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शम्स तबरेज़ी - ज़ियाउद्दीन अहमद ख़ां बर्नी

ख़्वाजा हसन निज़ामी

शम्स तबरेज़ी - ज़ियाउद्दीन अहमद ख़ां बर्नी

ख़्वाजा हसन निज़ामी

MORE BYख़्वाजा हसन निज़ामी

    आपका असली नाम शम्सुद्दीन है।आपके वालिद-ए-माजिद जनाब अ’लाउद्दीन फिर्क़ा-ए-इस्माई’लिया के इमाम थे।लेकिन आपने अपना आबाई मज़हब तर्क कर दिया था।आप तबरेज़ में पैदा हुए और वहीं उ’लूम-ए-ज़ाहिरी की तहसील की।आप अपने बचपन का हाल ख़ुद बयान फ़रमाते हैं कि उस वक़्त मैं इ’श्क़-ए-रसूल सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम में इस क़दर मह्व था कि कई कई रोज़ ब-ग़ैर खाए गुज़र जाते और मुझे भूक मा’लूम होती।और कभी मेरे वालिदैन और अ’ज़ीज़-ओ-अक़रिबा मुझे कुछ देना चाहते तो मैं उन्हें इशारे से मन्अ’ कर देता था।आख़िर ज़माना में अक्सर सैर-ओ-सियाहत में रहते थे और सियाह लिबास पहनते थे।जिस जगह जाते सराय में क़याम फ़रमाते और कोठरी (हुज्रा) का दरवाज़ा बंद कर के याद-ए-इलाही में मशग़ूल होते।मआ’श के लिए इज़ारबंद बुन लिया करते थे और उनसे बाक़ी ज़रूरियात-ए-ज़िंदगी मुहय्या करते थे।

    जिस तरह कोई शख़्स किसी पीर की तलाश में कोशाँ रहता है,हज़रत शम्स को अक्सर एक आ’ला ज़र्फ़ वाले मुरीद की जुस्तुजू रहती थी। एक दफ़ा’ उन्होंने दुआ’ मांगी कि “इलाही कोई ऐसा बंदा-ए-ख़ास अ’ता फ़रमा जो मेरी पुर-असरार सोहबत का मुतहम्मिल हो सके। इल्हाम हुआ कि रूम की तरफ़ जाओ। उसी वक़्त रूम की जानिब रवाना हुए।चलते चलते क़ूनिया पहुंचे और वहाँ हलवाइयों की सराय में क़याम किया। उधर जब बातिनी कशिश के ज़रीआ’ मौलाना जलालुद्दीन रूमी को उनके आने का हाल मा’लूम हुआ तो मुलाक़ात की ग़र्ज़ से चले। मौलाना अगर्चे उ’लूम-ए-ज़ाहिरी-ओ-बातिनी में दर्जा-ए-कमाल रखते थे लेकिन अब तक उनकी तवज्जोह ज़्यादा-तर दर्स-ओ-तदरीस की तरफ़ रूजूअ’ थी और ज़िक्र-ओ-शुग़्ल की तरफ़ कम। बड़े बड़े फ़ाज़िल और आ’लिम आपकी शागिर्दी को फ़ख़्र समझते थे। जब आप शम्स तबरेज़ी की मुलाक़ात को चले तो बहुत से उ’लमा-ओ-फ़ुज़ला साथ थे।

