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अमीर खुसरो- पद्मसिंह शर्मा

माधुरी पत्रिका

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    भारतवर्ष में जो अनेक प्रसिद्ध मुसलमान कवि, लेखक और विद्वान् हुए हैं, अमीर खु़सरो उन सब के शिरोमणि थे। स्वर्गीय मौलाना शिबली ने उनकी जीवनी में लिखा है- “हिंदोस्तान में छ: सौ बरस से आज तक , इस दर्जा का जामे'-ए - कमालात नहीं पैदा हुआ और सच पूछो, तो इस क़दर मुख़्तलिफ़ और गुनागूँ औसाफ़ के जामे' (जिसमें इतनी विविध प्रकार की विशेषताएँ हों) ईरान और रूम की ख़ाक (भूमि) ने भी हज़ारों बरस की मुद्दत में दो ही चार पैदा किए होंगे।”

    मिर्ज़ा ग़ालिब की नाज़ुकख़याली मशहूर है, उन की परख और नज़र बहुत ऊँची थी, वह अमीर खु़सरों के सिवा किसी हिंदोस्तानी फ़ारसी-लेखक या कवि के क़ायल नहीं थे, केवल खु़सरों ही को आदर्श मानते थे। उन्होंने किसी विवादास्पद प्रसंग में अपने एक मित्र को लिखा है—

    “मैं अहल-ए-ज़बान का पैरो (अनुयायी) हूं और हिन्दियों में सिवा अमीर खु़सरो देहलवी के सब का मुनकिर (न माननेवाला) हूँ।” यही बात उन्होंने फिर एक दूसरे पत्र में लिखी है---

    “ग़ालिब कहता है कि हिंदोस्तान के सुख़नवरों (कवियों) में अमीर-ख़ुसरों देहलवी के सिवा कोई उस्ताद मुसल्लिम-उल् सबूत (माननीय प्रामाणिक विद्वान्) नहीं हुआ।” ग़ालिब को जानने वाले जानते हैं कि इस सम्मति का कितना महत्व और मूल्य है। वह व्यक्ति सचमुच धन्य है, जिसे ग़ालिब इस तरह सराहते हैं! फ़ारस के विद्वानों में भी अमीर खु़सरों की मुक्तकंठा से प्रशंसा की है, उनकी उस्तादी के सामने सिर झुकाया है। ख़ुसरो फ़ारसी ही के नहीं, अन्य कई भाषाओं के भी पारंगत विद्वान् थे। गान-विद्या के भी वह आचार्य थे। बहुत से नए राग और रागनियाँ उन के बनाए हुए मशहूर हैं। वीणा का परिवर्तित रूप सितार उन्हीं की ईजाद है। इस के अतिरिक्त वह एक शूर-वीर सैनिक भी थे। शस्त्र-विद्या उन की कुल-विद्या थी। वह उम्र-भर शाही दरबारों में बड़े-बड़े पदों पर रहे। उन्होंने 11 बादशाहों को दिल्ली के तख़्त पर उतरते और बैठते देखा, और 7 बादशाहों के स्वयं दरबारी रहे। इस प्रकार रात-दिन राजसेवा में संलग्न रहते हुए जितनी साहित्य-सेवा ख़ुसरों ने की, उसे देख कर आश्चर्य होता है। बड़े-बड़े एकांत-सेवी साहित्य सेवी भी इतना कर सके होंगे। बाईस-तेईस ग्रंथों के अतिरिक्त हज़ारों फुटकर पद्य भी उनके प्रसिद्ध है। उनके पद्यों की संख्या कई लाख लिखी है। लिखा है- “अमीर साहब का कलाम (कविता) जिस क़दर फ़ारसी में है, उसी क़दर ब्रजभाषा में।” पर दुर्भाग्य से अमीर खु़सरो की हिंदी-कविता, कुछ फुटकर पद्यों को छोड़ कर, इस समय नहीं मिलती, यद्यपि खु़सरो हिंदी-कविता के नाते ही सर्वसाधारण में प्रसिद्ध हैं। खु़सरों की हिंदी-कविता के विनाश का ‘श्रेय’ मुसलमानों की हिंदी-विषयक उपेक्षा ही को है। इस दुर्घटना के लिये मौलाना मुहम्मद अमीन चिड़ियाकोटी ने मुसलमानों को उपासलंभ दिया और हिंदुओं की गुणग्राहिता को सराहा है कि खु़सरो और दूसरे मुसलमान हिंदी-कवियों की जो थोड़ी-बहुत हिंदी-कविता अब तक नष्ट होने से बची हुई है, यह हिंदुओं को मिटाने में कभी कमी नहीं की। अरब और तुर्किस्तान की मामूली-मामूली बातों की मुसलमानों को जितनी चिंता है- अरब का ऊँट किस तरह जुगालता है और हुदीख़्वाँ (ऊँट हाँकनेवाला) किस तरह बलबलाता है, गाता है- इस का जितना महत्व उनकी दृष्टि में है, उस का सहस्रांश भी यदि खु़सरों की हिंदी-कविता का मान या अभिमान उन्हें होता, तो यह अनर्थ हो पाता। यदि आज अमीर खु़सरों की हिंदी-कविता अपने असली रूप में और पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हुई होती, तो भाषा-साहित्य के इतिहास-ज्ञान में कितनी सहायता पहुँची होती।

    मुसलमानों में इस व्यापक नियम के अपवाद-स्वरूप कुछ सहृदय सज्जन हुए हैं सही, जैसे मीरग़ुलामअली ‘आज़ाद’ बिलग्रामी, (जिन्होंने सर्वे आज़ाद में बिलग्राम के मुसलमान हिंदी-कवियों का विस्तृत वर्णन कर के अपनी भावुकता का परिचय दिया है), पर बहुत ही कम, ऐसे ही जैसे अँगरेज़ों में भारतभक्त, उदारहृदय ऐंडूज साहब, या स्वराजिस्टों में हिंदुत्व का पक्षपाती एकआध हिंदू। अस्तु। अमीर खु़सरों जन्मसिद्ध कवि थे- मां के पेट से कवि पैदा हुए थे। उन्होंने स्वयं लिखा है कि मेरे दूध के दाँत अभी टूटे थे कि मैं शे'र कहता था, और मुँह से कविता के मोती झड़ते थे। ‘सेयारुल औलिया’ और ‘सेराजुल आरफ़ीन’ में लिखा है कि अमीर खु़सरो अभी पाँच ही बरस के थे कि दिल्ली में पहुँचे। बाप बचपन ही में मर गए, नाना ने इन्हें पाला। जब यह दिल्ली गए, तो उन दिनों दैवयोग से निज़ामुद्दीन औलिया का डेरा इनके ननिहाल में था। निज़ामुद्दीन सूफ़ी-संप्रदाय के पक्के मुबल्लिग़ फ़क़ीर (दिल्ली के हसन निज़ामी उन्हीं की दरगाह के मुजाविरों में एक हैं), मुरीद बनाना यानी चेले मूँड़ना इनका धार्मिक व्यवसाय था। खु़सरों के पिता और नाना भी उनके भक्तों में थे। खु़सरों को इसी अवस्था में इनके चरणों में चढ़ा दिया गया, दीक्षा दिला दी गई। प्रेम-पंथ की श्रृंगारिक कविता का उपदेश खु़सरों को इन्हीं रसिया गुरु से मिला। इन्होंने इस विषय में यह मंत्र दिया- ‘बतर्ज़- सफ़ा हानियान् ब-गो’ यानी इश्क़ अंगेज़ जुल्फ़ो-ख़ाल-आमेज़। अर्थात् इश्क़िया शायरी करो।

