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हज़रत शाह वजीहुद्दीन अलवी गुजराती

मआरिफ़

हज़रत शाह वजीहुद्दीन अलवी गुजराती

मआरिफ़

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    रोचक तथ्य

    ماہنامہ معارف (اعظم گڑھ)

    अज़ - मौलाना सय्यद अबू ज़फ़र नदवी (मुदर्रिस :अरबी-ओ-फ़ारसी महाविद्यालय, अहमदाबाद)

    गुजरात में सैकड़ों उ’लमा और अत्क़िया पैदा हुए और चल बसे लेकिन गुजरात के आसमान पर दो ऐसे आफ़ताब-ओ-माहताब चमके जिनके ’इल्मी कारनामों की शु’आऐं अभी तक परतव-फ़िगन हैं। उन में से एक मुहद्दिस-ए-बे-बदल ’अल्लामा शैख़ मोहम्मद ताहिर पटनी (गुजराती) हैं और दूसरी मुक़द्दस हस्ती हज़रत शाह वजीहुद्दीन ’अलवी गुजराती की है। इनसे पहले नेहरवाला पट्टन (अनहल-वाड़ा) और अहमदाबाद में मुत’अद्दिद मदारिस मौजूद थे और मुख़्तलिफ़ ’इल्मी मरकज़ों से लोग फ़ैज़याब होते थे लेकिन जबसे इन दोनों बुज़ुर्गों का वुजूद ज़ुहूर-पज़ीर हुआ, ’इल्मी दुनिया में नया इन्क़िलाब पैदा हुआ और तिश्नगान-ए-’इल्म की जिस कसरत-ए-ता’दाद ने उनसे सैराबी हासिल की, गुजरात में शायद ही कोई दूसरी ज़ात-ए-बा-बरकात उनके मद्द-ए-मुक़ाबिल निकले। इन में से ख़ुसूसियत से शाह वजीहुद्दीन का फ़ैज़ान मदरसा और तलामिज़ा की शक्ल में सदियों रहा और गुजरात उनके दम-क़दम से मुद्दत तक मुनव्वर रहा लेकिन अफ़्सोस है कि गुजरात के बाहर के लोग उनसे और उनकी तस्नीफ़ात से बहुत कम वाक़िफ़ हैं इस लिए ज़रूरत है कि उनके हालात लिखे जाएं।

    नाम-ओ-नसब : शाह साहब का असली नाम सय्यद अहमद है मगर दुनिया उनको वजीहुद्दीन के नाम से जानती है, सिलसिला-ए-नसब ये है: वजीहुद्दीन अहमद बिन क़ाज़ी नस्रुल्लाह बिन क़ाज़ी सय्यद ’इमादुद्दीन बिन क़ाज़ी सय्यद ‘अताउद्दीन बिन क़ाज़ी सय्यद मु’ईनुद्दीन बिन सय्यद बहाउद्दीन बिन सय्यद कबीरुद्दीन। इसी तरह सिलसिला इमाम मोहम्मद तक़ी तक पहुँचता है। सय्यद कबीरुउद्दीन साहब का अस्ल वतन यमन था लेकिन मक्का-मु’अज़्ज़मा में आकर मुक़ीम हो गए थे और इसी लिहाज़ से बा’ज़ लोगों ने उनको मक्की भी तहरीर किया है। कहते हैं कि सय्यद बहाउद्दीन एक दिन ख़ाना-ए-का’बा में मो’तकिफ़ थे कि उनको ब-ज़रि’आ-ए-कश्फ़ ऐसा मा’लूम हुआ कि सरवर-ए-काइनात हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम ने इर्शाद फ़रमाया कि हिन्द के सूबा-ए-गुजरात में जाकर ख़ल्क़ की हिदायत करो। चुनाँचे आठवीं सदी के आख़िर या नौवीं सदी की इब्तिदा में ब-’अहद-ए-मुज़फ़्फ़र शाह अव्वल गुजरात तशरीफ़ लाए और मक़ाम-ए-पाटरी ज़िला’ झालावाड़ में तवत्तुन इख़्तियार फ़रमाया और हिदायत-ए-ख़ल्क़ में मश्ग़ूल हो गए। क़रीना-ओ-क़ियास से मा’लूम होता है कि वो खसकी से देहली या उछ होते हुए तशरीफ़ फ़रमा हुए वर्ना बहरी रास्ता से कंभायत या भरूच उतर कर कहीं मक़ाम होना चाहिए था, या मुम्किन है कि बहरी राह से तशरीफ़ लाए हों और ख़ुसूसियत से झालावाड़ जस्यी कोहिस्तान को इर्शाद-ओ-हिदायत के लिए इंतिख़ाब फ़रमाया हो।

    इनके बा’द सय्यद मु’ईनुद्दीन उनके लड़के जाँ-नशनी हुए और हुक्काम-ए-वक़्त की तरफ़ से महकमा-ए-क़ज़ा उनके सुपुर्द हुआ और फिर उनके लड़के क़ाज़ी सय्यद ’अताउद्दीन और पोते क़ाज़ी सय्यद ’इमादुद्दीन भी इस महकमा से मुंसलिक रहे और मुख़्तलिफ़ ज़िलों’ में ब-हैसियत-ए-क़ाज़ी काम अंजाम देते रहे। शाह वजीहुद्दीन साहब के वालिद-ए-माजिद क़ाज़ी नस्रुल्लाह महमूद बेगड़ा के आख़िर ’अहद में ब-मुक़ाम-ए-चांपानीर क़ाज़ी के ’ओहदा पर मामूर थे और उनकी ख़ुसूसियत ये थी कि मुश्तबा उमूर से बहुत इहितराज़ फ़रमाते थे।

    सुल्तान मुज़फ़्फ़र हलीम उनसे बहुत ख़ुश था, इसलिये अहमदाबाद अपने साथ लाकर अपने महल के पास इमामत के लिए जगह दी। ये वही मुक़ाम है जिसको आज ख़ानक़ाह (या दरगाह) शाह वजीहुद्दीन के नाम से लोग मौसूम करते हैं।

    विलादत: शाह साहब की विलादत 22 मुहर्रम सन 910 को ब-मक़ाम-ए-चाँपानीर हुई। लफ़्ज़-ए-“शैख़” से उनकी विलादत की तारीख़ निकलती है ।तक़रीबन सात आठ बरस तक चानियानीर में मुक़ीम रहे, क्यूँकि सन 917 हिज्री में सुल्तान महमूद बेगडा के इंतिक़ाल पर सुल्तान मुज़फ़्फ़र हलीम तख़्त-नशीन हुआ जिसने क़ाज़ी नस्रुल्लाह को अपने साथ लाकर अहमदाबाद में मुक़ीम, किया।

    त’अल्लुम: सात-आठ बरस तक आप अपने वालिदैन के किनार-ए-’आफ़ियत में परवरिश पाते रहे। क़ुदरत ने भी अपने 'अतिय्यात में किसी क़िस्म का बुख़्ल नहीं किया था।ज़िहानत, ज़कावत, याद-दाश्त का माद्दा, इब्तिदा से मौजूद था चुनाँचे सात साल की ’उम्र में उन्होंने क़ुरआन मजीद हिफ़्ज़ कर लिया और आठ साल तजवीद के साथ कुरान-ए-पाक ’उलमा के सामने सुनाया। उस के बा’द ’उलूम-ए-मुतदाविला में मश्ग़ूल हुए, और अपने चचा सय्यद शम्सुद्दीन साहब से इब्तिदाई किताबें पढ़ीं फिर अपने मामूं सय्यद अबुल-क़ासिम साहब से हदीस का दर्स लिया।14-15 साल की ’उम्र में ’अल्लामा मोहम्मद बिन मोहम्मद मुल्की से हदीस का इख़्तिताम फ़रमाया और सबसे आख़िर में मुहद्दिस अबुल-बरकात बंबानी ’अब्बासी को हदीसें सुनाईं।

    ’उलूम-ए-’अक़्लिया मुहक़्क़िक़ जलालुद्दीन दवानी के शागिर्द मौलाना ’इमादुद्दीन तारमी और अबुलल-फ़ज़ल मज़हरुद्दीन मोहम्मद गावज़रोनी जैसे ’उलामा-ए-’अस्र से हासिल किए मौलाना तारमी चंद वास्ते से ’अल्लामा सय्यद शरीफ़ जुर्जानी (मुतवफ़्फ़ा 816 हिज्री) से भी तलम्मुज़ की निस्बत रखते थे। इस वक़्त मौलाना मौसूफ़ की तसानीफ़ में से ज़ाबता-ए-तहज़ीब की शरह (क़लमी) और ‘अल्लामा गावज़रोनी की यादगार हाशिया बर-बैज़ावी क़लमी कुतुब-ख़ाना हज़रत पीर मोहम्मद शाह अहमदाबाद में मौजूद है ।24 साल की ’उम्र में शाह साहब ने ’उलूम-ए-ज़ाहिरी की तक्मील फ़रमाई और ‘वजीह’ मादा-ए-तारीख़ है।

    बै’अत-तरीक़त: ईब्तिदाअन अपने वालिद ही से चिश्तिया और मग़रिबिया तरीक़ों को सीखते रहे लेकिन कुछ दिनों हज़रत शाह काज़न चिश्ती की सोहबत से भी मुस्तफ़ीज़ हुए। उनके इंतिक़ाल के बा’द मियाँ बदरुद्दीन अबुल-क़ासिम सुहरवर्दी की तरफ़ मुतवज्जिह हुए और हज़रत नज्मुद्दीन की सोहबत में भी रहते बसा-औक़ात जब जज़्बा का शौक़ ग़ालिब आता तो हज़रत सय्यद कबीरुद्दीन मज्ज़ूब से मुलाक़ात फ़रमाते और दर्द-ए-दिल की शिकायत फ़रमा कर ’इलाज के तालिब होते फिर। कुछ दिनों के बा’द हज़रत सय्यद मोहम्मद ग़ौस ग्वालियरी तशरीफ़ लाए।शाह साहब उनसे मिले और कामिल हो कर सनद और ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त हासिल किया।

    मदरसा की बुनियाद: 934 हिज्री में तक्मील-ए-ता’लीम के बा’द दर्स-ओ-तदरीस की तरफ़ तवज्जोह की ।उस वक़्त उनकी ’उम्र चौबिस या पच्चीस साल की थी। इब्तिदा-ए-दर्स का तारीख़ी माद्दा “शैख़ वजीह” है। ये सुल्तान बहादुर शाह गुजराती का इब्तिदाई अ’हद था या’नी उसकी तख़्त-नशीनी को सिर्फ़ दो तीन साल गुज़रे थे अ’हद-ए-क़दीम में दस्तूर था कि साहिब-ए-’इल्म-ओ-फ़ज़्ल जहाँ बैठ जाता कुछ दिनों के बा’द वही मक़ाम अपने वक़्त का बेहतरीन कॉलेज हो जाता और आहिस्ता-आहिस्ता उमरा और सलातीन की तवज्जोह से तलबा के लिए तमाम सुहूलतें ब-हम पहुँचाई जातीं ।शाह साहब ने जब 935 हिज्री में बा-क़ा’इदा एक मदरसा की बुनियाद रखी तो बहुत जल्द उसकी मक़्बूलियत हो गई। तलबा के रहने के लिए हुजरे भी ता’मीर हो गए और वज़ाइफ़ का भी इंतिज़ाम हो गया ।शाही मत्बख़ से रोज़ीना पैंतीस रुपया माहाना भी मिलने लगा ।तलबा के ’इलाज के लिए एक तबीब माहाना पर था ।आपने उस मदरसा में 46 साल तक ता’लीम दी और मशहूर है कि उस मुद्दत में कभी आपने क़सदन मदरसा बंद नहीं फ़रमाया और अस्बाक़ का नाग़ा होने दिया ।हर ’इल्म-ओ-फ़न की ता’लीम यहाँ होती थी ।इब्तिदा में ग़ालिबन वो तन्हा मुदर्रिस थे लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता असातिज़ा की ता’दाद बढ़ती रही ।और तलबा को इंतिहाई तरक़्क़ी पर हम देखते हैं कि ऐसे तलामिज़ा भी अपना वक़्त तदरीस में सर्फ़ करते हैं जो ख़ुद अभी फ़ारिग़ नहीं हुए हैं।इब्तिदाई ता’लीम के ’अलावा तफ़्सीर मआ’ उसूल-ए-हदीस म’आ उसूल-ए-फ़िक़्ह मा’आ उसूल, मआ’नी-ओ-बलाग़त, मंतिक़, फ़लसफ़ा, हैयत, मुनाज़रा, अदब वग़ैरा ’उलूम-ए-ज़ाहिरी की तक्मील कर लेने पर जिन तलामिज़ा को तसव्वुफ़ की तरफ़ रुजहान होता, तो उसकी भी ता’लीम देते। इनके ’अलावा ऐसे अश्ख़ास जो बाहर से आकर इस चश्म-ए-फ़ैज़ से सैराब होते उन लोगों की ता’दाद भी कुछ कम नहीं है। फ़तवा-नवीसी का भी बा-क़ा’इदा इंतिज़ाम था और ख़ास इस काम पर ज़िम्मेदार अश्ख़ास का तक़र्रुर फ़रमाते थे ‘आम फ़तवों को छोड़कर जब कोई अहम मु’आमला दर-पेश होता तो ख़ुद उस पर ग़ौर फ़रमाते और तहक़ीक़ी जवाब तहरीर फ़रमा कर अपने दस्तख़त से उसको मुज़य्यन फ़रमाते।