    अल-ग़र्ज़ उसी शान बान के साथ सराय के दरवाज़े पर पहुंचे। शम्स जो सराय के बाहर एक चबूतरे के ऊपर बैठे थे समझे कि यही वो बुज़ुर्ग हैं जिनकी निस्बत मुझे इल्हाम हुआ है। बहुत देर तक ज़बान-ए-हाल में गुफ़्तुगू होती रही।आख़िर शम्स ने पहल की और मौलाना से पूछा कि हज़रत बायज़ीद बुस्तामी का मर्तबा ज़्यादा है या रसूल-ए-अकरम सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम का।मौलाना ने फ़रमाया कि जनाब रसूलुल्लाहि सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम तमाम आ’लम से अफ़ज़ल हैं।आपके आगे बायज़ीद की क्या अस्ल है। शम्स ने फिर पूछा कि हज़रत बायज़ीद बुस्तामी के इन दोनों वाक़िआ’त में कहाँ तक ततबीक़ हो सकती है कि एक तरफ़ तो उनका ये हाल था कि उ’म्र-भर ख़रबूज़ा नहीं खाया सिर्फ़ इस वजह से कि मा’लूम नहीं रसूल-ए-पाक सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम ने इसको किस तरह खाया है और दूसरी तरफ़ अपनी निस्बत यूँ फ़रमाते हैं कि सुब्हानी मा-आ’ज़-म-शानी व-अना सुल्तानुस्सलातीन (तर्जुमा)।अल्लाहु-अकबर मेरी शान बड़ी है और मैं सुल्तानुस्सलातीन हूँ हालाँकि रसूल-ए-मक़्बूल सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम फ़रमाते थे कि मैं दिन रात में सत्तर दफ़ा’ इस्तिग़फ़ार पढ़ा करता हूँ। मौलाना ने फ़रमाया कि हज़रत बायज़ीद बुस्तामी को प्यास कम थी इसलिए एक ही घूँट में उनकी प्यास बुझ गई। बर-ख़िलाफ़ इस के जनाब रसूल-ए-अकरम सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम को ग़ायत दर्जा की प्यास थी जिसकी वजह से वो गिलास के गिलास पी गए लेकिन प्यास कम हुई। इस जवाब ने शम्स पर बहुत असर किया और आप बे-होश हो गए। ये सबसे पहली मुलाक़ात है जो ब-मक़ाम-ए-क़ूनिया दिसंबर 1244 ई’स्वी में हुई।अगर्चे इस से पेशतर भी मौलाना ने शम्स को देखा था लेकिन बात-चीत नहीं हुई थी।

    इस वाक़िआ’ के थोड़े दिनों बा’द शम्स फिर मौलाना की मज्लिस में शरीक हुए।इस दफ़ा’ मौलाना हौज़ के किनारे पर तशरीफ़ फ़रमा थे और कुछ किताबें उन के पास रखी थीं।शम्स ने पूछा कि ये किताबें कैसी हैं”? मौलाना ने फ़रमाया कि सब अहल-ए-दुनिया की बह्स का सामान है। इस से आपको क्या सर-ओ-कार। शम्स ने अ’मदन सब किताबें उठा कर हौज़ में डाल दीं। मौलाना ने तअस्सुफ़ाना लहजा में फ़रमाया कि अफ़्सोस आपने तो ग़ज़ब कर दिया। उनमें वो नायाब और नादिर किताबें थीं जो कभी ढ़ूंढ़े नहीं मिलतीं।शम्स ने हौज़ में हाथ डाल कर किताबें निकाल दीं।किताबें बिल्कुल ख़ुश्क पाई गईं और उनमें किसी क़िस्म की ख़राबी नहीं थी।मौलाना को सख़्त तअ’ज्जुब हुआ और हैरत से पूछा कि हज़रत ये क्या मुआ’मला है। शम्स ने फ़रमाया ये ज़ौक़-ओ-हाल है।इस से आपको क्या तअ’ल्लुक़। इन हर दो वाक़िआ’त ने मौलाना के तईं शम्स की तरफ़ से कमाल-ए-हुस्न-ए-अ’क़ीदत,गिरवीदगी और इख़्लास पैदा कर दिया और मौलाना का ये हाल हो गया कि हर वक़्त उनकी ख़िदमत में रहने लगे।

    ये वाक़िआ’त इस ग़र्ज़ से लिखे जाते हैं ताकि नाज़िरीन समझ जाएं कि हज़रत शम्स रहमतुल्लाहि अ’लैहि की मुलाक़ात से पेश्तर मौलाना को इस कूचा की हवा भी लगी थी जिससे कि हज़रत शम्स (रहि.)ने उन्हें वाक़िफ़ कर दिया।और ये सिर्फ़ हज़रत ही के फ़ैज़-ए-सोहबत और “जज़्ब –ए-लदुन्नी का असर था कि वो असरार-ए-बातिनी जिनकी अपने दिल में जगह पैदा करने के लिए सालिक को बहुत अ’र्सा तक रियाज़त के शिकंजा में दबना पड़ता है मौलाना पर थोड़ी देर में मुन्कशिफ़ हो गए,और वो तमाम मराहिल जिनका तय करना सालिक के लिए निहायत ज़रूरी है हज़रत शम्स ने मौलाना से आन की आन में तय करवा दिए।मौलाना। हज़रत शम्स (रहि.) की सोहबत-ए-बा-बरकात के असर का ए’तराफ़ ख़ुद उन्होंने क़ुबूल किया है।ख़ुद फ़रमाते हैं।