    खु़सरों के पांच दीवान (कवितासंग्रह ग्रंथ) हैं, जिन में सब से पहला ‘तोहफ़तुस्सिग़र’ है। इस में 16 वर्ष की उम्र से 19 वर्ष तक की कविताओं का संग्रह है। इस की भूमिका में खु़सरों ने अपनी कविता का मनोरंजक और शिक्षाप्रद प्रारंभिक वर्णन किया है। लिखा है- “ईश्वर की दया से मैं ने 12 बरस की उम्र में बैत और रूबाई कहनी शुरू की। उस समय के कवि विद्वान् सुन सुन कर आश्चर्य प्रकट करते थे। उन की आश्चर्य-पूर्ण प्रशंसा से मेरा उत्साह बढ़ता था। अभ्यास करते-करते दृष्ट सूक्ष्म हो गई, कविता की बारीकियाँ सूझने लगी। कविता-प्रेमी साथी मेरी बुद्धि की परीक्षा लेते थे, इस से हृदय में और भी उमंग बढ़ती थी- दिल गरमाता था, - और दिल की गरमी ज़बान में उतर कर कविता को चमकाती थी। इस समय तक कोई गुरू मिला था, जो कविता की दुर्गम घाटियों में कुशलता से चलने की राह बताता क़लम को उल्टे रास्ते चलने से रोकता, दोषों से बचाकर गुणों का उत्कर्ष दिखाता। मैं नवाभ्यासी तोते की तरह अपने ही ख़याल के दर्पण के सामने बैठा-बैठा कविता का अभ्यास करता था- कविता का मर्म और कविता करना सीखता था,- दिल के लोहे को अभ्यास की सान पर रगड़-रगड़ तेज़ करता रहा। प्राचीन सत्कवियों के ग्रंथों का स्वाध्याय निरंतर करता था। इस प्रकार करते-करते कविता के मर्म को समझने लगा, भावुकता प्राप्त हो गई। अनवरी और सनायी की किवात को विशेष रूप से आदर्श मान कर देखता था। जो अच्छी कविता नज़र आती, उसी का जवाब लिखता। जिस कवि की कविता का मनन करता, उसी के ढंग पर स्वयं लिखता। बहुत दिन तक ख़ाक़ानी (ईरान का एक प्रसिद्ध कवि) की कविता से लिपटा रहा। उस की कविता में जो ग्रंथियाँथीं, उन्हें सुलझाता। यद्यपि उस के दुरूह स्थलों पर नोट लिखता था, पर लड़कपन और नवाभ्यास के कारण कठिन कविता का भाव अच्छी तरह खुलता था। मेरा उत्साह और कल्पना-शक्ति आकाश में उड़ती थी, पर उस्ताद ख़ाक़ानी की कविता इतनी उच्च कोटि की थी कि उस तक मेरी बुद्धि नहीं पहुँचती थी। तथापि अनुकरण करते-करते तबिअ'त बढ़ने लगी। मेरी कविता का कोई विशेष आदर्श था, उस्ताद के रंग में कहा था, इसलिये इस संग्रह (तोहफ़तुस्सिग़र) में नया-पुराना सब रंग मौजूद है।”

    “बचन में बाप ने पढ़ने के लिये मकतब में बिठाया। यहाँ यह हाल था कि क़ाफ़िए की तकरार थी- क़ाफ़िया ढूँढ़ने से काम था। मेरे उस्ताद मौलाना सा'दुद्दीन ख़त्तान सुलेख के अभ्यास का आज्ञा देते थे, पर मैं अपनी ही धुन में था। वह पीठ पर कोड़े लगाते, और मुझे ज़ुल्फ़ी ख़ाल (अलक-तिलक) का सौदा था। इसी उधेड़-बुन में यहाँ तक नौबत पहुँची कि मैं इसी छोटी उम्र में ऐसे शे'र और ग़ज़ल कहने लगा कि जिन्हें सुन कर बड़े-बूढ़ों को आश्चर्य होता था। एक बार सुब्ह के वक़्त मेरे उस्ताद की ख़्वाजा असील नायब कोतवाल ने ख़त लिखने के लिये बुलाया। मैं दवात-क़लाम लेकर साथ गया। असीख के घर में ख़्वाजा अज़ीज़ुद्दीन नज़रबंद थे। ख़्वाजा साहब बहुत बड़े विद्वान और कविता के पूरे पारखी थे। जब हम पहुँचे, तो वह स्वाध्याय में संगल्न थे- मुतालि-ए-किताब में मसरूफ़ थे। किताब देखते-देखते जब कभी वह कुछ कहने लगते थे, तो उन के मुँह से मोती झड़ते थे। जवाहर -ए-आबदार ज़बान से निकलते थे। मेरे उस्ताद ने उन से कहा कि यह मेरा ज़रा-सा शागिर्द (छोटा-सा शिष्य) इस बचपन में कविता का बड़ा प्रेमी है, शे'र पढ़ता भी ख़ूब है, किताब इसे देकर इम्तहान लीजिए। ख़्वाजा ज़ीज़ु ने फ़ौरन् किताब मुझे देकर सुनाने की फ़रमाइश की। मैं ने शेर मधुर गीत के स्वर में पढ़ने आरंभ किए। उस के प्रभाव से सुननेवालों की आँखें डबडबा आई, चारों ओर से शाबाश की आवाज़ें आने लगीं। फिर मेरे उस्ताद ने कहा कि ‘पढ़ना सुन लिया, अब कोई मिस्रा(समस्या) देकर कविता-शक्ति की परीक्षा लीजिए।’ ख़्वाजा साहब ने चार अनमिल चीज़ों के नाम लेकर कहा कि इन्हें सार्थक पद्यबद्ध करो। ये नाम मू (बाल), बैज़ा (अंडा), ख़रबूज़ा और तीर (बाण) थे। मैं ने तत्काल इन्हें रुबाई में बाँध कर सुनाया। जिस वक़्त मैं ने यह रुबाई पढ़ी, ख़्वाजा ने बहुत ही प्रशंसा की, और नाम पूछा। मै ने कहा- खु़सरो। फिर बाप का नाम-धाम और अता-पता पूछ कर कहा कि तुम अपना तख़ल्लुस (कविता का उपनाम) सुलतानी रक्खो। इस के पीछे बहुत-सी बातें मेरा दिल बढ़ाने की कीं, और कवित्त-कला के संबंध में बहुत-सी भेद की बातें बता दीं, जिन्हें मैं दिल में रखता गया। उस दिन से मैं ने अपना उपनाम सुलतानी रक्खा। इस दीवान के प्रायः पद्यों में यही नाम काम में आया है। यह सब कुछ हुआ, पर ज़माना लड़कपन का था. इसलिये कभी अपना कलाम (कविता) जमा करने का ख़याल नहीं किया। मेरा भाई ताजुद्दीन ज़ाहिद, जिस की विवेचना शक्ति कविता-कामिनी का सिंगार करने में समर्थ है, मेरे पद्यों का संग्रह कर लेता था, और जो कुछ मैं ने 16 बरस की उम्र से 19 बरस की उम्र तक कहा, उस सब का उसने संग्रह बना डाला। मैं ने उसे देख कर कहा कि यह तो पानी में डुबो देने क़ाबिल है। पर उस ने माना और कहा कि इसे सिलसिलेवार कर दो। भाई के आग्रह से मैं ने संग्रह का विभाग कर के प्रत्येक परिच्छेद के आरंभ में परिच्छेद-सूचक एक-एक पद्य लगा दिया। क्रमविभाग का यह प्रकार मेरा आविष्कार (ईजाद) है, मुझ से पहले किसी ने यह सिलसिला क़ायम नहीं किया। इस दीवान का नाम ‘तोहफ़तुस्सिग़र’ (लड़कपन का क़लाम) है। निस्संदेह यह कविता बहुत ऊँटपटांग है, मैं ने बहुत चाहा कि यह जमा' की जाय, पर यार-दोस्तों ने और ख़ास कर भाई ताजुद्दीन ने माना, बराबर आग्रह करते रहे। मैं भाई के कहने को टाल सका। स्नेह ने हम दोनों भाइयों में अभेद-बुद्धि उत्पन्न कर दी है। अभिन्न-हृदय बना दिया है- दोनों को एक कर दिया है---

    “बस कि जानम् यगाना शुद बा ऊ,

    दर गुमानम् कि ईं मनम् या ऊ।”

    “मेरी आत्मा इस प्रकार उस में मिल गई है कि मैं सोचने लगता हूं, मै यह हूँ या मैं वह हूँ!”- भाई का अभिप्राय इस तुकबंदी के जमा' करने से यह था कि यह भी किसी शुमार में जाय। मैं कहता था कि लोग ए'तराज़ (आक्षेप) करेंगे। भाई कहता था कि बुद्धिमान् यह समझ कर कि (जैसा इस संग्रह के नाम से प्रकट है) यह लड़कपन का कलाम है, ए'तराज़ (आक्षेप) करेगा, और अनभिज्ञ के आक्षेप का मूल्य ही क्या। मैं कहता था कि इस में शुतरग़ुरबा (ऊँट-बिल्ली का-सा साथ वैषम्य दोष) बहुत है। उस का उत्तर था कि लोग इसे ता'वीज़ बनाकर बाज़ू (बाहु) पर बाँधेंगे। निदान भाई के आग्रह से इस संग्रह को सहृदयों की सेवा में समर्पित करता हूँ, आशा है, वे इसे स्वीकार करेंगे।”

    यह खु़सरो की उस भूमिका का भावार्थ है, जो उस ने अपने पहले दीवान ‘तोहफ़तुस्सिग़र’ पर लिखी है। इस में ध्यान देने योग्य बात यह है कि अमीर खु़सरो को कवि-सम्राट किस चीज़ ने बनाया। स्वाभाविकी प्रतिभा, स्वाध्यायशीलता, उत्साहसंपन्नता, निरंतर अभ्यास और लगन, यही सब बातें अमीर खु़सरो को कवि-सम्राट् बनाने में कारण थीं। समझदार सोसाइटी, साथियों की छेड़छाड़, बड़ों की उत्साह-वर्द्धक समालोचना, इन सब ने मिलकर उन कारणों को और कार्यक्षम बना दिया, खु़सरो की कविता को चमका दिया। फिर क़द्रदान भी ऐसे मिले कि मिले होंगे किसी को। खु़सरो को कई बार कविता के पुरस्कार में हाथी-बराबर तोलकर रुपए मिले थे।

