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तुलसीदासजी की सुकुमार सूक्तियाँ- राजबहादुर लमगोड़ा

माधुरी पत्रिका

तुलसीदासजी की सुकुमार सूक्तियाँ- राजबहादुर लमगोड़ा

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    देखि सीय सोभा मुख पावा, हृदय सराहत बचन आवा।

    जनु बिरंचि सब निज निपुनाई, बिरचि बिश्व कहँ प्रगट दिखाई।

    सुंदरता कहँ सुंदर करई, छबि-गृह दीप-सिखा जनु बरई।

    सब उपमा कबि रहे जुठारी, केहि पटतरिया विदेहकुमारी।

    सिय सोभा हिय बरनि प्रभु, आपनि दसा बिचारि,

    बोले सुचि मन अनुज सन, बचन समय अनुहारि।

    जिन पाठकों ने मेरे उन रामायण-विषय लेखों को देखा होगा, जो कानपुर की ‘प्रभा’ के गत अंकों में प्रकाशित हुए थे, उन्हें स्मरण होगा कि उपर्युक्त पदों के पूर्ववाले पदों में हमारे कुशल कवि ने पहले किस सुंदरता के साथ प्रेमिक्त हो प्रेम की उस चोटी पर पहुँचाया है, जहाँ प्रेमी तथा प्रेमिका के अस्तित्व का वैयक्तित्व अनुभव भी मिट जाता है। शुद्ध प्रेम के इसी दर्जे की संस्कृत में ‘समाधि’ कहते हैं, जो वस्तुतः सर्वोच्च पद है। यहाँ मानुषीय काव्य-सौंदर्य में उसी का प्रतिबिंब है। निस्संदेह प्रेम एक ही है, और लौकिकता एवं अलौकिकता उसी एक प्रेम के दो दर्जे है। तत्पश्चात् कवि उपर्युक्त पदों द्वारा किस सुंदरता से प्रेमिक को धीरे-दीरे निमग्नता के दर्जे से वैयक्तिक अनुभव के दर्जे पर फिर वापस लाता है, ये विविध श्रेणियाँ विचारणीय है। निमग्नता से कुछ नीचे आने पर महाराज राम को सर्वप्रथम सुख का अनुभव हुआ। क्योंकि आँकों ने तो इसी समय सीता को देखा था, अन्यथा इससे पूर्व को द्रष्टा तथा दृश्य एक ही थे, कौन देखे और किसे देखे? अस्तु। तत्पश्चात् वैयक्तित अनुभव से नीचेवाले दूसरे दर्जे पर आकर हृदय-रूपी प्रशंसा का प्रारंभ होता है। कवि प्रथम ही स्पष्ट बतलाता है कि अब भी प्राकृतिक जिह्वा में कथनशक्ति नहीं है। इस विचार-दृष्टि से हृदयोद्गारों का स्पष्टीकरण, जिसे ही संपूर्ण कविता कहनी चाहिए, निमग्नता से उतरकर तीसरे दर्जे पर ही होता है। कविवर शेक्सपियर की स्वगत वार्ताएँ इसी तीसरे दर्जे की हैं, अन्यथा उपर्युक्त निमग्नता एवं अनुभव की श्रेणियाँ कहाँ और कथन-शक्ति कहाँ? यह सत्य ही है--- “Words but half reveal & half conceal the truth within” अर्थात् शब्दों द्वारा आधा सत्य प्रकट होता है और आधा गुप्त ही रहता है।

    अब बताइए, तनिक राम-हृदय-मुख सीता की प्रशंसा सुनें, जिसे तुलसी जैसा महाकवि ही इस सुंदरता से प्रकट कर सकता है। जब कि अन्य कवि तो यही सोचते रहते हैं- ‘होती ज़बाने-दिल तो सुनाते पयामे-दिल’। श्रीराम कहते हैं-

    ‘जनु बिरंचि सब निज निपुनाई।

    बिरचि बिश्व कहँ प्रगट दिखाई।’

    (1) ‘बिरंचि’ और ‘विरचि’ का शब्द-साम्य तथा अनुप्रास अत्यंत रोचक है- विशेषतः ‘विश्व’ शब्द के साथ।

    ‘रचना’ का शब्द एक ओऱ तो कारीगरी के बहुत बढ़िया नमूने के लिये उपयुक्त होता है, और दूसरी ओर यही शब्द विश्व की अनुपम रचना के हेतु भी लाया जाता है। विष्णु (राम) के निमित्त ब्रह्माजी ने स्वभावतः अपने समस्त कौशल-नैपुण द्वारा यह एक सुंदर भेंट निर्माण की है। स्मरण रहे कि यह दृश्य श्रृंगार का है, जिसमें विष्णु का व्यक्तित्व बहुत प्रकट नहीं है, प्रत्युत वही ‘मनोहर राजकुँवरि’ का व्यक्तित्व सामने है। किंतु ऐसे व्यक्तित्व के खयाल से भी सौंदर्य की एक अनुपम प्रतिमा देखकर किसी मनुष्य के दिल में भी ब्रह्मा की कौशल-पूर्ण रचना का ख्याल आना नितांत स्वाभाविक ही है। मैंने विष्णु के आध्यात्मिक व्यक्तित्व की ओर इस कारण संकेत किया है कि पाठकों को यह भूल जाय कि (जैसा मैं पहले कह चुका हूँ) तुलसीजी ज़मीन और आसमान के कुलाबे मिलाते हैं अर्थात् लौकिक तथा अलौकिक प्रेम का साहचर्य निभाते हुए आध्यात्मिकता और मनुष्यता को एक साथ क़ायम रखते हैं। अतः श्रृंगार में भी ईश-प्रेम का ऐसा सुंदर समावेश होता है कि तो श्रृंगारों रंग में ही फर्क आने पाए और सदाचार ही हाथ से जाए।

    (2) ‘विश्व कहँ प्रगट दिखाई’- किसी हिंदी कवि की इस उड़ान की बढ़ी तारीफ़ होती है- ‘प्रेमिका-निर्माण के पश्चात् ब्रह्मा ने जिस कुंड में हाथ धोए वह चंद्रमा हो गया और हाथ धोकर झटक देने से हर बूँद तारा बन गया।’ पर जिस प्रेमिका को बनाने के बाद हाथ धोने की जरूरत पड़े, उसका दोषयुक्त होना भी प्रकट ही है। फिर मूर्ति को एक ओर रखकर फुर्सत से हाथ धोने का ख्याल निमग्नता से कहीं दूर है। कम-से-कम ब्रह्मा की वाचर-दृष्टि से मूर्ति साधारण ही रही होगी- यद्यपि हमारे विचार से वह कितनी ही बढ़िया क्यों हो कि जिसके बचे-खुचे मसाले को हाथों से धो डालने से चंद्रमा तथा तारागण बन गए। पर सूक्ष्म दृष्टि से यह प्रश्न हो सकता है कि अगर रंग और मसाला ख़राब होता, तो हाथ धोने की क्या ज़रूरत थी, और अगर तनिक भी निमग्नता होती, तो हाथ धोने का खयाल ही कब होता? यहां ‘विरचि’ शब्द की क्रियारूपी (जिससे शीघ्रता-पूर्वक एक कार्य से दूसरे कार्य का होना प्रकट हैः से यह स्पष्ट ही है कि ब्रह्माजी को रचकर दिखाने के अतिरिक्त दूसरे काम की फुरसत थी, और थी हाथ धोने की ज़रूरत है।

    एक प्रतिमाकार के विषय में यह बात मशहूर है कि जब प्रतिमा बनकर तैयार हो गई, तो स्वयं प्रतिमाकार निमग्नता की दशा में उससे लपटकर अपने आपको ही भूल गया। पर यहाँ प्रतिमाकार के विचारों की निर्बलता तथा उसकी प्रकृति-पूजा की भावना ये दोनों इतनी स्पष्ट है कि उसे तुलना के निमित्त रखना नितांत अनुचित है। ब्रह्मा की निमग्नता उस निःस्वार्थ एवं स्वाभाविक आनंद से संबंध रखती है, जिसे ध्यान में रखते हुए मिल्टन (Milton) एक जगह लिखता है- ‘हम खुशी में दूसरों का सम्मिलन और दुःख की दशा में एकांतवास चाहते हैं।’ ब्रह्माजी भी अपने कौशल का सर्वोत्कृष्ट नमूना समस्त जगत् को दिखाकर उससे सराहना के इच्छुक हैं, और क्यों हों?

    प्रगट दिखाई- इसी से स्पष्ट सगर्वता के साथ समस्त संसार को अपनी कौशल-पूर्ण रचना दिखलाया फूटा पड़ता है। कविता की कितनी अच्छी उड़ान है। वस्तुतः राम का हृदय उदात्त विचारों से परिपूर्ण था, और इसी कारण उनकी जिह्वा से ऐसे अछूते प्रशंसात्मक वाक्य निकले हैं। इस सगर्वता को योग्यता का स्वाभाविक परिणाम ही समझना चाहिए। कविगण भी इससे अक्षुण्ण नहीं। देखिए ‘ग़लिब’ फ़र्माते है----

    यह मसायले तसव्वुफ़ यह तेरा बयान ग़ालिब।

    तुझे हम वली समझते जो वादहख़्वार होता।

    दाग़ कहते हैं----

    उर्दू हैं जिसका नाम हमीं जानते हैं दाग़

    हिंदोस्ताँ में धूम हमारी ज़बाँ की है।

    अतः कौशल के नमूने की सराहना की इच्छा से दिखलाना नितांत स्वाभाविक है। ज़रा किसी कवि कलाविद को छेड़ दीजिए, और वह सव्यं ही अपने कमाल के नमूने दिखलाना शुरू होगा। सत्य ही कहा है- “The impulse of self expression is the origin of all art.” (स्व. प्रकाशन की भावना समस्त कलाओं की मूलाधार है)। स्वयं परमात्मा की सृष्टि का निर्माण करते हैं, उसमें भी यही रहस्य है।

