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समर्थ गुरु रामदास- लक्ष्मीधर वाजपेयी

माधुरी पत्रिका

समर्थ गुरु रामदास- लक्ष्मीधर वाजपेयी

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    महाराज विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में, जब कि भारतवर्ष में मुग़ल-राज्य अपनी उन्नति की चरम सीमा तक पहुँच चुका था, और उस समय के राज्य करनेवाले यवनों से भारतवर्ष की प्रजा बहुत पीड़ित हो रही थी, दक्षिण प्रांत में कुछ साधु पुरुष उत्पन्न हुए, उनमें समर्थ गुरु रामदास एक बहुत ही श्रेष्ठ दरजे के साधु हो गए है। उस समय की धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक दुर्दशा देखकर उनका हृदय दया से द्रवीभूत हुआ। और छत्रपति शिवाजी महाराज का मिलाप हो जाने से देशोद्धार का कार्य इनके द्वारा ऐसा उत्तम हुआ कि जिसका साक्ष्य इतिहास दे रहा है। इन्हीं दोनों सत्पुरुषों का प्रयत्न था कि जिसके कारण से औरंगजेब के समान प्रबल धर्मविद्वेषी को दबना पड़ा, और हिंदूधर्म तथा हिंदूराज्य का झंडा फिर एक बार अटक से कटक तक फहराया। ऐसे साधु पुरुष के विषय में कुछ जानने की जिज्ञासा किस देशभक्त को होगी? अतएव पाठकों को आज हम इन्हीं साधु महानुभाव का कुछ संक्षिप्त परिचय देना चाहते हैं, और आशा करते हैं कि हमारे पाठकगण इस संक्षिप्त परिचय से कुछ विशेष लाभ उठाने का प्रयत्न करेंगे।

    जन्म और बालपन

    श्रीसमर्थ रामदास स्वामी का जन्म रामनवमी के दिन, दोपहर के समय, अर्थात् ठीक रामजन्म के समय, संवत् 1665 में हुआ। इनके पिता सूर्याजी पंत एक बहुत बड़े भगवद्भक्त और सात्विक ब्राह्मण थे। माता राणाबाई भी बहुत ही साध्वी और पतिव्रता थीं। ऐसे धार्मिक दंपति से श्रीरामदास के समान साधु पुरुष का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। महाराष्ट्र के लोगों का तो ऐसा विश्वास है। महाराष्ट्र के लोगों का तो ऐसा विश्वास है कि रामदासजी हनुमानजी का अवतार थे। इस बात के प्रमाण में वे लोग भविष्यपुराण का निम्न श्लोक कहा करते हैं---

    अर्थात् “सतयुग में मारुत, त्रेता में पवनसुत, द्वापर में भीम और कलियुग में रामदास नाम से हनुमानजी का अवतार होगा।” और श्रीरामदासजी के बाल्यचरित्र की जो कहानियाँ- उनके चरित्रग्रंथों में लिखी हुई हैं, उनसे भी यहीं प्रकट होता है कि हनुमानजी के गुण इनमें बहुत से प्रकट हुए थे। बालपन में वे सदैव प्रसन्नचित और हास्यवदन रहते थे। शरीर सुदृढ़ और तेजस्वी था। चपल तारोम-रोम में भरी हुई थी। स्वभाव बड़ा नटखट और उपद्रवी था। वानर की तरह इधर-उधर कूदते फिरना और मुँह बनाकर लड़कों को चिढ़ाना इनका खेल था। इनके बचपन का नाम नारायण था। नारायण जब सात वर्ष के हुए, तब इनके पिता का देहांत हो गया। लड़कपन में अपने आप के भैयाजू के यहाँ ये पढ़ने को बैठाले गए थे। दो ही चार वर्ष के अंदर इन्होंने भैयाजी के यहाँ की पढ़ाई समाप्त कर दी। और फिर खेल-कूद में लग गए। गाँव के लड़कों का गिरोह बाँधकर ये अपने ग्राम के पास गोदावरी नदी के किनारे खेलने को चले जाते, और वहीं वृक्षों पर चढ़कर भाँति-भाँति के फल तोड़कर खाया करते थे, और फलों की गुठलियाँ फेंक-फेंककर नीचे अपने साथियों को मार दिया करते थे। कभी-कभी वृक्ष पर से नदी में कूद पड़ा करते थे। इसी प्रकार कूदने से एक बार इनके सिर में चोट भी लग गई थी, जिससे इनके सिर में एक गुल्मा पड़ गया था, जो जीवन-पर्यंत बना रहा। अस्तु। इसी प्रकार की इनकी बालचेष्टाओं को देखकर लोगों की यह धारणा और भी दृढ़ हो गई कि ये हनुमानजी का अवतार थे।