    ख़ुद सल्तनत भी किसी अम्र-ए-मुहिम में आपके दस्तख़त के बिना अहकाम नाफ़िज़ नहीं करती और ऐसे अम्र को मुश्तबहा समझती जिसमें आपके दस्तख़त हों ।चुनाँचे सय्यद मोहम्मद ग़ौस ग्वालियरी के मुत’अल्लिक़ जब ‘उलमा-ए-वक़्त ने जिनके शैख़ ’अली मुत्तक़ी थे, कुफ़्र और क़त्ल का फ़तवा लिख कर ब-तौर-ए-महज़र-नामा के सुल्तान महमूद सालिस के सामने पेश किया तो सबसे पहले सुल्तान मौसूफ़ ने ये सवाल किया कि उस पर शाह वजीहुद्दीन के दस्तख़त क्यूँ नहीं हैं, ग़र्ज़ सुल्तान को वुज़रा के जवाब से तशफ़्फ़ी नहीं हुई और ख़ुद हाज़िर-ए-ख़िदमत हो कर शरफ़-ए-क़दम-बोसी हासिल किया और जवाबात-ए-शाफ़िया से मुतअस्सिर हो कर महज़र-नामा को रद्द कर दिया और सय्यद मौसूफ़ को बरी क़रार दिया।

    तलामिज़ा: तलामिज़ा का दाइरा बहुत वसी’ था अस्सी। (80) की ता’दाद सिर्फ़ उन लोगों की है जिन्हों ने अतराफ़-ए-मुल्क में मुंतशिर हो कर मदरसे क़ाइम किए और ख़ुद साहिब-ए-दर्स हुए ।शाह साहब की कमाल-ए-ख़ुश-नसीबी ये है कि अपनी ज़िंदगी ही में शागिर्दों के शागिर्द को मसनद-ए-’इल्म पर रौनक़-अफ़रोज़ हो कर दर्स-ओ-वा’ज़ के ज़रि’आ ख़ल्क़ को हिदायत करते देखा ।गोया उनकी ज़िंदगी का अस्ल मंशा आपके सामने ही पूरा हो गाया।

    शाह साहब के वालिद की वफ़ात: 20 मुहर्रम 958 हिज्री में आपके वालिद का इंतिक़ाल हो गया। उस वक़्त आपकी ’उम्र 48 साल की थी और ता’लीम-ओ-त’अल्लुम के सिलसिला को भी 24 साल हो चुके थे ।उनके वालिद-ए-माजिद क़ाज़ी नस्रुल्लाह ने भी ’उम्र-ए-तवील पाई ।वो सुल्तान महमूद अव्वल बेगड़ा के ’अहद-ए-वस्त में पैदा हुए और सुल्तान महमूद सालिस के ’अहद में वफ़ात पाई। ’उम्र-भर ख़ुश-हाल रहे और अकाबिर-ए-शहर में मु’अज़्ज़ज़ और मु’आसिरीन में मुमताज़। आपकी वफ़ात का मादा-ए-तारीख़ है “लहु जन्नात-उल-फ़िरदौसि-नुज़ुला” (958)।

    शाह साहब की वफ़ात: शाह वजहुद्दीन साहब 29 मुहर्रम 998 ब-रोज़-ए-यक-शंबा सुब्ह-ए-सादिक़ के वक़्त इस दार-ए-फ़ानी से ’आलम-ए-जाविदानी को रुख़्सत हुए ।उस वक़्त उनकी ’उम्र 88 बरस की थी। उनका मज़ार मदरसा के वस्त-ए-सेहन में बनाया गया जो इस वक़्त तक ज़ियारत-गाह-ए-’आम-ओ-ख़ास है। उमरा-ए-अकबर में से उनके मो’तक़िद “सादिक़ ख़ान” ने रौज़ा की ’इमारत तय्यार की और उमरा-ए-जहाँगीरी में से फ़रीद ख़ान अल-मुख़ातब मुर्तज़ा ख़ान बुख़ारी ने अपने ’अहद-ए-सूबा-दारी-ए-गुजरात सन 1014/1018 हिज्री में मर्क़द के ऊपर छत्री तय्यार की जिस पर सीप का काम निहायत ’आला दर्जा का है और मुन्दर्जा-ज़ैल अश्’आर कंदा हैं।

    मुर्तज़ा ख़ान फ़रीद दरिया-दिल

    फ़ैज़-दानी-ओ-रहमत-ए-शामिल

    ’अर्श बर तरह कर्द अज़ हिम्मत

    बर सर-ए-क़ब्र-ए-मुर्शिद-ए-कामिल

    महव-ए-दीदार-ए-हक़ वजीहुद्दीन

    आँ ब-मौत-ओ-हयात-ए-ख़ुद वासिल

    दर बर-ए-शाहिद-ए-अज़ल ख़ुफ़्तः

    अज़ शराब-ए-विसाल ला-‘याक़िल

    हस्त ऐ’न-ए-हुज़ूर-ए-आगाही

    ग़फ़्लत ऊरा नमी-कुनद ग़ाफ़िल

    का’बः अज़ दरून चुनाँ रौशन

    कि जिदारश नमी-शवद हाइल

    क़िब्लः-ए-हाजत-ओ-मक़ाम-ए-मुराद

    मब्दा-ए-फ़ैज़-ए-’आरिफ़-ओ-कामिल

    साल-ए-तारीख़-ए-ऊ ग़ैब रसीद

    ता-फ़लक बाद बादबानी-ए-ईं

    ता-जहाँ बाद बाद ईं मंज़िल

    ’अर्श-ए-इस्लाम क़िब्लः-ए-मुक़बिल

    से तारीख़ निकलती है, जो 1007 हिज्री होती है मेरे ख़याल में कोई हर्फ़ छूट गया है, जिसके सबब से दस ’अदद कम होते हैं, क्यूँकि फ़रीद ख़ान का ’अहद सन 1014 से सन 1018 हिज्री तक है इसलिए उसकी बिना 1070 हिज्री ग़ालिबन होगी। एक शुब्हा ये भी हो सकता है कि मुम्किन है कि सन 1007 हिज्री में तय्यार कराया हो लेकिन अश्’आर से ख़ुद उसकी तर्दीद होती है। 1007 हिज्री ’अहद-ए-अकबरी में उस वक़्त फ़रीद ख़ान को उमरा-ए-अकबरी में कोई इम्तियाज़ ख़ान था और उस वक़्त तक उस मुर्तज़ा ख़ान का ख़िताब ’अता हुआ था।, सन 1014 हिज्री में जब अकबर ने वफ़ात पाई और जहाँगीर तख़्त-नशीन हुआ तो उस को जहाँगीर ने इस ख़िताब से सरफ़राज़ किया और गुजरात का गवर्नर बनाकर भेजा और ये उस वफ़ादारी और कार-गुज़ारी का सिला था कि जब जहाँगीर अपने बाप अकबर-ए-आ’ज़म से बाग़ी हो कर इधर उधर फिर रहा था और फिर उमरा-ए-दरबार के ख़ौफ़ से इसी फ़रीद ख़ान के घर रुपोश होगा था इसलिए फ़रीद ख़ान सन 1007 हिज्री में गवर्नर था, “मुर्तज़ा ख़ान”

    शाह वजीहुद्दीन साहब की वफ़ात की तारीख़ “लहुम-जन्नात-उल-फ़िरदौसि-नुज़ुला एक शख़्स ने तहरीर की है जिस से 998 हिज्री की तारीख़ निकलती है। इस तारीख़ में दिलचस्प बात ये है कि यही तारीख़ ख़फ़ीफ़ तग़य्युर से शाह साहब के वालिद की वफ़ात की भी है या’नी “लहु” और “लहुम” के फ़र्क़ से दोनों की अलग-अलग तारीख़ें निकलती हैं। इस से भी ज़्यादा दिलचस्प तारीख़ आपके तिल्मीज़-ए-रशीद मौलाना ’अब्दुल ’अज़ीज़ ने तहरीर की है , जो उनकी ज़िहानत और फ़तानत की बैइन शहादत है।चुनाँचे आपकी रेहलत की तारीख़ “शैख़ वजीहुदीन” निकाली है फिर “शैख़” से साल-ए-विलादत और “शैख़ वजीह” से आग़ाज़-ए-ता’लीम-ओ-त’अल्लुम और लफ़्ज़-ए-“दीन” से कुल मुद्दत-ए-तदरीस-ओ-हिदायत और “वजीह दीन” से कुल मुद्दत-ए-’उम्र निकलती है इस के ’अलावा दूसरे लोगों ने भी मुख़्तलिफ़ तारींख़ें लिखीं हैं वफ़ात के बा’द लोगों ने उनके बहुत मर्सिये कहे जो उर्दू, फ़ारसी, ’अरबी हर ज़बान में मौजूद हैं। मौलाना इब्राहीम दकनी का ’अरबी मर्सिया बहुत पुर-दर्द और पुर-असर है।

    मशहूर शा’इर वली गुजराती ने भी मुत’अद्दिद क़सीदे उनकी शान में तहरीर किए हैं जिन में से एक बंद मुंदर्जा ज़ैल है।

