्रकार का उल्लेख आया है कि जब हृदय में काम का प्रवेश होता है तब जीव विवेक रहित हो जाता है। यथाः
प्रथम काम को यह गुन जानू। दहन ज्ञान बन कठिन कृशानू।।
जीवधर्म बोध, पृ. 13
दुष्ट काम उर प्रकटे आयी। ज्ञान विचार बिसरि सब जायी।।
विवेक सागर, पृ. 70
इस संसार में विरले ही होंगे जो कामासक्त न हुए हो। मैथुन विकारो में अखिल जगत् में लिपटा हुआ है। यावत कथाएँ जगत् में प्रचलित है उन सबका मूल कारण स्त्रिय ही हैं, जिनसे मुक्ति कदापि सम्भव नहीं। भोगों में अनुरक्त होकर जो भक्ति का ढोंग करता है। वह बार-बार जन्म धारण करता है। कनक एवं कामिनी दोनों, जीवों के लिए भ्रम-कूप है, जिसमें समस्त अज्ञानी जीव पड़े हुए है। महर्षियों तक को कामदेव हत्यारे ने वशीभूत कर उनके जप-तप को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है।
कबीरपंथी साहित्य विवेक सागर में काम के प्रचंड प्रभाव का बड़ा ही अच्छा वर्णन हुआ हैः-
यह काम अति प्रचंड है, होत उत्पन्न तिय अंग।
सैन चैन अति ही बढ़े, चढ़े काम रति रंग।।
तन मन अस्थिर ना रहे, काम बान उर साल।
एक बाण से सब किये, सुर नर मुनी बेहाल।।
विवेक सागर पृ. 70
काम के प्रचंड प्रभाव से कोई रक्षित नहीं। बड़े बड़े सुर, नर, मुनि आदि (जिनकी अतीत काल से कहानियाँ प्रचलित है) काम से प्रभावित हुए हैं। यथा- शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, श्रृंगी ऋषि, नारद, दशरथ एवं रावण सब काम से ही प्रेरित हुए।
क्रोध-
क्रोध जगत् में इतना शक्तिशाली है कि इसकी प्रचंड महिमा के कारण समस्त शुभगुण लुप्त हो चुके है। क्रोध के कारण धर्म का नामो-निशान तक रह नहीं जाता। प्रलय की स्थिति तक उत्पन्न हो जाती है। सद्गुण का प्रभाव विलीन हो जाता है। क्रोधी व्यक्ति स्वयं दुख प्राप्त करता है साथ ही दूसरों को भी दुख देता है। हजारों वर्ष तपश्चर्या करने वाले मुनियों का सारा धर्माचरण क्रोध के कारण क्षण में ही विनष्ट हो जाता है। अंततः सब नरकगामी होते है। जब क्रोध का प्रवेश शरीर में हो जाता है, तब फिर किसी प्रकार का जप-तप सम्भव नहीं है।
विवेक सागर में यह उल्लेख आया है कि काम से भी बढ़कर क्रोध प्रचण्ड है, जिसके भये से नौखण्ड त्रस्त है। क्रोध के प्रवेश करते ही शरीर थर-थर काँपने लगता है, भौहें टेढ़ी हो जाती हैं एवं अशुभ तथा निःसार वचन निकलने लगते है। क्रोध के विषय में भी इनकी रचना में अनेक कथाएँ उद्धृत की गई हैं, जिनका लक्ष्य क्रोध के दुष्परिणामों का स्पष्टीकरण है। यथा, ब्रह्मा, सनक, शिव, राम, दुर्वाश, कौरव, पांडव आदि का क्रोध जगत् विख्यात है, जिनसे संसार में विनाशमूलक परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई। इस प्रकार दसों दिशाओं में क्रोधाग्नि भभक रही है और सब जल कर खाक हो रहे हैः-
दशो दिशा ते उठि परवल क्रोध की आय।
संगति शीतल साधु की, शरण उबरिये भाग।।
विवेक सागर, पृ. 73
बहुत जनत तप कीनेउ, सब फल क्रोध नसाय।
कहै कबीर घन संचै, चोर मूसि लै जाय।।
कहै कबीर विचार के, क्रोध अग्नि बहु जाग।