    विरक्ति

    प्रायः दस ही वर्ष की अवस्था से इनमें श्रीरामचंद्रजी की भक्ति और संसार से विरक्ति के लक्षण दिखाई पड़ने लगे। इनकी सारी चंचलता जाने कहाँ चली गई। और ये ग्राम के बाहर एक हनुमान् मंदिर में जाकर ध्यान-मग्न रहने लगे। कहते हैं कि हनुमानजी ने इनको दर्शन देकर यह आदेश दिया कि “सारी पृथ्वी में यवन छाए हुए हैं। अनीति का राज्य है। दुष्ट लोग अधिकारमद से मतवाले होकर साधुओं को सता रहे हैं। तीर्थों और देवमंदिरों को भ्रष्ट कर रहे हैं। इसलिये तुम “श्रीराम जयराम जय जय राम” इस त्रयोदशाक्षरी मंत्र का जाप करके सामर्थ्य प्राप्त करो, और फिर वैराग्य-वृत्ति से कृष्णा नदी के तट पर रहकर लोगों में धर्म और नीति का प्रचार करके उनका उद्धार करो।”

    बालक नारायण ने जब हनुमान-दर्शन का समाचार अपनी माता राणूबाई और अपने जेठे भाई श्रेष्ठजी से बतलाया, तब उनको बड़ा आनंद हुआ, परंतु दिन-दिन बढ़ती हुई इनकी विरक्ति देखकर इनकी माता को चिंता होने लगी कि कहीं लड़का हाथ से निकल जाय, और इसलिये उन्होंने शीघ्र ही इनको विवाह-बंधन में डालने का प्रयत्न प्रारंभ किया। विवाह की बात निकलने पर नारायणजी बहुत चिढ़ते, और नाना प्रकार से विरक्ति व्यक्त करते थे। एक बार विवाह की चर्चा छिड़ने पर ये जंगल में भाग गए। तब उनके बड़े भाई श्रेष्ठजी उनको वहाँ से ढूँढ़कर पकड़ लाए। उनकी यह चाल देखकर माता राणूबाई को बड़ी चिंता हुई। अवसर पाकर एक दिन माता रणूबाई अपने पुत्र नारायण को एकांत स्थान में ले गई, और अपनी शपथ दिलाकर उनसे यह प्रतिज्ञा करा ली कि “विवाह में “अंतरपट” पकड़ने तक मैं किसी प्रकार की आपत्ति करूँगा।” माता ने समझ लिया कि लड़का विवाह करने को तैयार हो गया।