    तू है आफ़्ताब-ए-’आलम-ताब

    फ़ैज़ तेरे से जग है मक़सद-याब

    दिल तिरा कान-ए-’इल्म-ओ-बहर-ए-’अमल

    हर मा’नी है इस में दुर्र-ए-ख़ुश-आब

    रू-ए-अनवर की तेरे देख ज़िया

    रश्क से आफ़्ताब है बे-ताब

    मुत्तफ़िक़ हो के ’आक़िलाँ ने कहा

    दिल को तिरे जगत में लुब्ब-ए-लुबाब

    फ़िक्र तेरी है आब-ए-दानिश-ओ-होश

    हर गुल-ए-’अक़्ल तुझ से है सैराब

    तू मज्मू’आ-ए-फ़िरासत-ए-ताम

    दिल तिरा मतलब-ए-हज़ार किताब

    ता-क़ियामत गुरेज़-पा रहे

    तुझ मोहब्बत की आग से सीमाब

    मांगते हें मदद से तुझ शह की

    रोज़ शब चंद रुस्तम-ओ-दाराब

    इस ज़माने में बे गुमाँ बे-शक

    तुझ में है सब तरीक़ा-ए-अस्हाब

    इमाम-ए-जमी’–ए-अहल-ए-यक़ीन

    क़िबला-ए-रास्तान वजीहमुद्दीन

    सियासी उमूर:। शाह साहब की 88 बरस की ’उम्र में वफ़ात हुई और इस ’उम्र में दस ग्यारह बादशाहों का ’अह्द पाया।सात बरस की ’उम्र थी जब सुल्तान महमूद बेगड़े ने वफ़ात पाई। ज़माना की 22 बहारें जब आपने देखीं तो सुल्तान मुज़फ़्फ़र दोउम चल बसा और उसी साल सिकंदर गुजराती मक़्तूल और महमूद दोउम मा’ज़ूल हुआ।23 साल की ’उम्र में सुल्तान बहादुर गुजराती को समुंदर में डूबते हुए देखा। देहली के हुमायूँ बादशाह और सुल्तान मोहम्मद फ़ारूक़ी (ख़ानदेस) की चंद रोज़ा बहार भी आपकी नज़रों से गुज़री। 51 साल के दौर में सुल्तान महमूद सालिस को मीठी नींदी सोते हुए देखा जब आपने ’उम्र की 58 मंज़िलें तै कीं तो सुल्तान अहमद सानी को साबरमती के किनारे मुर्दा पड़ा पाया दुनिया-ए-फ़ानी की ख़िज़ां सत्तर मौसम गुज़रने पर सुल्तान मुज़फ़्फ़र सेउम एक क़ैदी की हैसियत से अकबर के दरबार में खड़ा नज़र आया और उस सदी के इख़्तिताम पर अकबर के जाह-ओ-जलाल का भी नज़ारा किया ।आपने उस ’इल्म-ओ-फ़ज़्ल और कसीर मुक़ल्लिदीन-ओ-मुरीदीन के बावुजूद कभी किसी सियासी काम में दख़्ल नहीं दिया और हुक्काम और ’उम्माल से मिलने की कोशिश की ।आपके आख़िरी ’उम्र में इस क़दर जल्द-जलद सियासी इन्क़िलाबात बरपा हुए और इंसानी ख़ून को जिस तरह बे-दरेग़ बहते हुए मुलाहिज़ा फ़रमाया, क़ुदरती तौर पर आप उससे बे-हद मुतअस्सिर हुए होंगे और दुनिया की इस बे-सबाती ने तसव्वुफ़ में जो रंग-आमेज़ी की होगी उसका अंदाज़ा वही कर सकता है जो इस बादा-ए-’इर्फ़ान का जुर्आ’-कश हो ।ता-हम ज़ाहिर-बीनों के लिए शरह-ए-कलीद-ए-मख़ाज़िन और शरह-ए-जाम-ए-जहाँनुमा एक ऐसा मुसफ़्फ़ा आईना, है जिस में उसकी झलक ब-आसानी देखी जा सकती है।

    अख़लाक़-ओ-’आदात: अख़लाक़ के लिहाज़ से भी आपकी ज़ात अपने हम-’अस्रों से बहुत ’इर्फ़ानी थी। तक़्वा आपका ख़ास शि’आर था और मुश्तबहा उमूर से परहेज़ करना गोया आपकी फ़ित्रत थी आप एहतियात के किसी मौक़ा’ को हाथ से जाने नहीं देते थे। चाहे किसी क़दर भी तक्लीफ़ उठानी पड़े।

    तक़्वा: इसी सबब से आप अपनी ग़िज़ा ख़ुद मेहनत से हासिल करते और अपने वालिद के यहाँ खाने से एहतियात रखते थे ’अर्सा के बा’द आपके वालिदैन को इस मु’आमला की ख़बर हुई और वालिद के इस्तिफ़सार पर आपने ’अर्ज़ किया कि आप क़ाज़ी हैं और बहुत मुम्किन है कि मुलाज़िमीन आपके लेन देन में मुश्तबहा उमूर का ख़याल करते हों।क़ाज़ी साहब ने कहा में हमेशा तक़्वा के साथ ज़िंदगी बसर करता हूँ और हर मु’आमला में कमाल-ए-एहतियात रखता हूँ और ग़ालिबन उसी का सिला है कि तुम्हारा जैसा नूर ऐ’न-ए-ख़ुदा ने मुझे ’इनायत फ़रमाया जो मेरे ही तरह कमाल-ए-मुहतात है।

    हक़-गोईः आपमें हक़-गोई का माद्दा भी बहुत था और कभी-कभी उस के सबब से बड़े-बड़े ख़तरा में मुब्तला हो जाना पड़ता था ।अक्सर औक़ात लोग अपनी अमानतें आपके पास रख जाते और ब-वक़्त-ए-ज़रूरत ले जाते ।इस तरह आपके मकान में क़ीमती अमानतों का ख़ज़ाना जमा’ होगा था ।981 हिज्री में एक ’अजीब वाक़ि’आ ज़ुहूर-पज़ीर हुआ। उस मुहल्ला में एक मुफ़्लिस मुग़ल रहता था जिसकी मुलाक़ात उसी ख़ानवादा की किसी ख़ादिमा से थी। एक दिन उस ख़ादिमा ने इस राज़ से आगाह कर दिया। उस मुग़ल ने कोतवाल-ए-शहर को इस शर्त पर बताने का वा’अदा किया कि उसमें से कोई हिस्सा इसका भी मुक़र्रर किया जाए। कोतवाल-ए-शहर ने अपने वज़ीर (नायब) मीर ’अलाउद्दीन को तहक़ीक़ात के लिए भेजा जिसने मकान से क़ीमती मोती, बेहतरीन जवाहरात, मुरस्सा’ ज़ेवरात और बे-शुमार सोने के सिक्के बरामद किए।वापसी के वक़्त शाह साहब को अपने घोड़े के आगे पैदल दीवान तक लाया और घोड़े के तेज़ चलने से आपको भी ब-तकल्लुफ़ तेज़ी से क़दम बढ़ाने पड़ते। ’अवाम और ख़्वास ने आपकी इस तकलीफ़ को महसूस किया। दीवान में बड़े-बड़े उमरा मौजूद थे, जिनको मुत्लक़ इस वाक़ि’आ की इत्तिला’ थी। चुनाँचे जब मज्लिस के किनारे जनाब शाह साहब पहुँचे तो सय्यद मीरान बुख़ारी, मिर्ज़ा मुक़ीम सय्यद ,’अब्दुर्रहमान और शाह अबू तुराब शिराज़ी वग़ैरा ता’ज़ीमन सब खड़े हो गए और उनको देखकर तमाम उमरा-ए-मुग़ल ने भी तक़्लीद की। सय्यद मीरान बुख़ारी ने जो शाह साहब को इस हाल में देखा तो ग़ैरत से ’अर्क़ ’अर्क़ हो गए फिर जो असल हक़ीक़त मा’लूम हुई तो ग़ुस्सा से शेर की तरह बिफर पड़े।ग़ुस्सा से चेहरा का रंग इस क़दर मुतग़य्युर था कि लोगों ने महसूस किया, जब जनाब शाह साहब से हाकिम ने सवालात करने का इरादा किया तो सय्यद मज़्कूर आपके बग़ल में आकर बैठे रहे ताकि ब-वक़्त-ए-ज़रूरत हर तरह की मदद कर सकें। इन हालात को देखकर हाकिम ने भी सिर्फ़ एक सवाल पर इक्तिफ़ा किया कि मुनादी ने शहर में जो ढिंडोरा पीटा, क्या उस की ख़बर आपको नहीं मिली। मतलब ये था कि सरकार के तरफ़ से ’आम तौर पर मुश्तहर कर दिया था कि कोई बाग़ी को पनाह दे और उस की मदद करे और उसका माल-ओ-असबाब अपने पास रखे, बल्कि इस क़िस्म का तमाम माल सरकारी ख़ज़ाना में दाख़िल करे। आपने इर्शाद फ़रमाया कि अव्वल तो मुझको इस का ’इल्म नहीं है, इसके ’अलावा शरी’अत में ये जाइज़ नहीं है कि अमानत को ज़ाहिर कर के ज़ा’ए किया जाए। हाकिम ने इस जवाब के बा’द आपको रुख़्सत कर दिया। सय्यद हामिद बुख़ारी अपनी ख़ास सवारी पर आपके साथ मस्जिद तक तशरीफ़ लाए और कुछ देर बिठा कर आपको तसल्ली-ओ-तशफ़्फ़ी देते रहे और फिर रुख़्सत हो कर वापस गए। जनाब शाह साहब का क़ल्ब इस ना-गवार वाक़ि’आ से कई दिन तक मुज़्तरिब रहा और दर्स मुल्तवी कर दिया। हालाँकि तदरीस का काम ’उम्र-भर में कभी नाग़ा नहीं हुआ था।

    मुसन्निफ़ ज़फ़र-अल-वाला इस वाक़ि’आ के बा’द लिखता है कि एक नेक-बख़्त आदमी से किसी ने कहा कि तुम्हारा लड़का गिर गया। ये सुनकर उसने बड़ा वावैला मचाया। लोगों ने उसकी तसल्ली के लिए कहा कि वो बहुत ऊँचे से नहीं गिरा है।तब उसने कहा कि अगर वो बहुत ऊँचे से भी गिरता तो मुझे इतनी परवाह नहीं है, मैं तो समझा कि किसी अहलुल्लाह की नज़र से गिर गया। यही हाल इस वाक़ि’आ में हुआ कि वज़ीर मीर ’अलाउद्दीन कुछ ही दिनों के बा’द उसी हाकिम के हाथ से रस्सी से बंधवा कर मारा गया, और वारिसों की फ़रियाद पर ख़ुद क़त्ल हुआ और मिर्ज़ा ’अज़ीज़ जो उस सूबा का हाकिम-ए-आ’ला था मा’तूब-ए-सुल्तानी हो कर एक बाग़ में, गोशा-नशीन हुआ।

    इसी तरह जब 975 हिज्री में चंगेज़ ख़ान (जो ‘इमाद-उल-मुल्क का लड़का था और ’इमादा-उल-मुल्क उमरा-ए-महमूदी में से था) ने मुहर्रम की रस्म ब-ख़िलाफ़-ए-सलातीन-ए-माज़िया के सरकारी तौर पर मनाई, और हर क़िस्म की बिद’अतें जारी कीं और सियाह-ए-मातमी लिबास ज़ेब-तन कर के सर-ओ-पा बरहना ता’ज़िया के साथ बाज़ारों में गशत लगाया, तो बा-वुजूद इस के कि तमाम सादात, ’उलमा और उमरा ने उसको सख़्त ना-पसंद किया और ’अवाम ने उस को बहुत ही बुरा समझा मगर किसी की हिम्मत पड़ी कि उसके ख़िलाफ़ ज़बान खोले।जनाब शाह साहब ही वो शख़्स थे जिन्हों ने ’अवाम-ओ-ख़्वास की तर्जुमानी कर के सदा-ए-एहतिजाज बुलंद की और चूँकि उस वक़्त अहमदाबाद में सिवाए उलूग़ ख़ान के कोई अमीर-ए-बा-असर था इसलिए उलूग़ ख़ान के पास आदमी भेज कर उसकी शिकायत की, चुनाँचे दूसरे ही महीना चंगेज़ ख़ान का काम तमाम कर दिया गया।

    रहम: शाह साहब बड़े रहम-दिल थे।जब कभी ऐसा वाक़ि’आ पेश आता जहाँ आप कुछ कर सकते तो हरगिज़र दरेग़ फ़रमाते।

    एक वाक़ि‘आ : इत्तिफ़ाक़न एक जगह से गुज़रे। एक क़ैदी को क़त्ल के लिए ले जा रहे हैं। उसने आपसे रिहाई के लिए इल्तिजा की और उसकी हालत को मुलाहिज़ा कर के आपने लोगों से तहक़ीक़ात कराई। मा’लूम हुआ कि वाक़’ई ये शख़्स बे-गुनाह है और अस्ल मुज्रिम कोई दूसरा है। चुनाँचे आप फ़ौरन बादशाह-ए-वक़्त से सिफ़ारिश की और बादशाह ने ये कह कर फ़ौरन रिहाई का हुक्म सादिर फ़रमाया कि ये शख़्स तो बे-गुनाह है। इसको तो रिहा होना ही चाहिए लेकिन अगर आप मुज्रिम की सिफ़ारिश फ़रमाते तो भी मैं रिहा कर देता।