    विश्व कहँ- एक ब्रह्मांड को नहीं, दो की नही, प्रत्युत संपूर्ण विश्व को। यों तो प्रायः प्रत्येक प्रेमिका अपनी प्रेमिका की अद्वितीयता का दावा करता है, परंतु तुलसीजी ने पुष्प वाटिकावाले दृश्य में स्थान-स्थान पर सीता की प्रशंसा की विविध श्रेणियाँ इस सुंदरता से स्थिर की हैं कि अंत तक पहुँचकर यह दावा अक्षरशः सत्य प्रमाणित हो जाता है। प्रकृत जगत की क्या सभी सुंदर वस्तुएँ, क्या रूप-लावण्यमयी महिलाएँ, यहाँ तक कि सुर-बालाएं भी सीता की समकक्ष नहीं ठहरती। यही नहीं, अपनी काव्य-कल्पना द्वारा ‘छवि-सुधा-पयोनिधि’ को मथकर तुलसीदासजी स्वयं जो लक्ष्मी तैयार करते हैं, उससे भी सीता को कहीं अधिक उच्च स्थान देते हुए कहते हैं कि ऐसी लक्ष्मी की उपमा तनिक-तनिक संकोच के साथ ही सीता से की जा सकती है- सीता की लक्ष्मी से नहीं।

    ऐसी देवी को उत्पन्न कर ब्रह्मा का गर्वान्वित होना कोई आश्चर्य की बात नहीं, तथा संपूर्ण विश्व को दिखलाना भी कुछ अनुमान-विरुद्ध नहीं।

    विरचि, बिरंचि और विश्व में अनुप्रास की छटा भी दर्शनीय है। उसमें ‘च’ की पुनरुक्ति और ‘स’ की प्रयोग-विधि एक विशेष शाब्दिक-आकर्षण पैदा करती है। सब के प्रयोग-प्राबल्य को ध्यान में लाइए। यह कोई चलती हुई बात नहीं है, प्रत्युत ब्रह्मा ने अपने कला-नैपुण्व-प्रदर्शन में कोई कोर-कमर नहीं छोड़ी। ठीक ही था। ऐसा होता, तो रामजी प्रभावित ही क्यों होते? प्राकृतिक तत्व भी हैं, तथा आध्यात्मिक भी-रूप भी है, तथा गुण भी।

    संक्षिप्तता भी कितनी है- (1) नख-शिख-वर्णन में पड़कर एक ओर आचार का अतिक्रमण संभव था (2) अंग की विस्तृत व्याख्या में पूर्ण चित्र का प्रभाव और मुग्धता का मज़ा मिट जाता। (3) अभी तो प्रथम ही दर्शन था, और वह भी मुग्धता की चकाचौंध में। अतः नख शिखावलोकन का अवकाश ही कहाँ मिला?

    निज-निपुणाई- मैं ‘नि’ का अनुप्रास दर्शनीय है। इसके अतिरिक्त ‘निज’ पर विशेष बल दिया गया है। तात्पर्य यह कि ब्रह्मा ने स्वयं अपने कौशल का कोई भाग उटा नहीं रक्खा- उस कौशल का नहीं, जिसे मनुष्य कौशल कहते और समझते हैं। भला मनुष्य ही क्या और उसका कौशल ही क्या? यहाँ तो ब्रह्मा का निजी कौशल है, जिनसे कुशलतर कर्ता कोई क्योंकर हो सकता है?

    सत्य ही है कि जब तक तनिक पार्थक्य हो, रुचि का यथार्थ अनुभव नहीं होता। इसी कारण तो भक्त-जन कहते हैं- ‘पद चहौं निर्बान।’ राजकुमार की मुग्धता आंतरिक प्रेम की मुग्धता भले ही हो, पर वह अभी उसे सौंदर्य की मुग्धता के अनुरूप ही खयाल कर रहे हैं, अन्यथा अपनी वस्तु और विशेषतः अपनी प्रेमिका की समस्त संसार के समीप लाने का ख्याल दिल में पैदा ही होता। अभी वह ‘जनकतनया’ है, ‘विदेहकुमारी’ है, पर प्रेमिका नहीं है। ‘प्रिया’ हने के पश्चात् राम ने प्रशंसा अलंकारों में ही गुप्त है। कहते हैं कि कमल, खंजन इत्यादि आज तेरे चले जाने से इतरा रहे हैं। अभिप्राय यह है कि वे तेरे कपोलों एवं नेत्रों के आगे लजाते थे। शाब्दिक योजना का एक और नयनाभिराम नमूना देखिए। सारे शब्द ऐसे है, जो रुक-रुक कर पढ़े जाते हैं। वाह, किस प्रकार रुक-रुक कर प्रशंसक की जिह्वा राम के हृदय से ये शब्द निकलते होंगे, और स्रष्टा ने वैसा ठहर-ठहर कर और रच-रचकर सीता की सृष्टि की होगी! पाठकों से प्राऱ्तना है कि वे एक-एक शब्द को देखें, परखे और उसेक भीतरी रस को भौंरे की भाँति चखें। समूची प्रशंसा-भर में यही क्रम है, जैसा आगे की चौपाइयों से भी प्रकट होगा। कैसी सूक्ष्म उक्ति है, मानो राम का उदय ठहर-ठहरकर ब्रह्मा के कौशल के अंश को परख रहा है।

    जनु- (उत्प्रेक्षा) निम्न-लिखित व्याख्या की मनोहरता में कवि के कमाल को देखिए—

    इस उपमा में केवल राम के हृदय पर सीता के असाधारण रूप-लावण्य से जो प्रभाव पड़ा है, और उससे उनके अनुभव-पूर्ण हृदय ने जो अनुमान सीता की उत्पत्ति के विषय में किया है, उसी की ओर संकेत है। ‘जनु’ के प्रयोग द्वारा कवि ने किस संपन्नता से इस अनुमान को घटना की वास्तविकता के नीचे ही रक्खा है, अतः अपनी उस कवि-सुलभ उड़ान के लिये गुंजाइश रख ली है। जिसमें आगे चलकर लक्ष्मी की उत्पत्ति की तमाम त्रुटियां बतलाते हुए काव्योपम परिवर्तन के साथ नई रीति पर नई लक्ष्मी बनाने का अवकाश शेष रहे।

    फिर सीता को लक्ष्मी का नहीं, प्रत्युत आदि-शक्ति का अवतार माना है। अगर ‘जनु’ का विभिन्नता-सूचक शब्द उपमा के साथ होता, तो उन श्रेणियों के लिये जिनका उल्लेख सांकेतिक रीति पर उपर्युक्त व्याख्या में हो चुका है, स्थान ही बाक़ी रहता। फिर काव्योपम रीति पर ही यदि अधिकतर स्पष्ट शब्द द्वारा विभिन्नता दिखाई जाती, तो श्रृंगार का मज़ा ही जाता रहता। हृदय की मुग्धता एवं चित्त की एकाग्रता मिट जाती और समय से पूर्व ही समीकरण का प्रादुर्भाव हो जाता।

    परंतु, यह शब्द सांकेतिक रीति पर बतलाता है कि आस्मा में (अप्रकट) राम को सीता के असली व्यक्रित्व का वह ज्ञान है, जिसके कारण यह शब्द भी वैसे ही अकस्मात् निकल गया है, जैसे उनके ‘सुभग अंगों’ में फड़क पैदा हो गई है। बहुधा ऐसा होता ही है कि हम अपने अप्रकट भावों के निमित्त कुछ ऐसे शब्द अकस्मात् ही कह डालते हैं, जिनकी समुचित व्याख्या एवं गुरुता को हम स्वयं ही उस समय नहीं समझते।

    दूसरी ओर श्रृंगार की विचार-दृष्टि से सीता के सौंदर्य की कितनी प्रबल स्वीकृति है कि इतनी प्रशंसा करते हुए भी राम का दिल नहीं भरता ओर प्रशंसा के साथ ‘जनु’ शब्द को रखते हुए मानो उसी समय कहता है कि यह भी केवल अनुमान है और अभी कुछ शेष है। द्वितीय अनुमान में भी जो अभी एक श्रेणी आगे है और जिसे आगामी चौपाई में प्रकट किया गया है, पुनः इसी शब्द का प्रयोग मनोहरता को अधिकतर मनोहर बना देता है।

    यदि उपर्युक्त आध्यात्मिक श्रेणियों को तनिक देर के लिये विस्तृत कर दिया जावे (तथा प्रारंभ में आध्यात्मिक श्रेणियां अप्रकट हैं भी) तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। श्रृंगार की यह विशेषता है कि प्रत्येक प्रेमिक अपनी प्रेमिका को अतुलनीय समझता है और- एक से जब दो हुए तो लुत्फे-यकताई नहीं के विचार से हर्षित होता है।

    सुंदरता कई सुंदर करई। छवि-गृह दीप-सिखा जन् बरई।

    अभी बतलाया गया है कि ‘जनु’ शब्द से मानो राम का दिल यह कह रहा है कि जो प्रशंसा है वह केवल अनुमान ही है, और प्रत्यक्ष के हेतु कुछ गुंजाइश अब भी बाकी है। अगर गुंजाइश हो तो, तो द्वितीय अनुमान तथा इस चौपाई की ज़रूरत भी बाक़ी रहती, पर सत्य तो यह है कि कहाँ प्रियतमा का सौंदर्य और कहाँ उसकी अनुमानात्मक व्याख्या? कुछ तो सदा ही शेष रहेगा। इसी कारण इस चौपाई में भी जनु का ही शब्द उपमा के साथ पुनः प्रयुक्त हुआ है।

    प्रश्न होता है कि आखिर प्रथम अनुमान में क्या कमी थी कि द्वितीय काव्योपम उड़ान की आवश्यकता होती। क्योंकि प्रथम पद की व्याख्या से तो विदित होता था कि यथासंभव श्रृंगार की दृष्टि से वैसी उड़ान समाप्त हो चुकी। हाँ, कदाचित् आध्यात्मिकता की दृष्टि से कुछ शेष रह गया हो।

