तज़्किरा कुतुब-ए-आलम हज़रत शाह क़ुतुब अली बनारसी
डॉ. इलतिफ़ात अमजदी
ख़ानक़ाह अमजदिया, स्टेशन रोड सीवान, बिहार
हिंद-ओ-पाक में सिलसिला-ए-चश्तिया की इब्तिदा सुल्तानुल-हिंद, ’अता-ए-रसूल, ख़्वाजा सय्यद मुई’नुद्दीन हसन चिश्ती से होती है, आपके जानशीन ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी ने दिल्ली से सिलसिला-ए-चश्तिया के फ़रोग़ में नुमायाँ ख़िदमात अंजाम दीं, आप के जानशीं ख़्वाजा फ़रीदुद्दीन मस’ऊद शकर-गंज थे, उनसे सिलसिला-ए-चश्तिया की तब्लीग़ को बे-पनाह वुस’अत-ओ-मक़बूलियत हासिल हुई, पाकपत्तन सिलसिला-ए-चश्तिया के रुहानी निज़ाम का एक ज़बरदस्त मर्कज़ हो गया। ख़्वाजा फ़रीद के ख़ुलफ़ा में ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया और हज़रत ’अलाउद्दीन ’अली अहमद साबिर कलियरी दोनों ने अपनी इन्फ़िरादी शनाख़्त क़ायम की, आप हज़रात की ज़ात-ए-वाला सिफ़ात से रूहानियत के ऐसे चश्मे उबले जिन से तिश्नगान-ए-’इल्म-ओ-मा’रिफ़त क़ियामत तक सैराब होते रहेंगे।
हज़रत साबिर पाक से सिलसिला-ए-साबिरिया की इब्तिदा होती है, कलियर शरीफ़ सिलसिला-ए-साबिरिया के एक अहम मर्कज़ की हैसियत से मशहूर हुआ, आपके जानशीन-ओ-अजल ख़लीफ़ा हज़रत शम्सुद्दीन तर्क पानीपती थे। जिनकी बदौलत सिलसिला-ए-साबिरिया चहार दांग-ए-’आलम में मुतआ’रिफ़ हुआ, ये सिलसिला आपके ख़लीफ़ा हज़रत शैख़ जलालुद्दीन कबीरुल-औलिया पानीपती से मज़ीद वसी’ हुआ, उन दोनों बुज़ुर्गों की बदौलत सिलसिला-ए-साबिरिया का मर्कज़ दो पुश्त तक पानीपत में रहा, हज़रत शैख़ जलालुद्दीन के जानशीन-ए-मुजद्दिद सिलसिला शैख़ुल ’आलम हज़रत अहमद ’अब्दुल हक़ साहब तोशा थे। उन्होंने रुदौली शरीफ़ को रुश्द-ओ-हिदायत का ’अज़ीम मर्कज़ बनाया, आपकी जलीलुल-क़द्र शख़्सियत का ये रुहानी फ़ैज़ था जिसकी वजह से रुदौली शरीफ़ सिलसिला-ए-साबिरिया की सब से तवाना और समर-आवर शाख़ साबित हुई।
रुदौली शरीफ़ ने सिलसिला-ए-साबिरिया की तब्लीग़-ओ-’इशाअत में जो ख़िदमात अंजाम दी वो अज़हरुम-मिनश्शम्स है, आज भी इस सर चश्मा-ए-फ़ैज़ से ख़ल्क़-ए-ख़ुदा अपनी रुहानी पियास बुझा रही है, आपके जानशीन हज़रत शैख़ ’आरिफ़ अहमद और हज़रत शैख़ मोहम्मद ने अपने-अपने तौर पर सिलसिले के फ़रोग़ में नुमायाँ हिस्सा लिया, हज़रत शैख़ मोहम्मद के अजल ख़लीफ़ा हज़रत शैख़ ’अब्दुल क़ुद्दूस गंगोही ने सिलसिले की तरवीज-ओ-इशा’अत को ग़ैर-मा’मूली कामियाबियों से हम-कनार किया, आपने ''अनवारुल-’उयून'' जैसी किताब तसनीफ़ फ़रमाई, आप हिन्दी में अलख दास तख़ल्लुस रखते।