    मज़्लूम की दाद-रसी: चूँकि आप फ़ित्रतन रहम-दिल वाक़े’ हुए थे, इसलिए जब कोई मज़्लूम नज़र से गुज़रता और आप उसकी मदद फ़रमा सकते हों तो कभी दरेग़ फ़रमाते और हत्तल-इम्कान उसके साथ सुलूक करने और उसकी हाजत-रवाई में सई’-ए-बलीग़ फ़रमाते। एक मर्तबा कुछ ग़रीब ’औरतें आपके पास हाज़िर हुईं और फ़रियाद की कि मेरे कच्चे मकानात हुक्काम गिरा देना चाहते हैं। हम ग़ैर पक्के ’आली-शान मकानात क्यूँ ता’मीर करें। आपने तमाम हालात सुनकर एक ख़त बादशाह-ए-वक़्त को लिखा जिसको देखकर बादशाह ने उन मकानात को शाही ख़र्च से पुख़्ता ता’मीर करा दिया। इसी तरह जब चंगेज़ ख़ान तवाइफ़-उल-मुलूकी से फ़ाइदा उठा कर 974 हिज्री में अहमदाबाद पर क़ब्ज़ा कर लिया और दौलत-ओ-सल्तनत से मख़्मूर हो कर हरम-ए-सुल्तानी पर दस्त-दराज़ी करनी चाही और बेगमात ने हज़रत शाह साहब से फ़रियाद की तो चूँकि उस वक़्त कोई किसी की सुनता था और हर अमीर सुल्तान की ही गा रहा था। इसलिए दफ़ए’-ज़ुल्म के वास्ते बादशाह-ए-हक़ीक़ी से दु’आ फ़रमाई जो फ़ौरन मुस्तजाब हुई।चंगेज़ ख़ान चंद ही दिनों के बा’द मारा गया और मज़्लूमों ने नजात पाई।

    सलातीन की ’अक़ीदत: उस ख़ानवादा से सलातीन और उमरा को हमेशा से ’अक़ीदत रही। सुल्तान महमूद बेगड़ा ने आपके वालिद-ए-माजिद को चाँपा नीर का क़ाज़ी बनाया और उसके लड़के सुल्तान मुज़फ़्फ़र हलीम ने महज़ फ़र्त-ए-’अक़ीदत के बा’इस चाँपानीर से साथ लाकर अपने महल-ए-शाही के पास ही काम करने को जगह ’इनायत की। उसकी वफ़ात के वक़्त आपकी ’उम्र 22 साल की थी और तलब-ए-’इल्म में मसरूफ़ थे। बहादुर शाह गुजराती ने भी बारहा दु’आ-ए-ख़ैर की इल्तिजा की।

    सुल्तान महमूद सालिस मुत’अद्दिद मर्तबा हाज़िर-ए-ख़िदमत हो कर शरफ़-ए-क़दम-बोसी हासिल कर चुका था। उसके हुस्न-ए-’अक़ीदत का ये हाल था कि एक दफ़ा’ शाह साहब ने चंद मज़्लूमों की फ़रियाद-रसी के बाबत एक ख़त सुल्तान महमूद सालिस को लिखा।उसने ता’मील-ए-इर्शाद के बा’द हुक्म दिया कि “उस ख़त को महफ़ूज़ रखो और ब-वक़्त-ए-तदफ़ीन मेरे सीने पर रखा जाए, शायद यही नजात का बा’इस हो”।

    सुल्तान मुज़फ़्फ़र सेउम जो गुजरात का आख़िरी बादशाह है।मुत’अद्दिद बार हज़रत शाह साहब की ख़िदमत में हाज़िर होता रहा बल्कि बा’ज़ लोगों ने तो यहाँ तक लिखा है कि तख़्त-नशीनी के वक़्त उस की कमर में तल्वार आपही ने बाँधी थी।अकबर बादशाह जब गुजरात आया है तो बावुजूद इसके कि हासिदों ने आपकी तरफ़ से बादशाह मौसूफ़ को बद-ज़न करने में कोई दक़ीक़ा छोड़ा था फिर भी आपसे मिलने के बा’द आपका बे-हद एहतिराम किया और ख़ुसूसन चंद मज़हबी सवालात करने पर जो शाफ़ी जवाब उसको दिया गया उस से तो बहुत ही ख़ुश हुआ। अकबर के बा’द जब जहाँगीर तख़्त-नशीन हुआ और ब-ग़र्ज़-ए-तफ़रीह अहमदाबाद आया तो ख़ुसूसियत से तीन जगह ब-ग़र्ज़-ए-फ़ातिहा-ख़्वानी गया। शाह ’आलम साहब के मक़बरा पर, शैख़ अहमद कट्ठू के मज़ार पर और जनाब सय्यद शाह वजीहुद्दीन साहब की दरगाह पर, उमरा-ए-दौलत भी हमेशा आपके ‘अक़ीदत-मंद रहे। उलूग़ ख़ान जो आख़िरी ताजदार-ए-गुजरात सुल्तान मुज़फ़्फ़र सेउम के उमरा में से था, आपसे बड़ी ’अक़ीदत रखता था, चंगेज़ ख़ान की माँ भी आपकी इरादत-मंद थी। अक्सर औक़ात बेश क़ीमत चीज़ें आपके यहाँ अमानत रखवा दिए थे और वो बरसों आपके पास रहती थीं, इसी तरह शेरा ख़ान बिन ’इतिमाद ख़ान गुजराती वज़ीर सुल्तान मुज़फ़्फ़र सेउम का भी आप पर बड़ा ’एतिमाद था और बारहा उसने भी बेश-क़ीमत अमानत आपके पास रखवाई।’अहद-ए-अकबरी में ख़ान ‘आज़म, और ख़ान-ए-ख़ानाँ मिर्ज़ा ’अब्दुर्रहीम आपका अदब करते थे, बल्कि कहा जाता है कि ख़ान-ए-ख़ानाँ ने कुछ किताबें भी आपसे पढ़ीं और आपसे तरक़्क़ी-ए-मरातिब-ए-’आलिया के लिए दरख़्वास्त की चुनाँचे आपने उस के लिए दु’आ फ़रमाई। आपकी रेहलत के बा’द उमरा-ए-अकबरी में से सादिक़ ख़ान ने जिसको आपसे बड़ी ’अक़ीदत थी आपके मक़बरा की ’इमारत बनवाई। ’अहद-ए-जहाँगीरी का मशहूर अमीर शैख़ फ़रीद ख़ान अल-मुख़ातब ब-मुर्तज़ा ख़ान ने क़ब्र के ऊपर की छतरी तय्यार कराई।

    मस्एला-ए-तक्फ़ीर: ’उलमा का दिल-पसंद और क़दीम शुग़्ल तक्फ़ीर है। जनाब शाह साहब के ’अहद में भी इस शुग़्ल का शौक़ पैदा हुआ। चुनाँचे बा’ज़ लोगों ने सयय्द मोहम्मद ग़ौस ग्वालयरी के मुतअ’ल्लिक़ भी कुफ़्र का फ़तवा शाए’ किया और एक ख़ास महज़र-नामा आपके क़त्ल के लिए तय्यार कर के बादशाह के सामने पेश किया लेकिन जनाब शाह साहब ने सिर्फ़ ये कि उस पर दस्तख़त नहीं किए बल्कि इस क़िस्म की तक्फ़ीर से सख़्त मुख़ालफ़त की और इस मस्अला पर मुफ़स्सल एक रिसाला तहरीर फ़रमाया। छोटी तख़्ती’ पर बीस सफ़हे का क़लमी रिसाला है जिस में इब्तिदाअन फ़िक़्ही किताबों से मस्अला-ए-तक्फ़ीर पर रौशनी डाली है फिर अहादीस से सनदन सबको बयान किया है। आख़िर में सूफ़िया-ए-किराम के अहवाल से बहस की है कि हालत-ए-सुक्र में जो कह जाते हैं वो क़ाबिल-ए-मुवाख़ज़ा नहीं होता और उसकी मुत’अद्दिद मिसालें दी हैं फिर सयय्द मोहम्मद ग़ौस ग्वालयरी की किताब ‘औराद-ए-ग़ौसिया’ पर लोगों ने जो ए’तिराज़ात किए थे उनका जवाब दिया है। उस के ’अलावा हज़ारों फ़तवे आपके क़लम से निकले मगर किसी फ़तवा में आपने इस तरफ़ इशारा नहीं किया।आपका इर्शाद ये था कि किसी शख़्स में सौ बातों में से एक बात भी इस्लाम की हो तो उसको मुस्लिम समझो और किसी कलिमा-गो अहल-ए-क़िबला को काफ़िर कहो।

    ख़ुशामद: ये भी निज़ाम-ए-तिब्बी का एक जुज़ है कि जब कोई शख़्स ’उलूव-ए-हिम्मती से बुलंद मर्तबा पर पहुँचता है तो कुछ लोग उसके मुख़ालिफ़ और कुछ ख़ुशामद करने वाले पैदा हो जाते हैं। जनाब शाह साहब के ’अहद में भी ये दोनों फ़िर्क़े मौजूद थे। मुख़ालिफ़ों ने तो आपको अकबर-ए-आ’ज़म के दरबार तक ब-हैसियत-ए-एक मुज्रिम के बुलवाया और ख़ुशामद करने वालों की आँखों ने आपकी ज़ात में ख़ुदावंदा तअ’ला का जल्वा देखा। चुनाँचे एक साहब तशरीफ़ लाए और आपसे मिलकर बरजस्ता ये शे’र पढ़ा।

    नमी दानम कि ईं ज़ात-ए-वजीहुल-हक़ वद्दीनस्त

    कि या ज़ात-ए-ख़ुदावन्द-ए-तअ’ला सूरत-ए-ईनस्त

    जनाब शाह साहब ने उस से फ़रमाया कि हाल ब-दस्त आर,-ओ-ईं क़ाल-रा ब-गुज़ार”। काश आज-कल के सूफ़िया, मुर्शिदीन भी अपने मुरीदीन को इसी क़िस्म की ता’लीम दिया करें तो बे-’एतिदाली से मुस्लमान अक्सर औक़ात महफ़ूज़ रहें।

    शा’इरी: बहुत कम लोग होंगे जिनको इस की वाक़फ़ियत होगी कि जनाब शाह साहब शा’इर भी थे। “वजही” तख़ल्लुस करते थे और फ़ारसी में शे’र कहते थे। रंग वही सूफ़ियाना वालिहाना है। कोई दीवान तो इस वक़्त तक दस्तियाब नहीं हुआ है लेकिना मुतफ़र्रिक़ बयाज़ों में मुंतशिर कलाम मिलते हैं। चंद शे’र नमूना के लिए दर्ज-ज़ैल हैं।

    सिर्र-ए-वहदत रा ज़बान-ए-दीगर अस्त

    बा-मसीह-ओ-ख़िज़्र हमसरेम मा

    दीगर

    सर देहम दर गिर्य:-ए-चश्म-ए-अश्क-बार-ए-ख़्वेश रा

    बर-कुनम अज़ बख़्त-ए-दिल हर-दम किनार-ए-ख़्वेश रा

    दिल अगर बेगानःशुद अज़ बे-वफ़ा बर मा चे जुर्म

    आदमी न-शनासद अर परवरदिगार-ए-ख़्वेश रा

    उर्दू कलाम: आपकी बेशतर तसानीफ़ तो ’अरबी ज़बान में हैं और कमतर फ़ारसी में। ’अदालत और शाह-ए-वक़्त की ज़बान फ़ारसी होने के बा’इस ’उलमा और शोरफ़ा भी फ़ारसी में बातें करते थे। चुनाँचे शाह साहब के अहल-ए-ख़ानदान भी इसी ज़बान के पाबंद थे लेकिन ब-वक़्त-ए-ज़रूरत मुल्की ज़बान भी इस्ति’माल करते थे। जनाब शाह साहब के इस क़िस्म के कलिमात ब-कसरत मिलते हैं। एक मौक़ा’ पर आपने फ़रमाया “किया हुआ जो भूकों मुआ, भूके मूवे से क्या ख़ुदा को अमरिया (पाया) ख़ुदा के अमर ने की इस्ति’दाद और ही है, एक दफ़ा’ इर्शादा हुआ, मैं कधां (कहाँ) रियाज़त कैती किसी ने कहा कि दुनियादार के मकान पर जाना चाहिए तो आपने फ़रमाया “काहै दुनिया-दार भी आपस में हैं”। एक मर्तबा फ़रमाया “तालिब-ए-कश्फ़ बनो, अपने को क्या कश्फ़ हो या हो ये उस का काम है। हमारा काम तो मश्ग़ूल रहना है कि मुंतज़िर-ए-कश्फ़”। एक-बार फ़रमाया “इस से और क्या ख़ूब है कि इस दुनिया में ये दिल ख़ुदा से मश्ग़ूल हो” रियाज़त के मुतअ’ल्लिक़ एक शख़्स के जवाब में कहते हैं कि तुम्हारी बला रियाज़त करे तुमको इतना काफ़ी है कि नीम-शब बेदार हो एक शख़्स कश्फ़ का तालिब है उसको इर्शाद होता है कि “या नफ़्स के मज़ा की ख़ातिर कश्फ़-ओ-करामात चाहे, वाह-वाह ख़ूब ख़ुदा के तालिब हो।