संगति साधुं संतनाम की, सरन उबरिये भाग।।
क्रोध अग्नि घट घट बरी, जरत सकल संसार।
दीन लीन निज भक्ति सो, ताकर निकट उबार।।
विवेक सागर, पृ. 73-74
लोभ-
लोभी व्यक्ति को कदापि सद्गति नहीं प्राप्त हो सकती। वह अपने हित के लिए नित्य माला फेरा करता है- तब भी उसे नरक की यातना से मुक्ति नहीं प्राप्त होती, बार बार पापाचार एवं अनरीति करने में संलग्न रहा करता है। जो धन एवं सम्पत्ति का लोभी होता है वह कदापि भाव एवं भक्ति नहीं कर सकता। लोभ से बुरा और कुछ नहीं। समस्त अधर्म लोभ के कारण ही है। जिस प्रकार मदारी हाथ में लकुट धारण कर बन्दर को नचाता फिरता है ठीक उसी प्रकार लोभ जीवों को भ्रम में नचा रहा है। लोभी व्यक्ति जब धनार्जन में लीन रहते है तब उन्हें अहनिश न तो नींद ही आती है न चैन ही पड़ता है। लोग गुरु भी ऐसा खोजते है जो धनार्जन का सुगम मार्ग बता सके और इस प्रकार के कपटपूर्ण आचरण वाले शिष्य के सम्पर्क में जो आते है वे अपने जीवन से खिलवाड़ करते हुए उसी प्रकार डूब मरते है। जिस प्रकार कोई पत्थर की नाव पर चढ़ कर डूब मरे।
कलयुग में लोग दुख पाने पर वेश परिवर्तित कर चारों ओर अपनी लोभपूर्ण आकांक्षा की तृप्ति के लिए भ्रमण कर रहे है। लोभ के वशीभूत हो जाने पर मानव जीवन विषाक्त-सा बन जाता है और इस प्रकार लोभ की इच्छा समग्र जीवन में द्विगुणित होती रहती है। (विवेक सागर, पृ. 75)। सब प्रकार का ज्ञान एवं परिश्रम लोभ के कारण ही व्यर्थ सिद्ध होता है। विवेक सागर, में इस प्रकार का वर्णन द्रष्टव्य हैः-
भेष भक्ति मुदित सबै, ज्ञानी गुनी अपार।
षट दर्शन फीके परे, एक लोभ की लार।।
भगत मुनिया जटाधारी ज्ञानी गुनी अपार।
षट दशन भटकत फिरे एक लोभ की लार।।
मद-
अभिमान विशेष रूप से कष्टदायक सिद्ध होता है। अभिमानी व्यक्ति इस संसार में ऐंठकर चलता है, मूछों पर ताव देता हुआ अपनी परिछाई देख कर इठलाता है और दूसरे को कंधे पर शान से हाथ रख कर चलता है। पगड़ी टेढ़ी कर हृदय में गर्व से मतवाला होकर सर्वत्र भ्रमण करता है। अनीतिपूर्ण वचन सब से कहता है, सम्पूर्ण जगत् में अपने को सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि समझता है और अपना ही सम्मान चहता है, किन्तु प्रबल-काल के आने पर समस्त अभिमान चूर हो जाता हैः-
छर्व गर्व अति सर्व सुख, विषय विकरा न भूल।
कहै कबीर काल शिर पर, लिये हाथ त्रिशूल।।
विवेक सागर, पृ. 77
दरियापंथी साहित्य को देखें तो पता चलता है कि कबीरपंथ के समान ही इसमें काम, क्रोध, मद, लोभ का चित्रण किया गया है। इन्हीं विकारों को जीवन की निःसारता का मूल कारण स्वीकार कर लिया गया है।
काम-