    पाठकगण! तुलसीजी का यह विचार सूक्ष्मताओं से इतना परिपूर्ण है कि प्रत्येक मनुष्य को उसकी साहित्यिक रुचि एवं प्रौढ़ता के अनासर एख नवीन सूक्ष्मता दृष्टिगत होगी। वस्तुतः प्रथम पद में सीता के सौंदर्य की सीधे ढंग पर कुछ भी प्रशंसा थी, प्रत्युत उनके निर्माता के निमित्त से अनुमान का ही उल्लेख हुआ था। केवल उसी पद के होते, कोई भी वह कह सकता था- ‘ऐसा तो हर चीज़ के लिये जिस पर हमारा दिल आसक्त हो कहा जा सकता है। कोई सौंदर्य-संबंधी बात भी तो कहिए, जिस पर आप इतनी दूर की ले रहे हैं। अन्यथा तुलसीजी पर भी वही अयोग्यता एवं अमसर्थता का दोष लगेगा। आख़िर क्या सुबूत है कि सीता का वाह्य एवं आंतरिक सौंदर्य ऐसा था, जिस पर वस्तुतः स्रष्टा का इतना गर्वान्वित होना उचित कहा जा सकता है।’

    इस पद से लेकर पुष्प-वाटिकावाले दृश्य के अंत तक स्थान-स्थान पर सीता-संबंधी जिन उपमाओं तुलनात्मक विचारों का प्रयोग हुआ है, यहाँ तक कि तुलसीजी ने अपनी काव्य-कल्पना द्वारा एक नवीन लक्ष्मी बनाकर भी उसे सीता से कम ही ठहराया है, यह सब इसी कथन की पुष्टि के निमित्त ही है। कुशल कवि ने अनेक तुलनाओं द्वारा हमको काव्य-कल्पना की उस सूक्ष्म उच्चता तक पहुँचा दिया है, जहाँ तक संसार की कविता कम ही पहुँच सकी है। अगर इस विचार से सीता के प्रशंसा-विषयक पदों को संगृहीत किया जाय, तो उनसे जो गुलदस्ता बनेगा, वह इस काव्य-वाटिका के संरक्षक को साहित्य-जगत् में उच्चतम स्थान दिलाने के लिये पर्याप्त ही होगा।

    परंतु, जहाँ काव्य की दृष्टि से ये समस्त श्रेणियाँ एक दूसरे से उच्चतर होती हुई हमें कविता की उच्चतम श्रेणी पर पहुँचा देती है, वहाँ प्रेम-पूर्ण भाव की व्याख्या की दृष्टि से ये निमग्नावस्था से उतार की श्रेणियाँ हैं। उपर्युक्त पद इस विचार-दृ,टि से उतार की तृतीय श्रेणी है। प्रथम श्रेणी में ‘सुख पाना’ अर्थात् सुख का अनुभव था, द्वितीय में सर्वांगीण प्रभाव और अब तृतीय में सौदर्य के विविध भागों के विवाद का प्रारंभ मानो सौंदर्य के विविध भागों के विवाद का प्रारंभ मानो सौंदर्य का सर्वोग है। ‘सुंदरता’, ‘छबि’ इत्यादि की पृथक्-पृथक् व्याख्या होगी, मानो सौंदर्य के नख-शिख का वर्णन होगा। उपर्युक्त उभय दृष्टि कोणों से तुलना करने में प्रत्येक साहित्य-प्रेमी की उसकी हार्दिक प्रवृत्ति के अनुसार अनैक्य-पूर्ण आनंद ही प्राप्त होता है।

    मेरे एक सुयोग्य मित्र ने एक बार हिंदू-विश्वविद्यालय में मेरे रामायण संबंधी भाषण के समय यह कहा था- “प्रो. बोल्टन ने लिखा है कि शेक्सपियर का यह असत्य पद्यार्ध- “Frailty the name is woman.” “निर्बलता! तेरा ही नाम स्त्री है.” उपमा की दृष्टि से संसार में असाधारण कोटि का है” और उसकी अदिक व्याख्या करते हुए उन महोदय ने यह बतलाया है कि उपमा में उपमान, उपमेय तथा उपमा के कारण इत्यादि के अंतर बराबर देख पड़ते हैं, यह बात नहीं होती कि (Frailty) निर्बलता और (Woman) स्त्रीत्व- ये दोनों पर्याय बन जावें। वस्तुतः इससे हमारे हृदय में संसार-प्रसिद्ध कवि शेक्सपियर के प्रति एक विशेष सम्मान का भाव इतना सम्मानास्पद है, तो उपर्युक्त चौपाई के दोनों पदों में केवल इतना ही कहना पर्याप्त था- “सुंदरता! तेरा नाम सीता है” अथवा “छवि! तेरा नाम सीता है।” (Beauty! Thy name is Sita or Glory, thy name is Sita)

    क्या इसी का साम्य के कारण आप तुलसी और शेक्सपियर को एक ही दर्जा देंगे? पर सच तो यह है कि तुलसीजी इससे अधिक के अधिकारी है और कम से कम इस विचार-दृष्टि से वह शेक्सपियर से आगे बढ़ गए है। तनिक विचार कीजिए, तुलसीजी कहते हैं— “सीता सुंदरता को सुंदरतर करती है।” सीता स्वयं सुंदरता नहीं है, प्रत्यत सुंदरता को सुंदरतर बनाने वाली है। अगर सुंदरता स्याह मखमली ज़मीन है, तो सीता उस पर सोने का काम है! अगर सुंदरता एक सौंदर्य की देवी हैः तो सीता उसकी श्रृंगारकर्त्री है! अगर सुंदरता सोना है, तो सीता उसका कुंदन! संक्षेप में सुंदरता का बनाव, सिंगार, निखार जो कुछ आप कहें, वह सीता है।

    एक बात जो दोनों कवियों की कविता में समानरूपेण विद्यमान है, वह विचारणीय है। वह यह कि दोनों ने abstract noun (विशेषण का नाम) प्रयुक्त किया है। तात्पर्य यह कि जहाँ तक उस विशेषण का अनुमान किसी काव्योपम उड़ान से हो सके, वह सब-का-सब समाविष्ट रहे। सुंदरता और सुंदर की समानता एवं पुनरुक्ति भी दर्शनीय है।

    देखिए एक और है बारीकी। इस पद्यार्ध में ‘जनु’ शब्द नहीं है, यहाँ यह शब्द अवश्य ही बेजोड़ होता, क्योंकि यहां जो वर्णन है, उसमें सुंदरता की कोई हद हो सकती है और उस दृष्टि से सुंदर करने की कोई हद। ये दोनों प्रत्येक मनुष्य को उसकी योग्यता के अनुसार विचार-विषयक उड़ान की आख़िरी हद तक ले जा सकती है। ऐसी दशा में ‘जनु’ शब्द की गुंजाइश कहाँ? पर ज्यों ही द्वितीय पद्यार्ध में उपमा का ध्यान आया कि ‘जनु’ शब्द अपने समस्त सौंदर्य-सहित प्रयुक्त हुआ। क्या कमाल है कि ब्रह्मा की कारीगरी का ध्यान दिलाने वाले पद तक में ‘जनु’ शब्द था, पर यहाँ नहीं है। कारण वही कि सुंदरता एक विशेषण है, जो अपनी परिधि में सीमा-हीन है।

    अभी उतार निमग्नता के खयाली (abstract) दर्जे पर ही है। विशेषण की दुनिया है, विशेष्य की नहीं। हाँ, वर्णन में केवल इतना विस्तार हुआ है कि निर्माता की प्रसन्नता के प्रकटीकरण द्वारा निर्मित वस्तु का विचार होने के स्थान में अब स्वयं वह वस्तु अपनी सुंदरता सहित समीप गई, परंतु अब भी साधारण मनुष्य की विचार-शक्ति के सहायतार्थ कोई उपमा की सीढ़ी नहीं है। वस्तुतः उपमा से भी यही काव्योद्देश्य हुआ करता है कि अन्यों की विचारशक्ति को साहाय्य देकर कवि के विचार तक पहुँचाए। अन्यथा यदि विचार इतना सरस नहीं है कि उसके लिये उपमा की आवश्यकता हो, तो ख़ाहमख़ाह उपमाओं एवं अलंकारों की भरमार केवल व्यर्थ कृत्रिमता है, कविता नहीं। हमारे हृदय में दो व्यक्तियों का ध्यान होता है- एक व्याख्याता और एक वह जिसके लिये व्याख्या की जावे, और इस कारण हम स्वाभाविकतः अपने हृदत विचारों के प्रकटीकरण में भी उपमाओं एवं अलंकारों की खोज करते हैं। संक्षिप्ततः सिद्धांत एक ही है।

    जब उपर्युक्त उभय अनुमानों द्वारा वर्णन की पर्याप्त व्याख्या नहीं हो सकी, तो प्राकृतिक दृश्य की उपमा द्वारा ‘छबि’ और सीता का संबंध दिखलाना आवश्यक हुआ। ‘छबि’, ‘सुंदरता’ से कम दर्जे की है। क्योंकि वह सुंदरता का केवल एख अंश है, जिसे सुंदरता का प्रकाश-मात्र कह सकते हैं। यदि ‘सुंदरता’ पुष्प है, तो ‘छबि’ उसकी पंखडी। इसी कारण तो ‘सुंदरता’ के विस्तार-मूलक विचार के लिये कोई उपमा ‘जनु’ शब्द द्वारा भी मिल सकती थी। ‘छबि’ के लिये उसका मिलना संभव हो गया।

    कैसी सुंदर उपमा है- “जैसे अँधेरे में दीपक की बत्ती जलती है, उसी प्रकार सौंदर्य-रूपी गृह में सीता का प्रकाश है।” मानो ‘छबि’ सीता के सौंदर्य-प्रकाश के सामने उतनी ही स्याह है, जैसे अँधेरा पर दीपक के प्रकाश के सामने। जैसे अँधेरे घर का उजाला दीपक है, वैसे ही छवि-रूपी गृह का उजाला सीता है। कुछ इसी प्रकार मित्रवर ‘सेहर’ जब राजा दुष्यंत का प्रथम-प्रथम शकुंतला के अवलोकन में मुग्ध होना दर्शाते है, तो दोनों का प्रभावित होना यों प्रकट करते हैं---

    वो पर्तवे-खुर से पुरज़िया चाँद।

    यो सायए-मह से मेहर था माँद।

    अर्थात् वहाँ सूर्य (दुष्यंत) के प्रतिबिंब से चंद्रमा (शकुंतला) प्रकाश-पूर्ण था, और यहाँ चंद्रमा की छाया से सूर्य धुँधला हो रहा था।