    जागीर-ओ-मदरसा: शाहान-ए-गुजरात ने आपके ख़ानदान को मुत’अद्दिद मर्तबा वज्ह-ए-म’आश के लिए जागीरें ’इनायत कीं मगर क़ुबूल किया। ख़ुद शाह साहब के साथ भी ये मु’आमला एक मर्तबा पेश आया मगर आपने रदद कर दिया। आपके पाँच साहिब-ज़ादे थे, (1) शाह मोहम्मद जो बुर्हानपुर चले गए थे और वहाँ 992 हिज्री में इंतिक़ाल कर गए (2) शाह हामिद (3) शाह ’अब्दुल वाहिद (मुतवफ़्फ़ा) 1032 हिज्री (4) शाह ’अब्दुल हक़ (मुतवफ़्फ़ा) 1040 हिज्री (5) शाह ’अब्दुल्लाह उनकी विलादत 930 हिज्री में ब-मक़ाम-ए-अहमदाबाद हुई। जनाब शाह साहब की वफ़ात पर अपने बाप की जगह मस्नद-नशीन हुए। ’इल्म-ओ-तक़्वा में अपने पिदर-ए-बुजु़र्ग-वार के नमूना थे। हमेशा दर्स-ओ-तदरीस और इर्शाद-ओ-हिदायत में मश्ग़ूल रहे। 87 बरस की ’उम्र में ब-मक़ाम-ए-अहमदाबाद 1017 में इंतिक़ाल फ़रमाया। उनके बा’द जनाब शाह असदुल्लाह बड़े लड़के जाँनशीन हुए लेकिन जल्द इंतिक़ाल फ़रमा गए।1026 हिज्री में जब जहाँगीर अहमदाबाद आया उस वक़्त जनाब शाह मौसूफ़ के भाई, शाह हैदर साहब सज्जादा थे। जहाँगीर आपसे मिलकर बहुत ख़ुश हुआ। मौज़ा’ बसोदरह और मौज़ा’ बारेजरी औलाद के मआश के लिए ब-तौर-ए-जागीर ’इनायत किया और मौज़ा’ दस्तराल, मौज़ा’ दंताली और मौज़ा’ हरना, मदरसा, ख़ानक़ाह और रौज़ा के अख़राजात के हदिया किया। मदरसा उसी वक़्फ़ से हमेशा चलता रहा। इस मंमब-ए’-फ़ैज़ से हज़ारों तिश्नगान-ए-’इल्म बरसों सैराब होते रहे। मदरसा कब बंद हुआ, इस के मुतअ’ल्लिक़ कोई सहीह और यक़ीनी तारीख़ मा’लूम करने का मेरे पास कोई ज़रिआ’ इस वक़्त नहीं है। इस सिलसिला के जो लोग इस वक़्त मौजूद हैं वो भी अंदाज़न कुछ कह देते हैं। इत्तिफ़ाक़न चंद दिन हुए कि दो दस्तावेज़ मेरी नज़र से गुज़रीं। उन में से एक के मुहर्रिर जनाब सय्यद फ़ैज़ुल्लाह बिन सय्यद असदुल्लाह बिन सय्यद रहमतुल्लाह बिन सय्यद हसन बिन सय्यद ’अब्दुल ’उला बिन सय्यद असदुल्लाह बिन सय्यद शाह ’अब्दुल्लाह बिन हज़रत शाह वजीहुद्दीन हैं। सय्यद फ़ैज़ुल्लाह साहब ने उस दस्तावेज़ के ज़रिआ’ अपनी तमाम जायदाद और ’ओहदा वग़ैरा का मुतवल्ली अपने लड़के सय्यद मोहम्मद शुजा’उद्दीन साहब को बनाया है। उसकी इब्तिदा इन अल्फ़ाज़ से होती है:

    “तौलियत-नामा ब-मुहर-ए-मग़्फ़िरत-ए-मर्तबत हसन मोहम्मद ख़ान मा’रूफ़ ब-’अली मोहम्मद ख़ान मरहूम दीवान-ए-सूबा-ए-साबिक़, वज्ह-ए-मोहर ग़ुलाम हुसैन ख़ान सद्दर-ए-मग़फ़ूर”

    और आख़िर में तारीख़ और तहरीर 16 शव्वाल 1185 हिज्री है और उसके मुफ़्ती सय्यद बदरुद्दीन की जो मुहर है, उस पर 1195 हिज्री कंदा है। इस से मा’लूम हुआ कि अस्ल तहरीर तो 1185 हिज्री की है और उसकी नक़ल मुफ़्ती मौसूफ़ के ’अहद 1195 हिज्री में उस वक़्त ली गई, जब सय्यद फ़ैज़ुल्लाह साहब (मुतवफ़्फ़ा 1189 हिज्री )के बा’द किसी तनाज़’आ के सबब ज़रूरत पड़ी होगी और इसी सबब से ग़ालिबन दीवान सूबा ’अली मोहम्मद ख़ान और ग़ुलाम हुसैन ख़ान सदर को मरहूम और मग़्फ़ूर लिखा है, क्यूँकि मुफ़्ती साहब के अ’हद से पहले ये वफ़ात पा चुके होंगे। मेरा अगर ये क़ियास सही है तो इसके मा’नी ये हुए कि ’अली मोहम्मद ख़ां 1185 हिज्री में ब-क़ैद-ए-हयात थे और गो सरकारी ’ऐतबार से वो दीवान थे मगर लोगों में साबिक़ दीवान कहलाते थे और कार-ओ-बार में अभी तक लोग उनकी मुहर और दस्तख़त से काम निकालते थे। “मिरर्आत-ए-अहमदी” के मुसन्निफ़ का नाम भी ’अली मोहम्मद ख़ान मोहम्मद हुसैन है। उनकी मुहर पर 1164 हिज्री कंदा है वो उसी ’अहद में अहमदाबाद के दीवान थे।अपनी तारीख़ गुजरात में 1174 हिज्री तक के हालात दर्ज किए हैं और उसी किताब के ख़ातिमा से 1174 हिज्री तक उनके ज़िंदा रहना मा’लूम होता है। उस के बा’द से फिर उनकी ज़िंदगी का कोई सुबूत दस्तियाब नहीं हुआ, इस लिए ये क़ियास कर लिया गया कि शायद 1176 हिज्री या 1177 हिज्री में वफ़ात पा गए। ये तौलियत-नामा उनके आख़िरी तहरीर-कर्दा 1176 हिज्री के नौ बरस बा’द का है, इसलिए बहुत मुम्किन है कि उन्हीं के ’अहद का तहरीर कर्दा हो और वो उस वक़्त तक ब-क़ैद-ए-हयात थे। “मिर्आत-ए-अहमदी” में उनका नाम “मोहम्मद हसन” है और उस तौलियत-नामा में “हसन मोहम्मद ख़ान” है।

    इस्म-ए-मोहम्मद के तक़द्दुम-ओ-ताख़्ख़ुर के मुत’अल्लिक़ मिर्आत का ख़याल है कि या तो कातिब के जिल्द-नवीसी का नतीजा है या मुम्किन हो कि मुसन्निफ़ ही के दोनों नाम हों क्यूँकि ये बित्तख़्ख़सीस मा’लूम है कि इस ‘अहद में और कोई दूसरा दीवान मुक़र्रर नहीं हुआ था, क्यूँकि सन 1171 में सूबादार मोमिन ख़ान के चले जाने के बा’द मरहट्टों का क़बज़ा हो गया था अफ़्सोस है कि नक़्ल लेते वक़्त अस्ल में से तमाम मुहरों और दस्तख़तों की नक़ल छोड़ दी अगर उनकी भी नक़्ल होती तो बड़ी आसानी से इस का फ़ेसला हो सकता था। इस तौलियत नामा में जागीर के ज़िम्न में मौज़ा’ बहरतंका (’इलाक़ा मंगोर) और निस्फ़ गाँव “दंताली” (’इलाक़ा वो करोटी) मज़्कूर है जिससे मा’लूम हुआ कि 159 बरस में ताम जायदाद से सिर्फ़ इसी क़दर बाक़ी रह गए। सय्यद फ़ैज़ुल्लाह साहब ’अलवी का इंतिक़ाल 1189 हिज्री में हुआ।दूसरा काग़ज़ भी तौलियत-नामा है। मुहर्रिर का नाम सय्यद शुजा’उउद्दीन बिन सय्यद फ़ैज़ुल्लाह है। सय्यद शुजा’उद्दीन साहब के कोई औलाद-ए-नरीना थी। एक लड़की मुसम्मा बू (बूबू या बी-बी) थी। उसका लड़का या’नी सय्यद शुजा’उद्दीन के नवासा “’अब्दुल्लाह बाबा” के नाम ये तौलियत है जिसके ज़रि’आ मौसूफ़ ने अपनी तमाम जायदाद और ओ’हदा अपने नवासा के हवाले कर दिया है। इस तौलियत-नामा की इब्तिदा इन अल्फ़ाज़ से शुरू’ होती है: तौलियत- नामा ब-मुहर-ए-ईं ख़ादिम-ए-शरा’ शरीफ़-ओ-ब-मुहर-ए-इमारत-ओ-विज़ारत-ए- मर्तबत-ए-शफ़ी’ मोहम्मद ख़ान अल-मुख़ातब ब-’अली मोहम्मद ख़ान दीवान-ए- सूबा-ओ-मुहर-ए-मीर फ़ाय्याज़ुद्दीन सद्दर-ए-ख़ादिम शरा’ शरीफ़। क़ाज़ी शैखुल-इस्लाम ख़ान की मुहर पर 1210 हिज्री कंदा है और आख़िर तहरीर में तारीख़ 11 रमज़ान 1219 हिज्री है।

    मा’लूम होता है कि इस तौलियत-नामा के लिखते वक़्त उसकी नक़्ल अस्ल से ले ली गई है। इन पर ’उलमा-,सूफ़िया, क़ाज़ी, सदरुस्सुदूर, दीवान सूबा के दस्तख़त की नक़्ल मौजूद है।ख़ुद सय्यद शुजा’उद्दीन ’अलवी के मुहरें हैः-

    “अज़ वजीहुल-हक़ मदद ख़्वाहद शुजा’

    जागीर के मुतअ’ल्लिक़ सिर्फ़ मौज़ा’ बहरतंका का ज़िक्र है। सय्यद शुजा’उद्दीन साहब अपने वालिद सय्यद फैज़ुल्लाह साहब के बा’द इस तहरीर के वक़्त तक तीस बरस मुतवल्ली रहे। इस क़लील मुद्दत में मौज़ा’ “दंताली” का निस्फ़ हिस्सा हाथ से निकल चुका था। बहर-हाल इन दोनों तहरीरों के पेश करने का अस्ल मंशा ये है कि हर दो तहरीर में मस्जिद, मदरसा और ख़ानक़ाह का ज़िक्र है और इन्हीं को तौलियत उनके सुपुर्द की गई थी। गो कि ये तहरीर 1219 हिज्री की है लेकिन सय्यद शुजा’ साहब की वफ़ात 1236 हिज्री में हुई है इसलिए यक़ीनी तौर पर कहा जा सकता है कि मदरसा 1236 हिज्री तक क़ाइम था और ग़ालिबन सय्यद शुजा’उद्दीन साहब आख़िरी ’आलिम हैं जिनसे मदरसा को रौनक़ रही।