    अमीर ख़ुसरो ने अपनी तरक़्क़ी का जो गुर लिखा है, वह बहुत ही उपादेव है, उन्नति-मार्ग के पथिकों का पाथेय (तोशा) है। खु़सरो के उन पद्यों का भाव यह है- ‘जो कोई मेरी प्रशंसा करता है, यद्यपि यह सच हो, तो भी, मैं उस पर कान नहीं देता। क्योंकि प्रशंसा आदमी को अबिमत्त बनाकर रास्ते से दूर हटा देतीहै, मिथ्या स्तुति धोके में डाल कर हानि पहुँचाती है, जैसे नादान बच्चे गुड़ से फुसलाकर ठग लिए जाते हैं। जो सचमुच कविता-रत्न के पारखी हैं, उनकी निंदा भी प्रशंसा है। मैं स्वयं अपनी कविता के गुण-दोषों पर ध्यान-दृष्टि रखता हूँ, अच्छी कविता की कोई प्रशंसा करे, परवा नहीं, मैं खु़द उसे सराहता हूँ।’

    इस प्रकार निरंतर लगन के साथ अभ्यास करते-करते अमीर खु़सरो ने वह कमाल हासिल किया कि शेख़ सा'दी और हाफ़िज़-जैसे ‘बुलबुल-ए-शिराज़’ भी इस ‘तूति-ए-हिंद’ (यह खु़सरो का ख़िताब था) के सम्मोहन स्वर से मोहित होकर प्रशंसा करते थे। एक लेखक ने तो यहाँ तक लिखा है कि शेख़ सा'दी शिराज़ी ख़ुसरो से मिलने के लिये शिराज़ से दिल्ली में आए थे। पर शैख़ सादी का हिंदोस्तान में आना इतिहास से सिद्ध नहीं होता। हाँ, इस पर सब इतिहास-लेखक सहमत हैं कि जब सुलतान शहीद ने ‘सा'दी’ को शिराज़ से बुलाया, तो उन्हों ने बुढ़ापे के कारण आना स्वीकार किया, और लिख भेजा कि “खु़सरो का सम्मान कीजिए, वह एक आदरणीय रत्न है।” उस समय खु़सरो की उम्र बत्तीस के लगभग थी। इसी अवस्था में सा'दी-जैसे महाकवि से प्रशंसा का सार्टिफिकेट पा जाना खु़सरो की महत्ता का सूचक था।

    प्रारंभिक अवस्था में खु़सरो अपनी कविता किसी कविता-गुरु को दिखाते थे, प्राचीन महाकवियों को गुरु मान कर उन्हीं के आदर्श पर रचना करते थे। पर आगे चलकर उन्होंने ‘शहाब’ को कविता-गुरु बना लिया था। शहाब की ‘अमीर’ ने बहुत तारीफ़ की है। खु़सरों ने ‘निज़ामी’ के जवाब में जो अपनी पाँच मसनवियाँ लिखी है, वे ‘शहाब’ की देखी-शोधी हुई है। और इसके लिये खु़सरो ने अपने उस्ताद का बहुत उपकार माना है। कैसा आश्चर्य है कि उस का आज कोई नाम भी नहीं जानता, जिसे कवि-सम्राट् अमीर खु़सरों के काव्य-गुरु होने का गौरव प्राप्त था!

    अपनी माता से अमीर खु़सरों को अनन्य प्रेम था। बड़ी उम्र में भी वह इस तरह माता से मिलते थे, जैसे छोटे बच्चे मां को मुहब्बत से लिपट जाते हैं। खु़सरो ने अवध के सूबे की नौकरी का ऊँचा पद केवल इसी कारण छोड़ दिया था कि माता दिल्ली में उन्हें याद करती थी। अवध से आकर जब दिल्ली में मां से मिले हैं, तो उस मुलाक़ात का हाल इस जोश से लिखा है, जिस के एक-एक शब्द से प्रेम का मधु टपकता है।

    जब माता का देहांत हुआ, तो खु़सरो की अवस्था 48 वर्ष की थी। माता की मृत्यु के मरसिए में इस तरह विलाप किया है, जैसे छोटा बच्चा मां के लिये बिलखता है। भाई का मरसिया भी बड़ा करुणाजनक लिखा है।

    खु़सरों कहीं बाहर किसी मुहिम पर थे कि पीछे अचानक कुछ आगे-पीछे माता और भाई, दोनों का एक-साथ देहांत हो गया। दोनों का मरसिया ‘लैला-मजनूँ’ मसनवी के अंत में बड़ा ही करुणा-पूर्ण है, पढ़ कर दिल पर चोट लगती है।

    अमीर खु़सरों को दो संतानें थीं, एक पुत्र एक पुत्री। पुत्र का नाम ‘मलक अहमद’ था। यह भी कवि और समालोचक थे। इन्हें कविता में तो प्रसिद्धि प्राप्त हुई, पर अपने समय में यह समालोचना के लिये प्रसिद्ध थे। कविता-कला के पूरे मर्मज्ञ थे, बड़े-बड़े कवियों की कविता में उचित संशोधन कर डालते थे जिन्हें कवि विद्वान पसंद करते थे। मलक अहमद सुलतान फ़ीरोज़शाह के दरबारी थे।

    जब खु़सरो साहब ने मसनवी ‘लैला-मजनूँ’ लिखी है, उस वक्त इनकी पुत्री 7 वर्ष की थी। स्त्रियों की बेक़द्री उस समय भी ऐसी ही थी। खु़सरों को भी खेद था कि पुत्री क्यों पैदा हो गई। पुत्री को लक्ष्य कर के जो उपदेश-वाक्य आपने लिखे हैं, उस में अफ़सोस के साथ पुत्र से कहते हैं- “क्या अच्छा होता कि तुम पैदा ही होतीं या पुत्री हो कर पुत्र होतीं।” फिर सोच-समझ कर दिल को तसल्ली देते हैं कि ईश्वर जो दे, उसे कौन टाल सकता है।

    ‘पिदरम हमअज़ मादर अस्त आख़िर,

    मादरम् नीज़ दुख्तर अस्त आख़िर।’

    “मेरा बाप भी तो आख़िर माँ ही के पेट से पैदा हुआ था, और मेरी माँ भी तो किसी की लड़की ही थी!”

    चर्खे़ का उपदेश

    पुत्री को जो आपने उपदेश दिया है, वह बिलकुल भारतीय ढंग का और महत्वपूर्ण है---

    ‘दोक-ओ-सोज़न गुज़ाश्तन् फ़न अस्त।

    कालत परद:पोशी-ए-बदन अस्त।

    पा ब-दामान-ए-आफ़ियत सर कुन्।

    रू ब-दीवार-ओ-पुस्त बर दर कुन्।

    दर तमाशा-ए-रोज़नत् हवस् अस्त।

    रोज़नत् चश्म-ए-सोज़न-ए-तू बस अस्त।’

    अर्थात् चर्ख़ा कातना और सीना-पिरोना छोड़ना- इसे छोड़ बैठना अच्छी बात नहीं है, क्योंकि यह परदापोशी का- शरीर ढँकने का- साधन है। स्त्रियों को यही उचित है कि घर में दरवाज़े की ओर पीठ फेर कर और दीवार की और मुँह कर के शांति से बैठें। इधर-उधर ताक-झांक करें। झरोखे में से झाँकने की साथ सुई के झरोखे (छिद्र) को देख कर पूरी करें।

    पुत्री के प्रति ख़ुसरो के इस उपदेश पर मौलाना ‘शिबली’ लिखते हैं— ‘इस नसीहत से मा'लूम होता है कि उस ज़माने में औरतों की हालत निहायत पस्त थी। अमीर साहब इस क़दर साहब-ए-दौलत सर्वत (ऐश्वर्यवान्) थे, लेकिन बेटी से कहते थे कि ख़बरदार, चर्ख़ा कातना छोड़ना, और कभी झरोखे के पास बैठकर इधर-उधर झाँकना।’

    अफ़सोस है कि मौलाना शिबली का स्वर्गवास चर्ख़ा-आंदोलन के युग से पहले हो गया, वर्ना वह अमीर की इस सुनहरी नसीहत पर वज्द करते! और देखते कि जिसे वह ‘पस्ती’ का सबब समझते हैं, वह संसार के सब से बड़े नेता महात्मा के मत में उन्नति का एक-मात्र साधन है- मुक्ति का उपाय है, चर्ख़ा सुदर्शन चक्र है, कामधेनु गौ है, चिंतामणि है और कल्पवृक्ष है! इस समय संसार चर्खे़ की महिमा के गीत गा रहा है, राजकुमारियाँ और रानियाँ ही नहीं, बड़े-बड़े राजकुमार और राजा महाराजा तक चर्ख़ा कात रहे हैं, वृद्ध रसायनाचार्य प्रफुल्लचंद्र राय रसायन-शाख को भूलकर चर्ख़े की रसायन के पीछे पागल हो रहे है!