    उत्तम कन्या देखकर विवाह निश्चित हो गया। उस समय नारायण, अर्थात् भावी रामदास स्वामी की अवस्था सिर्फ़ बारह वर्ष की थी। विवाह के दिन नारायण आनंदपूर्वक दूल्हा बनकर बारात के साथ गए। सीमंत-पूजन, पुण्याहवाचन, इत्यादि सब विवाह की विधि की गई। इशके बाद “अंतरपाट” पकड़ने का अवसर आया। ब्राह्मणों ने मंगलाष्टक पढ़ना प्रारंभ किया। फिर सब ब्राह्मण एक साथ ही, नियमानुसार, “सावधान” शब्द बोले। बालक नारायण, जिसमें पहले ही से संसार-विषयक विरक्ति भरी हुई थी, अपने मन में सोचने लगा कि बस, यही मौक़ा है- माता के सम्मुख की हुई प्रतिज्ञा भी पूर्ण हो चुकी- अब हमको सचमुच ही सावधान हो जाना चाहिए। यह सोचकर वे तुरंत ही विवाह-मंडप से चंपत हुए! कई लोग उनके पीछे दौड़े। पर वे वायुवेग से भागते हुए एक घने जंगल में घुस गए। और फिर किसी के हाथ में नहीं आए। और फिर किसी के हाथ में नहीं आए। इस प्रकार के भाग जाने पर माता को बड़ा हुआ, परंतु समर्थ रामदास के बड़े भाई श्रेष्ठ ने माता को समझा-बुझाकर शांत किया। श्रेष्ठजी भी बड़े भक्त और गृहस्थ साधु थे। उनको अपने छोटे भाई नारायण का अभिप्राय पहले ही मालूम हो चुका था। अस्तु। ब्राह्मणों ने शास्राधार दिखलाकर लड़की का दूसरा विवाह करा दिया।

    तप और तीर्थाटन

    नारायणजी विवाह-मंडप से भागकर पहले तो अपने ग्राम के जंगल में ही कई दिन तक छिपे रहे। इसके बाद वे नासिक पंचवटी को चले आए। वहाँ गोदावरी नदी के किनारे टाकली नामक स्थान में रहकर घोर तप करने लगे। उस समय उनकी दिनचर्या इस प्रकार थी-

    प्रातःकाल उठकर गोदावरी स्नान करने जाते, और वहाँ दोपहर तक कटिपर्यन्त जल में खड़े होकर जप करते थे। दोपहर के बाद पंचवटी में मधुकरी-भिक्षा माँगने को जाते, और श्रीरामचन्द्रजी का नैवेद्य लगाकर भोजन करते थे। इसके बाद कुछ समय तक भजन तथा ग्रंथावलोकन करते, और फिर सायंकाल होते ही जप और ध्यान में निमग्न हो जाते थे। उनका सब समय मंत्र, पुरश्ररण, भजन, इत्यादि ईश्वराराधन के कार्यों में व्यतीत होता था। वे किसी से बात भी करते थे, और किसी के घर जाते थे। पानी में खड़े रहने के कारण, कमर के नीचे सब देह गलकर सफ़ेद हो गई थी। पैरों और घुटनों की ख़ाल और मांस मछलियाँ नोच-नोचकर खा जाया करती थीं। समर्थ रामदास स्वामी का मन उस समय जप और ध्यान में इतना निमग्न हो जाता था कि मछलियों इत्यादि के नोचने पर वे कुछ भी कष्ट का अनुभव नहीं करते थे।

    इसी प्रकार श्रीसमर्थ ने बारह वर्ष तक बड़ी दृढ़ता के साथ तप किया। कहते हैं कि इस बीच में श्रीरामचंद्रजी ने कई बार उनको दर्शन देकर तप से निवृत्त होकर लोकोद्धार करने का आदेश दिया, पर समर्थ ने मन में निश्चय कर लिया था कि जब तक पूर्ण रूप से मन को जीत नहीं लेंगे, तप करना नहीं छोड़ेंगे। अंत में बारह वर्ष बाद जब उन्होंने देख लिया कि अब हमारा मन पूर्णतया हमारे वश हो गया- इंद्रियों की सारी चंचलता नष्ट हो गई, तब वे तप से परावृत्त हुए। बारह वर्ष की आयु से लेकर 24 वर्ष की अवस्था तक उन्होंने तीव्र साधना करके सामर्थ्य प्राप्त किया।

    इसके बाद वे सारे भारतवर्ष में भ्रमण करके तीर्थाटन करने को निकले। क्योंकि जिस प्रकार तीव्र तपस्या करके मनोजय प्राप्त करने की आवश्यकता है, उसी प्रकार लोकोद्धार करने अथवा प्रजा में धर्मस्थापना करने के लिये तीर्थयात्रा और देश टन करके स्वदेश-स्थिति और धार्मिक दशा जानने की ज़रूरत है।