    मौलवी हरगिज़ न-शुद मौला-ए-रूम

    ता ग़ुलाम-ए-शम्स-ए-तबरेज़ी न-शुद

    सिपह-सालार की रिवायत के मुवाफ़िक़ ये दोनों असहाब सलाहुद्दीन ज़रकोब के हुज्रे में छः माह तक मुराक़बा और ज़िक्र में मशग़ूल रहे। खाना पीना बिल्कुल बंद था और सिवा-ए-सलाहुद्दीन के और किसी को अंदर आने की इजाज़त थी। शम्सुद्दीन अहमद अल-फ़लकी,साहिब-ए-मनाक़िबुल-आ’रिफ़ीन के बयान के मुताबिक़ इस ख़ल्वत की मुद्दत तीन माह है। ये वो वक़्त है जब से कि मौलाना की हालत में तग़य्युर-ए-अ’ज़ीम पैदा हुआ।आप अपने शैख़ और मुहिब्ब-ए-सादिक़ की बड़ी ता’ज़ीम-ओ-तकरीम करते।चूँकि आप अपने ज़माने के एक बड़े ज़बरदस्त बुज़ुर्ग थे और हज़ारों ने आपके आगे ज़ानू-ए-शागिर्दी तह किया था,उनकी नज़रों में ये तग़य्युर बहुत तअ’ज्जुब से देखा जाता था।लेकिन मौलाना ने इस बात की मुतलक़ परवाह की और अपने काम से काम रखा।सबसे बड़ा तग़य्युर जो पैदा हुआ वो ये था कि शम्स की सोहबत से पेश्तर उन्हें समाअ’ से क़तई’ इज्तिनाब था।लेकिन अब ये हालत थी कि समाअ’ के ब-ग़ैर चैन नहीं पड़ता था। ज़रा-ज़रा सी आवाज़ पर समाअ’ का असर रखती थी।हत्ता कि हथौड़ी की आवाज़ उन पर हालत-ए-वज्द और बे-होशी तारी कर देती थी। मौलाना हर वक़त शम्स की ख़िदमत में रहते और चूँकि आपने दर्स-ओ-तदरीस और अपने मुरीदों को फैज़-रसानी के तमाम मशाग़िल छोड़ दिए थे लिहाज़ा इस बात ने बहुत से ज़ाहिर-परस्त मुरीदों में ख़ुसूसन और तमाम शहर में उ’मूमन एक शोरिश बरपा कर दी।