    अमीर खु़सरों की इस दिव्य दृष्टि की दाद देनी चाहिए कि छै सौ बरस पहले चर्खे़ का उपादेय उपदेश दे गए, जिस की उपयोगिता संसार मुक्तकंठ से आज स्वीकार कर रहा है!

    खु़सरो की कविता

    खु़सरों की कविता अत्यंत चमत्कार पूर्ण, सरस और हृदय-हारिणी है। यद्यपि उन्होंने अनेक ऐतिहासिक कहानियाँ अपे आश्रयदाता बादशाहों के कारनामे और प्रशसस्तियाँ लिखी हैं, जो उन्हें दरबारदारी के दबाव से लिखनी पड़ती थीं, पर उन का मुख्य रस श्रृंगार था। वह स्वभाव से ही सौंदर्योपासक प्रेमी पुरुष थे। फिर उन्हें दीक्षागुरु (हज़रत निजामुद्दीन) से भी यही उपदेश मिला कि ‘बतर्ज़-ए-इसफ़ाहानियान बिगो’- यानी श्रृंगार रस की कविता करो। खु़सरो उपदेशक या सूफ़ी कवि नहीं थे। कवियों के कितने भेद हैं, और कवियों में कितनी बातें होनी चाहिए, इस विषय पर लिखते हुए खु़सरों ने लिखा है- ‘शायद की तीन क़िस्में है,- 1- उस्ताद-ए- तमाम (काव्य के सब अंगों का पूर्ण आचार्य), 2- उस्ताद -ए-नीम तमाम (अर्धाचार्य!), जो किसी ख़ास तर्ज़ का मूजिद नहीं, पर किसी तर्ज़ का सफल अनुयायी है। 3- सारिक़ (चोर), जो दूसरों के मज़मून चुराता है। फिर लिखते हैं कि उस्तादी की चार शर्तें है--- 1- तर्ज़-ए- ख़ास का मूजिद हो उस का कलाम शायरों के अंदाज़ पर हो सूफ़ियों (वेदांतियों) और वाइज़ों ( उपदेशकों) के ढंग का हो, कविता निर्दोष हो, ग़लतियाँ करता हो, इत्यादि लिख कर कहते हैं कि मैं दर हक़ीक़त उस्ताद नहीं, क्योंकि चार शर्तों में से मुझ में सिर्फ़ दो शर्तें पाई जाती हैं, यानी मैं मज़मून नहीं चुराता और दूसरे मेरा कलाम सूफ़ियों और वाइज़ों के अंदाज़ पर नहीं। शेष दो शर्तें मुझ में नहीं हैं, अव्वल तो मैं किसी तर्ज़ का मूजिद नहीं, दूसरे मेरा कलाम ग़लतियों से ख़ाली नहीं होता।’

    साहित्य-संसार में इस से अधिक विनय और सत्यशीलता का उदाहरण कम मिलेगा! आज संसार जिसे उस्ताद-ए-कामिल मान रहा है, वह इस तरह अपनी दीनता की घोषणा करता है। ‘विद्या ददाति विनयं’ में सचमुच सचाई है। अस्तु।

    खु़सरो की स्वीकारोक्ति से स्पष्ट है कि उनका कलाम सूफ़ियाना नहीं है, और चाहे जो कुछ हो। पर आश्चर्य है कि सूफ़ी-संप्रदाय में खु़सरो की कविता बड़े आदर की दृष्टि से देखी जाती है, और ख़ालिस सूफ़ियाना कलाम समझ कर पढ़ी जाती है, जिसे सुन कर सूफ़ी साधु आपे में नहीं रहते, सिर धुनते-धुनते बावले हो जाते हैं, अक्सर मर भी जाते हैं! इस का कारण इस के अतिरिक्त और क्या हो सकता है कि ख़ुसरो का सूफ़ी-संप्रदाय से संबंध विशेष था। वह एक सूफ़ी-गुरु के शिष्य थे, इसलिये ख़्वाह-मख़्वाह उनका कालम भी ख़ालिस सूफ़ियाना समझ लिया गया। शुद्ध सांसारिक श्रृंगार को भी परमार्थ प्रेम बतलाकर टट्टी की आढ़ में शिकार खेलना सूफ़ियों के बाएँ हाथ का खेल हैं। खुले हुए इश्क़-ए- मजाज़ी को छिपा हुआ इश्क़-ए- हकीक़ी ज़ाहिर करना छिपे रुस्तम सूफ़ियों ही का काम है। बड़े-बड़े रिंद मशरब, शराबी और अनाचारी फ़क़ीरों और शायरों को पहुँचा हुआ सूफ़ी कह कर इन्हीं लोगों ने पुजवाया है।

    मौलाना शिबली ने उमर-ख़य्याम के बारे में लिखा है- ‘साफ़ साबित है कि वह दर हक़ीक़त शराब पीता था और यही ज़ाहिरी शराब पीता था। अफ़सोस है कि वह फ़लसफ़ी और हकीम (दार्शनिक) था, सूफ़ी था, वर्ना हाफ़िज की तरह वही शराब शराब-ए-मार्फ़त बन जाती!’ कहने को तो सूफ़ी समदर्शी और एकात्मवादी होते हैं, उनकी दृष्टि में सब धर्म और सब जातियाँ समान हैं, उन्हें किसी से राग-द्वेष नहीं होता, पर मुसलमान सूफ़ियों के आचरण को देखते हुए यह एकात्मवाद भोले-भाले भिन्न धर्मियों को फुसलाकर भ्रष्ट करने का एक बहाना है। ख़्वाजा चिश्ती और निजामुद्दीन औलिया से लेकर जितने बड़े-बड़े जय्यद सूफ़ी हुए हैं, वही लोग भारतवर्ष में इस्लाम की जड़ जमाने वाले हुए हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण मौजूद है- ख़्वाजा हसन निज़ामी भी तो एक प्रसिद्ध सूफ़ी है, और उनकी करतूतें किसी से छिपी नहीं है।

    शेख़ सा'दी ने क्या पते की कही थी—

    मोहत्सिब दर क़फ़ा-ए-रिंदानस्त,

    ग़ाफ़िल अज़ सूफ़ियान-ए-शाहिदबाज़।

    कोतवाल बेचारे रिंदों के पीछे पड़ा है। और इन बदकार सूफ़ियों के हथकंड़ों से बेख़बर है, इन्हें नहीं पकड़ता।

    मतलब यह नहीं कि सब सूफ़ी ऐसे ही होते हैं (जैसों को शैख़ सादी पकड़वाना चाहते हैं!) या अमीर खु़सरों के कलाम में सूफ़ियाना रंग है ही नहीं। नहीं, यह बात नहीं है, सूफ़ियों में कहीं सच्चे सूफ़ी भी हुए होंगे और होंगे, और खु़सरों के कलाम में भी सूफ़ियाना रंग है और हो सकता है।

    कहना यह है कि खु़सरो सूफ़ी भले ही हों, पर वह ‘सूफ़ी शायर’ नहीं थे, जैसा कि उन्होंने स्वयं लिखा है, और जैसा कि उनका कलाम खु़द पुकार कर कह रहा है। अस्तु, अतिप्रसंग हो गया, सूफ़ी साधु क्षमा करें। कविता प्रेमी हर कविता को सूफ़ियों के कहने से सूफ़ियाना रंग की समझ लिया करें, यही इस निवेदन का तात्पर्य है।

    अमीर खु़सरो की विशेषता

    खु़सरों मे कविता की दृष्टि से यों तो बहुत-सी विशेषताएं हैं, पर उस की एक विशेषता है, पर उनकी एक विशेषता मुसलमान-लेखकों में बहुत प्रसिद्ध है, जिस का उल्लेख मौलाना आज़ाद, हाली और शिबली ने कई जगह जी खोल कर किया है। वह विशेषता ख़ुसरो की कविता में ‘भारतीयपन की छाप’ है। फ़ारसी के जितने कवि हिंदोस्तान में हुए, वे हिंदू हों या मुसलमान, भारत-निवासी हों या प्रवासी ईरानी, सारे के-सारे फ़ारस का ही समा बाँधते रहे, वही गुल और बुलबुल का रोना रोते रहे, हिंदोस्तान के कमल और भौंरे को, कोयल और पपीहे को कहीं भूलकर भी उन भले आदमियों ने याद नहीं किया। ऋतुओं का वर्णन है, तो वहीं की ऋतुओं का, जंगल और पहाड़ों के दृश्य है, तो वहीं के, उपमान और उपमेय सब वहीं के। आँख की उपमा देंगे, तो ‘नर्गिस’ से या ‘बादाम’ से। भारतीय सौंदर्य की दृष्टि से यह उपमा कितनी विरूप है, इस पर शायद ही किसी उर्दू-फ़ारसी के कवि ने ध्यान दिया हो। बहुतों ने ‘नर्गिस’ को आँख से देखा भी होगा, यह आँख का उपमा कैसे बना, इस का पता भी बहुत कम कवियों को होगा। मौलाना शिबाली ने लिखा है कि ‘आँख की तशबीह (उपमा) नर्गिंस से आम (प्रसिद्ध) है, लेकिन नर्गिस की देखा, तो उस का फूल एक गोल-सी कटोरी होती है, जिस को आँख से मुनासिबत (सादृश्य संबंध) नहीं। खोज से मालूम हुआ कि इब्तदा-ए-शायरी में (फ़ारसी-कविता के प्रारंभिक काल में) तुर्क मा'शूक़ थे। उनकी आँखें छोटी और गोल होती हैं, इसी बिना (आधार) पर पुराने शायर आँखों के छोटे होने की तारीफ़ करते है।’