ये सिलसिला हज़रत जलालुद्दीन थानेसरी, हज़रत मौलाना निज़ामुद्दीन बलख़ी, हज़रत शैख़ अबू स’ईद हनफ़ी गंगोही, हज़रत शैख़ सादिक़ मोहम्मद फ़तहुल्लाह हनफ़ी गंगोही, हज़रत शैख़ बंदगी दाऊद ज़ुन-नूरैन, हज़रत शैख़ अबुल मा'आली मोहम्मद अशरफ़ हुसनी मक्की, हज़रत सय्यद मियाँ भीक अबू यूसुफ़ तिर्मिज़ी, हज़रत शाह ’इनायत बहलोलपूरी, हज़रत मौलाना ’अब्दुल करीम ’उर्फ़ आख़ून फ़क़ीर रामपुरी, हज़रत शाह ’अली मोहम्मद पीर लक़ब मियाँ साहब, हज़रत ’अली मोहम्मद मुरीद लक़ब ’अली मस्त, हज़रत मौलाना क़ारी नूरुल हक़ रामपुरी और हज़रत क़ुतुबुल-वक़्त सय्यद शाह साबिर ’अली बनारसी से होता हुआ क़ुतुब-ए-’आलम हज़रत हाजी शाह मोहम्मद क़ुतुबुद्दीन नंदानवी सुम्मा बनारसी तक पहुँचता है
क़ुतुब-ए-’आलम, हज़रत शाह मोहम्मद क़ुतुबुद्दीन अल-मा’रूफ़ बिहि क़ुतुब ’अली बनारसी की जा-ए-पैदाइश मौज़ा’ नंदावाँ ज़िला’ आ’ज़मगढ़ यूपी है, आपका नसबी सिलसिला हज़रत शैख़ मख़दूम ब्याबानी तक पहुंँचता है, आपके वालिद का नाम शैख़ रौशन पीर-बख़्श था, अय्याम-ए-तिफ़्ली से ही आपकी तबी’अत बिलकुल मुख़्तलिफ़ थी, आप बचपन से ही मुराक़बे-ओ-चिल्ले में मश्ग़ूल रहने लगे थे, उस वक़्त के बुज़ुर्गों ने आपकी हालत देख कर पैशीन-गोई की थी कि ये लड़का अपने वक़्त का क़ुतुब होगा, आपको इरादत-ओ-ख़िलाफ़त मख़दूम बनारस हज़रत मौलाना सय्यद शाह साबिर ’अली बनारसी से हासिल थी, क़ुतुब-ए-’आलम के पीर-ओ-मुर्शिद, शरी’अत-ओ-तरीक़त और मा’रिफ़त में यकता-ए-ज़माना और हुस्न में यूसुफ़-ए-सानी थे, हज़रत सय्यद साबिर ’अली बनारसी ने ख़िर्क़ा-ओ-ख़िलाफ़त हज़रत मौलाना हाफ़िज़-ओ-क़ारी शाह नूरुल-हक़ रामपुरी से पाई थी, हज़रत सय्यद साबिर ’अली की ’इबादत का ये ’आलम था कि 24/ बरस तक ख़्वाब-ए-इस्तिराहत न फ़रमाया था, अगर ग़नूदगी का ग़लबा होता तो आप दीवार से तकिया लगा लिया करते, हालाँकि चारपाई बिछी रहती थी, इस्म-ए-ज़ात कसरत से पढ़ा करते थे, औराद-ओ-वज़ाइफ़ और याद-ए-ख़ुदा के ’इलावा कोई दूसरा काम नहीं था, मुजाहिदे का ये हाल था कि ग्यारह चिल्ला बे-आब-ओ-दाना किया था, 24/ ख़ल्वत ग्यारह-ग्यारह दिन के किए, रातों में कस्रत से नफ़ल नमाज़ अदा करते, एक मुद्दत तक साइमुद्दहर-ओ-क़ियामुल-लैल रहे, वक़्त-ए-इफ़्तार सात लुक़्मा या तीन ख़ुर्मा तनावुल फ़रमाते, हमेशा बा-वुज़ू रहा करते थे, जब वुज़ू साकित होता फौरन उसी वक़्त वुज़ू कर लेते। आपकी मोहब्बत और आपका अख़लाक़ ज़ाहिर-ओ-बातिन यकसाँ था। आपका विसाल 4 /सफ़रुल-मुज़फ़्फर 1277 ’ईस्वी में मुहल्ला दौसीपुरा बनारस में हुआ। आपकी तद्फ़ीन वहीं हुई, आपका आस्ताना मम्बा-ए-फ़ैज़ और मर्जा-ए’-ख़लाइक है।