    मुरीदों और शागिर्दों का ख़याल ये था कि इस अ’दम-ए-तवज्जोह का बा’इस शम्स का वजूद है।ज़ाहिर है कि अगर वो यहाँ होंगे तो मौलाना हम पर पहली सी तवज्जोह अज़ सर-ए-नौ करेंगे।इस ख़याल की पुख़्तगी ने लोगों को भी शम्स की जान का दुश्मन बना दिया और शम्स इस ख़ौफ़ से कि मबादा ये शोरिश फ़ित्ना की सूरत में नुमूदार हो चुपके से घर से निकल कर सीधे दिमश्क़ पहुंचे।मौलाना पर इस जुदाई का इतना असर पड़ा कि उन्होंने गोशा-ए-तन्हाई इख़्तियार कर लिया।किसी को बार-याबी की इजाज़त थी।हत्ता कि मुरीदीन-ए-ख़ास भी उनकी मुलाक़ात से महरूम रहते थे।अ’र्सा-ए-बई’द के बा’द शम्स ने मौलाना को दिमश्क़ से ख़त लिखा।ख़त ने दिल के दिल की जलती हुई आग पर तेल का असर किया और ख़ूब ही आतिश-ए-मोहब्बत भड़काई।उन्हीं दिनों में मौलाना ने बहुत से अश्आ’र कहे जिनके दर्द और असर से मा’लूम होता है कि गोया उनमें आग भरी हुई है।एक आ’म बात है कि दरवेशों का दिल और ज़बान एक हैं ।या’नी जो कुछ उनके दिल में भरा हुआ होता है वही ज़बान पर आता है।और चूँकि मौलाना के दिल में आतिश-ए-शौक़ भरी हुई थी इसलिए जो अल्फ़ाज़ उन के ज़ेहन-ए-मुबारक से निकलते थे उनमें भी आग ही भरी हुई होती थी।ज़ाहिर में उन अश्आ’र का ये असर हुआ कि जिन लोगों ने शम्स को तकलीफ़ पहुंचाने का इरादा किया था उन्हें सख़्त शर्मिंदगी हुई और सबने मौलाना की ख़िदमत में कर उनसे मुआ’फ़ी की दरख़्वास्त की।मौलाना ने शम्स को वापस बुलाने की निस्बत मशवरा किया।लेकिन बहुत देर तक रद्द-ओ-कद्द होने के बा’द” आख़िरी राय ये हुई कि कुछ लोग दिमश्क़ जाएं और शम्स को राज़ी कर के ले आएं।आ’म राय से सुल्तान-वलद जो मौलाना के सबसे बड़े साहिब-ज़ादे थे इस छोटे से गिरोह के सरदार बने।मौलाना ने शम्स के नाम एक मंजूम ख़त लिखा जिसमें उन्होंने सोज़-ओ-गुदाज़ के लहजा में हिज्र की बे-ताबियाँ लिखीं और साथ ही वापस तशरीफ़ लाने की दरख़्वास्त भी की।”सुल्तान-वलद से कहा कि इसे ख़ुद अपने हाथ से पेश करें।वो मंजूम ख़त ये है”।

    ब-ख़ुदाए कि दर अज़ल बूद: अस्त

    हय्य-ओ-दाना-ओ-क़ादिर-ओ-क़य्यूम

    नूर-ए-ऊ शम्सहा-ए-इ’श्क़ अफ़रोख़्त

    ता ब-शुद सद-हज़ार सिर्र मा’लूम

    अज़ यके हुक्म-ए-ऊ जहां पुर शुद

    आ’शिक़-ओ-इ’श्क़-ओ-हाकिम-ओ-महकूम

    दर तिलिस्मात-ए-शम्स-ए-तबरेज़ी

    गश्त गंज-ए-अ’जाइबश मक्तूम

    कि अज़ाँ दम कि तू सफ़र कर्दी

    अज़ हलावत जुदा शुदेम चू मोम

    हमः शब हम-चू शम्अ’ मी-सोज़ेम

    ज़े-आतिशे जुफ़्त व-अंगबीं महरूम

    दर फ़िराक़-ए-जमालत मा रा

    जिस्म वीरान-ओ-जान हम चूँ मोम

    आँ अ’नाँ रा बदीं तरफ़ बर-ताब

    रिक़्क़त कुन पील-ए-ऐ’श रा ख़ुर्तूम

    बे-हुज़ूरत समाअ’ नीस्त हलाल

    हम-चू शैताँ तरब शुदः मर्जूम

    यक ग़ज़ल बे-तू हेच गुफ़्तः न-शुद

    ता रसद आँ ब-मुश्रिक़ा मफ़्हूम

    बस ब-ज़ौक़-ए-समाअ’ नामः-ए-तू

    ग़ज़ले पंज-ओ-शश ब-शुद मंजूम

    इन अश्आ’र के साथ एक ग़ज़ल भी भेजी जिसमें कुल पंद्रह शे’र थे।जिनमें से चंद शे’र ये हैं।

    ब-रवेद हरीफ़ां ब-कशीद यार-ए-मा रा

    ब-मन आवरेद हाला सनम-ए-गुरेज़ पा रा

    अगर ब-वा’द: गोयद कि दम-ए-दिगर न-यायद

    म-ख़ूरेद मगर रा ब-फ़रेबद शुमा रा

    हासिल-ए-कलाम ये सब लोग दिमश्क़ पहुंचे और शम्स की ख़िदमत में जाकर निहायत अदब और एहतिराम से आदाब बजा लाए।और पेश-कश मंजूम ख़त समेत पेश किया।शम्स (रहि.) मुस्कुराए और कहा कि।