    पुराने शायर जो तारीफ़ करते थे, वह देख-भालकर करते थे। ईरान में तुर्क मा'शूकों की आँखें छोटी-छोटी और गोल-गोल होती थीं। वहाँ के लिये ‘नर्गिस’ की उपमा अनुरूप हो सकती है। पर भारतीय आँख के सौंदर्य का जो आदर्श है, उस से नर्गिस को क्या निस्बत!

    इसी तरह बुलबुल का रोना-गाना फ़ारस में तो कुछ अर्थ रखता है, पर यहाँ की बुलबुल में वह बात कहाँ? फिर भी यहाँ की फ़ारसी-उर्दू की कविता बुलबुल के तरानों से भरी पड़ी है। इस प्रसंग में मौलाना आज़ाद के एक अनुभव का, उन्हीं के शब्दों में, उल्लेख किए बिना आगे नहीं बढ़ा जाता। स्वर्गीय मौलाना आज़ाद ने फ़ारस की बहार (वसंत) का वर्णन करते हुए लिखा है- “इधर गुलाब खिला, उधर बुलबुल -ए-हज़ार-दास्तां उस की शाख़ पर, बल्कि घर-घर दरख़्तों पर बोलती है और चहचहे करती है। और, गुलाब की टहनी पर तो यह आ'लम होता है कि बोलती है, बोलती है, बोलती है। हद्द से ज़ियादा मस्त होती है, तो फूल पर मुँह रख देती है, और आँखें बंद कर के ज़मज़मा करते रह जाती है। तब मा'लूम होता है कि शायरों ने जो इस के और बहार के और गुल-ओ-लाला के मज़मून बाँधे हैं, वे क्या हैं, और कुछ असलियत रखते हैं या नहीं। वहाँ (फ़ारस में) घरों में नीम काकर के दरख़्त तो हैं नहीं, सेब, नाशपाती, बिही, अंगूर के दरख़्त है। चाँदनी रात में किसी टहनी पर आन बैठती है, और इस जोश ख़रोश से बोलना शुरू करती है कि रात का काला गुंबद गूँजता है, वह बोलती है और अपने ज़मज़में में तानें लेती है, और इस ज़ोर शोर से बोलती है कि बाज़ मौक़े पर जब चह-चह कर के जोश ख़रोश करती है, तो यह मा'लूम होता है कि इस का सीना फट जायगा। अहल-ए-दर्दे के दिलों में सुन कर दर्द पैदा होता है, और जी बेचैन हो जाता है। मैं (आज़ाद) एक फ़स्ल-ए-बहार में उसी मुल्क में था। चाँदनी रात में सहन के दरख़्त पर आन बैठती थी, और चहकारती थी, तो दिल पर एक आलम गुज़र जाता था। कैफ़ियत बयान में नहीं सकती। कई दफ़ा यह नौबत हुई कि मैं ने दस्तक दे-देकर उड़ा दिया।”

    यह है फ़ारस की बुलबुल का हाल, जिस का बयान वहाँ की बहार (वसंत) के मुनासिब-ए-हाल है। हिंदोस्तान में ऐसी बुलबुल किसी ने कहीं देखी है! यहाँ जो चिड़िया बुलबुल के नाम से मशहूर है, उस ग़रीब पर तो किसी का यही शेर सादिक़ आता है-----

    ‘मालूम है हमें सब, बुलबुल तेरी हक़ीक़त।

    एकमुश्त-ए- उस्तख़्वां है, दो पर लगे हुए है।’

    भारत के वसंत में कोकिल का कलकूजन ही आनंद देता है।

    खु़सरों ने फ़ारसी-साहित्य के कवि-समय को सब जगह आदर्श नहीं माना। उन्होंने बहुत-सी बातों का वर्णन भारतीय ढंग से किया है। खु़सरो का एक फ़ारसी शेर है---

    ज़ेहे ख़रामश आँ नाजनीं अय्यारी।

    कबूतरे निशात आमदस्त पिन्दारी।

    इस में खु़सरों ने किसी मदमाती युवती की गति को कबूतर की मस्ताना चाल से उपमा दी है। इस पर ‘शिबली’ कहते हैं कि ‘अमीर साहब चूँकि हिंदी ज़बान से आश्ना (परिचित) थे, इसलिये तशबीहात (उपमाओं) में उनको ब्रज-भाषा के सरमाए से बहुत मदद मिली होगी। यह शेर ग़ालिबन इसी ख़िरमन की ख़ोशाचीनी है। फ़ारसी-शायर मा'शूक़ की रफ़्तार को कबक (चकोर) की रफ़्तार से तशबीह देते थे, हिंदी में हंस की चाल आम तश्बीह (प्रसिद्ध उपमा) है, लेकिन कबूतर मस्ती की हालत में जिस तरह चलता है, वह मस्ताना ख़िराम (मदमंथर गति) की सब से अच्छी तस्वीर है।’

    सबसे बड़े मार्के की बात जो खु़सरों ने की, वह प्रेम-प्रकाशन में भारतीय साहित्य के आदर्श का अनुकरण है, अर्थात्-

    ‘आदौ वाच्यः स्त्रियो रागः पश्चात पुंसस्तदिंगितैः।’

    -प्रेम का प्रारंभ पहले स्त्री की ओर से होना चाहिए, फिर स्त्री की प्रेम-चेष्टाओं को देख कर पुरुष की ओर से।

    इस के औचित्य को किसी समझदार फ़ारसी-शायर ने दृष्टांत द्वारा सिद्ध किया है---

    ‘इश्क़ अव्वल दर दिल-ए-मा'शूक पैदा मी-शवद।

    ता सोज़द शम्अ' कै परवाना शैदा मीशवद्।’

    अर्थात्

    पहले तिय के हीय मैं उमगत प्रेम-उमंग।

    आगे बाती बरति है, पाछे जरत पतंग।

    फ़ारसी-साहित्य में इस के बिल्कुल उलटा होता है। वहाँ प्रेम-प्रसंग में स्त्री का अधिकार ही नहीं। प्रेमी पुरुष प्रेम-पात्र पुरुष पर आसक्त होता है, जो बहुत ही अस्वाभाविक, प्रकृति-विरुद्ध व्यापार है। फ़ारसी का साहित्य इसी धृशित ‘रसाभास’ के वर्णन से भरा पड़ा है। मौलाना हाजी और मौलाना शिबली ने इस पर बहुत बहस की है, फ़ारसी साहित्य के इस प्रकार को उन्होंने निंदनीय बताया है। इस विषय में फ़ारसी-कवियों में खु़सरों ने भी भारतीय आदर्श का अनुकरण किया है। मौलना ‘आज़ाद’ ने खु़सरो के संबंध में लिखते हुए लिखा है- ‘इस में यह बात सब से ज़ियादह क़ाबिल-ए-लिहाज़ है कि इन्हें (खु़सरों ने) बुनियाद इश्क़ की औरत ही की तरफ़ से क़ायम की थी, जो कि ख़ासा नज़्म हिंदी का है।’

    मौलाना हाली ने इस संबंध में एक मनोरंजक ऐतिहासिक घटना का उल्लेख किया है, जो सुनने लायक़ है----

    ‘एक मौक़े पर जहाँगीर (बादशाह) के रूबरू क़व्वाल अमीर खु़सरो की ग़ज़ल गा रहा था, और बादशाह उस को सुनकर बहुत महज़ूज़ (आनंदित) हो रहा था। जब क़व्वाल ने यह शेर गाया-