    श्रीसमर्थ रामदास स्वामी ने सारे भारतवर्ष का प्रयास पैदल ही किया। उत्तर में गंगोत्री से लेकर दक्षिण में रामेश्वर तक और पूर्व में जगन्नाथजी से लेकर पश्चिम में द्वारका तक उन्होंने यात्रा की। पंजाब की ओर जाकर वे काश्मीर में अमरनाथ तक गए। बड़े-बड़े दुर्गम पर्वतों, घाटियों और नदी-नालों को पार करने में उस समय उनको कैसी-कैसी कठिनाइयाँ पड़ी होंगी, उनकी कल्पना भी आजकल रेल से प्रवास करनेवाले हम लोग नहीं कर सकते। फिर उनके पास उस समय एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी। उदरनिर्वाह के लिये उन्होंने भिक्षा-वृत्ति स्वीकार की थी। स्मरण रखना चाहिए कि भिक्षा-वृत्ति स्वीकार करने में उदरनिर्वाह करता ही एकमात्र उनका उद्देश्य नहीं था। किंतु भिक्षा की महिमा गाते हुए उन्होंने अपने दासबोध में भिक्षा का मुख्य हेतु बतलाया है। उन्होंने अपने दासबोध में भिक्षा का मुख्य हेतु बतलाया है। उन्होंने लिखा है-

    भिक्षा ह्मणजे निर्भय स्थिती।

    भिक्षेनें प्रगटे महन्ती।

    स्वतंत्रता ईश्वर प्रापी।

    भिक्षा गुणें।

    अर्थात् भिक्षा एक बहुत ही निर्भय स्थिति है। भिक्षा से ही निःस्पृहता प्रकट होती हैं, और स्वतंत्रता तथा ईश्वर की प्राप्ति भी भिक्षा से ही होती है। सच है, भिक्षा माँगने का उद्देश्य यदि केवल पेट पालना ही हो, किंतु यदि उसका यह उद्देश हो कि उसके मिस से स्वदेश की दशा का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त किया जाय, तो इससे बढ़कर अन्य कोई साधन नहीं है। क्योंकि रामदास (.......................................... उपलब्ध नहीं है।)

    अर्थात् चाहे कोई कुग्राम हो, और चाहे कोई सुंदर नगर हो, भिक्षा के बहाने घर-घर छान डालना चाहिए। भिक्षा के ही मिस से, छोटे से लेकर बड़े तक, सबकी परीक्षा कर डालनी चाहिए कि कौन कैसा कहाँ पर रहता है, और उसका किस प्रकार हम अपने कार्य में उपयोग कर सकते हैं।

    इस प्रकार बारहे वर्ष तक पैदल प्रवास करके श्रीसमर्थ ने अनेक प्रकार के आधिभौतिक तापों का अनुभव प्राप्त किया, भिन्न-भिन्न जनस्वभावों की परीक्षा की, भाँति-भाँति के सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक आचार-व्यवहार देखे, भिन्न-भिन्न प्रांतों के राज्य-प्रबंध का अवलोकन किया, नाना प्रकार से संतसमागम करके अध्यात्म-ज्ञान का रहस्य जाना, और प्रकृति के अनेक चमत्कारिक तथा रमणीय दृश्यों का निरीक्षण किया। सारांश यह है कि स्वदेशसंबंधी सारी आवश्यक बातों का ज्ञान उन्होंने, देशपर्यटन और तीर्थ-यात्रा करके प्राप्त किया। इश संपूर्ण ज्ञान का परिपाक उनके ग्रंथों में हुआ है। उनकी कविता में स्थान-स्थान पर प्रकृति के मनोहर और अनूठे दृश्यों का प्रतिबिंब बड़ी ही उत्तमता के साथ अवतीर्ण हुआ है।

