महापुरुष ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती अजमेरी
आल इंडिया रेडियो देहली से ख़्वाजा हसन सानी निज़ामी की हिंदी तक़रीर
अगर मैं आप से पूछूँ कि आपने कोई फ़क़ीर देखा है तो आपका उत्तर होगा क्यों नहीं! बहुत फ़क़ीर देखे हैं। मगर मैं कहूँगा कि नहीं फ़क़ीर आपने मुश्किल से ही कोई देखा होगा। आज कल तो हर फटे हाल बुरे अहवाल को लोग फ़क़ीर कह देते हैं और हर भीक माँगने वाला फ़कीर समझा जाता है। परंतु सच पूछिए तो ये लोग फ़क़ीर नहीं होते।अस्ली फ़क़ीर किसी से कुछ माँगता नहीं। बन पड़ता है तो अपने पल्ले ही से कुछ दे देता है।वो दुनिया से जी नही लगाता। धन-दौलत की परवाह नहीं करता और बस दो कामों में मगन रहता है।एक ईश्वर का ज्ञान-ध्यान दूसरे ख़ुदा के बंदों की सेवा। उसके पास रूहानी शक्ति होती है जिस से वो बुरे आदमियों को अच्छा बनाता है। उनमें प्रेम की भावना उभाराता है।उनके दुख-दर्द मिटाता है।इसीलिए असली फ़क़ीर को संत,महात्मा और महापुरुष भी कहते हैं।
हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती रहि• भी बहुत बड़े और पहुँचे हुए फ़क़ीर थे। उनका जन्म ईरान में हुआ था ।बचपन में माँ बाप की छाया सिर से हट गई। मगर घर में ईश्वर का दिया सब कुछ था। चैन से गुज़र बसर हो सकती थी। एक दिन कोई फ़क़ीर उनके यहाँ से गुज़रा और उसका कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्हों ने घर-बार सब दान कर दिया और देस-बिदेस घूमने लगे। लेकिन ये घूमना बे-मत्लब नहीं था।पहले उन्हों ने उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों से विद्या प्राप्त की और फिर एक माने हुए फ़क़ीर हज़रत ख़्वाजा उ’स्मान हारूनी को गुरु बना कर उनसे सूफ़ी ज्ञान सीखा। सूफ़ी गुरु जिन को पीर भी कहते हैं अपने चेलों को ये सिखाते हैं कि आदमी परमात्मा को किस तरह माने। उसका रहन सहन कैसा हो। वो दूसरों से किस प्रकार का व्यवहार करे। जीवन किस तरह बिताए। रूहानी शक्ति कैसे पैदा करे और उस शक्ति से ख़ुदा के बंदों को किस तरह फ़ाएदा पहुँचाए। ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती रहि• ने अपने गुरु से ये सब कुछ सीखा।घोर तपस्या कर के रूहानी शक्ति पैदा की और फिर गुरु की आज्ञा पर भारत वर्ष आ गए।और यहाँ राजधानी अजमेर में धूनी रमाई। धूनी रमाने के शब्दों का उपयोग शायद मैंने ठीक नहीं किया। ख़्वाजा साहिब अजमेरी रहि• ऐसे ब्रह्मचारी साधू नहीं थे जो भभूत मले धूनी के आगे बैठे रहते हैं। ख़्वाजा साहिब कपड़े भी पहनते थे। सब कुछ खाते पीते भी थे। उन्हों ने शादी भी की थी और उनके बच्चे भी थे। परंतु उनका कहना ये था कि जब आदमी खाए पिए, पहने ओढ़े और घर गृहस्थी में फंसे तो बस इन बातों में उलझ कर न रह जाए और इन्हीं चीज़ों के पीछे न पड़ा रहे। बल्कि उसको हर वक़्त ख़ुदा की याद रहनी चाहिए। उसका दिल दुनिया के बजाए परमात्मा से जुड़ा हो। वो खाने बैठे तो पहले ये देख ले कि उसके भाई बंधू और दूसरे इंसान तो भूके नहीं है और फिर जो कुछ खाए ये सोंच कर खाए कि इस से जो शक्ति मिलेगी उससे मैं नेक काम करुँगा। बदन में जान हो तब ही तो आदमी ख़ुदा की इ’बादत बंदों की सेवा पूरी तरह कर सकता है। इसी प्रकार जब आदमी कपड़ा पहने तो दूसरों को पहना कर।शरीर को सर्दी गर्मी से बचाने के लिए ही कपड़े पहने सभ्यता के लिए नहीं। दुनिया के दिखावे का पहनावा और ऐसा पहनावा कि एक आदमी के पास तो बढ़िया से बढ़िया जोड़ा और दूसरे को लंगोटी भी न हो ये बात उन्हें पसंद नहीं थी । इसीलिए उन्हों ने सदा मोटा-झोटा पहना और रूखा-सूखा खाया। क्योंकि उस समय सब के पास न बढ़िया कपड़े थे, न बढ़िया भोजन थे। कई बार ऐसा होता कि ख़्वाजा साहिब अजमेरी ख़ुद भूके रहते और अपना भोजन दूसरे भूकों को बाँट देते।