    कुतुब-ख़ाना-ए-मदरसा:- जनाब शाह साहब का कुतुब-ख़ाना बहुत बड़ा था और शायद ही कोई फ़न ऐसा हो जिसके मुतअ’ल्लिक़ कोई किताब यहाँ हो। ज़माना-ए-हाल के लोग रावी हैं कि उनके बुज़ुर्ग फ़रमाते थे कि मैं ने अपनी आँखों से कुतुब-ख़ाना को देखा है। दो बड़े कमरों में अज़ फ़र्श ता सक़फ़ बे-तर्तीबी और बे-एहतियाती के साथ किताबें भरी थीं। राक़िम-उल-हरूफ़ भी जब 1921 ’ईसवी में उस कुतुब-ख़ाना को देखने गया तो मुत’अद्दिद बड़े-बड़े संदूक़ों में किताबें बे-तर्तीबी से पुर थीं। चंद दिन की पैहम कोशिश के बा’द मैं ने उन किताबों के औराक़-ए-मुंतशिर को मुज्तमा’ कर के बा-तर्तीब रखवा दिया था लेकिन अब 1931 ’ईसवी में वहाँ क्या है कुछ किताबें तो अहबाब की नज़्र हुईं , कुछ किताबों को मुजाविर ने क़ुरआन समझा और कमाल-ए-दानाई से ब-ग़र्ज़-ए-सवाब उन किर्म-ख़ुर्दा किताबों को क़द्द-ए-आदम ज़मीन खोद कर दफ़्न कर दिया। बाक़ी किर्म-ख़ुर्दा किताबें दरिया-ए-साबरमती की नज़्र हुईं। कुछ थोड़ी सी किताबें, जनाब सय्यद पीर हुसैनी साहब मुसन्निफ़ तज़्किरतुल-वजीह और जनाब बड़ा मियाँ साहब मौजूदा मुतवल्ली-ए-दरगाह के पास हैं।

    शाह साहब की तस्नीफ़ात:- आज हम यक़ीनी तौर पर कुछ नहीं कह सकते कि आपकी तसनीफ़ात कुल कितनी थीं लेकिन ’आम तौर पर मशहूर है कि उनकी ता’दाद तक़रीबन तीन सौ है। उन में से एक बड़ी ता’दाद तो ज़ाए’ हो चुकी है और दस्त-बुर्द-ए-ज़माना से जो रह गई हैं, शायद ही कोई उन में से तबा’ हुई।तलाश और तफ़ह्हुस से मुंदर्जा-ज़ैल किताबें दस्तियाब हुई हैं, जो इस वक़्त कुतुब-ख़ाना हज़रत पीर मोहम्मद शाह अहमदाबाद में मौजूद हैं।

    (1) हाशिया ’अलत्तल्वीज

    (2) हाशिया ’अला शर् हिल-मुवाक़िफ़

    (3) शरह-ए- -ए-जहाँनुमा (तसव्वुफ़)

    (4) हाशिया शरह-ए-मुख़्तरिल-तख़्लीस

    (5) अल-रिसालतुस्समात

    (6) रिशाद शरहुल-अशारुद (नह्व)

    (7) हाशिया ’अलल-

    शैख मोहम्मद ग़ौस ग्वालियरी की किताब “क़लीद-ए-मख़ाज़िन पर मुख़्तलिफ़ शरहें लिखी गई हैं। जनाब शाह साहब ने भी एक शरह लिखी है। कुतुब-ख़ाना-ए-मज़्कूर में मुख़्तलिफ़ शरहें मौजूद हैं जिन में से एक शरह ऐसी है कि जिसके मुतअ’ल्लिक़ मुत’अद्दिद वुजूह के बिना पर मेरा ख़याल है कि वो जनाब शाह साहब ही की तस्नीफ़ है। “तौज़ीह-ए-तल्वीह” उसूल-ए-फ़िक़्ह में मशहूर दर्सी किताब है। मुख़्तलिफ़ ’उलमा ने अपने नुक़्ता-ए-नज़र से उसकी शरह और हवाशी तहरीर की हैं। जनाब शाह साहब ने भी एक हाशिया लिखा है।

    हाशिया-’अलत्तल्वीह:- ये किताब इब्तिदा से आख़िर तक ख़त-ए-नस्ख़ में है।इब्तिदाई चार सफ़हे ख़ुश-ख़त और बारीक हर्फ़ों में हैं। बाक़ी मा’मूली, तस्नीफ़ से तक़रीबन सवा सौ बरस बा’द 1120 हिज्री में उसकी किताबत हुई है। इस की इब्तिदा इन जुमलों से होती है:-

    “बिस्मिल्ला-हिर्रहमा-निर्रहीम। रब्बि यस्सिर-व-तम्मिम बिल-ख़ैर, अल-हुर्रु, अल-हमदु-लिल्लाहि रब्बिल-’आलमीन, व-स्सलातु ’अला ख़ैरि-ख़ल्क़िहि मोहम्मद-व-आलिहि-व-अस्हाबिहि अज्मा’ईन” और इख़्तितामी जुमला ये है। “हाज़ा आख़िर-उल-किताब बि-औ’निल-मलिक-उल-वहाब वल-हम्दु-लिल्लाहि ’अला इत्मामिहि इन्नहु वलीउत्तौफ़ीक़ व-बियदिहि अज़्मिनुत्तहक़ीक़” जहाँ-जहाँ अस्ल किताब का हवाला है वहाँ सुर्ख़ी से “क़ौलुहू” लिख दिया है मुख़्तलिफ़ मक़ामात के मुताल’आ से साफ़ मा’लूम होता है कि हर जगह तश्रीह करते वक़्त तलबा के ज़ेहन-नशीन कराने की बे-हद कोशिश की गई है ।मसलन हक़ीक़त-ओ-मजाज़ की बहस में एक जगह साहब-ए-तल्वीह ने लिखा है “फ़-फ़ीहि –नज़रुन ।इस नज़र के पेचीदा मतालिब को जनाब शाह साहब ने “हासिलुन्नज़र” के ’उन्वान से बहुत सहल ’इबारत में तहरीर फ़रमाया है। ताकि तालिब के दिमाग़ पर ज़्यादा बार पड़े फिर उस नज़र का जो जवाब दिया जाता है और उसको तहरीर फ़रमा कर “हासिलुल-जवाब” के ’उन्वान से उसकी तशरीह फ़रमाते हैं। सयय्द शरीफ़ जुर्जानी का इस पर ’एतिराज़ नक़्ल कर के फिर ख़ुद अपना जवाब तहरीर फ़रमाते हैं। इस मिसाल से आप ख़ुद समझ सकते हैं कि जनाब शाह साहब का इस तर्ज़-ए-तहरीर से अस्ल मंशा क्या था और किस तरह अपने मक़सद में कामायाब हुए हैं। ज़ेर-ए-तंक़ीद नुस्ख़ा मुसन्निफ़ के ख़ुद-नविश्ता नुस्ख़ा से मंक़ूल है और हाशिया पर हर जगह तस्हीह की गई है।

    हाशिया ’अललमुवाक़िफ़:- इस मशहूर किताब के मुसन्निफ़ क़ाज़ी ‘अज़्दुद्दीन ’अब्दुर्ररहमान हैं जिसकी शरह ’अल्लामा सय्यद शरीफ़ ’अली बिन मोहम्मद जुर्जानी (मुतवफ़्फ़ा 816 हिज्री) ने की है। फिर मुत’अद्दिद ‘उलमा ने उस पर हवाशी लिखे। हिंद में ज़्यादा-तर मौलाना ’अब्दुल हकीम सियालकोटी का हाशिया राइज है। आज से पचीस बरस क़ब्ल मिस्र से जो नुस्ख़ा शाए’ हुआ था उसमें मुल्ला ’अब्दुल हकीम सियालकोटी के साथ मुल्ला हसन चपली का भी हाशिया है। मौजूदा ज़ेर-ए-तंक़ीद नुस्ख़ा अफ़्सोस है कि आख़िर से नाक़िस है और बड़ा हिस्सा किताब का ज़ाय’ हो गया है। 10/14 इंच तक़्ती’ पर मा’मूली ख़त-ए-नस्ख़ में है। इस की इब्तिदा इन अल्फ़ाज़ से होती है: बिसमिल्ला-हिर्रहमा-निर्रहीम-व-बिहि नस्त’ईन रब्बि व-फ़क़्त फ़-तम्म। अल्हम्दु-लिल्लाहि रब्बिल-’आलमीन वस्सलातु-वस्सलामु ’अला रसूलिही मोहम्मदिन व-’आलिहि-व-अस्हाबिहि अज्म’ईन” और आख़िरी फ़िक़्रा ये है: व-ज़ालिक लि-’इतबारिहि या’नी लि-अह्वालिन यतकल्लफ़ु” ये ग़ैर-मुख़्ततम जुमला निस्फ़ सफ़हा पर ख़त्म हो गया जिससे इस क़दर मा’लूम होता है कि या तो ये किताब इसी क़दर अस्ल नुस्ख़ा से नक़्ल की गई है या बक़िया अज्ज़ा ज़ाए’ हो गए। ख़ुदा जाने इस का कोई दूसरा नुस्ख़ा किसी जगह है भी या हमेशा के लिए मा’दूम हो गया। मत्बू’आ किताब के मुक़ाबला से मा’लूम हुआ कि “अल-मर्सदुर्रबि’ फ़ी इस्बातिल-’उलूमिलज़रूरीया तक है।

    इस बात से तो हर अहल-ए-’इल्म वाक़िफ़ है कि ये किताब ’इल्म-ए-कलाम की मा’रकतुल-’आरा किताबों में से है और इसीलिए इसकी मुत’अद्दिद शरहें और हवाशी लिखे गए। जनाब शाह साहब का तरीक़ा-ए-बयान इस किताब से भी वाज़ेह है। हर जगह हासिल-उल-कलाम-ओ-हासिल-उल-जवाब वग़ैरा के ’उन्वान से मतालिब की तशरीह की है और हर पेचीदा ’इबारत को आसान और सहल तरीक़ा से समझाने की कोशिश की है ।लेकिन जहाँ कहीं ज़ात –ए-वाजिब-उल-वुजूद के मुतअ’ल्लिक़ कोई तज़्किरा जाता है तो अल्फ़ाज़ शानदार और ख़याल बहुत बुलंद हो जाते हैं और साफ़ मा’लूम होता है कि किसी का ज़ौक़ रहबरी कर रहा है मस्लन किताब के इब्तिदा में है:

    सुब्हानह जमालहु ’अन सी सिमतिल-हुदूस

    अत्तग़य्युर-वल-इंतिकाल: अफ़्सोस है कि इस किताब में तो कातिब का नाम है और सन ही तहरीर है कि जिससे ये मा’लूम हो सके कि कब की तहरीर है।

    शरह-ए-जाम-ए-जहाँ-नुमाः- जाम-ए-जहाँ-नुमा तसव्वुफ़ में मशहूर मत्न है। इसके मुसन्निफ़ मोहम्मद बिन ‘इज़्ज़ुद्दीन बिन ’आदिल बिन यूसुफ़ मग़्रिबी मशहूर ब- सीरीन हैं। 785 हिज्री की तस्नीफ़ है। ’आम सूफ़ियों में ये किताब इस क़दर मक़्बूल हुई कि इसकी मुख़्तलिफ़ शरहें लिखी गईं जनाब शाह साहब ने एक शरह तहरीर फ़रमाई है। इस के दो नुस्खे़ इस कुतुब-ख़ाना में मौजूद हैं। पहला नुस्ख़ा किताबी 18/8 तक़ती’ पर है। सुर्ख़ जदवल से महदूद है जहाँ मत्न की अस्ल ’इबारत है वहाँ सुर्ख़ ख़त कशीदा है। ये किताब मुख़्तलिफ़ अहल-ए-’इल्म के हाथों में रही है क्यूँकि मुख़्तलिफ़ अश्ख़ास के हवाशी मौजूद हैं। सबसे ज़्यादा हाशिया मुल्ला अहमद बिन सुलैमान का है जो उस ’अस्र के मशहूर ’उलमा में से हैं। इस की तस्हीह और बा’ज़ हवाशी मुल्ला ’अली पैरो के हैं। मौलवी ’अब्दुल ’अज़ीज़ जनाब शाह साहब के अरशद तलामिज़ा में से हैं। कहीं कहीं उनके भी हवाशी हैं। अगरचे ये नुस्ख़ा कामिल है मगर आख़िरी औराक़ किर्म-ख़ूर्दा होने से मा’लूम हो सका किस सन का है और किस ने लिखा है। ख़त साफ़ ख़ुश-ख़त और नस्ख़ में है। हाशिया मुल्ला अहमद बिन सुलैमान का जो ख़त है, उस से बहुत मुशाबिह है इसलिए अग़लब है कि मुल्ला अहमद ही का लिखा हुआ हो।