क़ुतुब-ए-’आलम ने तीन बार पा-पयादा और मुत’अद्दिद बार सवारियों से हरमैन शरीफ़ैन की ज़ियारत की है, आप साहब-ए-कश्फ़-ओ-करामत बुज़ुर्ग थे, दु’आ-ए-हैदरी के ’आमिल थे, क़ुतुब-ए-’आलम ने हज्ज-ए-बैतुल्लाह के दौरान अपने मुरिदीन-औ-मुतअ’ल्लिक़ीन के लिए सर-ब-सुजूद हो कर दु’आ की कि उन्हें दुनिया में तंग-दस्ती का सामना न करना पड़े और बरोज़-ए-मह्शर तेरे सामने उन से रूसियाह न हो सकूँ
क़ुतुब-ए-’आलम ता-ज़ीस्त मुजाहिदा और रियाज़त में मसरूफ़ रहे, ज़ोहद-ओ-तक़्वा से बाहर कभी एक क़दम न रखा, आप ख़्वाजा मु’ईनुद्दीन अजमेरी, ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी, ख़्वाजा फ़रीदुद्दीन गंज-ए-शक्र, हज़रत ’अला’उद्दीन ’अली अहमद साबिर पाक, हज़रत शैख़ुल ’आलम अहमद ’अब्दुल हक़, हज़रत सय्यद मीरान भीक, हज़रत मख़्दूम शैख़ शरफ़ुद्दीन यहया मनेरी की दरगाहों पर ख़ुसूसी चिल्ले और मुजाहिदे किए, मिर्ज़ापुर, चकिया और बिहार शरीफ़ के जंगलों में बरसों तक रियाज़त-ओ-मुजाहिदे में मसरूफ़ रहे, हज़रत अपने मुरीदों से तीन वक़्त तहज्जुद, बा’द नमाज़-ए-फ़ज्र बा’द नमाज़-ए-मग़्रिब हलक़ा बनाकर ज़िक्र अल्लाह-अल्लाह कराया करते थे।
हज़रत क़ुतुब-ए-’आलम ने ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ के लिए नंदावाँ में मस्जिद-ए-शाह की ता’मीर कराई जिसमें संग-ए-सियाह का टुकड़ा और बाबा फ़रीदुद्दीन गंज-ए-शक्र की ज़ंजीर का टुकड़ा नस्ब है, आपने इस मस्जिद में जिसने 40/ वक़्त की नमाज़ अदा की इस पर दोज़ख़ की आँच हराम है, चकिया में सय्यद साहब का रौज़ा बनवाया, रुदौली शरीफ़ में हज़रत शैख़ुल ’आलम अहमद ’अब्दुल हक़ की क़ब्र पर संग-ए-मरमर का ता’वीज़ लगवाया और छतगीरी कराई, ख़ानक़ाह से मुल्हिक़ एक कुँआं भी आपकी देन है, आपने अपने पीर-ओ-मुर्शिद मख़दूम हज़रत सय्यद शाह साबिर कल्यरी ’अली बनारसी का रौज़ा जो कल्यर शरीफ़ का नमूना बनवाया।
हज़रत क़ुतुब-ए-’आलम एक जलीलुल-क़द्र बुज़ुर्ग थे सिलसिला-ए-साबिरिया के फ़रोग़ के लिए सियाहत फ़रमाते, ’अक़ीदत-मंदों और मुरीदों का क़ाफ़िला साथ रहता, आपके तक़रीबन सवा लाख मुरीद थे, हर मज़हब-ओ-मिल्लत के लोग आपके हलक़े में शामिल थे, आपके मुरीद-ओ-ख़ुलफ़ा में हज़रत सय्यद शाह अमजद ’अली के ’इलावा
हज़रत हाफ़िज़ शम्सुद्दीन मिर्ज़ापुरी
हज़रत मौलाना सय्यद शाह शम्सुल हक़ बनारसी (ख़ल्फ़ हज़रत सय्यद शाह साबिर ’अली बनारसी)
हज़रत मोहम्मद ’अब्दुल्लाह निंदानवी
हज़रत शाह रहमतुल्लाह रामनगरी
हज़रत शाह ’अब्दुल वाहिद फ़ैज़ाबादी
हज़रत शाह हाफ़िज़ ’अब्दुर्रहमान बियोरवी
हज़रत शाह सोना भारतगंजवी
हज़रत शाह वज़ीर सरस्यावी
हज़रत शाह तुराब बंगाली
हज़रत शाह जंगली गोंडवी
हज़रत शाह ’अब्दुर्रहीम जोंपूरी
हज़रत शाह ’अली हुसैन
हज़रत शाह ग़ुलाम चिश्ती
हज़रत शाह रमज़ान ’अली बाराबंकवी
हज़रत शाह ’अब्दूर्रज़्ज़ाक़ बाराबंकवी
हज़रत शाह ’अब्दुल मजीद चकियावी