    ब-दाम-ओ-दान: न-गीरंद मुर्ग़-ए-दाना रा

    और फिर फ़रमाया कि इन बातों की कुछ ज़रूरत नहीं।सिर्फ़ मौलाना का ख़त काफ़ी है।शम्स ने कुछ दिनों तक उस क़ाफ़िला को मेहमान रखा और आख़िर सबको साथ लेकर क़ूनिया की राह ली।सुल्तान-वलद शम्स के रिकाब के साथ-साथ पियादा पा क़ूनिया तक आए और सब लोग सवारियों पर थे।उधर जब मौलाना को ख़बर हुई तो उन्होंने अपने तमाम मुरीदों, शागिर्दों और दोस्तों को हम-राह लेकर बड़ी धूम-धाम से उनका इस्तिक़बाल किया और बड़ी शान-ओ-शौकत से लाए।मुद्दत तक बड़े ज़ोर-ओ-शोर से उन दोनों बुज़ुर्गों की सोहबतें गर्म रहीं और मौलाना उनसे फ़ैज़-ए-बातिनी हासिल करते रहे।

    इस वाक़िआ’ के चंद रोज़ बा’द हज़रत शम्स ने मौलाना की एक “परवर्दा” के साथ जिसका नाम कीमिया था शादी की।मौलाना ने शम्स की रिहाइश और क़याम के लिए अपने मकान के पास एक ख़ेमा नस्ब करा दिया।मौलाना के दूसरे साहिब-ज़ादे अ’लाउद्दीन जब कभी मौलाना से मिलने के लिए आते तो हज़रत शम्स के खेमे में से हो कर आते।शम्स को ना-गवार होता।चंद दफ़ा’ मन्अ’ करने पर भी वो बाज़ ना आए।अ’लाउद्दीन ने बात का बतंगड़ बनाकर लोगों से इसकी निस्बत कहना शुरूअ’ किया।लोगों के दिलों में पहले ही से हसद की आग फरोज़ाँ थी।उन्होंने मौक़ा’ को ग़नीमत जाना और ग़लत ख़बरें मशहूर कर दीं।आख़िर जब ये मुख़ालिफ़त की आग ख़ूब भड़क गई तो शम्स ने इरादा किया कि अब की दफ़ा’ जाकर फिर कभी वापस आएं।चुनाँचे उन्होंने ऐसा ही किया और दफ़्अ’तन ग़ाएब हो गए”। मौलाना ने जिन्हें उनके ब-ग़ैर किसी कल चैन नहीं पड़ता था,उनके ढ़ूढ़ने के लिए हर तरफ़ आदमी भेजे लेकिन उनका कहीं पता मिला।उनकी ना-कामी को देखकर मौलाना ने अपने मुरीदों और दोस्तों को साथ लेकर उनकी तलाश का अ’ज़्म किया।दिमश्क़ को उनका मस्कन और रिहाइश की जगह ख़याल कर के वहाँ चंद रोज़ ठहरे और हर वक़्त उनकी तलाश में आदमी भेजे।लेकिन अब की दफ़ा’ भी ना-कामयाबी ने मुँह दिखाया और मजबूरन क़ूनिया की तरफ़ मुराजअ’त फ़रमाई।

    दूसरी रिवायत ये है कि हज़रत शम्स की ज़ौजा मोहतरमा कीमिया ख़ातून एक दफ़ा’ बिला-इजाज़त बाहर चली गई थीं।उनकी इस हरकत ने हज़रत शम्स को नाराज़ कर दिया।जिस का नतीजा ये हुआ कि वो तीन दिन बीमार रह कर इंतिक़ाल कर गईं।उनकी वफ़ात के बा’द हज़रत दिमश्क़ वापस तशरीफ़ ले गए।

    जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि हज़रत शम्स से मौलाना की मुलाक़ात ब-मक़ाम-ए-क़ूनिया दिसंबर 1244 ई’स्वी में हुई और जूँ-जूँ ज़माना गुज़रता गया तूँ तूँ ज़ौक़-ओ-शौक़ की सोहबतें और ज़्यादा गर्म होती गईं।और आख़िर कार मार्च 1240 ई’स्वी में शम्स की नागहानी मौत ने उन पुरानी सोहबतों को हमेशा के लिए दरहम-बरहम कर दिया।इस हिसाब से मौलाना और शम्स (रहि.) की सोहबत कुल पंद्रह महीने रही।

    शम्स तबरेज़ी की वफ़ात के बा’द मौलाना की हालत बिल्कुल बदल गई। वो उनकी जुदाई में हर वक़्त बे-क़रार रहते थे।आख़िर सलाहुद्दीन ज़रकोब की सोहबत से उन्हें कुछ तसल्ली हुई और पहली सी तमाम बे-ताबियाँ जती रहीं। इसी ज़माना से मस्नवी की इब्तिदा पड़नी शुरूअ’ होती है।

    मिस्टर निकल्सन जिन्हों ने दीवान-ए-शम्स तबरेज़ की बहुत सी ग़ज़लों का तर्जुमा किया है अपने दीबाचा में कहते हैं कि शम्स तबरेज़ निस्बतन आ’लिम थे लेकिन उनके रुहानी जोश ने जिसका दार-ओ-मदार इस यक़ीन पर था कि मैं ख़ुदा तआ’ला का मज़हर और उसकी ज़बान हूँ उन तमाम लोगों पर जो उनके दाएरा-ए-अ’क़ीदत-ओ-इरादत में दाख़िल हुए,जादू का सा असर किया।इस बात में और दीगर बहुत सी बातों में मसलन जोश,नादारी और नागहानी मौत के मुआ’मला में शम्स तबरेज़ बिल्कुल सुक़रात से मिलते-जुलते हैं।हर दो बुज़ुर्ग अपने ख़यालात का इज़हार निहायत अच्छे और मुनासिब अल्फ़ाज़ में किया करते थे।उ’लूम-ए-ज़ाहिरी की कमी,दिलों के मुनव्वर करने की ज़रूरत और मोहब्बत की क़ीमत पर दोनों ने अपने अपने ख़यालात का इज़हार किया है लेकिन अफ़्सोस है कि लोगों ने उस दानाई और अख़्लाक़ की जिससे कि हम एक हकीम और आ’रिफ़ में तमीज़ कर सकते हैं कुछ क़द्र की”।

    एक दीवान जिसमें तक़रीबन पचास हज़ार अश्आ’र हैं शम्स तबरेज़ के नाम से मंसूब किया जाता है लेकिन ये बड़ी सख़्त ग़लती है।और अ’वाम के इस ग़लती में पड़ने का सबसे बड़ा सबब ये है कि मक़्ता’ में उ’मूमन शम्स तबरेज़ का नाम आया है और ख़ाल-ख़ाल मौलाना का नाम है।इसलिए अ’वाम को धोका हुआ और वो उसे शम्स का दीवान समझने लगे।लेकिन उनके नाम के मक़्ता’ में आने की अस्लियत ये है कि मौलाना जो फ़ना-फ़िश्शैख़ थे अपनी एक-एक बात को शम्स से ता’बीर कर के कहते हैं कि ये उन्हीं के फ़ैज़ और जूद-ओ-सख़ावत का नतीजा है। फ़रमाते हैं।

    मौलवी हरगिज़ न-शुद मौला-ए-रुम

    ता ग़ुलाम-ए-शम्स तबरेज़ी न-शुद

    दीवान की निस्बत ये है कि वो मौलाना का कलाम है क्योंकि अव्वल तो शम्स तबरेज़ का नाम तक़रीबन तमाम ग़ज़लों में इस हैसियत से आया है कि मुरीद अपने पीर से ख़िताब कर रहा है या ग़ाएबाना उसके औसाफ़ बयान करता है”।मिसाल के लिए ये शे’र मुलाहिज़ा हो।

    बिया साक़ी इ’नायत कुन तू मौलाना-ए-रूमी रा

    ग़ुलाम-ए-शम्स तबरेज़म क़लंदर वार मी-गर्दम

    या

    शम्स तबरेज़ तुइ ख़ूर्शीद-ए-जाँ

    दर चुनाँ अनवार चूनत याफ़्तम

    दूसरे ख़ुद मौलाना फ़रमाते हैं कि ये कलाम उनका नहीं है।इसकी ताईद में मौलाना का ये शे’र मुलाहिज़ा हो।