    पर ‘सेहरजी’ के यह उपमान तथा उपमेय दोनों प्राकृतिक ही हैं, और यहाँ यह विचित्रता है कि तुलना की एक वस्तु अर्थात् ‘छबि’ विशेषण के नामवाले रूप में है, जिसमें उस विशेषण का समस्त भंडार गुप्त है, और फिर भी वह सीता के सामने इस तरह प्रभा-हीन नहीं दिखाई गई, जैसी एक रोशन चीज़ दूसरी के सामने, बल्कि ‘छबि’ सीता के सामने बिलकुल स्याह नज़र आती है। इस अतिशयोक्ति में भी वास्तविक एवं स्वाभाविक बात हाथ से नहीं जाने पाई। ऐसा तो प्रतिदिन देखा जा सकता है कि अधिक प्रकाश-पूर्ण स्थान से कम प्रकाश-पूर्ण स्थान में जाने से पहले एकदम अँधेरा ही दिखता है और फिर कहीं धीरे-धीरे वहाँ के प्रकाश का अनुभव होता है। तुलसीजी के अति रंजन में यह स्वाभाविकता की झलक क़रीब-क़रीब हर जगह मौजूद है और वस्तुतः कविता का श्रृंगार जगह मौजूद है और वस्तुतः कविता का श्रृंगार वही अतिशयोक्ति हो सकती है, जो स्वाभाविकता से नितांत रहित हो। अन्यथा मेरी राय में तो कोरा मुबालगा एक दोष ही है। जब आगे चलकर आपको सीता का वास्तविक व्यक्तित्व (आदि-शक्ति) ज्ञात होगा, तो प्राकृतिक छवि से उनकी यह तुलना अतिशयोक्ति-पूर्ण नहीं, प्रत्युत सत्य ही जान पड़ेगी।

    करई, बरई- में ‘अन्य पुरुष’ वाचक शब्दों के प्रयोग से सीताजी के अल्पवयस्कता-संबंधी श्रृंगारत्मक सरसतर को कितना सरस बना दिया है, और राम का उनकी और होनेवाले अकृत्रिम आकर्षण को कितना उभार दिया है। विशेषतः बरई शब्द साधारण बोलचाल का ऐसा मज़ा दे जाता है कि वायद शायद। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि अभी कवि सीता के व्यक्तित्व के प्राकृतिक परिधि के अंदर स्थिर रखते हुए नाटक संबंधी प्राकृतिक सौंदर्य के दर्पण दिखानेवाले के दर्जे पर हैं, कि उस सौंदर्य को सँवारनेवाला बनकर महाकाव्य की उद्दान के दर्जे पर।

    परंतु उपर्युक्त व्याख्या से यह भी प्रकट है कि आवश्यकतानुसार सूक्ष्म दृष्टि के लिये इस नाटक में भी महाकाव्य की उड़ान के संकेत विद्यमान हैं। परंतु इतने स्पष्ट नहीं कि श्रृंगारी नाटक का मज़ा फीका पड़ जाय और केवल शुष्क सदाचार-मूलकः प्रेरणा की गरम हवा से झुलसती हुई चट्टान ही रह जावे ओर इतनी जड़-वादिता है कि वाद्य सौंदर्य की मुग्धता में वास्तविकता का लोप हो जावे।

    यहाँ किसी ऐसा ईर्ष्या का लेश भी नहीं है, जो आगे चंद्रमा इत्यादि को समानता के संबंध में होगा, और इसलिये सुंदरता वा छवि के साथ तुलना करने में इन दोनों के सौंदर्य का विकास इस रीति पर हुआ है कि ये दोनों ही सीताजी से उसी प्रकार प्रसन्न रहें, जैसे कोई सुंदरी अपनी श्रृंगारकर्त्री से वा कोई मनुष्य अपने गृह-दीपक के आकाश से। मैं प्रथम ही लिख चुका हूँ कि तुलसीजी की श्रृंगार-व्याख्या में लौकिक प्रेम को उस हलचल का पता भी नहीं है, जिससे पाश्चात्य जगत् आकुल हो रहा है। चंद्रमा इत्यादि के साथ समानता में भी केवल प्रेमिका की अद्वितीयता के निश्चय-रूपी आवेश का सुंदर स्पष्टीकरण ही है, जिसे ईर्ष्या तो कदापि नहीं कह सकते। हाँ, ईर्षा की उस मनोहर झलक से व्यक्त कर सकते हैं, जिसका किंचित् भाव इस पद में है---

    एक से जब दो हुए तो तुल्फ़े यकताई नहीं।

    इसलिये तस्वीरे जानाँ हमने खिंचवाई नहीं।

    तुलना का कैसा सुंदर सिद्धांत है कि ‘सुंदर’ और ‘छवि’ के सामने सीताजी बढ़ भी जावे और सुंदरता एवं छवि के तिरस्कार के स्थान में उनकी सौंदर्य-वृद्धि भी हो जावे।

    सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहि पटतरिय विदेहकुमारी।

    (1) कार्लाइल (Carlyle) के कथनानुसार प्रत्येक प्रतिभावान् पुरुष अपने शब्द वा कार्य में अवश्य ही काव्यमय होता है। इसीलिये तुलसीजी ने यह चौपाइयाँ (अर्थात् पवित्र भावों के विचित्र नमूने) महाराज राम की हृदय-रूपी जिह्वा से कहलाई हैं, जिसकी हवस ही ‘ग़ालिब’ के दिल में रह गई। परंतु कितनी सुंदर सूक्ष्मता है कि महारे कवि की ‘पयामे-दिल’ (हद्गत संदेश) के लिये ‘ज़बाने-दल’ मिली भी तो उसके लिये समुचित अलंकार उपमा का मिलना मुशअकिल था, क्योंकि एक तो राम प्रभृति पवित्र व्यक्ति के प्रेम से प्रभावित महारानी सीता-जैसी शारीरिक एवं आत्मिक सौंदर्य की देवी की प्रशंसा के निमित्त अलंकार उपमा का प्रयोग करना और फिर इस प्रकार कि ‘ज़बाने-दिल’ के लिये उचित ही हो! अगर मामूली ज़बान से कहने की ज़रूरत होता, तो ‘फिर भी ज़बान ग़ैर है इसमें कहीं है सोज़’- इत्यादि का बहाना मिल जाता और साधारण उपमाओं से भी काम चल जाता। अलंकार एवं उपमा की खोज जितनी स्वाभाविक है, काठिन्य-प्रिय स्वभाव के लिये उपयुक्त उपमा और अलंकार का मिल जाना उतना ही मुश्किल है। यद्यपि महाराज राम अलंकार एवं उपमा की खोज़ में अपनी सूक्ष्म विचार-शक्ति पर ज़ोर दे रहे हैं, परंतु इस पर कभी तैयार नहीं हैं कि भली-बुरी जैसी भी उपमाएँ मिल जावें, उन्हीं को पर्याप्त समझे। ठीक भी है, जब उपमा वास्तविक चित्र दिलखा सके, तो वह उपमा तथा उसका प्रयोग ही क्या?

    (2) क्या कमाल है कि जहाँ कवि-कल्पना का अंत है (अर्थात् उपमा एवं अलंकार द्वारा किसी को सौंदर्य व्याख्या करना) उस दर्ज को महाराज राम का पवित्र एवं प्रेम-पूर्ण हृदय ओऱ तुलसीजी के काव्य-कौशल तुरंत ही छोड़ देता है। कपल-पुष्प की पंखड़ियाँ की घुड़दौड़ का मैदान बनी हुई थीं, उस प्रेमिका की प्रशंसा के निमितत पर्याप्त नहीं हैं। गुलाब में भी वह रंग कहाँ? संक्षेप में सभी उपमाएँ त्याज्य ही ठहरती है।

    (3) परंतु यदि कवि अकारण ही ऐसी दून की ले, तो भी कविता में अतिशयोक्ति के नाम से वैसा समुचित ही समझा जाता है। पर यहाँ ऐसे कितने ही कारण उपस्थित है, जो इस पद द्वारा असाधारण सरस शब्दों में प्रकट किए गए हैं। पद क्या है, एक दो रुख़ी तस्वीर है। एक ओर कवियों पर किंचित् समालोचनात्मक दृष्टि है, और महाराज राम का दिल कहता है- ‘सब उपमा कवि रहे जुठारी’- सब उपमाएँ कवियों की जूठी की हुई हैं। प्रेमिक का पवित्र प्रेम-पूर्ण हृदय व्यवसायी प्रशंसकों की प्रयुक्त उपमाओं को नहीं लाना चाहता। कवियों के प्रशंसा-गान में वह भावों की वास्तविकता कहाँ? उनके मत में तो प्रत्येक कपोल की गुलाब कमल से उपमा देनी उपयुक्त है। प्रत्येक प्रेमिका को सरी-सी कदवाली कह देना उचित है। प्रयोगाधिक्य ने इस उपमाओं को नीरस बना डाला है। एक पवित्र प्रेमिक का नवीन भावनाओं से भरा हुआ हृदय अफनी प्रियतमा की प्रशंसा के लिये उन्हें कब पसंद कर सकता है?