माया के दो प्रधान-शास्त्र कामिनी एवं कनक है। नारी-प्रसंग एक ऐसा इन्द्रजाल है जो देवताओं तथा मुनियों तक को विद्ध कर देता है, तो संसारी मनुष्यों की क्या बात की जाय? शंकर, विष्णु, ब्रह्मा और रामचन्द्र जी स्वयं अपनी स्त्रियों से विवश थे। ज्ञान रतन में कामिनी और कनक को ही जगत् के समस्त जंजालों का केन्द्र बताया गया है। दरिया साहब ने जीवन को अत्यल्प बतलाया है और संसार को एक कुसुम, जिसके मोहक रंग को देखकर सब भूल गये हैं। संसार को उन्होंने चित्रसारी कहा है, जिसमें नट और नागरिकाएँ ताली बजा बजाकर नृत्य कर रही हैं, वेश्या और भाड़ राग अलाप रहे हैं और सभी गर्व और गुमान से भरे हुए है। परिणाम स्वरूप उन्हें कालगाल में विलीन होना पड़ रहा है। मन एवं माया ने सुर-नर-मुनि सब को मोह लिया है और सब के गले में बेड़ी पड़ी हुई है, मोहनी सब के गले में जंजीर बाँधकर नचा रही है, लोभ के वशीभूत होकर सब कामासक्त हो रहे है (भक्तिहेतु, पृ. 309)। कामिनी के संग पड़ने से भक्ति-भाव और जोग कुछ भी नहीं हो सकता। नारी बहुत बड़ी विकार है और इसकी प्रीति अग्नि में पाँव डालने के सदृश है। जिस प्रकार अग्नि में कपास पड़ने पर जल कर खाक हो जाती है, ठीक उसी प्रकार जिस व्यक्ति की दृष्टि नारि-स्नेह में रत हो गई, वह अपने शीतल शरीर को भी दग्ध कर देता है। जिस प्रकार हांडी में अदहन पकाया जाता है और उसे अग्नि पर रखकर गर्म किया जाता है, उसी प्रकार कामिनी का सम्पर्क होते ही शरीर में कामदेव का प्रबल संचार प्रारम्भ हो जाता है। काम का दुष्परिणाम तो यहाँ तक देखा जाता है कि लोग अपनी एक पत्नी से तुष्टि न पाकर वेश्यागमन करते है। काम के प्रचंड प्रभाव का एक सजीव चित्र निम्न पद्य में द्रष्टव्य हैः-
कामिनि काल खेले परचंडा। सात दीप कहिए नव खंडा।
जोगी जोग बहुत से कीन्हा। कामिनि काल वैंचि जिव लीन्हा।।
ब्रह्मविवेक, पृ. 359।
कबीरपंथ के समान दरियापंथ ने भी काम-विषयक का वर्णन हुआ है, यथा, कृष्ण, नारद, श्रृंगी ऋषि आदि।
क्रोध-
दरिया साहब ने बड़े जोरदार शब्दों में इस बात का समर्थन किया है कि क्रोध के कारण बड़े-बड़े मुनि और ज्ञानी नष्ट हो गये। क्रोध ही समस्त विनाशमूलक परिस्थितियों का मूल कारण है। क्रोध से ही रावण का क्षण भर में नाश हो गया और विभीषण ने लंका का विराट् राज्य प्राप्त किया। क्रोध के कारण यादवों का संहार हुआ (ज्ञान रतन, पृ. 125)।
लोभ-
लोभ एक ऐसा विकार है जो संसारी जीवों को भौतिक पदार्थों की ओर अनुरक्त कर परमार्थिक अथवा आध्यात्मिक जगत् से दूर ले जाता है। लोभी व्यक्तियों को कभी कहीं शांति नहीं। यह प्राणी को वास्तविक जगत् से बहुत दूर ले जाकर भटकाता रहता है, यहाँ तक कि उसे व्यवहार का भी ज्ञान नहीं रह जाता और अनेक दुष्कर्म करने के लिए उसे विवश करता है। हम इस संसार में जन्म लेते ही माया से अनुरक्त होते है और कूपमण्डूक के सदृश अपने स्त्री-पुत्र-कलत्र और सुख-सम्पत्ति वाले अवास्तविक और निःसार जगत् को अपना सर्वस्व स्वीकार कर जीवन के यथार्थ एवं परमार्थ सत्ता से विमुख हो जाते है। माया के कारण जीवों की मुक्ति कहाँ? दरिया साहब ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि जब लंकेश इतना सम्पत्तिवान, शक्तिवान, ज्ञानी और सर्व समर्थ खुले हाथों इस संसार से चल बसा, दुर्योधन, जिसकी अपार सेना थी, उसका पूर्ण विनाश हुआ तो इन सब की तुलना में हम साधारण जनों की क्या गणना?