    दूसरा नुस्ख़ा 18/8 तक़ती’ पर है और ऐसा मा’लूम होता है कि किसी ने ब-तौर-ए-मुसव्वदा नक़्ल किया है। ये भी कामिल नुस्ख़ा है और जगह-जगह से तस्हीह शुदा है। ये किताब फ़ारसी ज़बान में है और इसकी इब्तिदा इसी तरह होती है:

    “बिस्मिल्ला-हिर्रहमा-निर्रहीम व-बिहि नस्त’ईनु रब्बि यस्सिर-व-तम्मिम बिल-ख़ैर” फिर मत्न की ’इबारत मंक़ूल है जिसकी इब्तिदा यूँ होती है, हम्द बे-हद-ओ-शुक्र बे-हद सज़ा-ए-ज़ाती कि वहदतश मंशा-ए-अहदियत-ओ-वाहिदयत शुद।इस किताब का इख़्तिताम इस फ़िक़्रा पर होता है कि “तर्क-ए-क़ील-ओ-क़ाल-ओ-इस्तिग़राक़ दर हक़ अस्त’’। इस किताब का मौज़ू’ ’इल्मुत्तौहीद है और इसके अबवाब की तक़्सीम मुंदर्जा ज़ैल तरीक़ा से की गई है।

    किताब के दो हिस्से हैं। हर हिस्सा का नाम दाइरा है और हर दाइरा में दो क़ौस और एक ख़त है। दाइरा-ए-अव्वल में मुन्दर्जा ज़ैल मज़ामीन हैं:

    अहदियत, वाहिदयत, ’एतबार, जूद, ’इल्म-ए-शुहूद, नूर, त’अय्युन या तजल्ली-ए-अव्वल।

    दाइरा-ए-दोउम के मज़ामनी हस्ब-ए-ज़ेल हैं:-

    ज़ाहिर-ए-वुजूद (ब-इस्तिलाह-ए-फ़लासिफ़ा-ए-वाजिबुल-वुजूद) ज़ाहिरी ’इल्म (ब-इस्लाह-ए- फ़लसफ़ी-ए मुम्किनुल-वुजूद)

    अफ़्सोस है कि जो शरह जनाब शाह साहब ने लिखी है उसकी इब्तदा में कोई मुक़द्दमा तहरीर नहीं फ़रमाया जैसा कि इब्राहीम शत्तारी जन्नताबादी ने लिखा है। जिसके सबब इस शरह से सिर्फ़ वही फ़ाइदा उठा सकता है जो इस फ़न से कामिल आगाह हो। मज़ामीन के तनव्वो’ और उसके ग़वामिज़ से नाज़िरीन ख़ुद-आगाह हैं, इसलिए बा’ज़ मक़ामात से सिर्फ़ इक़्तिबास देता हूँ जिस से जनाब शाह साहब के तर्ज़-ए-तहरीर का आप ख़ुद अंदाज़ा कर लेंगे। मसलन एक मक़ाम में मत्न की ’इबारत ये है कि “व-अफ़’आल कि शामिल-ए-ज़ाहिर-ए-वुजूद अस्त कि वुजूद वस्फ़-ए-ए-ख़ास ऊस्त-ओ-शामिल-ए-’इल्म-ए-ज़ाहिर अस्त कि इम्कान अज़ लवाज़िम-ए- ऊस्त-ओ-शामिल –ए-हक़ीक़त-ए-इंसान अस्त कि बर्ज़ख़ अस्त, बैनल-इम्कान वल-वुजूब” इस ’इबारत की तशरीह में जनाब शाह साहब ने इन्सान को ख़लीफ़ा-ए-इलाही बहुत मुख़्तसर और जामि’ तरीक़ा से साबित किया है।

    अब अस्ल मस्अला समझने से पहले चंद बातें ज़ेहन-नशीन हो जाएं तो समझने में आसानी होगी। सूफ़ियों के नज़दीक वुजूद-ए-मुत्लक़ का नाम हक़ है और उसीको हक़ीक़तलु-हक़ाइक़ और अहदियत भी कहते हैं। वुजूद-ए-मुत्लक़ जब तंज़ीलात के मर्तबा मे आए तो उसको “ज़ुहूर” कहा जाता है और ये ज़ुहूरात तअ’य्युन-ए-ज़ाती के ’एतबार से शुयून कहलाते हैं जो बे-हिसाब और बे-शुमार हैं इसी को क़ुरान-ए-पाक ने यूँ अदा किया है। “कुल्लु यौमिन हुव-फ़ीशान” और शुयून की मिसाल महसूसात के ज़रि’आ ठीक तुख़्म-ए-शजर की है जिसमें ’अज़ीमुश्शान शजर बनने की क़ाबिलयत मौजूद है। और हक़ीक़त-ए-वुजूद ब-शर्त-ए-शय जो अस्मा-ओ-सिफ़ात हैं, उनको मर्तबा-ए-वाहदियत-ओ-उलूहियत कहते हैं और हक़ीक़त-ए-वुजूद ब-शर्त-ए-ला-शय का नाम अहदियत रखते हैं और हक़ीक़त-ए-वुजूद बशर्त-ए-शय और ब-शर्त-ए-ला-शय हो ऐसी मुसावी अतरफ़ैन-ए- ज़ात को ब-इस्तिलाह-ए-सूफ़िया तजल्ली-ए-अव्वल या तֹ’अय्युन-ए-अव्वल कहते हैं और फ़लासफ़ा ’इल्म या ’अक़्ल-ए-अव्वल और ये तजल्ली-ए-अव्वल ।और ये तजल्ली-ए-अव्वल जब किसी त’अय्युन-ए-जुज़्ई के साथ मख़्सूस हो तो उसको सिफ़त कहते हैं। ’आम इस से कि ये सिफ़त-ए-वुजूदी हो जैसे ’अलीम, क़दीम या सल्बी हो जैसे क़ुद्दूस, सलाम फिर तजल्ली-ए-अव्वल ने ब-त’अय्युन-ए-मख़्सूस-ए-’इल्म, मुरीद, क़ुद्रत, बसीरत, समी’, मुतकल्लिम, हय्य की सूरत इख़्तियार की तो उन सिफ़ात-ए-सबा’ को अइम्मा-ए-सिफ़ात कहते हैं। पस वुजूद-ए-मुत्लक़ जब उन अइम्मा-ए-सिफ़ात के साथ तंज़ीलात का मर्तबा इख़्तियार करे तो पाँच मर्तबों का ज़ुहूर होता है।

    1:- मर्तबा-ए-वाहदियत

    2:- मर्तबा-ए-अर्वाह-ए-मुजुर्दा (’आम-ए-जबरूत)

    3:- दस नुफ़ूस-ए-’आलमा (जैसे-ए-’आलम-ए-मिसाल)

    4:- मर्तबा-ए-शहादत-ओ-हुस्न

    5:- मर्तबा-ए-कौन या’नी इन्सान-ए-कामिल जो महल्ल-ए-मज्मू’ –ए-तनज़्ज़ुलात है”

    इस क़दर समझ लेने के बा’द अब जनाब शाह साहब की तशरीह मुलाहज़ा हो।वहदत, करत, वुजूद की मुख़्तसर बहस के बा’द तीसरे जुमला की तशरीह यूँ फ़रमाते हैं कि उन सूफ़ियों के नज़्दीक अस्मा-ए-इलाही-ए-कुल्ली से मुराद मर्तबा-ए-वुजूद, है जो 28 हैं, जैसे बदी’, बा’इस और इम्कान-ए-वुजूद से मुराद, अस्मा-ए-कौनी हैं, और ये भी 28 हैं जैसे ’अक़्ल-ए-कुल तबी’अत-ए-कुल और वुजूब-ओ-इम्कान के दरमियान जो मर्तबा-ए-वस्त है, उसको ‘बर्ज़ख़’ कहते हैं और यही हक़ीक़त-ए-इन्सानी है क्यूँकि इन्सान तमाम हक़ाइक़-ए-मलक-ओ-मलकूत-ओ-जबरूत को शामिल है और चूँकि इन्सान इस हैसियत, से कि वो कामिल तमाम मरातिब-ए-इलाही और जामे’ तमाम तनज़्ज़ुलात-ए-कौनी का है, इसी सबब से वो नाएब और ख़लीफ़तुल्लाह है और यही मा’नी ख़िलाफ़त-ए-इलाही के हैं। इसी तरह आगे चल कर सफ़हा 9 पर हक़ीक़त-ए-मोहम्मदिया बयान फ़रमाते हुए फ़-कान-क़ाब-क़ौसैन- की जो तशरीह की है वो बे-इंतिहा लतीफ़ है और अहल-ए-ज़ौक़ के लिए बा’इस-ए-हज़ है, जिसे हम ब-ख़ौफ़-ए-तवालत नज़र-अंदाज़ करते हैं।

    हाशिया ’अलल-मुख़्तसरुल-मआ’नी:- ये किताब भी 11/7 तक़ती’ पर है।इस की इब्तिदा इन अल्फ़ाज़ से होती है।

    “बिस्मिल्ला-हिर्रहमा-निर्रहीम क़ौलुहू अदाउहुल-हक़ और इख़्तिताम यूं है “क़ौलहु क-अन्नहु, इब्नुल-हिजा। अश्शैख़ वजीहुद्दीन”

    कातिब का नाम नहीं है। तारीख़ भी नहीं है। फ़क़त इस क़दर लिखा है। फ़ी शहरि-रमज़ान सन मिनल-हिज्रिया-अन्नबविय्या हाशिया पर जा-बजा इस की तस्हीह भी की गई है, जहाँ अस्ल किताब से नक़्ल किया है और उसकी सुर्ख़ी से “क़ौलुहू” के लफ़्ज़ से मुमताज़ कर दिया है, चूँकि मुख़्तसरुल-मआ’नी मुसन्निफ़ा सा’दुद्दीन तक़ाज़ानी मशहूर किताब है जो तल्ख़ीस-उल- मिफ़्ताह की शरह है जिसका ज़िक्र ऊपर चुका है और ’उमूमन मुतवस्सित दर्जा के तलबा उसको पढ़ते हैं, इसलिए इस हाशह में तलबा के लिए सुहूलत ब-हम पहुँचाने की कोशिश की गई है। मआ’नी में मुग़लक़ अल्फ़ाज़ की तशरीह, मतालिब की तौज़ीह का ख़ास ख़याल रखा गया है। इस किताब के मतालिब से ये बात भी साफ़ मा’लूम होती है कि दसवीं और ग्यारहवीं सदी का तरीक़ा-ए-ता’लीम क्या था उस ’अहद में नफ़्स-ए-फ़न पर बहुत कम लोग तवज्जुह करते थे, मुतून की शरहें, शरहों के हवाशी और हवाशी पर हाशिया उस ’अहद का बेहतरीन कारनामा है। मत्न पर ’एतराज़, शरह पर ’एतराज़ और उसका जवाब फिर उस जवाब पर ’एतराज़ और उसका जवाब कहीं फ़-फ़ीहि नज़रुन किसी जगह फ़-तअम्मुल की तशरीह को अस्ल कारनामा समझा जाता था, ज़माना के असर से जनाब शाह साहब ही बहुत मुतअस्सिर नज़र आते हैं और जगह-जगह उसको खोल कर तलबा के फ़हम के मुताबिक़ बयान फ़रमाते हैं। क़ुतुबुद्दीन राज़ी, सा’दुद्दीन तफ़्ता ज़ानी, मीर सय्यद शरीफ़ जुर्जानी ने जो रविश इख़्तियार की, मा-बा’द के तमाम ’उलमा क़दम-ब-क़दम उस की पैरवी करते आए।