    तीर्थ-यात्रा करने के बाद श्रीसमर्थ गोदावरी की प्रदक्षिणा करते हुए अपनी जन्मभूमि जांब नामक ग्राम के पास से निकले। अब उनकी अवस्था छत्तीस वर्ग की हो चुकी थी। चौबीस वर्ष के अनंतर अपनी जन्मभूमि के निकट निकलने पर स्वाभाविक ही उनको अपनी माता और बड़े भाई का स्मरण हो आया। इसलिये वे उनके दर्शन को गए। चोबीस वर्ष बाद अपने पुत्र नारायण से मिलकर उनकी माता को जा अपूर्व आनंद हुआ, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। कुछ दिन वहाँ रहने के बाद श्रीसमर्थ ने माताजी से फिर जाने की आज्ञा माँगी। उस समय माता ने कहा कि “नारायण, तू बार-बार भागता है, इससे मुझे बहुत दुःख होता है- क्या तुझे कोई भूत तो नहीं लगा है?” इसका उत्तर श्रीरामदासजी ने एक कविता बनाकर दिया है। उस कविता का भाव यह है-

    “अरी माता, जो भूत बैकुंठ में था। फिर वहाँ से उतरकर अयोध्या के महलों में संचार करने लगा, जो भूत कौशल्या के स्तनों में लगा था, जिस भूत के चरण-स्पर्श से पत्थर की शिला सी बन गई, वही सब महाभूतों का प्राणभूत मुझमें संचार कर गया है।” इस छोटी सी कविता में श्रीसमर्थ ने अपने उपास्य देव श्रीरामचंद्रजी का सारा चरित्र साररूप में बड़ी ही चमत्कार-पूर्ण भाषा में कह डाला है।

    समर्थ के बिदा होते समय उनकी माता ने जब बहुत दुःख प्रकट किया, तब उन्होंने अपनी माता को उसी अध्यात्मज्ञान का उपदेश किया कि जो भागवत में कपिलमुनि ने अपनी माता को किया है। उससे वृद्धा माता को कुछ संतोष हुआ, और फिर समर्थ अपने बड़े भाई तथा माता की आज्ञा लेकर चल दिए।

    धर्मप्रचार और लोकोद्धार

    घर से चलकर श्रीरामदास स्वामी गोदावरी की प्रदक्षिणा पूर्ण करते हुए पंचवटी के पास फिर उसी स्थान पर आए, जहाँ उन्होंने तप किया था, और श्रीरामचंद्र ने दर्शन देकर उन्हें लोकसेवा का आदरेश दिया था। इस परिभ्रमण में उनको पूरे बारह वर्ष लगे। वे जहाँ-जहाँ गए, भगवद्भक्ति और समाजसेवा के भावों का प्रचार किया, और अपनी सामर्थ्य को बढ़ाकर पूर्ण “समर्थ” बन गए। अब उन्होंने महाराष्ट्र में लोकोद्धार का कार्य प्रारंभ किया। जगह-जगह हनुमान् और श्रीरामचंद्र के मठ स्थापित किए, और लोगों में रामायण तथा महाभारत के आधार पर कथा-कीर्तन तथा उपदेश के द्वारा धर्म और नीति का प्रचार करना शुरु किया। ध्यान में रखने की बात है कि समर्थ रामदास स्वामी इस प्रकार लोकोद्धार करते हुए भी आप स्वयं सबसे अलिप्त रहते थे। जहाँ कहीं मठ और व्यायामशालाएँ खोलते, वहीं किसी अपने शिष्य को वहाँ का महंत बना देते, और आप स्वयं दुर्गम स्थानों में- पर्वतों की गुफाओं में- रहकर ईश्वर-भजन और ध्यान में मग्न रहते थे। अपनी इसी कार्यशैली का उन्होंने अपने दासबोध में जगह-जगह उल्लेख किया है। एक जगह आप कहते हैं-

    ठाई ठाई भजन लावी।

    आपण तेथून चुकावी।

    मत्सरमतांची गोवी।

    लागोंच नेदी।

    अर्थात् कार्यकर्ता मुख्य महंत का कर्तव्य यह है कि जगह-जगह भ्रमण करके लोगों को उपासना और लोक-सेवा के कार्य में लगा देवे, और आप स्वयं वहाँ से चल देवे- किसी पाखंड में लिप्त होवे। एक जगह आपने अपने विषय में यों उल्लेख किया है-