    चूँ ग़ज़ले ब-सर बरम ख़त्म कुनम ब-शम्स-ए-दीं

    अह्ल-ए-ज़मीन अज़ उ’ला सर निहंद बर शरफ़

    निकल्सन दौलत शाह की ज़बानी बयान करता है कि मौलाना ने अक्सर ग़ज़लें शम्स की गैर हाज़िरी में लिखीं।और रज़ा क़ुली ख़ान का ख़याल है कि वो शम्स के फ़िराक़ में तस्नीफ़ की गईं।लेकिन मिस्टर निकल्सन की अपनी राय ये है जो ग़ालिबन ज़्यादा दुरुस्त मा’लूम होती है कि “दीवान का कुछ हिस्सा शम्स तबरेज़ी की हयात में लिखा जा चुका था लेकिन ज़्यादा हिस्सा मा-बा;द का है।”

    मश्रिक़ में दीवान की निस्बत मस्नवी का मुतालआ’ ज़्यादा किया जाता है।लेकिन अहल-ए-यूरोप के नज़दीक औरिजीनल्टी (Originality) और शाए’राना लिहाज़ से उसका पाया बहुत बुलंद है।अगर अफ़्लाकी की रिवायत दुरुस्त है तो मौलाना के बड़े-बड़े हम-अ’स्रों की राय ये थी जिसमें शैख़ सा’दी (रहि.) भी शामिल हैं कि मौलाना का कलाम बहुत आ’ला दर्जा का है। एक दफ़ा’ जब शहज़ादा-ए-शीराज़ ने शैख़ से एक ऐसी ग़ज़ल जो ख़यालात और ज़बान के लिहाज़ से ज़बान-ए-फ़ारसी में ला-सानी हो भेजने की दरख़्वास्त की तो सा’दी ने दीवान-ए-मौलाना रूम से एक ग़ज़ल इंतिख़ाब कर के शहज़ादा की ख़िदमत में भेजी।और साथ ही ये लिख भेजा कि इस से बेहतर ग़ज़ल तो कभी पेशतर लिखी गई है और आइंदा ज़माने में लिखी जाएगी।काश अगर मैं रूम में जा सकता तो उनके पाँव की ख़ाक पर अपनी पेशानी मलता”।इस ग़ज़ल में 20 शे’र हैं जिनमें से चंद शे’र ये हैं:

    हर-नफ़स आवाज़-ए-इ’श्क़ मी-रसद अज़ चप-ओ-रास्त

    मा ब-फ़लक मी-रवेम अ’ज़्म-ए-तमाशा किह रास्त

    मा ब-फ़लक बूदःऐम यार–ए-मलक बूदः ऐम

    बाज़ हमाँ जा रवेम बाज़ कि आँ शहर-ए-मास्त

    मा ज़े-फ़लक बरतरेम-ओ-ज़े-मलक अफ़्ज़ूँ तरेम

    ज़ीं दो चरा न-गुज़रेम मंज़िल-ए-मा किब्रियास्त

    बख़्त-ए-जवाँ यार-ए-मा दादन-ए-जाँ कार-ए-मा

    क़ाफ़िला-ए-सालार-ए-मा फ़ख़्र-ए-जहाँ मुस्तफ़ास्त

    अहल-ए-यूरोप जिस ज़ौक़ से दीवान का मुतालआ’ करते हैं उस से साफ़ तौर पर ज़ाहिर होता है कि मश्रिक़ की निस्बत मग़्रिब में दीवान ज़्यदा मक़्बूल नज़रों से देखा जता है।मक़्बूलियत का अंदाज़ा इस बात से किया जा सकता है कि यूरोप में मुख़्तलिफ़ ज़बानों में इसके मुतअ’द्दिद तर्जुमे छापे गए हैं।अंग्रेज़ी में मिस्टर आर निकल्सन का तर्जुमा ज़्यादा पसंद किया जाता है।लाएक़ मुसन्निफ़ ने अंग्रेज़ी दीवान के शुरूअ में तम्हीद और आख़िर में नोट और ज़मीमजात शामिल किए हैं जिससे किताब की शान बहुत बढ़ गई है।