    तो शबाना मी नुमाई बरे कि बूदी इमशब।

    कि हनूज़ चश्म-ए-मस्तत् असरे-खु़मार दारद।

    बादशाह दफ़अ'तन बिगड़ गया, और क़व्वाल को फ़ौरन् पिटवाकर निकलवा दिया, और इस क़दर बरहम (क्रुद्ध) हुआ कि तमाम नदीम (दरबारी) और ख़्वास(नौकर-चाकर) खौफ़ से लरज़ने लगे और फ़ौरन् मुल्ला नक़शी मोहरकन को जिनका बादशाह बहुत लिहाज़ करता था, बुलाकर लाए, ताकि वह किसी तदबीर से बादशाह के मिज़ाज को धीमा करें। जब वह सामने आए, तो बादशाह को निहायत ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब में भरा हुआ पाया। अ'र्ज़ किया, हुज़ूर! ख़ैर बाशद! बादशाह ने कहा, देखो, अमीर ख़ुसरो ने कैसी बेग़ैरती का मज़मून शेर में बाँधा है। भला कोई ग़ैरतमंद आदमी अपनी महबूबा (प्रिया) या मनकूहा (विवाहिता) से ऐसी बेग़ैरती की बात कह सकता है? मुल्ला नक़शी ने एक निहायत उम्दा तौजीह (कारण-निर्देश) से उसी वक़्त बादशाह का ग़ुस्सा फ़रो कर दिया। उन्होंने कहा- अमीर खु़सरो ने चूँकि हिंदोस्तान में नश्व-ओ-नुमा पाइ थी, इसलिये वह अक्सर हिंदोस्तान के उसूल के मुवाफ़िक़ शे'र कहते थे। यह शेर भी उन्होंने उसी तरीक़े पर कहा है- गोया ‘औरत अपने शौहर (पति) से कहती है कि तू रात को किसी ग़ैर औरत के यहाँ रहा है। क्योंकि अब तक तेरी आँखों में नशे का या नींद का खु़मार पाया जाता है।’ यह सुन कर बादशाह का ग़ुस्सा जाता रहा, और फिर गाना-बजाना होने लगा।’

    मालूम होता है, जहाँगीर उस दिन कुछ ज़ियादा पिए हुए थे, तभी ज़रा-सी मामूली बात पर इस तरह बरस पड़े। वर्ना फ़ारसी-शायरी का मा'शूक हद दर्जे का हरजाई, बेवफ़ा, झूठा और ज़ालिम होता है। रक़ीब का रोना, हरजाईपन की शिकायत, यही तो फ़ारसी-शायरी के आशिक़ का ‘क़ौमी गीत’ है। अस्तु।

    अमीर खु़सरों की इस विशेषता का वर्णन प्रायः मुसलमान कवि लेखकों ने बड़े आश्चर्य से किया है। ‘सर्वे आज़ाद’ नामक फ़ारसी ग्रंथ के लेखक ने भी इस संबंध में खु़सरो का उल्लेख किया है। उन्होंने अकबर बादशाह के समय की एक सतीकी घटना लिखी है कि ‘अकबर के समय में एक नौजवान हिंदू-वर की बरात आगरे में छत्ते के बाहर होकर लौट रही थी। अचानक बाज़ार के छत्ते की कड़ी टूट कर वर के ऊपर गिर पड़ी, जिस की चोट से बेचारे वर की वहां मृत्यु हो गई। अभागी वधू (दुल्हिन), जो अत्यंत रूपवती युवती थी, वर के साथ सती होने लगी। जब इस घटना की ख़बर अकबर को मिली, तो दुल्हिन को अपने सामने बुलाकर समझाया-बुझाया, और तरह-तरह के लालच देकर उसे सती होने से रोकना चाहा। पर सती वधू अपने व्रत से डिगी, और पति के साथ चिता में जल कर सती गई।’ इस घटना का उल्लेख कर के मीर ग़ुलामनबी आज़ाद लिखते हैं---

    ‘अज़ ईं जास्त कि शोअरा-ए-ज़बान हिंद दर अशआ'र-ए- ख़ुद इश्क अज़ जानिब-ए-ज़न बयां मी कुनद् कि ज़ने हिंदू हमीं यक शौहर रा कुनदू रा सरमाय:-ए-ज़िंदगी भी शुमारद् बाद मुर्दन-ए-शौहर ख़ुद रा बा मुर्दा शौहर मी सोज़द्, अमीर ख़ुसरो मी गोयद्---

    खु़सरवा दर इश्क़ बाज़ी कमज़ हिंदू ज़न मबाश,

    कज़ बरा-ए मुर्द:-सोज़द ज़िंद: जान-ए-ख़्वेश रा।’

    -अर्थात् यही बात है कि हिंदी-भाषा के कवि अपनी कविता में स्त्री की ओर से प्रेम का वर्णन करते हैं, क्योंकि हिंदू-स्त्री बस एक ही पति करती है, और उसे ही अपना जीवनसर्वस्व समझती है। पति के मरने पर मृत पति के साथ वह भी जल मरती है। अमीर ख़ुसरों ने कहा है--

    -ऐ खु़सरो! प्रेम-पंथ में हिंदू-स्त्री से तू पीछे मत रह, उस की बराबरी कर कि वह मुर्दा पति के साथ अपनी ज़िंदा जान को जला देती है।

    इसी भाव को एक और फ़ारसी-कवि ने इन शब्दों में प्रकट किया है----

    हमचु हिंदूज़न कसे दर आ'शिक़ी मर्दान: नेस्त,

    सोख़्तन बर शम्अ'-ए- मुर्द: कार-ए- हर परवान: नेस्त।।

    -यानी प्रेम में हिंदू-स्त्री की तरह कोई मर्द मर्द-ए-मैदान नहीं। मरी हुई (बुझी हुई) शम्अ' (मोमबत्ती) के ऊपर जल मरना हर परवाने का काम नहीं है। एक उर्दू कवि ने इस भाव को और भी चमत्कृत कर दिया है----

    निस्बत् सती से दो पतंगे के तईं,

    इस में और उस में इलाक़ा भी कहीं!

    वह आग में जल मरती है मुर्दे कि लिये,

    यह गिर्द बुझी शम्अ' के फिरता भी नहीं।

    अफ़सोस है, भारतवर्ष की एक बहुत बड़ी विशेषता, जिसे शत्रु भी मुक्तकंठ से सराहते थे, ज़माने के हाथों मिट रही हैं। ‘सिविल मैरिज’ प्रचलित हो गया, तलाक़ की प्रथा के लिये प्रस्ताव हो रहे हैं! पाश्चात्य शिक्षा की आँधी ने सब की धूल उड़ा दी!

    ता सहर वह भी छोड़ी तु ने बाद-ए-सबा

    यादगार-ए-रौनक़-ए-महफ़िल थी परवाने की ख़ाक।

    ख़ुसरो की कविता में चमत्कार के साथ हृदय पर अधिकार करने की अद्भुत शक्ति भी है। इस के दो-एक ऐतिहासिक उदाहरण देखिए----

    एक लड़ाई में खु़सरो सुलतान मुहम्मद (ग़यासुद्दीन बलबन के बेटे) के साथ थे। खु़सरों तातारियों के हाथ क़ैद हो गए, और सुलतान मुहम्मद मारा गया। दो वर्ष के बाद किसी तरह छूट कर खु़सरो दिल्ली पहुँचे। ख़ान शहीद (सुलतान मुहम्मद) की मृत्यु पर जो मर्सिया (करुण कविता) इन्होंने लिखी थी, दरबार में बादशाह को सुनाई, जिसे सुन कर दरबार में हाहाकार मच गया, लोग रोते-रोते बेसुध हो गए। बादशाह (ग़यासुद्दीन बलबन) तो इतना रोया कि ज्वर चढ़ आया, और तीसरे दिन मर गया।

    एक बार ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया यमुना के किनारे एक कोठे पर बैठ कर हिंदुओं के स्नान-पूजा का तमाशा (!) देख रहे थे। खु़सरो भी पास बैठे थे। ख़्वाजा साहब ने कहा, देखते हो—

    हर क़ौम रा अस्त राहे, दीने क़िब्लागाहे।

    -अर्थात् प्रत्येक जाति अपने धर्म और ध्यय को ठीक समझ कर चल रही है, सब का मार्ग सीधा है।

    उस समय ख़्वाजा साहब की टोपी ज़रा टेढ़ी थी। अमीर खु़सरों ने तिरछी टोपी की ओर इशारा कर के फ़ौरन कहा—

    मा क़िब्ला रास्त कर्देम बर तरफ़ -ए-कजकुलाहे।

    जहाँगीर बादशाह ने ‘तुज़्क-ए-जहाँगीरी’ में लिखा है कि ‘मेरी मज्लिस में क़व्वाल यह शे'र गा रहे थे। मैं ने इस का शान-ए-नुज़ूल (प्रकरण और प्रसंग, जिस पर इस कविता की रचना हुई थी) पूछा। मुल्ला अलीअहमद मोहरकन ने उक्त घटना सुनाई। इस अंतिम पद के समाप्त होते-होते मुल्ला की हालत बदलनी शुरू हुई, बेहोश होकर गिर पड़े, देखा तो दम था!’