हज़रत शाह चकियावी मूल
हज़रत शाह क़ासिम पंजाबी
हज़रत सय्यद शाह शुक्रुल्लाह
हज़रत शाह गुलाब टोंड लोई
हज़रत शाह बन्धू
हज़रत शाह शैख़ साबिर ’अली चकियावी
हज़रत शाह हाफ़िज़ बस्री
हज़रत शाह शहादत चिल्ली बैवरवी
हज़रत शाह ’अब्दुल हक़
हज़रत शाह यार ’अली भदोहवी
हज़रत मौलवी शाह मेहंदी नवादवी
हज़रत शाह शीन ख़ान
हज़रत मोहम्मद वली वग़ैरा क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं
हज़रत क़ुतुब-ए-’आलम का लंगर वसी’ था, तक़रीबन सवा लाख मुरिदीन हर-दम साथ रहते, उनको दो वक़्त का खाना हज़रत के भंडारे से ’अता होता जो मुरीद ख़ुश्क ग़िज़ा लेते उन्हें तीन छटांक चावल और एक छटांक दाल दी जाती थी, हज़रत क़ुतुब-ए-’आलम की कम ख़ुराकी का ये ’आलम था कि कोई भी ग़िज़ा 16 (सोलह) तौला से ज़्यादा तनावुल न फ़रमाते थे, ख़ुशबू में आपको ’इत्र-ए-हिना बहुत पसंद थी, इसीलिए आपके मज़ार-ए-मोबारक पर ’इत्र-ए-हिना बा’द-ए-ग़ुस्ल पेश की जाती है।
आप रुदौली शरीफ़ हज़रत शैख़ुल ’आलम के ’उर्स में कसीर जमा’अत के साथ शरीक होते, लंगर के लिए ग़ल्ला और नज़र पेश करते, सज्जाद-ए-वक़्त मख़दूम-ज़ादा हज़रत शाह इलतिफ़ात अहमद अहमदी से हद दर्जा क़ुर्बत थी, उसी क़ुर्बत का नतीजा है कि हज़रत शैख़ुल ’आलम कि ख़ानक़ाह का सज्जादा आपके ’उर्स में शरीक हो कर क़ुल-ओ-मज्लिस-ए-सिमा’ की सदारत फ़रमाते हैं, उस वक़्त शहज़ाद-ए-शैख़ुल ’आलम हज़रत शाह अम्मार अहमद अहमदी सज्जादगी पर रौऩक-अफ़रोज़ हैं तशरीफ़ लाते हैं। बनारस और रुदौली शरीफ़ की क़ुर्बत देखिए कि 27/ रजबुल-मुरज्जब 1436 ’ईसवी अल-मुताबिक़ 2015 ’ईसवी ’उर्स के मौक़ा’ पर ख़ानक़ाह क़ुतबिया के मौजूदा सज्जादा-नशीन हज़रत शाह मुशीरुस्सला साहब की ग़ैर मौजूदगी में हज़रत क़ुतुब-ए-’आलम की रस्म ग़ुसल शरीफ़-ओ-ख़िर्क़ा-ओ-इमामा हज़रत शाह अम्मार अहमद अहमदी ने ज़ेब-तन कर के ज़ियारत कराई थी, उस ’उर्स में राक़िमुल-हुरूफ़ भी था।
हज़रत क़ुतुब-ए-’आलम चकिया में जब सियाहत करते हुए क़ियाम-पज़ीर हुए उस मौक़ा’ पर राजा प्रभु नरायण सिंह रामनगर अपने ब्रहमन वज़ीर के हम-राह हाज़िर-ए-ख़िदमत हुआ और मुल्तजी हुआ कि या हज़रत क़िला चराग़ बत्ती से महरूम है। दु’आ कीजिए कि मुझे औलाद नसीब हो। आपने उसे करम नाशांदी से दो घड़े पानी भर के सय्यद साहब का मज़ार धोने का हुक्म दिया। हज़रत क़ुतुब-ए-’आलम का हुक्म पाते ही राजा घड़ा लेकर दरिया-ए-करम नाशा की तरफ़ बढ़े, उसी दरमियान उस ब्रहमन वज़ीर ने राजा को झाँसा दिया कि महाराज जी लाइए आप क्यों धोइगा हम ही धो देते हैं, ब्रहमन वज़ीर दो घड़े पानी से सय्यद साहब का मज़ार धोकर हज़रत क़ुतुब-ए-’आलम के पास हाज़िर हुआ, हज़रत ने मुस्कुराते हुए फ़रमाया ''आया था रजुवा और ले गया वज़िरवा'' चूँकि राजा-ओ-ब्रहमन वज़ीर दोनों ला-वलद थे। उस ब्रहमन वज़ीर को अल्लाह ने दो औलादों से नवाज़ा और राजा बे-चारा ला-वलद ही रह गया।