    नोट

    दीगर अँग्रेज़ी-दाँ ख़ुद्दाम की तरह बर्नी भी उन अंग्रेज़ी किताबों को मुतालआ’ में रखना ज़्यादा पसंद करते हैं जिनमें अरबाब-ए-तसव्वुफ़ का ज़िक्र हो।इसलिए हज़रत शम्स के हालात के माख़ज़ में अंग्रेज़ी कुतुब को ज़्यादा दख़्ल है।

    हज़रत शम्स तबरेज़ी के वालिद की निस्बत बयान किया गया है कि फ़िर्का-ए-इस्माई’लिया से तअ’ल्लुक़ रखते थे और हज़रत शम्स ने ये मज़हब तर्क कर दिया था। मुझको इस दा’वे के क़ुबूल करने में तअम्मुल है। क्योंकि इस्माई’ली फ़िर्क़ा वाले शम्स दूसरे गुज़रे हैं जिनका मज़ार मुल्तान में है। अ’वाम मुल्तानी शम्स तबरेज़ी को ही हज़रत मौलाना रूम का मुर्शिद समझते हैं हालाँकि ये ग़लत है। यूरोपियन मुवर्रिख़ों को ग़ालिबन इसी रिवायत की वजह से ग़लत-फ़हमी हुई होगी।

    मुल्तानी शम्स तबरेज़ी को तीन सौ बरस का अ’र्सा गुज़रा ये इस़्माई’ली फ़िर्क़ा के दाई’ बन कर हिन्दूस्तान में आए थे।उनके हम-राह दो शख़्स और थे।एक का नाम पीर सदरूद्दीन था और दूसरे का पीर इमामुद्दीन।सदरुद्दीन ने अज़ला-ए’-सिंध वैली में दा’वत शुरूअ’ की और इमामुद्दीन ने गुजरात-ओ-काटियावाड़ में।शम्सुद्दीन सीधे पंजाब चले आए और वहाँ अपना मिशन जारी किया। इमामुद्दीन ने अव्वल अव्वल तो ब-हैसियत इस्माई’ली दाई’ के काम किया।मगर चंद रोज़ के बा’द ख़ुद-मुख़्तार हो कर अपना एक अ’लाहिदा तरीक़ा इमाम-शाही जारी कर दिया। इमाम-शाही तरीक़ा के उसूल भी क़रीब-क़रीब इस़्माई’ली थे।लेकिन वो ख़ुद अपने तईं नाएब-इमाम और मज़हर-ए-ज़ात-ए-मौला अ’ली बयान करते थे।इमामुद्दीन का मज़ार मक़ाम-ए-पीराना में है जो अहमदाबाद गुजरात के क़रीब एक क़स्बा है।

    शम्सुद्दीन तबरेज़ी ने जिनका मज़ार मुल्तान में है पंजाब के कहारों और सुनारों में अपना तरीक़ा राइज किया और उन लोगों को शम्सी हिंदू का लक़ब दिया।ये शम्सी हिंदू ब-राह-ए-रास्त आग़ा ख़ाँ के मो’तक़िद बनाए गए हैं और सालाना नज़्र-ओ-नियाज़ अब तक आग़ा ख़ान ही को देते हैं।इनकी ता’दाद तीन लाख के क़रीब सूबा-ए-पंजाब में है।

    मुल्तानी शम्स तबरेज़ी ने किन तरीक़ों से अपना अ’क़ीदा फैलाया और कैसे कैसे अ’जीब-ओ-ग़रीब वाक़िआ’त अ’वाम की ज़बानों पर उनकी निस्बत मशहूर हैं,उनके लिखने को एक अ’लाहिदा मज़मून की ज़रूरत है।बिल-फ़े’ल ये बताना मक़्सूद है कि हज़रत शम्स तबरेज़ी को इस्माई’ल गिरोह से कोई तअ’ल्लुक़ नहीं। इस्माई’ल शम्स तबरेज़ी मुल्तान में और मौलाना वाले शम्स तबरेज़ से सैकड़ों बरस बा’द हुए हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : Monthly Nizam-ul-Mashaykh

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