    भावुकता ने बेचारे मुल्ला की जान ले ली। खु़सरो की इस उक्ति में कौन-सा विष का बुझा बाण छिपा है, यह ज़रा सोचने की बात है।

    ‘क़िबला’ शब्द का अर्थ है ध्येय पदार्थ की प्रतीक, जिसे सामने रख कर ध्येय वस्तु का ध्यान करें। मुसलमान लोग काटबे की ओर मुँह कर के नमाज़ पढ़ते हैं, इसलिये वह ‘क़िब्ला’ कहलाता है। पूज्य व्यक्ति गुरु, पिता आदि को भी किब्ला कहते हैं। ख़्वाजा साहब (टेढ़ी टोपीवाले) खु़सरो के गुरु थे, अर्थात् ‘क़िब्ला’ थे। क़िब्ले की टोपी टेढी थी, खु़सरो ने विनोद से कहा, हम ने भी तो किब्ला सीधा ही किया- हमारा क़िब्ला सीधा था, टोपी टेढ़ी क्यों है? टोपी टेढ़ी नहीं, गोया क़िब्ला ही टेढ़ा हो गया। इसे एक ओर करो, नहीं तो देखे टेढ़े किब्ले को सलाम है! टेढा क़िब्ला दरकारा नहीं। यदि ख़ुसरो की इस उक्ति का यही भाव है- जैसा शब्दों से प्रकट होता है- तो इस मीठे मज़ाक़ में एक बाँकपन है, जिस से खु]सरो की सूझ हाज़िरजवाबी और ज़िंदादिली का सबूत मिलता है। पर इतनी-सी बात पर मुल्ला क्यों मर गया? बात कुछ गहरी और पते की है। मरनेवाला मुल्ला सच्चा और सहृदय था। इसलाम के एक बहुत बड़े प्रचारक हज़रत ख़्वाजा साहब के मुँह से यह सुन कर कि हर एक क़ौम का दीन, ईमान सीधा और सच्चा है, हर मज़हब अपने-अपने रास्ते पर ठीक है, मुल्ला के ध्यान में इसलाम का खू़नी इतिहास फिर गया, जिस ने कि दूसरे धर्मवालों को ‘गुमराह’ कह कर दीन के नाम पर खू़न की नदियाँ बहाई हैं, “या तो दीन-ए- इसलाम क़ुबूल करो, नहीं तो मरने को तैयार हो, सिर्फ़ एक दीन-इस्लाम ही सच्चा है, उस के सिवा सब कुफ्ऱ है, काफ़िरों को हक़ नहीं कि ज़िंदा रहे”- इसलाम को इस मतांधता ने करोडों निरपराध प्राणियों की हत्या कर डाली। यदि ख़्वाजे जे की बात सच्ची है कि “हर क़ौम रा अस्त राहे दीने क़िब्लागाहे”- हर क़ौम सीधे रास्ते पर है, सब का दीन और क़िब्ला (तीर्थ-स्थान, प्रतीक) सच्चे हैं, तो फिर दीन के नाम पर इतनी लूट-मार और नृशंस हत्याएँ क्यों की गई? इस का पाप किसके सिर जायगा? वे मतांध मुल्ला और बादशाह, जिन्हों ने धर्म के नाम पर बड़े-बड़े अधर्म किए, किस नरक में ढकेले जायँगे? सब दीन सच्चे हैं, तो फिर इस्लाम का विधर्मियों पर खू़नी जिहाद क्यों जारी है?

    हम समझते हैं, यही सोचते-सोचते सहृदय मुल्ला का हृदय फट गया! जो कुछ भी कारण रहा हो, मुल्ला के मरने में और खु़सरों के कलाम की तासीर में कलाम नहीं!

    खु़सरो के कलाम की तासीर के ये दो उदाहरण मारने के हुए। एक उदाहरण जिलाने का भी सुनिए.....

    कहते हैं कि नादिरशाह ने क्रुद्ध होकर जब दिल्ली में क़त्ल-ए-आम का हुक्म दिया और खु़द तमाशा देखने के लिये सुनहरी मस्जिद में डटकर बैठ गया। हज़ारों आदमी गाजर-मूली की तरह काट डाले गए, दिल्ली के गली-कूचे आदमियों की लाशों से भर गए, खू़न की नदी बह निकली, क़त्ल बराबर जारी था, नादिरशाह की रुद्रमूर्ति देख कर किसी की हिम्मत पड़ती थी कि कुछ प्रार्थना करे, तब मुहम्मदशाह (दिल्ली के बादशाह) का एक बूढा वज़ीर डरता-काँपता, जान पर खेल कर, नादिरशाह के सामने पहुँचा, और अमीर खु़सरो का यह शेर पढ़कर सिर झुकाए हाथ जोड़े हुए खड़ा हो गया---

    ‘कसे माँद कि दीगर तेग़-ए-नाज़ कुशी

    मगर कि ज़िंदा कुनी खल्क़ रा बाज़ कुशी।

    -अर्थात् कोई आदमी नहीं बचा, सब तुम्हारी क़हर की निगाह के शिकार हो गए, निगाहे-नाज़ की तलवार से सब को मार डाला, अब लोगों को लुत्फ़ की निगाह से ज़िंदा करो और फिर मारो। जब शिकारगाह के वध्य पशु समाप्त हो जाते है, तो नए जानवर पाले जाते हैं, और तब तक शिकार खेलना बंद रहता है।

    यह अन्योक्ति काम कर गई, नादिरशाह सुन कर तड़प गया, और फ़ौरन क़त्ल-ए-आम बंद करने का हुक्म दे दिया। उसी दम हत्या बंद हो गई।

    इस तरह खु़सरो के इस एक शेरने लाखों आदमियों की जान बचा दी।

    खु़सरो की कविता के कुछ नमूने

    प्रेम-पंथ के पचड़ों के चमत्कृत वर्णन को फ़ारसी में ‘वाक़िआ गोई’ कहते हैं। उर्दू वालों ने इसका नाम ‘मुआ'मला-बंदी’ रक्खा है। संस्कृत-कवियों ने तो श्रृंगार-रस में इस का बहुत चमत्कृत वर्णन किया है, पर फ़ारसी में इस रीति के प्रवर्तक अमीर खु़सरो ही हुए हैं। मौलाना गु़लामनबी आज़ाद ने अपनी एक ग्रंथ में इसका उल्लेख किया है, और शिबली ने इस मत की पुष्टि की तथा खु़सरो की फ़ारसी-कविता से इस विषय के कुछ उदाहरण भी उद्धृत किए हैं---

    ‘चूँ रफ़्तम् बर दरश, बिस्यार दरबाँ गुफ़्त मिस्कीं,

    गिरफ़्तारस्त शायद, कीं तरफ़ बिस्यार मी आयद।’

    -मुझे उस के (प्रेमपात्र के) दरवाज़े पर बार बार जाता देख कर दरबान ने कहा, शायद यह भी कोई ‘गिरफ़्तार’ है, क्योंकि अक्सर इधर आता है।

    मस्त आँ ज़ौकम् कि शब दर कु-ए-ख़्वेशम दीद-ओ-गुफ़्त।

    कीस्ती गुफ़्तद कि मिस्कीने गदाई मी-कुनद।

    -मैं उस घटना को याद कर के मस्त हूँ। रात जब उस ने मुझे गली में देख कर कहा कि यह कौन है? किसी ने कहा कि कोई ग़रीब है, भीख माँगता है।

    वा'द: मी ख़्वाहम-ओ-दर बंद -ए-वफ़ा नीज़ नयम्,

    ग़रज़ आनस्त कि बारे तक़ाज़ा बाशम्।

    -मैं वा'दा चाहता हूँ, वफ़ा की शर्त नहीं कराता- वा'दा पूरा हो, इस पर ज़ोर नहीं देता- इस बहाने से तक़ाज़ा करने का तो मौक़ा मिलता रहेगा।

    अज़ कुजा आमदी बाद ! कि दीवान: शुदम,

    बूए-गुल नेस्त कि मी आयदम् बूए-कसेस्त।

    -ऐ हवा! तू कहाँ से रही है? जो खु़शबू तू जा रही है, यह किसी फूल की तो है नहीं। इसे सूँघ कर मैं दीवाना (मस्त) हो गया। सच बता, यह सुगंध किस की है?

    गुफ़्ती अंदर ख़्वाब गह गह रूए खु़द बनुमायमत्,

    सुख़न बेगान: रा गो काश आँ रा ख़्वाब नेस्त।

    -तू जो कहता है कि मैं तुझे सपने में कभी-कभी सूरत दिखा दिया करूँगा, यह बात किसी ग़ैर से कह, दोस्त को नींद कहाँ! जो सपने में तुझे देखेगा!