    दास डोंगरी राहा तो।

    यात्रा देवाची पाहा तो।

    देवभक्तां सवें जातो।

    ध्यान रूपें।

    अर्थात् दास (रामदास स्वामी) पर्वतों की गुफाओं में रहता है, और वहीं से बैठे-बैठे, बस्ती में निकला हुआ, श्रीरामचंद्रजी का जुलूस देखा करता है- यही नहीं, बल्कि ध्यानरूप से उस जलूस में सम्मिलित होकर भक्तों के साथ चलता भी है।

    श्रीरामदास स्वामी ने अपने महंत तो जगह-जगह स्थापित किए ही थे, इसके सिवाय उस समय के अन्य साधु-महात्माओं से मिलकर भी उनमें एक विशेष प्रकार का संगठन उत्पन्न कर दिया था। सब संतों का वे स्वयं बहुत आदर करते थे, और अन्य सब संत उनको “समर्थ” कहकर सम्बोधन करते थे। जयराम स्वामी, रंगनाथ स्वामी, केशव स्वामी, आनंदमूर्ति स्वामी और रामदास स्वामी, इन पाँचों महात्माओं का एक गुट्ट था। इस गुट्ट को “दास पंचायतन” कहते थे। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध साधु तुकाराम भी उसी समय महाराष्ट्र में भगवद्भक्ति का प्रचार कर रहे थे। विक्रम की सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में महाराष्ट्र के साधु-संतों ने समाज में जो जागृति उत्पन्न की, उसी का प्रभाव था कि उस प्रांत में यवनों का प्रभाव नहीं जम सका, और शिवाजी महाराज को स्वराज्य-स्थापना में बहुत सुविधा हुई।

    समर्थ और शिवाजी

    जब श्रीसमर्थ रामदास स्वामी ने अपने तेजस्वी उपदेशों के द्वारा महाराष्ट्रसमाज का संगठन करके उसमें जागृति उत्पन्न करना प्रारंभ किया, तब उनकी कीर्ति शिवाजी महाराज के कानों तक पहुँची। इस समय शिवाजी महाराज के उत्कर्ष का प्रारंभिक काल था। उन्होंने दो-एक क़िले जीते थे, और धीरे-धीरे राज्य-संपादन में लगे हुए थे। संतसमागम में उनकी पहले ही से बहुत रुचि थी, और राजकाज से अवसर निकालकर समय-समय पर वे साधुओं की सेवा में उपस्थित होकर उनका उपदेश ग्रहण किया करते थे। उन्हीं दिनों में एक बार वे महासाधु तुकाराम के पास गए, और उनसे मंत्र देने की प्रार्थना की। तुकारामजी ने कहा कि आप क्षत्रिय हैं, मैं वैश्य हूँ। आपको मंत्र देने का मुझको अधिकार नहीं है। आप श्रीरामदास स्वामी की शरण में जाइए। यह सुनकर शिवाजी की समर्थ विषयक जिज्ञासा और भी बढ़ गई, और उन्होंने श्रीसमर्थ के पास जाकर उनके दर्शन का कई बार प्रयत्न किया, पर समर्थ उन दिनों जंगल-पहाड़ों में भ्रमण किया करते थे, उनके रहने का कोई एक स्थान नियत नहीं था, अतएव शिवाजी को उनके दर्शन नहीं हो सके। परंतु कुछ दिन बाद शिवाजी के पास समर्थ रामदास का एक पत्र आया। उसका सारांश इस प्रकार है—