    रिशाद शरहुल-इर्शाद:- नह्व में अल-इर्शाद नामी एक किताब क़ाज़ी शहाबुद्दीन बिन शम्सुद्दीन बिन ’उमर ज़ावली दौलताबादी की 860 हिज्री की तस्नीफ़ है। जनाब शाह साहब ने इसकी शरह लिखी है और इस का नाम “रिशाद” रखा है और मशहूर है कि जनाब शाह साहब की ये पहली तस्नीफ़ है। ये किताब मेरी नज़र से नहीं गुज़री। अलबत्ता शाह साहब की शरह “या’नी” रिशाद पर मलिक अहमद बिन मलिक पीर मोहम्मद साहब का हाशिया मुतवस्सित तक़ती’ पर 190 सफ़हे का है। इस से मैं अंदाज़ा करता हूँ कि ग़ालिबन शरह उस से ज़्यादा ज़ख़ीम या कम-अज़-कम उस के क़रीब होगी और ’आम फ़हम होगी।

    हाशिया ’अलल ’अज़्दी:- ये किताब 13/8 तक़ती’ पर ख़त-ए-नस्ख़ मे है।सफ़हात 13 में उस की इब्तिदा “बिस्मिल्ला-हिर्रहमा-निर्रहीम व-बिहि-नस्त’ईन अल-हम्दु-लिल्लाहि-रब्बिल-’आलमीन वस्सलवातु-’अला रसूलिहि-सय्यदिल-ख़ल्क़ि-वल-इंबियाइल-मुर्सलीन क़ौलुहू-व-बिहाज़ल-’एतिबारि-यंदरिजु फ़िल-’अदिल्लतिल-म’ईयत” से होती है और इख़्तिताम इन फ़िक़्रों पर है “फ़-यर्जि’उज़्ज़न-लत्तसदीक़ तम्मत”।

    ये किताब रजब 1010 हिज्री की लिखी हुई है या’नी शाह साहब की वफ़ात के 12 साल बा’द की है। कातिब का नाम “कबीर मोहम्मद बिन शाह मोहम्मद है लेकिन किताब के अंदर ख़त दो क़िस्म के हैं जिससे मा’लूम होता है कि अस्ल किताब से कुछ ज़ाइद हो जाने के बा’द दुबारा तहरीर कराया गाया है।इब्तिदा में और चंद दूसरी जगहों में ख़ुश-ख़त है और आख़िरी सफ़हात में मा’मूली है और यही मा’मूली उनका का तहरीर कर्दा है।सतरें ’उमूमन 20 और 22 हैं। काग़ज़ बारीक और चिकना, अग़लबन अहमदाबादी है

    “अज़दिया” ये चंद सफ़हे का एक छोटा रिसाला फ़न्न-ए-मुनाज़रा में है जिसके मुसन्निफ़ ’अज़्दुद्दीन अहमद (मुतवफ़्फ़ा 756) हिज्री हैं। ये किताब इस क़दर मक़बूल हुई कि मुत’अद्दिद ’उलमा ने इसकी शरहें और फिर शरहों की शरहें लिखीं मा-बा’द के ’उलमा ने फिर उन पर हवाशी का इज़ाफ़ा किया। मुत’अद्दिद शुरूह-ओ-हवाशी इस कुतुब-ख़ाना में मौजूद हैं।

    हनफ़ियाः शरह-ए-’अज़्दिया, मुसन्नफ़ा मौलाना ’इसामुद्दीन

    हाशियाः ’अलल-हनफ़िय्या मुअल्लफ़ा मीर अबुल-फ़तह

    बल्ख़िय्याः हाशिया ’अला हनफ़िय्या मौलाना बाक़िर बल्ख़ी

    फ़रीदियाः हाशिया ’अज़्दिया, मुसन्नफ़ा मौलाना फ़रीदुद्दीन

    हाशियाः अज़दिया मुअल्लफ़ा जनाब शाह वजीहुद्दीन साहब

    हाशिया बैज़ावी: ये हाशिया बे-हद मक़बूल हुआ।दसवीं और ग्यारहवीं सदी में ’अरब-ओ-शाम में आम तौर पर ज़ेर-ए-दर्स था लेकिन फ़िलहाल नायाब है। रौज़तुल-औलिया में दर्ज है कि ये किताब मोहम्मद ’अब्दुल्लाह बिन नासिरुद्दीन ’अब्दुल क़ादिर के पास मौजूद है। मैं जब मद्रास में था तो जद्द-ओ-जिहद के बावजूद भी ये मा’लूम हो सका कि ’अब्दुल्लाह कौन हैं और किस जगह उनका मक़ाम है। अब ख़याल आता है कि शायद ये ’अब्दुल्लाह ’उबैदुल्लाह साहब साबिक़ क़ाज़ी-ए-शहर मरहूम मग़्फ़ूर तो नहीं हैं। क़ाज़ी साहब मौसूफ़ के साहिब-ज़ादे ही इस 'उक़्दा को हल कर सकते हैं जो ख़ुद भी साहिब-ए-ज़ौक़ साहिब-ए-’इल्म और मुत्तक़ी बुज़ुर्ग हैं और मद्रास में काफ़ी असर रखते हैं।

    बहर-हाल इस वक़्त कुतुब-ख़ाना में बैंज़ावी पर जो हाशिया है वो मज़हरुद्दीन मोहम्मद गाज़रूनी का है और शाह साहब ने ब-दस्त-ए-ख़ुद इस को नक़्ल फ़रमाया है। आख़िरी ’इबारत ये है।

    “कुतुबुल-हवाशी ’अला तफ़्सीरिल-बैज़ावी लिलमौला अल-मुहक़्क़िक़ मज़हरुद्दीन मोहम्मद गावज़रूनी”

    इस तरह से जनाब शाह साहब की तहरीर का अस्ली नमूना भी मौजूद है। एक और छोटा सा रिसाला 10/6 तक़ती’ का मेरी नज़र से गुज़रा। उस में कुल बीस सफ़हे हैं। जनाब सय्यद मोहम्मद ग़ौस ग्वालयरी पर जो ’एतराज़ात किए गए थे, उसके जवाब में है। उस के ’अलावा और चंद औराक़ भी मिले हैं जिन में बा’ज़ शरह-ए- मुल्ला का हाशिया है। कुछ औराक़ पर शरह-ए-विक़ाया का हाशिया है।शरह –ए-हिदायतुल-हिकमा पर जो हाशिया था कुछ हिस्सा उसका भी मौजूद है। फ़न्न-ए-अ’रूज़ पर कोई किताब थी। चंद औराक़ उसके भी महफ़ूज़ रह गए हैं। एक मज्मू’आ-ए-औराक़ फ़न्न-ए-मंतिक़ में है और दूसरा नह्व में बा’ज़ ख़ुतूत भी हैं लेकिन सब ना-मुकम्मल।चंद दीगर रसाइल भी काबिल-ए-ज़िक्र हैं।

    1. शरहुल-बसीत लिल-’अलवी:- फ़राइज़ में है। इस की इब्तिदा यूँ होती है:

    “बिस्मिल्ला-हिर्रहमा-निर्रहीम। अल-हम्दु-लिल्लाहि रब्बिल-’आलमीन अस्सलातु-’अलल-अफ़्ज़लि मिन बा’दिहि मोहम्मद व-आलिहि व-अस्हाबिहि अजम’ईन।ख़ुश-क़िस्मती से ये नुस्ख़ा मुकम्मल है। आख़िर के अल्फ़ाज़ ये हैं। “क़द व-क़’अल-फ़राग़ मिन तहरीरि शरहिल-बसीत लि-मौलाना अस्सुल्तान-उल-’आरिफ़ीन बुर्हानुल-मुवहद्दीन हुज्जतुल-’आशिक़ीन शाह वजीहुल-हक़ –ओ-मिल्लति-वद्दीन ।कहीं कहीं हाशिया ’अब्दुर्रहीम साहब का भी है।

    2. हाशिया अल-’अलवी ’अला शरहिन्नुख़बा:- उसूल-ए-हदीस में है।नुस्ख़ा-ए-कामिल है। ख़त इस का नस्ता’लीक़ है। इब्तिदा में है। “बिस्मिल्ला-हिर्रहमा-निर्रहीम अल-हम्दु-लिल्लाहि हमदन युवाफ़ी ने’महु-व-युकाफ़ी मज़ीदह। अल्लाहुम्म-सल्लि ’अला मोहम्मदिन कमालि ज़िक्रिहि अज़्ज़ाकिरून”

    इसका एक नुस्ख़ा नाक़िस अज़ आख़िर कुतुब-ख़ाना दरगाह हज़रत पीर मोहम्मद शाह अहमदाबाद में भी मौजूद है।

    3. हाशिया अत्तल्वीह लिल-’अलवी:- ये ज़ख़ीम किताब है गो कामिल है मगर बोसीदा ब-ख़त-ए-नस्ख़।इसकी इब्तिदा इस तरह की गई है “रब्बि यस्सिर व-तम्मिम-बिल-ख़ैर व-बिहि नस्त’ईन” मुन्दर्जा बाला कुतुब जामे’ मस्जिद मुम्बई के कुतुब-ख़ाना में हैं।

    4. हाशिया ’अला शरह-ए-जामी लिल-’अलवी:- इब्तिदा में एक सफ़हा का मुक़द्दमा है और फिर अस्ल किताब इस तरह शुरू’ होती है “क़ौलुहू -अलहम्दु लि-वलिय्यिहि यवस्सलातु-’अला-नबिय्यिहि। और आख़िर में है कि “क़द तम्मा हाज़िहिल-हाशिया अश्शरीफ़ा -लिमौलाना वजीहुद्दीन ’अला शरहि मौलाना ’अब्दुर्ररहमान जामी अल-काफ़िया फ़ित्तारीख़-अस्साबि’ वल-’इशरून मिन शा’बानिनल-मु’अज़्ज़म फ़ी सन 181 अल-वाहिद वस्समानीना अल्फ़-’अल-यदिल अहक़र ’इबादुल्लाह मोहम्मद ’इनायतुल्लाह बिन ’अब्दुल ’अज़ीज़ व-’अब्दुल लतीफ़”।

    5. रिसाला तर्तीब-ए-अर्कानुस्सलात लिल-’अलवी:- चंद औराक़ ’अरबी ज़बान में हैं। किताब का मंशा नाम से ज़ाहिर है। ये दोनों किताब मुम्बई के मशहूर कौकनी फ़ाज़िल जनाब यूसुफ़ खटखटे साहब बी.ए के ज़ाती कुतुब-ख़ाना में हैं और आख़िरुज्ज़िक्र का दूसरा नुस्ख़ा भरूच में जनाब क़ाज़ी नूरुद्दीन साहब के कुतुब-ख़ाना में भी है मगर आख़िर से नाक़िस है।

    6. वाफ़िया-शरह-ए-काफ़िया:- नाक़िस अज़ इब्तिदा ,वस्त क़ाज़ी साहब मज़्कूर के कुतुब-ख़ाना में है। तक़ती’ मुतवस्सित और किर्म-ख़ूर्दा है।

    7. रिसाला-ए-क़ौशजी फ़िल-हैयत-ए-फ़ारसी:- इस किताब पर हज़रत शाह ’अलवी का हाशिया है। मुख़्तलिफ़ नक़्शे भी हैयत के हैं।बिलकुल बोसीदा और किर्म-ख़ूर्दा है। बस तबर्रुक ही तबर्रुक है। ये भी क़ाज़ी साहब मौसूफ़ के हिस्सा में आया है।

    8. हवाशी ’अलल-मंहल-लिल-’अलवी:- इस के इब्तिदा में है:

    “बिस्मिल्ला-हिर्रहमा-निर्रहीम क़ौलुहू मौरिदुहा मस्दरुहा” ।कुल सफ़े 9 हैं ।ख़त नस्ख़ है। तक़ती’ 12/7 सतरें हैं। पट्टन के मशहूर ख़ानदान जमालुद्दीन क़ुतुब-ओ-मोहम्मद स’ईद क़ुतुब के ज़ाती कुतुब-ख़ाना में ये मौजूद है।

    9. हाशिया ’अला शरह-ए-विक़ाया लिल-’अलवी:- ज़ख़ीम किताब है।मुतवस्सित तक़ती’, ख़त नस्तालीक़, ख़ुश-ख़त है। तक़रीबन छ: सौ सफ़हा होंगे।दरगाह हज़रत पीर मोहम्मद शाह के कुतुब-ख़ाना में ये किताब है। अव्वल आख़िर से नाक़िस है।

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