    मन कुजा खु़स्पम् कि अज़ फ़रियाद-ए-मन,

    शब मी खु़स्पद कसे दर कुए-तू।

    -मुझे तो भला नींद क्यों आती! मेरे रोने से तो मेरे मुहल्ले में भी रात कोई सो सका!

    आश्ना कि गिरिय: कुनी-ओ-पंद मी-देही

    आब अज़ बरूँ मरेज़ कि आतिश बजाँ गिरफ़्त।

    दोस्त, तुम आँसू बहाते हो और मुझे समझाते हो, यह पानी बाहर मत गिराओ, आग तो अंदर लगी हुई है, उसे बुझाओ।

    गुफ़्तम् असीर गशती दिल,

    दीदी कि बआक़िबत् हमाँ शुद।

    दिल, मैं कहता था कि पकड़े जाओगे, देखा, आख़िर वही हुआ न?

    ब-लबम् रसीद: जानम् तू बया कि ज़िन्दा मानम्।

    पस अजाँ कि मन मानम् बचे कार ख़्वाही आमद।

    जान होठों पर आई हुई है, तू कि मैं ज़िंदा बचा रहूँ। उस के बाद जब कि मैं रहूँगा, तो तेरा आना फिर किस काम का होगा।

    मी रवी वो गिरिय: मी आयद मरा,

    साअ'ते बनशीं कि बाराँ बुग़ज़रद।

    तुम जा रहे हो और मुझे रोना रहा है। इतने तो ठहरे रहो कि यह आँसुओं की झड़ी बंद हो जाए। बारिश बंद होने पर चेल जाना।

    अच्छा चमका है। जाना ही तो रोने का कारण है। जब जायगा तभी रोना आयगा। कभी यह झड़ी बंद होगी वह कभी जा सकेगा।

    गुफ़्तम दिल मरौ आँ जा कि गिरफ़्तार शवी।

    आक़िबत रफ़्त-ओ- गुफ़्त:-ए-मन पेश आमद।

    दिल, मैं ने कहा था कि वहाँ मत जा, नहीं तो गिरफ़्तार हो जायगा। आख़िर तू माना, वहाँ गया, और जो मैं ने कहा था, वह सामने आया।

    ज़ू ज़े नज़्ज़ार: ख़राब-ओ-नाज़-ए-उ ज़े अंदाज़ा बेश,

    मा ब-बूए मस्त-ओ- साक़ी मी देहद पैमान: रा।

    मैं तो दर्शन-मात्र से ही मस्त हूँ और उस के नाज़ अदा अंदाज़े से बढ़े हुए है, मैं तो मद्य की गंध से ही मस्त हो रहा हूँ और साक़ी प्याले-पर-प्याला दिए जाता है! यह कृपा मार डालेगी।

    ख़्वाही जाँ बरो ख़्वाह बमन बाश कि मन,

    मूर्दनी नेस्तम् इमरोज़ कि जानाँ ईंजास्त।

    जान (प्राण), चाहे तो तू चली जा, चाहे मेरे पास रह। तू चली जायगी तो भी मैं आज मरूँगा नहीं, क्योंकि जानाँ (प्यारा) पास है।

    अत्युक्ति

    ब-ख़ान:-ए-तू हम आँ रोज़ बामदाद बुवद।

    कि आफ़ताब न-यारद शुद बुलंद ईं जा।

    तुम्हारे घर में तो तमाम दिन प्रातः काल ही का समय रहता है, क्योंकि वहाँ सूर्य ऊँचा नहीं हो सकता।

    फ़ारसी कवि मुख की सूर्य से उपमा देते हैं।

    इसी भाव का बिहारी का यह प्रसिद्ध दोहा है----

    पत्रा ही तिथि पाइयतु वा घर के चहुँपास,

    नित प्रति पून्योई रहत आनन-ओप-उजास।

    लेखक

    रवम् ज़े ज़ो'फ न-हर जानिबे कि आइ रवद्।

    चू अनकबूत कि बर तार-ए-ख़्वेश राह रवद्।

    कृशता के कारण उधर ही चल देता हूँ, जिधर आह (दुःखोच्छ्वास) जाती है, जैसे कि मकड़ी अपने तार पर उड़ी फिरती है। शरीर इतना कृश हो गया है कि वह आह के साथ उड़ा फिरता है।

    श्लेष

    ज़बान-ए-यार-ए- मन तुर्की मन तुर्की मीदानम्,

    चे खु़शबूदे अगर बूदे ज़बानश् दर दहान-ए- मन।

    उस चंचल की ज़बान (भाषा) तुर्की है, और मैं तुर्की नहीं जानता। क्या अच्छा होता कि उस की ज़बान मेरे मुँह में होती।

    ज़बान-शब्द श्लिष्ट है, भाषा और जिह्वा। इसी का इस शेर में मज़ा है!

    स्वर्गीय सैयद अकबर हुसैन ने भी इस भाव को अच्छे ढंग से अपनाया है---

    दिल! उस बुत-ए-फिरंग से मिलने की शक्ल क्या,

    मेरा तरीक़ और है, उस की है शान और।

    क्योंकर ज़बाँ मिलाने की हसरत बयाँ करूँ,

    उसकी ज़बान और है, मेरी ज़बान और।

    शम्अ' अज़ दिल-ए-उश्शाक़ निशाँ मी-आरद,

    जाँ अज़ सर-ए-सोज़ दरम्याँ मी आरद।

    खु़श मी सोज़द-ओ- ऐ'श ईनस्त,

    कि सोज़िश-ए- ख़्वेश बर ज़बाँ मी आरद।

    शम्अ' ने आशिक़ों के दिल से जलना सीखा है। यह भी अच्छी जलती है, पर इस में एक ऐ'ब (दोष) है कि अपने जलने को ज़बान पर लाती है। खु़द ज़ाहिर करती है। आ'शिक के दिल की तरह चुपचाप नहीं जलती!

    ज़बान पर लाना, ज़ुबानी (द्वयर्थक) है। इसी ने शे'र में जान डाल दी है, शम्अ' की लौ को भी ज़बान कहते हैं।

    मरने के बाद भी किसी का एहसान नहीं चाहता---

    ख़्वाहम बाद-ए-मुर्दन हेच कस बर मन कफ़न पोशद,

    कि आतिश चूं ब-मीरद ख़्वेश रा अज़ ख़्वेशतन पोशद।

    मैं नहीं चाहता कि मरने के बाद कोई मुझे कफ़न उढावें, कफ़न से ढँके। आग जब मरती (बुझती) है, तो ख़ुद अपने आपे को छिपा लेती है।

    बुझने पर जो राख रह जाती है, वही आग का कफ़न है।

    उपदेश और नीति

    खु़सरों ने एक क़सीदे में नीति और ज्ञान का उपदेश दिया है, हर एक वाक्य को दृष्टांत से दृढ़ किया है। दा'वा और दलील साथ-साथ मौजूद हैं। इस के कुछ नमूने लीजिए----

    मर्द पिनहां दर गलीमे बादशाहे-ए-आलमस्त,

    तीर-ए-खुफ़िया दर नियाम-ए-पासबान-ए-किश्वरस्त।

    मर्द आदमी कंबल में छिपा हुआ भी संसार का राजा है, तलवार म्यान में बंद हो, तो भी (अपने आंतक से) राज्य की रक्षक है।

    राहरों चूँ दर रिया कोशद मुरीदे शहवतरत,

    बेव: ज़न चूँ रु बयारद बुवदे-शोहरस्त।

    भक्ति-मार्ग का पथिक यदि दंभ का आचरण करता है, तो वह विषय-वासना का दास है! विधवा स्त्री, यदि श्रृंगार करती है, तो समझो पति करना चाहती है।

    नफ़्स ख़ाक-ए- बुवद हर गह नूर-ए-बाला बर तू ताफ़्त।

    साय: ज़ेर-ए-पा शवद् हर गह आफ़ताब बर सरस्त।

    जिस समय तेरे ऊपर परम ज्योति का प्रकाश होगा, तो मन ख़ुद ख़ाक हो कर रह जायगा, जब सूर्य का प्रकाश सिर पर होता है, तो छाया पैरों पर जाती है।

    बिरादर मादर-ए-दह्र अर खु़रद खू़नत मरेज़,

    चूँ तू दानी खू़न-ए-बिरादर बिह ज़े शीर-ए-मादरस्त।

    भाई! पृथ्वी माता तेरा खू़न पी जाय, तो रंज क्यों करता है, जब कि तू भाई के ख़ून को माता के दूध से मीठा समझता है!

    लेख बहुत बढ़ गया, इस से और अधिक उदाहरण देने का लोभ संवरण करना पड़ा। खु़सरो की हिंदी-कविता पर किसी दूसरे लेख में विचार किया जाएगा।

    इस लेख की प्रायः सामग्री मौलाना शिबली, मौ. हबीबुलरहमान शिरवानी और मौलाना आज़ाद के लेखों और ग्रंथों से ली गई है, और कुछ इधर-उधऱ से भी।

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