    (4) पर इस खयाल से कि कहीं यह कवियों की निंदा आचार-संबंधी सीमा का उल्लंघन कर जावे और महाराज राम की न्यायप्रिय प्रवृत्ति पर किसी को आक्षेप का अवसर मिले, तुलसीजी उक्त निंदा को केवल उसी सीमा तक प्रकट करते हैं, जहाँ तक समालोचना संबंधी स्वाभाविक प्रवृत्ति के प्रतिमूल हो सके। देकिए, हमने व्याक्या में ‘पेशेवर (व्यवसायी) तारीफ करनेवाले’ शब्द कवियों के लिये लिख तो दिए, पर असल पद में ऐसा कोई अनिचत शब्द नहीं है। फिर द्वितीय यथार्थ में, ऐसा अनोखा कारण खोजकर रखते हैं कि क्या कहना। पाठकगण, यदि यहाँ कवियों द्वारा प्रयुक्त उपमाएं नीरस होने के कारण छोड़ दी गई हैं, तो दूसरा कारण यह भी है कि यहाँ उपमा देनी है ‘विदेहकुमारी’ से और कविसुल उपमाएँ ‘प्राकृत नारि अंग’ के लिये ही प्रयुक्त हो सकती हैं और हुई हैं।

    इसमें तनिक संदेह नहीं कि प्राकृतिक उपमाएँ चाहे कितनी ही सूक्ष्म एवं सुंदर हों और चाहे वे कमल गुलाब ही क्यों हों, फिर भी वे प्राकृतिक वस्तुओं के लिये ही प्रयुक्त हो सकती हैं। और यहाँ शाब्दिक-योजना की दृष्टि से भी ‘विदेह’ की कन्या और फिर वह भी कुमारी के लिये उपमाओं की खोज अधिकाधिक दुस्तर है। पर तुलसीजी ‘नसीम’ की तरह केवल शाब्दिक-योजना पर ही निर्भरता नहीं दिखाते (जैसे “है चाह बशर की बावली को” इसमें ‘चाह’ और ‘बावली’ केवल शब्द विन्यास की दृष्टि से रक्खे गए हैं। जिस अर्थ में उनकी शाब्दिक-योजना की रोचकता है, उसका विषय के तथ्य से कोई भी संबंध नहीं है) प्रत्युत अर्थ संबंधी योजना भी साथ-ही-साथ बराबर देख पड़ती है।

    महाराज जनक को तो ‘विदेह’ इसी कारण कहते ही थे कि महान् योगी होने से उन्हें अपने शरीर की सुध रहती थी (भगवान् श्रीकृष्ण ने भी अपनी ‘गीता’ में महाराज जनक की आध्यात्मिकता का आदर्श माना है और प्रत्येक मनुष्य को उनके अनुकरण की शिक्षा दी है)। संसार में निवास करते हुए सांसारिक संबंध (भाषा) से पृथक् रहना इन्हीं महापुरुष का काम था। यहीं आध्यात्मिकता आनुवंशिक परंपरा की रीति पर उनकी कन्या सीता को अवश्य ही मिली होगी और इस आध्यात्मिकता का रंग उनके अंग-अंग से प्रस्फुटित होता रहा होगा, क्योंकि आंतरिक भाव का प्रकटीकरण स्वाभाविक ही है। जैसा ‘सुरूर’ जहानाबादी ही कहते हैं कि यदि स्त्री में लज्जा है तो----

    मानूस नहीं शोखिये-रफ्तार कदम से।

    बजते नहीं पाजेब के घुंघरू कभी छम से।

    अतः ठीक ही है कि अगर कमल गुलाब की उपमा वाह्य रंग-रूप के लिये लाई भी जावे, तो उसमें आध्यात्मिकता के प्रकटीकरण की शक्ति कहाँ? अतः यदि कवियों के पास ऐसी उपमाएँ नहीं जिनसे सीता की आध्यात्मिकता स्पष्ट हो सके, तो कोई आश्चर्य नहीं।

    (5) आचरण की दृष्टि से भी यह प्रशंसा कितनी अच्छी है। इसके बदले प्रेमिका के नख-शिख-वर्णन द्वारा निकृष्ट भावनाओं को उत्तेजित किया जाता, श्रृंगारी रंग अत्यंत पवित्र रूप में, अत्यंत सुंदरता के साथस विद्यमान है। कालिदास क्या, ‘सादी’ प्रभृति सदाचार-मूलक कवि भी श्रृंगार-रस की उमंग में आचार-संबंधी सीमा से बढ़ गए हैं। पर हमारा कवि तुलसीदास ही ऐसा है, जो इस कठिन मार्ग से सफ़ाई पद स्वतः कह रहा है- ‘इस तरह जाते हैं देखा पाक-दामन आब में। कैसा पवित्र चित्र है, महाराज राम के दिल का! साधारण हृदय में श्रृंगार की मुग्धता में कितने कुत्सित विचार उत्पन्न होते, चाहे आचार-संबंधी रुकावट के कारण वे प्रकट भी होते, परंतु यहाँ बाह्य तथा आंतरिक दृष्टि से पवित्रता ही पवित्रता है। हृदय में जो श्रृंगारी विचार प्रादुर्भूत हुए, उनमें कितनी सूक्ष्मता है कि व्याख्या नहीं हो सकती। यद्यपि अभी अप्रकट ही सही, पर हैं तो महारानी सीता ‘जगत्-जननी’। यदि इस समय आवेश में कुछ कह जाते, तो संभवतः आगे चलकर मुश्किल पड़ती और यदि श्रृंगार में कुछ कहते, तो मिल्टन (Milton) के काव्य की तरह तुलसी का काव्य भी नीरस रह जाता।

    (6) मेरा तो ऐसा विचार है कि ‘फुलवारी-लीला’ का वर्णन एक प्रकार का ‘क़सीदा’ है, जो सीता के सौंदर्य की प्रशंसा में लिखा गया है। तुलसीजी के काव्य की प्रथम श्रेणी यह थी कि प्राचीन कविता से खोजने पर जो उपमाएँ प्राप्त हुई थीं, उन्हें प्रथक् कर दिया। इसलिये कि उनमें वह सरसता ही नहीं, जिससे सीता की सौंदर्य-रलाघा हो सके।

    (7) सभी उपर्युक्त श्रेणियों से गुज़र-जाने पर ही यह सिद्ध होगा कि वस्तुतः सीताजी ऐसी ही थीं, जिनके लिये ‘सुंदरता कहँ सुंदर करई’ इत्यादि प्रशंसात्मक शब्द समुचित ही प्रतीत हों। अभी तो किंचित् अतिशयोक्ति सी दिखती है। पर यही तो हमारे कवि का कमाल है कि आरंभ में तो कुछ अतिशयोक्ति की पुट देकर श्रृंगार के सरस वर्णन तथा प्रेमिका-प्रेमिका के पारस्परिक आकर्षण तथा परिचय एवं प्रशंसा का रस उत्पन्न कर दिया और फिर किस कवि-सुलभ सुंदरता से हमें आध्यात्मिकता की श्रेणियों पर पहुँचा दिया, जहाँ अगर केवल दार्शनिकता की सहायता से जाते, तो मार्ग कठिन एवं अरुचिकर ही होता। डॉ. ठाकुर का यह कथन सत्य ही है, जिसे उन्होंने एक दार्शनिक सभा के सभापति की हैसियत से कहा था- ‘भारत में दर्शन और कविता एक दूसरे के सथा-ही-साथ दो सगी बहनों के समान ही रहती हैं- योरप की तरह नहीं, जहाँ प्लेटो ने अपनी खयाली शासन-व्यवस्था (Republic) में कवियों की कोई स्थान नहीं दिया। तुलसीजी में यह एक विशेषता है।

    (8) (अ) तुलसीदासजी की सूक्ष्मता पर विचार कीजिए कि सीताजी की समस्त प्रशंसा ‘जनु’ इत्यादि शब्दों द्वारा केवल अनुमान की रीति पर की गई है। उपमाओं ने भी मानो अपनी त्रुटियों को स्वीकार करते हुआ जवाब दे दिया। ठीक है। कवि चाहे अपनी काव्यपम योगय्ता द्वारा कितना ही प्रयत्न करे, और चाहे हृदय भी अपने अंदर ही प्रकटीकरण के हेतु कितनी ही कोशिश करे, फिर भी शब्दों में विषय-तत्व का दिखलाना केवल अनुमान ही की रीति पर होगा। शब्द केवल आधई बात प्रकट करते हैं आधी अप्रकट रखते हैं। स्वयं हृदय भी जब किसी भाषा में प्रकटीकरण करेगा, तो अंतिम निर्णय यही रहेगा- “केहि पटतीरथ।” मानो ‘गालिब’ का यह विचार भी केवल एक अनुमान ही है- “होती ज़बाने-दिल तो सुनाते पयामे-दिल।” ग़ालिब भी विषय की त्रुटियों को मानते हुए कहते हैं---

    “ग़लती हाय मज़ामीं गत पूछ। लोग नाले को रसा बाँधते हैं।”

    (ब) दूसरी विचार-दृष्टि से यदि ‘वचन आवा’ से यह तात्पर्य समझा जाय कि हृदय में भी शाब्दिक प्रकटीकरण उत्पन्न नहीं हुआ, प्रत्युत भावनात्मक प्रशंसा ही है, जिसका अनुभव है और वर्णन नहीं, और यह कवि ने केवल उसकी व्याख्या की है, तो विषय की सूक्ष्मता और बढ़ जाती है।

    (9) परंतु यह ख्याल रहे कि हम महाराज की प्रेम-प्रेमभावनाओं के श्रेणीबद्ध उतार को देख रहे हैं। इसलिये प्राकृतिक वस्तुओं की ओर ख्याल (उपमाओं की खोज के ख्याल से ही सही) का होना लगभग अंतिम श्रेणी हैं और उन भावात्मक उच्चताओं से कहीं नीची है, जिनका उल्लेख हो चुका है। अब उड़ान की उतार प्रेम रुपी आकाश से पृथ्वी की ओर है। चारों ओर की वस्तुओं का ख्याल आया ओर वह निमग्नता विलुप्थ हो गई, जिसमें अपने अस्तित्व और फइर अपनी दशा का भी ज्ञान था। अतः अब द्वितीय पद में ‘आपन दशा’ का ‘विचार’ अत्यंत समयोचित होगा। भावों के व्यक्तीकरण की एक सूक्ष्मता विचारणीय है। जहाँ महाराज प्रेम की एक ही उड़ान में निमग्नता के दर्जे तक पहुँच गए हैं, उसका अनुभव तथा श्रेणी का अनुमान कराने के निमित्त हमें कितनी श्रेणियों को आवश्यक हुई और होगी। इसी कारण सात्विक प्रेम में लोग बहुधा भक्ति को उच्चतर स्थान देते हैं कि असली माशूक का जो परिचय उसके मिलता है जो निमग्नता उसपे होती है, उसके लिये ज्ञान को शतशः प्रयत्न करना पड़ता है।

    (अपूर्ण...)