फटे-पुराने पैवंद लगे कपड़ों में हंसी-ख़ुशी गुज़र बसर करते।वे कभी किसी से कुछ माँगते नहीं थे।फिर भी लोग अपनी ख़ुशी और श्रद्धा से रुपया-पैसा माल-अस्बाब सब कुछ उनके चरणों में भेंट करते रहते थे क्योंकि उनकी दुआ’ और रुहानी शक्ती से सबके बिगड़े काम बन जाते थे।और लोगों को ये भी पता था कि जो कुछ ख़्वाजा साहिब की सेवा में पेश किया जाएगा वो उनके ऊपर ख़र्च नहीं होगा बल्कि उससे भूकों को रोटी मिलेगी।नंगों को कपड़ा और हर दुखी का दुखः दूर कर दिया जाएगा।
ये महापुरुष लगभग आठ सौ बरस पहले हिंदुस्तान आए थे।अजमेर और देहली पर पृथवीराज चौहान का राज था।और इस देश के रहने वाले न ईरान वालों की बोली जानते थे न उनका और ईरान वालों का रहन-सहन और खान-पान एक सा था। फिर भी हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती रहि• में कुछ ऐसी मोहनी थी कि सब उनके भक्त बन गए। उनके हाँ अपने पराए का कोई भेद-भाव नहीं था। हिंदू-मुसलमान छोटा-बड़ा जो भी आता सबसे एक जैसा बर्ताव होता। बल्कि छोटे और कमज़ोर आदमियों की ओर वो ज़्यादा ध्यान देते। उस महापुरुष का एक बड़ा काम ये है कि उन्हों ने बहुत से चेले बनाए और उनको वो सब बातें सिखा दीं जो ख़ुद उन्हों ने अपने पीर और गुरु से सीखी थीं। और फिर उन चेलों को देश-विदेश भेजा ताकि सब जगह उनकी अच्छी बातों का चलन हो जाए। और केवल यही नहीं उन्हों ने इसकी नीव भी डाल दी कि उनके चेले दूसरों को अपना चेला बनाएं ताकि सदा-सदा को उनके मिशन का प्रचार होता रहे।
ये जो आप जगह-जगह दरगाहें देखते हैं जहाँ उ’र्स होते हैं, क़व्वाली होती है, मन्नतें मानी जाती हैं, चढ़ावे चढ़ाए चाते हैं उनमें अधिकतर ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती ही के चेलों और प्रचारकों की दरगाहें हैं।शायद आप में से कोई पूछे दरगाह क्या होती है? सो इसका हाल भी सुन लीजिए। जैसे हिंदुओं में महापुरुषों की समाधियाँ बनाई जाती हैं ऐसे ही मुसलमान महापुरुषों की क़ब्रों पर दरगाह बनाते हैं और उनके भक्तों का विचार ये है कि वास्तव में उन महापुरुषों की मृत्यु होती ही नहीं। बस उनका शरीर हमारी आँखों से ओझल हो जाता है। और जिस प्रकार ज़िंदगी में ये महापुरुष अपनी रूहानी शक्ती से लोगों के काम आते थे वैसे ही अब भी काम आ सकते हैं। और उनकी दरगाह पर जाकर जो मन्नत-मुराद मानी जाए वो पूरी हो जाती है। इसी कारण हर दरगाह पर मानने वालों की भीड़ रहती है।और चूँकि ख़्वाजा साहिब अजमेरी को भारत के सूफ़ी महापुरुषों में सबसे महान समझा जाता है इसलिए उनकी दरगाह में जाने वाले भी अधिक होते हैं।मुग़ल सम्राट अक्बर ने भी उस दरगाह में एक मन्नत मानी थी। उसके हाँ कोई बेटा नहीं था।मन्नत के बा’द जहाँगीर पैदा हुआ और अकबर बादशाह ने आगरे से पैदल अजमेर जाकर मन्नत पूरी की और ग़रीबों को लंगर का भोजन खिलाने के लिए एक बुहतु बड़ी देग दरगाह की भेंट की। ये देग अब तक मौजूद है।और इतनी बड़ी है कि उससे बड़ी देग शायद और कहीं नहीं होगी। उसमें एक सौ मन चावल एक साथ पक जाते हैं।जितनी बड़ी ये देग है ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती का दिल उस से बड़ा था।जब ही तो सैंकड़ों बरस से उनकी दरगाह में रिवाज है कि बड़ी देग में गोश्त कभी नहीं पकता ताकि हर धर्म का मानने वाला बे-खटके उनके लंगर में भोजन कर सके और पुत्र प्रसाद चख सके।
(ये तक़रीर बच्चों के प्रोग्राम में 23 मई सन 1971 को नश्र हुई)
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