हज़रत क़ुतुब-ए-’आलम रामनगर चकिया होते हुए दरगाह अजमेर शरीफ़ तशरीफ़ ले गए और ज़ियारत से मुशर्रफ़ हो कर रुदौली शरीफ़ पहुँचे। रुदौली शरीफ़ में सख़्त बीमार हो गए। उसी ’अलालत में आख़िर-कार 26/ रजबुल-मुरज्जब 1319 ’हज्री ब-रोज़शंबा ब-वक़्तए8/बजे शब वासिल-ए-ब-हक़ हुए, आपकी ना’श-ए-अतहर को मुरीदीन-ए-बा-सफ़ा बनारस अलीपूरा लाए और आपके पीर-ओ-मुर्शिद हज़रत साबिर ’अली बनारसी के इहाता-ए-मज़ार के पूरब-उत्तर जानिब सुपुर्द-ए-ख़ाक किया, तुर्बत सफ़ैद संग-ए-मरमर की बनी हुई है, सिरहाने जाली पर सूरा-ए-इख़लास की आयत कुंदा है, मज़ार पर अनवार के ऊपर अजमेर शरीफ़ के जैसा दिल-कश गुंबद ता’मीर है।
हज़रत क़ुतुब-ए-’आलम का ’उर्स हर साल 26/ और 27/ रजबुल-मुरज्जब को बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है जिस में आपके ख़ोलफ़ा के मुरिदीन-ओ-मुतवस्सिलीन, ज़ाइरीन दूर-दराज़ से तशरीफ़ लाते हैं, 26/ रजब की सुब्ह ९/ बजे महफ़िल समाव होती है, बाद नमाज़-ए-मग़रिब क़ुल शरीफ़-ओ-महफ़िल समाव होती है, शब एक बजे गागर शरीफ़ की रस्म होती है, सुब्ह-ए-सादिक़ बाद नमाज़-ए-फ़ज्र ग़ुसल की रस्म-ओ-चादर पोशी होती है, २७/ वीं तारीख़ को 9/बजे सुब्ह महफ़िल-ए-सिमा’ का इन’इक़ाद होता है, बा’द नमाज़-ए-ज़ुहर सज्जादा-ए-वक़्त ख़िर्क़ा-ओ-इमाम हज़रत क़ुतुब-ए-’आलम का ज़ेब-ए-तन कर के मस्जिद में दो रिक’अत नमाज़-ए-शुक्राना पढ़ते हैं उस के बा’द क़व्वाल के हमराह रोज़ा-ए-हज़रत क़ुतुब-ए-’आलम में हाज़िरी देते हैं, ज़ियारत दु’आ के बा’द मुख़्तसर महफ़िल होती है, उस के बा’द ’उर्स के इख़्तताम का ’ऐलान हो जाता है, ’उर्स में ज़ाइरीन के दरमियान लंगर तक़्सीम किया जाता है।
माख़ज़ात
(۱) गुल चमन-ए-चिश्ती। शैख़ ’अली अहमद मिर्ज़ापूरी (सन-ए-इशाअ’त न-दारद)
(۲) इर्शाद-ए-’आज़म वाहिद (जिल्द-ए-अव्वल अज़ सय्यद तसद्दुक़ ’अली असद) सन-ए-इशा’अत 2000 ’ईसवी। नाशिर ख़ानक़ाह-ए-अमजदिया, सीवान, बिहार
(۳) सिर्र-ए-हस्ती सय्यद तसद्दुक़ ’अली असद (मक़ाला क़ुतुब-ए-’आलम अज़ सय्यद शाह सग़ीर अहमद) सन-ए-इशाअ’त 1997 ख़ानक़ाह-ए-अमजदिया, सीवान, बिहार
(۴) हयात-ए-शैख़-उल-’आलम शाह मुबीन अहमद फ़ारूक़ी मंज़र। तबा’ दोउम 2012 ’ईसवी नाशिर शो’बा-ए-नश्र-ए-इशा’अत जामि’आ चिश्तिया ख़ानक़ाह हज़रत शैख़-उल ’आलम
(۵) सीरत मुल्ला फ़क़ीर अख़वंद रामपुरी। मुफ़्ती सय्यद शाहिद ’अली हुसनी सन-ए-इशाअ’त 2014 ’ईसवी
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