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    सिय शोभा हिय वरणि प्रभु, आपन दशा विचारि।

    बोले शुचि मन अनुज सन, बचन समय अनुहारि।

    मैं पहले ही कह चुका हूँ कि उपमा की खोज में महाराज का दिल निमग्नता के आदर्श से बहुत ही नीचे उतर आया और तभी अपनी दशा का विचार शुरू हुआ। क्या खूब! ‘हृदय’ की ‘सराहना’ फिर भी भावनाओं के दर्जे पर थी और ‘विचार’ मानसिक विचार होने के कारण उससे निम्नतर कोटि का है। उपर्युक्त प्रशंसा में यह सूक्ष्मता विचारणीय है कि किस प्रकार भावनाओं से मानसिक विचार की ओर उतार होता है और ‘क्यों’ और ‘किसलिये’ का प्रारंभ होता है। परंतु अब से पूर्व कम-से-कम नीची-सी-चीनी मंज़िल पर भी भावनाओं का ही आधिक्य था और विचाराधिक्य इसी दोहे से प्रारंभ होता है। इसके साथ ही कविता में भी उतार है। इस मानसिक विचार ने अंतर पैदा कर दिया अर्थात् महाराज राम के हृदय में ‘आपन दशा’ का ‘विचार’ उत्पन्न हो गया। ‘मैं’ और ‘तू’ में कुछ पार्थक्य तो हो ही चुका था, अब तृतीय व्यक्ति की ओर तुरंत ही ध्यान जाता है और लक्ष्मण से वार्ता आरंभ होती है।

    (1) ‘वरणि’ और ‘विचारि’ की अपूर्ण क्रिया बनावट और उससे भावों में तात्कालिक परिवर्तन का संकेत यहाँ भी विद्यमान है।

    (2) ‘सिय’ और ‘शोभा’ का तथा ‘सिय’ और ‘हिय’ का अनुप्रास अत्यंत मनोहर है।

    (3) ‘सिय’ कैसा छोटा और प्यारा नाम है।

    श्रृंगार में कैसा प्रिय शब्द है। ‘विदेहकुमारी’ इत्यादि वाला उच्च व्यक्तित्व इस छोटे-से सुंदर नाम में विलीन हो गया। क्योंकि उपमा की खोज के ख्याल में काठिन्य-प्रिय मस्तिष्क उसके उपर्युक्त व्यक्तित्व को चाहे जितना भी स्पष्ट करता, पर वस्तुतः इस श्रृंगारी दृश्य में छोटी राजकुमारी सिय ही हमारे सामने पेश की गई है।

    (4) शुद्धाचरण-संबंधी विचार भी दर्शनीय है। कोई अन्य कवि प्रेमिका, प्रियतमा इत्यादि संज्ञावाचक शब्दों को सीता के लिये राम से अवश्य ही प्रयुक्त करा देता। पर क्या मजाल कि तुलसीदासजी की कविता में ऐसी एक भी बात सके। सीता कितनी ही सुंदर सही और राम की अप्रकट भावना कितनी ही दृढ़ सही। परंतु अभी आकस्मिक है और आछार एवं मर्यादा की छाप उस पर नहीं हुई। अतः सीताजी केवल उसी तरह एक वाह्य वस्तु हैं जैसे कोई सुंदर चित्र पुष्प। आकस्मिक अनुभव एवं आचार-संबंधी बंधन का एकीकरण एवं पृथक्करण- दोनों प्रशंसनीय हैं। अर्थात् अभी राम के पवित्र हृदय में केवल सौंदर्य का आभास है और प्रेम-जनित भाव अप्रकट ही है। विवाह के पश्चात् ‘प्रिया’ शब्द सीता के लिये बहुधा प्रयुक्त हुआ है। इससे पूर्णतः प्रकट है कि यहाँ उस शब्द का स्वभाव उपर्युक्त पृथककरण को निभाने के लिये ही है।

    (5) आगामी पदों में तुलसीदासजी ने रामचंद्रजी की जिह्वा से स्वयं भी सीताजी की संक्षिप्त प्रशंसा कराई है और ये शब्द प्रयुक्त कराए हैं- ‘सुख, सनेह, शोभा गुणखानी।’ परंतु अब तक कवि ने असाधारण सुंदरता के साथ केवल ‘सुख’ और ‘शोभा’- इन्हीं दो अंशों की व्याख्या-पूर्ति की है। ‘शोभा’ सौंदर्य गुण का वह भाग है जो अन्यों को अपनी आकर्षण-शक्ति से आकर्षित करता है। इस तरह नज़दीकी बढ़ती जाती है और ‘गुण’ सुंदरता वास्तविकता (absolute and not relative) कि केवल आपेक्षिक, स्वयं ही अनुभूत एवं विश्वसनीय होती जाती है। ईश प्रेम के संबंध से इसी प्रकार प्रेमिका के सौंदर्य को प्रकृत जगत में देखकर असली माशूक के गुणों का अनुभव तथा उस पर विश्वास होना प्रारंभ हो जाता है और तत्पश्चात् ‘समाधि’ की अवस्था उत्पन्न होती है। सच है ‘सत्यं, शिवं, सुंदरम्’ एक ही हैं। Beauty is truth, Truth is beauty और A Thing of beauty is a joy for ever का भी वही अंतिम उद्देश्य है। अतः आगे विचारणीय बात यह है कि ‘गुण’ और ‘सनेह’ की खान होने का विश्वास कहाँ और किस प्रकार शुरू हुआ। परंतु स्मरण रहे कि ये सब श्रृंगार की श्रेणियाँ हैं। ‘सनेह’ और ‘गुण’ का विश्वास उत्पन्न होते ही गुणों के मस्तिष्कीय अन्वेषण के पूर्व ही विश्वास पूर्णरूपेण हो जाता है। अतः ‘चश्मे मजनूँ’ (मजनूँ की आँख) बनकर ‘हुस्ने-लैला’ (लैला के सौंदर्य के अनुभव की आनंद-प्राप्ति भी श्रृंगार की विशेषता ही है।

    हिय वरणि- अभी हृदय-रूपी जिह्वा द्वारा ही वर्णन था। आगे केवल जिह्वा द्वारा किया गया वर्णन इसमें कहीं अधिक नीरस होगा। ऐसा होना ही चाहिए। साधारण जिह्वा में वह संतप्तता, निमग्नता, भाव एवं विचार का सूक्ष्म समावेश कहाँ? सत्य है- ‘फिर भी ज़बान ग़ैर है उसमें कहाँ है सोज़। होती ज़बाने-दिल तो सुनाते पयामे दिल।’ (सोज़= संतप्तता। पयाम= संदेश) अस्तु। दोनों प्रशंसात्मक बातें पेश की गई हैं। विचार कीजिए और कवि के कौशल की सराहना कीजिए। (1) केवल श्रृंगार की विचार-दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि छोटे भाई का संग तथा उसी से वार्ता होने के कारण जरूरत से जियादा रुकावट है। पर विदित रहे कि अन्य निर्णायक पुरुष के समक्ष, चाहे जिस रूप में भी भावों का प्रकटीकरण यथासमय आवश्यक ही है और शब्दों में प्रकटीकरण की योग्यता होने के कारण सदा ही कुछ-न-कुछ अंतर शेष रहेगा। इसके अतिरिक्त ‘कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है’ के अनुसार कुछ पर्दा अनिवार्य ही है।

    निवेदन है कि बहुधा तुलसीदासजी दोहे को विशेष प्रयोजन-वश प्रयुक्त किया करते हैं। यहाँ वे प्रयोजन ये हैं----

    (अ) कविता की सुंदर उड़ान और रामचंद्रजी की हृदय-रूपी जिह्वा द्वारा सुंदर एवं सूक्ष्म व्याख्या के पश्चात् उसके निरीक्षण के निमित्त तथा काव्य-चिन्तना के आराम के लिये ठहराव का काम देता है- मानो उतार की सीढ़ी का एक डंडा बन जाता है।

    (ब) यूनानी-नाटक रचयिताओं के Chorus की भाँति कवि के व्यक्तित्व को समीप लाकर गत बातों की आलोचना उनको संक्षिप्त करते हुए आगे के लिये पहले ही से आनंद का आभास उत्पन्न करता है और हमारे विचार को दूसरी ओर प्रेरित करता है।

    यह प्रथम ही कहा जा चुका है कि तुलसीदासजी के नाटकीय सिद्धातांनुसार कवि निरंतर ही रंगमंच और उपस्थित जनों के दर्मियान व्याख्याता बनकर विद्यमान रहता है और समयानुसार महें चेतावनी देता रहता है कि कहीं हम दुराचार-रूपी गर्त में जाकर गिर पड़े और एक निर्लिप्त भ्रमर की भाँति सदुपदेश-रूपी शुद्ध रस लेते हुए पुष्प के रंग-रूप पर आसक्त होकर कहीं आदर्श-च्युत हो जावें। इसलिये कोई-न-कोई आध्यात्मिक व्यक्तित्व भी दूर, परंतु दृष्टि-सीमा के भीतर ही, एक विचित्र रीति पर उपस्थित रहता है जिसके विषय में यथास्थान अधिक लिखा जावेगा। यहाँ तुलसीदासजी स्वयं ही भक्त कवि की हैसियत से सामने हैं और प्रभु शब्द में उसी की ओर संकेत हैं, जिसकी व्याख्या आगे हैं।

    (हाँ, एक बात यह भी विचारणीय है कि अभी हाल में रोमे रोलाँ, जो फ्रांस के साहित्य में अपना एक विशेष स्थान रखते हैं, की शेक्सपियर-संबंधी समालोचना का अनुवाद “मॉडर्न रिव्यू” में प्रकाशित हुआ है। वे कहते हैं कि “वास्तविकता एवं चिंतना का सम्मिश्रण कराना ही किसी भी कौशल-संपन्न मनुष्य का कर्तव्य है और शेक्सपियर ने इस कार्य को समुचित-रूपेण प्रतिपादित किया है।” परंतु उनको भी इस कथन के हेतु शेक्सपियर-कृत समस्त नाटकों को एकत्रित कर उनसे प्रयोजनीय परिणाम निकालने की आवश्यकता हुई है। उदाहरण के लिये वे अपने लेख के अंत में कहते हैं कि “टेंपेस्ट (Tempest) नामी नाटक में हमें स्थान-स्थान पर आध्यात्मिकता का दर्शन होता है, मानो टेंपेस्ट का पूरा द्वीप ही असलियत से उठकर विचार-जगत् में पहुँच जाता है।”