दरिया साहब ने कबीरपंथ के अनुरूप ही ऐसे व्यक्तियों की, जो सांसारिक सुखो में लिप्त रहते है, सेमर के फूल के प्रेमी तोते से तुलना की है, जो अपने बन्धु-बाधव, द्रव्य खजाना आदि की लालसा में मग्न रहते हैं। पर यह सब मृत्यु के अनन्तर साध में जाने वाले नहीं है, अंत में यमदूतों द्वारा मुसकें चढ़ाकर यातना दी जायगी। माता-पिता, स्त्री के समक्ष ही प्राण निकल जायेंगे और जो सम्पत्ति संचित की गई है, वह सब यहीं छूट जायेगी। लाश घसीट कर बाहर फेंक दी जायगी। सगे-सम्बन्धी घेरकर रोयेंगे। अंततः शब एक अर्थी पर उठाकर श्मशान घाट पर जला दिया जायगा। यही सब का अंत है। दो-चार दिन तक शोक छाया रहेगा, पुनः सब अपने मायाबी धन्धे में संलग्न हो जायेंगे। यही इस जीवन का इतिहास है। धन,सम्पत्ति, हाथी में से कोई एक भी साथ नहीं जायगा। समस्त सम्बन्धी साथ न जाकर केवल तुम्हे भुला देने वालों में से है। (शब्द परि. (संत कवि दरियाःएक अनुशीलन), पृ. 148,149,154)। इससे सिद्ध होता है कि इस समस्त विश्व का प्रसार और विकास अवास्तविक और निःसार है।
कबीरपंथ में जिस प्रकार धन-लोलुपता का चित्रण हुआ है, ठीक उसी प्रकार दरियापंथी साहित्य में भी उल्लेख हुआ है। यदि किसी को एक पैसा मिले तो वह दो की इक्षा करता है, दो से चार, चार से आठ, आठ से दस और दस से बीस। इस प्रकार धन की बलवती इच्छा कभी भी शांत नहीं होती। लोग हिंसात्मक भोजन की इच्छा करते हैं, किंतु यदि अभाग्य से समस्त धन लुट जाय तो अंततः पुनः रंक बन जायँगे। चाहे महान् से महान् व्यक्ति हो या अधमाधम, सब का यही अन्त है।
मद-
दरिया साहब ने अभिमान को विनाश का कारण स्वीकार किया है। जब जीव में अभिमान का प्रवेश होता है, तभी उसका सर्वनाश सम्भव है। संसार के जीवों में अह अर्थात् मैं और तुम की स्थिति ही विषमता की परिस्थिति उत्पन्न करने वाली है। लोग इस संसार में अहंजन्य भावनाओं से प्रेरित है, किन्तु उनकी भावनाएँ व्यर्थ है। इस अहं से अभिमान की उत्पत्ति है, जो कि मनुष्य के पतन का मूल कारण है।
काम-क्रोध, मद-लोभ के अतिरिक्त दोनों पंथों में एक और मायाजन्य स्थिति स्वीकार की गई- वह है मोह जनित भावना।
मोह-