    “इस समय तीर्थक्षेत्रों को यवनों ने भ्रष्ट कर दिया है। सारी पृथ्वी यवनों के अत्याचार से विकल है। धर्म का ह्रास हो रहा है, परंतु नारायण ने देवधर्म और गो-ब्राह्मणके प्रतिपालन की हृदय में प्रेरणा की है। तुम्हारे सभा-नायकों में पंडित, पौराणिक, कवीश्वर (यहाँ भूषण कवि की तरफ इशारा जान पड़ता है) याज्ञिक, वैदिक, चतुर राजनीतिज्ञ, तार्किक सभा लोग है, और तुम्हारे ही कारण से इस समय धर्म की कुछ रक्षा भी हो रही है। तुमने कितने ही दुष्टों का संहार किया है, कितने ही तुम्हारे भय से भगे हुए हैं, और कितने ही तुम्हारे शरण हो चुके हैं। हम भी तुम्हारे देख में रहते हैं, पर अभी तक तुमने हमारी कुछ भी ख़बर नहीं ली- शायद तुमको किसी संस्कारवश विस्मरण हो गया है। तुम धर्मात्मा हो, सब जानते हो, विशेष तुमसे क्या कहें, धर्म-स्थापना का कार्य सम्हालते रहो। बड़े-बड़े राजकीय कार्यों में लगे रहने के कारण तुम्हारा चित्त अवश्य ही व्यग्र होगा। हमने यह पत्र शायद बेमौक़े लिखा हो, तो क्षमा करना।”

    यह उस कविता-बद्ध पत्र का सारांश है। इस पत्र को पढ़कर शिवाजी की समर्थ से मिलने की आकांक्षा और भी तीव्र हो गई, तथा दूसरे ही दिन वे अपने कुछ मंत्रियों के साथ उनके दर्शन हो गए। बहुत ढूँढ़ खोज करने के बाद रामदासजी पहाड़ों की तराई में एक बाग में मिले। उनको देखते ही शिवाजी महाराज ने उनके सामने श्रीफल रखकर उनको साष्टांग प्रणाम किया। स्वामीजी ने भी उनके मस्तक पर वरद-हस्त रखकर उनको श्रीफल, मुट्ठी भर मिट्टी, मुट्ठी भर घोड़े की लीद, और मुट्ठी भर कंकड़ प्रसाद में दिए। शिवाजी महाराज ने अपने को कृतकृत्व माना और श्रीसमर्थ से मंत्रदीक्षा देने तथा उपदेश देने की प्रार्थना की। श्रीसमर्थ ने त्रयोदशाक्षरी राममंत्र की दीक्षा दी, और कुछ आध्यात्मिक उपदेश दिया (यह उपदेश “लघुबोध” नाम से उन्होंने पीछे से अपने दासबोध नामक ग्रंथ में सम्मिलित कर दिया है)। इसके बाद शिवाजी ने राजकाज छोड़कर, अन्य शिष्यों की भाँति, समर्थ की ही सेवा में रहने की इच्छा प्रदर्शित की। इस पर राजनीति और क्षात्रधर्म का उपदेश करके श्रीसमर्थ ने उनसे कहा, “तुम क्षत्रिय हो, राज्य-रक्षा, प्रजापालन और देव-ब्राह्मण की सेवा तुम्हारा धर्म है। तुम्हारे हाथ से अभी बहुत-सा कार्य होना है। संपूर्ण पृथ्वी म्लेच्छमय हो रही है। श्रीरामचंद्रजी की इच्छा है कि म्लेच्छों का दमन तुम्हारे हाथ से हो, और धर्म की स्थापना हो। यही तुम्हारे लिये परमार्थ है। प्राचीन काल में जो राजा हो चुके हैं, उनकी कीर्ति पुराणों में तुम सुनते ही रहते हो। तुम्हारे पूर्वज कैसे धीर वीर गंभीर थे, सो भी तुम जानते हो। उनमें से सीसोदसिंह, पृथ्वीपालसिंह, लक्ष्मणसिंह, इत्यादि का प्रताप अपने ध्यान में लाओ, और राजधर्म तथा क्षात्र-धर्म का पालन करो। यही तुम्हारे लिये उचित है।”

    यह उपदेश सुनकर शिवाजी को परम समाधान हुआ। वे तीन दिन वहाँ रहे। इसके बाद समर्थ को साष्टांग नमस्कार करके वे प्रतापगढ़ क़िले को लौट आए। महल में आकर उन्होंने माता जिजाबाई को समर्थ का दिया हुआ प्रसाद दिखलाया। माताजी ने लीद, मिट्टी, कंकड़ और नारियल प्रसाद में देने का कारण पूछा। तब शिवाजी ने कहा कि “लीद घोड़ों की वृद्धि की दर्शक है, मिट्टी के रूप से पृथ्वी की प्राप्ति प्रदर्शित होती है, और कंकड़ क़िलों की वृद्धि का चिह्न है। श्रीफल संपूर्ण सिद्धियों का प्रदर्शक प्रत्यक्ष हैं।”