    यह सत्य ही है। पर एक विचारणीय विशेषता भी है। अगर हमको प्रत्येक नाटक के वाह्य दृश्य में आध्यात्मिक संकेत विचारात्मक प्रेरणा मिले, तो किसे अवकाश है कि रोमे रोलाँ की-सी सूक्ष्म-दृष्टि द्वारा समस्त नाटकों का अध्ययन करके यह परिणाम निकाले कि शेक्सपियर का असली मंशा हमें ऐसी शिक्षा देने का था कि यह जगत केवल एक अभिनय-मंच है और हम केवल उसके अभिनेता तथा यह समस्त जगत् नितांत ही स्वप्नवत् है, इत्यादि, इत्यादि। मेरा तो विचार है कि प्रारंभिक नाटकों के लिखते समय शेक्सपियर को यह ख्याल भी था (जिसे उसने स्वयं स्वीकार किया है) कि नाटककार का काम केवल प्रकृति को दर्पण दिखाना तथा वास्तविकता को पूर्णतः चित्रण कर देना है। परंतु जब उसे अपने दोषों का अनुभव हुआ और उसकी अवस्था भी अधिक हो जाने के कारण उसके रक्त-प्रवाह तथा भावावेश में शांति आने लगी, तब उसे यह खयाल पैदा हुआ। इसीलिये व्याख्याकार लोग शेक्सपियर के जीवन के चतुर्थ भाग और उसकी तत्कालीन रचनाओं को on the height (विकास-काल) के नाम से संबोधित करते हैं। निःसंदेह उसने उस समय अपने पर अधिकार प्राप्त कर लिया था और मानवीयता एवं आध्यात्मिकता तथा वास्तविकता एवं भिन्नता के सम्मिश्रण का उसे पूर्ण विश्वास हो गया था।

    हमारा कवि तुलसी प्रारंभ से ही इसी विश्वासानुसार कार्य करता रहा है और इसी कारण हमें स्थान-स्थान पर मानवीयता एवं आध्यात्मिकता का सम्मिश्रण (जिसे ज़मीन को आसमान के कुलाबे मिलाना लिखा गया है) तथा वास्तविकता एवं चिंतन का सम्मिलन-दृष्टि-गोचर होता है। हमारा कवि कुतुबनुमा (दिशा-सूचक यंत्र) की सुई की तरह और आध्यात्मिक व्यक्तियों (शिव, पार्वती इत्यादि) ध्रुव-नक्षत्र की भाँति इस संसार के कंटकाकीर्ण-पथ में हमारे पथ-प्रदर्शक के समान मौजूद हैं।)

    प्रभु (1) इतने ही संकेत के अतिरिक्त अगर ‘प्रभु’ के व्यक्तित्व को अधिक बढ़ाया जावे, तो श्रृंगार का रंग फीका पड़ जावेगा। कवि भक्त है और उसका अभिप्राय यह है कि हम इस श्रृंगारी दृश्य में आध्यात्मिक आभास को एकदम भूल जावें। पर साथ ही यह भी स्वीकार नहीं है कि उक्त आभास पर अभी से इतना खयाल करें कि श्रृंगार का आनंद ही जाता रहे।

    (2) वस्तुतः इस श्रृंगारी दृश्य में भी राम से ऐसा कोई कार्य नहीं हुआ जिससे उनके ‘प्रभुत्व’ पर कोई आक्षेप हो सके और यही कारण है कि राम को ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहते है। वह आगे स्पष्ट कहते हैं कि ‘मोहिं अतिशय प्रतीत जिय केरी’ अर्थात् मुझे अपने हृदय पर पूर्ण विश्वास है और अगर फिर भी हृदय सीता की और खिंचा जाता है, तो निःसंदेह उसका कारण “विधाता” का कोई अनादि सिद्धांत का आध्यात्मिक उद्देश्य है। बहरहाल सिर्फ किसी प्राकृतिक प्रयोजन बाह्य सौंदर्य के कारण रामचंद्रजी प्रेमासक्त नहीं हुए। यही है मानवीयता एवं आध्यात्मिकता का सम्मिश्रण और वास्तविकता एवं चिंतना का सम्मिलन।

    (3) पर धन्य महारानी सीता! जब तक स्वयं प्रभु को प्रभावित किया, तो क्या किया।

    “आपनि दशा विचारि”- (1) तुलना कीजिए। सीताजी को अपनी दशा का ज्ञान भी सखियों के ख्याल दिलाने से बल्कि भय की ठोकर लगाने से उत्पन्न होगा, जब सब बोल उठेंगी कि “भयउ गहरु सब कहहिं सभीता।” सच है और स्रीत्व में हृदय का शासन होता है। अतः पुरुष अपने भाव एवं विचार का जितना अन्वेषण कर सकता है, उतना स्त्री नहीं कर सकती।

    (2) सांकेतिक रीति पर दूसरे अर्थ में क्या यह “प्रभु” होने का हेतु नहीं है कि उन्हें अनपे भावों पर काबू है। “दूसरे अर्थ” का वाक्य मैने स्वेच्छ से व्यवहृत किया हैः क्योंकि कवि उसे अन्य अर्थ में व्यवहृत कर रहा है और हम केवल श्लेषालंकार के साहाय्य से सांकेतिक रीति पर ही उसके दूसरे अर्थ लगा सकते हैं। परंतु मुख्य अर्थ वही है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है। यहाँ केवल कवि के सांकेतिक विवरण (Suggestiveness) द्वारा दूसरी ओर ख्याल जा सकता है।

    (3) यह भी तुलना के योग्य है कि राम को कितनी जल्दी अपनी दशा का ज्ञान हो जाता है और सीता को कितनी देरी से। स्त्री की निमग्नता देर से उत्पन्न होती है, पर देर तक रहती है।

    बोले- कैसा काव्य-चमत्कार है। राम की हृदय-रूपी जिह्वा ने जैसी विस्तृत व्याख्या की, वैसी सीता से संभव नहीं। वहाँ तो केवल “कहाँ गए नृपकिशोर मन चीता” का ही एक आकस्मिक प्रस्न होगा और कुछ नहीं। तात्पर्य यह कि जितना भावों में आधिक्य एवं तथ्य होता है, उतना ही विवरण कम होता है। व्याख्या-शक्ति एवं वाग्मिता दोनों का संबंध मस्तिष्क से है और अनुभव का संबंध हृदय से। इससे “उर अनुभवतः” की दशा होती है। परंतु वहाँ बोलना कठिन है। प्रत्यत वहाँ तो यही होगा कि “न कहि सक सोऊ” फिर बेचारा कवि उसकी व्याख्या कैसे करे?

    सीता की हृदय-रूपी जिह्वा ने कुछ वर्णन किया और सीता ने जिह्वा द्वारा ही सखियों से कुछ कहा। इसी कारण तो उनकी भावनाओं एवं प्रवृत्तियों की व्याख्या के हेतु सखियों की जिह्वा और कवि की लेखनी की अधिक आवश्यकता हुई।

    शुचि मन- (1) अपवित्रता का विचारों में लेश है और इसलिये कोई अनुचित लज्जा है।

    (2) श्रृंगार-कोप में ऐसे पवित्र प्रेम के उदाहरण हैं ही, पर बहुत कम। सात्विक प्रेम में अधिक लज्जा की आवश्यकता नहीं है, यद्यपि उतनी लज्जा स्वाभाविक है, जिसे कवि ने यों प्रकट किया है- “कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है।” अतः इतनी ही लज्जा यहाँ भी है। राम और लक्ष्मण की बातों उस लज्जा एवं प्रम के मिलन की व्याख्या है। प्रम की गहनता इस धरातल पर प्रकट भी है और वह स्वयं गुप्त भी है। इसीलिये तो इस वार्ता के निमित्त तुलसीजी “बतकही” का प्रयोग करेंगे। सदाचार की दृष्टि से भी कुछ लज्जा आवश्यक है, क्योंकि वार्ता छोटे भाई से है।

    शेक्सपियर के नाटक “टेंपेस्ट” की नायिका मिरैण्डा (Miranda) और कालिदास के संसार-प्रसिद्ध नाटक की नायिका शकुंतला के प्रेम-प्रकाशन की रीति की यहाँ तुलना करने से ज्ञात होगा कि कितना अंतर है।

    (3) तुलसीजी ने मित्र को इसलिये संग नहीं रक्खा, क्योंकि काव्य-जगत् में मितर के साथ ऐसी वार्ता का काफ़ी ज़िक्र है, पर अपने छोटे भाई (व इसी प्रकार के अन्य संबंधी) से प्रेम की व्याख्या किस प्रकार और किस सीमा तक उचित हो सकती है, इसके उदाहरण अल्प ही है।

    (4) मानवी भावों के सूक्ष्मदर्शी व्याख्यातागण जानते है कि इस समय रामचंद्रजी मन के ही दायरे में हैं। आरंभ में यह वाटिका में “मुदित मन” दिखाई दिए थे। इस समस्त अनुभव एवं अवलोकन पर भी उनका मन शुद्ध ही बना हुआ है। यद्यपि मुद्दित का बाह्य चिन्ह जो कदाचित् एक स्वाभाविक मुसकान के रूप में प्रकट रहा होगा, अब भावोद्वेग के कारण गुप्त हो गया, पर आंतरिक निमग्नता का आनंद उससे कहीं अधिक हर्षवर्धक है। “मन सिय रूप लुभान”- बहरहाल हैं सब मन की ही दशाएँ। “बुद्धि” और “आत्मा” का विकाश है, पर “मन” के ही द्वारा।

    अनुज- (1) भाई को साथ रखने का काव्यमय कारण बतलाया जा चुका है।

    (2) यह भी कहा जा चुका है कि आचार-संबंधी परिधि से भावों को बाहर निकलने का अवकाश देने के अभिप्राय से उधर सखियों और इधर लक्ष्मण मौजूद है।

    (3) किसी को संदेह भी हो कि यह मिलन पूर्व निश्चित था। अगर पाश्चात्य उपन्यासों की-सी मुलाकात होती, तो सखियों और लक्ष्मण दोनों स्थान-विरुद्ध होते।

    (4) सच्चे प्रेम को अपने संबंधइयों से छिपाने की ज़रूरत नहीं, और वह एक शुद्ध एवं आकस्मिक भाव होने के कारण छिप ही सकता है और भी अनेक कारण होंगे, जिन्हें पाठकगण स्वयं ही अपनी योग्यतानुसार खोज सकते हैं, पर मुख्य प्रयोजन जिसने “आपन दशा” का “विचार” होते ही लक्ष्मण की उपस्थिति के ख्याल से राम की ज़बान के कफ्ल को खोल दिया, निम्नलिखित है----