कबीरपंथी साहित्य में मोह को अत्यंत दुख-प्रद तत्व स्वीकार किया गया है। भवसागर में डूबने का सबसे बड़ा कारण मोह ही है। स्त्री-पुत्र-कलत्र एवं कुटुम्ब के मोहं वैसे ही जीव के लिए नाशक है जैसे कई लोहार के लिए। स्त्री के घर में प्रवेश करते ही विपत्ति के बीज अंकुरित होने लगते हैं। यह सब व्यर्थ का प्रसार है, इनसे कोई भी सुख नहीं उपलब्ध हो सकता। दसों दिशाओं में व्याप्त जगत् में देखो, क्या कोई भी तुम्हारा है? सब व्यर्थ का संसार बसा हुआ है। यह सब जीवन के अभीष्ट के लिए बाधक तत्व हैं, समस्त प्रपंच जीवों को ठगने के लिए किए जाते हैं। ऐसे वंचकों से प्रीति करने पर अमरफल की हानि होकर विष ही हाथ आता है। (जीवधर्मबोध)। विवेक सागर में मोह को राजा कहा गया है, जिसकी प्रबल घटा त्रिलोक पर छाई हुई है। अज्ञान जिसकी राजधानी, आलस महल, आशा पटरानी, इच्छा बेटी, कुमति सखी, छूत टहलुआ, लालच नौकर, रोग, शोक, संशय, द्वंद राजा के पुत्र है। अधर्म ध्वजा है, कलह बाजा, दम्भ छत्र, कपट वजीर, असत्य खवास एवं पाषण्ड मंत्री है। इस प्रकार के चित्र को प्रस्तुत करने का मूल अभिप्राय मोह के प्रति घृणा उत्पन्न करना ही है।
इसी तरह दरियापंथ में भी मोह का बड़ा ही अच्छा चित्रण प्रस्तुत हुआ है। दरिया साहब ने बतलाया है कि मोह के कारण ही सब विकल से भ्रमण कर रहे हैं। मोह रूपी तड़ाग में जल भरा हुआ है और समस्त जीव उसे अमृत की भाँति छककर पी रहे हैं। मोह ही एक ऐसी बाटिका है जिसमें कई भाँति के फल-फूल लगे हुए हैं एवं मन रूपी भ्रमर उन सबके रस एवं सुगंध का आस्वादन कर मदमस्त होकर भ्रमण कर रहा है। मोह अग्नि के समान है, जिसमें घर जल रहे है। मोह रूपी वृक्ष पर ही जीव बसेरा डाले हुए है, मोह रूपी सरिता में जीव रूपी मछलियाँ गोता लगा रही है। मोह रूपी अमर-कोश में जीव मृगमंद के सदृश लीन है। इस प्रकार सब मोह के वशीभूत है। गुरु एवं शिष्य का सम्बन्ध मोह का परिणाम है। उसी से धरती एवं पुरुष की सृष्टि हुई है, उसी से अन्न का उत्पादन किया जाता है। मोह के वशीभूत होकर कृषक खेती करता है। यहाँ तक कि स्वयं भगवान भी मोह से वंचित न रह सके। इस के कारण ही जगत् के सम्पूर्ण सम्बन्ध नियोजित होते हैं। मोह की बेड़ी से ही सब जकड़े हुए है।
उपर्युक्त विवरणों का विश्लेषणों करने पर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कबीरपंथ एवं दरिया पंथ दोनों में काम, क्रोध, मद लोभ एवं मोह को माया का प्रमुख अंश स्वीकार किया गया है, जिसके फलस्वरूप निखिल सृष्टि पर त्रिगुणों का विस्तार होता है। दरियापंथी माया का चित्रण पूर्णरूपेण कबीरपंथी वर्णनों पर ही निर्भर करता है। इनमें रूपक, दृष्टांत एवं अन्तकथा आदि की दृष्टि से पर्याप्त एकरूपता है।
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