    (5) लक्ष्मणजी राम के “अनुज” हैं। अतः राम को कोई ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे उनके अनुयायी पर बुरा प्रभाव पड़े। प्रकट में यह प्रेमिक-प्रेमिका के पारस्परिक अवलोकन (भए विलोधन धारु अचंचल) की मुग्धता तथा हृदय-रूपी जिह्वा द्वारा व्याख्या के समय शारीरिक स्तब्धता- ये सब बातें संभवतः लक्ष्मण पर बुरा प्रभाव डालती और कदाचित् ऐसा विचार उत्पन्न कर देतीं कि प्रेम में यह सभी उचित है। अतः राम को स्वकार्यों की व्याख्या उचित एवं अनिवार्य है जो जिह्वा-प्रयोग के बिना नहीं हो सकती। दूसरे यह कि जैसा मैंने पहले कहा है कि “कस” अर्थात् “अन्य पुरुष” बहुधा समालोचक के रूप में होता है। अतः संभवतः राम के दिल में यह ख्याल रहा हो कि कदाचित् लक्ष्मण के हृदय में छिन्द्रान्वेषण का ख्याल पैदा हो इसलिये सफ़ाई जरूरी है। तुलसीजी की कार्य-शैली कैसी अनुपम है कि जब कभी उन्होंने रामजी से कोई भी स्वप्रशंसा के शब्द प्रयुक्त कराए हैं, तो उन्हें अधिकतर अभियुक्त के रूप में रख दिया है, तो उन्हें अधिकतर अभियुक्त के रूप में रख दिया है कि सफ़ाई में कुछ स्वप्रशंसा अनिवार्य हो जाय और सगर्विता की कोई बात भी मालूम हो। शासन-विधान में भी अभियुक्त को नेकचलनी के सबूत का मौका दिया जाता है। सत्य है कि Self-knowledge, self-reverence & self-control lead man to sovereign power. अर्थात् आत्मज्ञान, स्वाभिमान तथा इंद्रियावसान मनुष्य को महान् शक्तिशाली बना देते हैं। इन तीनों का प्रकटीकरण यहीं से प्रारंभ होता है। परंतु राम का ऐसा ख्याल सिर्फ ख्याल ही है। लक्ष्मणजी उनके “अनुज” हैं और उन्हें अपने बड़े भाई पर पूर्ण विश्वास है तथा उनके हृदय में भ्राता के प्रति प्रेम, सहानुभूति एवं सम्मान के भाव विद्यमान है और इसी कारण उनकी जिह्वा से एक शब्द भी आक्षेप का नहीं निकला। लक्ष्मणजी छिन्द्रान्वेषी उपदेशक बनकर साथ नहीं है, प्रत्युत सहृदय भ्राता बनकर। महाकवि “गालिब” ने ठीक ही लिखा है---

    यह कहाँ की दोस्ती है, कि बने है दोस्त नासेह।

    कोई चारसाज़ होता, कोई ग़मगुसार होता।

    लक्ष्मण की ग़मगुसारी (सहानुभूति) और चारासाज़ी (सहृदयता) के नमूने आगे बहुत आएँगे।

    (6) प्रेम-संबंधी सूक्ष्मताओं के ज्ञाताओं को यह भी विदित हो कि सात्विक प्रेम में आत्मिक संबंध का होना अत्यावश्यक है। कैसी रहस्यमयी घटना है कि राम और लक्ष्मण दोनों साथ हैं, पर सीता का प्रभाव केवल राम पर पड़ता है, लक्ष्मण पर नहीं। रामजी ने सत् ही कहा थी कि “सो सब कारन जान विधाता.....।”

    वचन समय अनुहारि- (1) समय तथा स्थान का विचार वार्ता के लिये आवश्यक ही है। (2) कितना संकोच होना चाहिए और कितनी स्पष्टवादिता। (3) सफ़ाई के लिये किन-किन बातों पर ज़ोर देने की ज़रूरत थी, इत्यादि इत्यादि की व्याख्या कुछ प्रथम ही हो चुकी है और कुछ पद्यबद्ध-वार्ता की व्याख्या में होगी।

    अब तुलसीजी की Xraya वाली व्याख्या की ज़रूरत खत्म हुई और राम की जिह्वा स्वयं ही उनकी व्याख्याता बनी है। कितना उतार है और वस्तुतः यही वह वार्ता विषयक पराकाष्ठा है जो श्रृंगारी कविता का आदर्श है।

    उपर्युक्त प्रशंसात्मक पदों के विषय में निम्न-लिखित बातें भी विचारणीय हैं।

    (1) समस्त प्रशंसा और विशेषतः प्रारंभिक शब्दों में आकस्मिकता की विशेष छटा है- ठीक वैसी ही, जैसा शेक्सपियर के उन शब्दों में जिनके द्वारा उसने हेमलेट (Hamlet) की जिह्वा से अनायास ही यह कहलाया है- I o be or not to be, that is the question- होना अथवा होना, अस्तित्व अथवा अनस्तित्व, भी तो एक विशेष प्रश्न है।

    ऐसा ज्ञात होता है कि मानो राम का हृदय अपनी संकेतमयी अँगुली उठाए विज्ञापन-ज्ञाता की जिह्वा द्वारा एकदम बोल उठा, “जनु विरंचि सब निज निदनाई...।” इसलिये कहीं कर्ता, कहीं कर्म और कहीं वाक्य के अन्य भागों का अभिप्राय अनुभेय ही रह जाता है।

    (2) पूर्ववाले लेखों में बतलाया जा चुका है कि ऐसी निमग्नावस्था में वह प्रशंसा हृदय मंय भीतर ही अधिक उपयुक्त है, जिसका चित्रण कवि की Xrays वाली शक्ति ही कर सकती है। ऐसी Soliloguy (स्वगत-वार्ता) जिसे अम्य सुन सके, उसके लिये अनुपयुक्त है। अतः क्या मजाल कि लक्ष्मणजी भी कुछ सुन सके हों। हाँ, उस निमग्नता का प्रभाव राम के रंग-रूप तथा उनके कार्यों पर पड़ा होगा और लक्ष्मण पर भी वह प्रतिबिंबित हुआ होगा- इन बातों को सुदक्ष अभिनेतागण (actors) वैसा रूप भरकर रंग-मंच पर भली भाँति प्रकट कर सकते हैं। कदाचित् लक्ष्मण के रूप से उनके प्रश्नात्मक विचारों को व्यक्त कर राम ने व्याख्या की है।

    (3) सुंदरता की प्राकृतिक वास्तविकता से “विदेह-कुमारी” के काव्य-पूर्ण चिन्तन की उडान भी दर्शनीय है।

    (4) अंत में “केहि पटतरिय” का स्वयं अपने ही से प्रश्न भी कैसा सुंदर एवं समयोचित है। ऐसे प्रश्नों द्वारा मुग्धता से सहसा सचेत हो जाने के उदाहरण साहित्यिक जगत् में अकसर मिलते हैं।

    रामायण पर एक साहित्यिक नोट

    एक सज्जन ने जो पश्चिमी भारत के निवासी मालूम होते हैं, अमेरिका से “माडर्न रिव्यू” में एक लेख प्रकाशित किया है। लेख का मुख्य उद्देश्य यह प्रमाणित करना है कि देवनागरी-लिपि में बंगाली भाषा ही भारत की राष्ट्र-भाषा हो सकती है। हमें इस समय लेखऔर इस अंग से कोई वास्ता नहीं है। मगर उन महोदय ने तुलसीजी और हिंदी के विषय में जो ऐसा लिखा है कि हिंदी में तुलसीजी ओर हिंदी के विषय में जो ऐसा लिखा है कि हिंदी में तुलसी-कृत रामायण के अतिरिक्त ऐसी कोई अन्य पुस्तक नही नहीं है जो यूनिवर्सिटी में पढ़ाई जा सके और तुलसी की भाष्य ऐसी ही पुरानी हो चुकी है जैसी चासर (Chaucer) की भाषा। इन बातों से मेरा घोर मत-भेद है। जिन्होंने विर्होरी, देव, सूर, भूषण, चंद, रहिमन, जायसी, राजा, रघुराजसिंह इत्यादि के पद्यों का तनिक सा अध्ययन किया है, वे खूब ही जानते हैं कि “नवरतन” रखनेवाली भाषा जिसमें सैकड़ों कवि हो चुके हैं, ऐसी निंदा के योग्य तदापि नहीं है। नवीन युग में भी ललित, पूर्ण, पं. सत्यनारायण, बा. मैथिलीशरण गुप्त, हरिऔध इत्यादि अपने ढंग के सुकवि ही हुए हैं। हिंदी का गद्य-साहित्य तो ऐसा उन्नत हो रहा है कि क्या कहता।

    पर तुलसीजी का अनन्य भक्त होने के कारण मैं उपर्युक्त कथन को देखकर इतना अवश्य कहूँगा कि कम-से-कम तुलसीजी का प्रभाव उन महाशय पर भी पड़े बिना रह सका जो किसी अन्य हिंदी-कवि की कृति को यूनिवर्सिटी कोर्स में रखने योग्य नहीं समझते।

    जो हिंदी-भाषा से तनिक भी अभिज्ञ है, वह जानता है कि तुलसीजी के कितने पद एवं वाक्य (उक्तियाँ) साधारण जनता के कंठाग्र हैं। उसकी भाषा को प्राचीन कहने के बजाय यह कहना अधिक युक्ति-युक्त होगा कि जिस प्रकार शेक्सपियर (Shakespeare) की भाषा ने आंग्ल-भाषा को प्रौढ़ता प्रदान की है उसी प्रकार की बालक, राजा से प्रजा तक- लिखते, पढ़ते, समझते और बोलते हैं। भाषा में किंचित् परिवर्तन होना स्वाभाविक है। तुलसी की रचना तीन-सौ वर्षों से अधिक की हो चुकी, पर उसकी भाषा ऐसी पुरानी नहीं कही जा सकती जैसी चासर (Chaucer) की आंग्ल-भाषा। तुलसी की भाषा तो प्रायः अब भी सर्वसाधारण की ही भाषा है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं।

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