    संवत् 1706 वि. में शिवाजी को समर्थ का दर्शन हुआ। उस समय शिवाजी की अवस्था बाइस वर्ष की थी। उस समय से प्रत्येक गुरुवार को शिवाजी समर्थ के दर्शनों को जाते, और अपने प्रत्येक राजकाज में उनकी अनुज्ञा लिया करते थे। परंतु श्रीसमर्थ के एक स्थान पर रहने के कारण और स्वयं शिवाजी महाराज को अनेक राजकाज रहने के कारण, शिवाजी को समर्थ के निकट बार-बार आकर उनके दर्शन करने में बहुत कठिनाई पड़ती थी। अतएव कुछ समय बाद शिवाजी ने उनसे प्रार्थना की कि अब आप कृपा करके रायगढ़ अथवा प्रतापगढ़ (सितारा) में चलकर रहें, जिससे महाराज का दर्शन हमको सदैव अनायास होता रहे। समर्थ ने शिवाजी की प्रार्थना स्वीकार की, और सितारे के पास परली नामक पर्वत पर जाकर रहने लगे। तब से इस स्थान का नाम सज्जनगढ़ पड़ गया। शिवाजी ने वहाँ एक मठ बनवा दिया, और उत्सव इत्यादि के लिये कुछ जागीर लगा दी। समर्थ की जन्म-भूमि जांब नामक ग्राम में भी शिवाजी महाराज ने मठ के प्रबंध के लिये 33 गाँव और प्रतिवर्ष के लिये 121 खंडी गल्ला लगा दिया था। इस रियासत का कुछ भाग अब भी श्रीसमर्थ के बड़े भाई श्रेष्ठ के वंशजों में चला आता है। प्रत्येक वर्ष वहाँ कई उत्सव धूमधाम से मनाए जाते हैं।

    श्रीरामदास स्वामी अपने अनेक मुख्य-मुख्य शिष्य और शिष्यओं के साथ रहकर वहीं से धर्म-प्रचार करने लगे।

    शिवाजी के पिता राजा शहाजी तथा माता जिजाबाई भी शिवाजी के साथ एक-दो बार सज्जनगढ़ पर समर्थ के दर्शन को गई थीं। एक बार उनके भाई व्यंकोजी और सौतेली माता तुकाबाई भी समर्थ के दर्शन को तंजौर से आई थीं। राजा व्यंकोजी के निमंत्रण से समर्थ धर्म-प्रचार करते हुए तंजौर प्रांत तक गए थे, और वहीं व्यंकोजी को मंत्रदीक्षा दी थी, तथा अपना मठ स्थापित करके दो महंत धर्म-प्रचार के लिये नियुक्त कर दिए थे।

    चैत्र सुदी 15 सं. 1737 में छत्रपति शिवाजी महाराज का देहांत हुआ। इस शोक़-समाचार को सुनकर समर्थ को अत्यंत दुःख हुआ। उसी दिन से उन्होंने अन्न छोड़ दिया और केवल दुग्धाहार करके शरीर-यात्रा चलाने लगे। इधर-उधर जाना भी उन्होंने छोड़ दिया, और सिर्फ़ अपने मठ में ही रहकर भगवद्भजन में निमग्न रहने लगे। सम्भाजी के राज्याभिषेकोत्सव में श्रीरामदास स्वामी स्वयं नहीं गए थे, किंतु अपने एक महंत को भेज दिया था। कुछ दिनों के बाद सम्भाजी के अत्याचारों का समाचार पाकर समर्थ ने उनको एक उपदेशप्रद पत्र लिखा, पर सम्भाजी ऐसे कुसंग में फँस गए थे कि उन्होंने समर्थ के उपदेश से कोई लाभ नहीं उठाया।

    समर्थ का निर्वाण

    हम ऊपर कह चुके हैं कि शिवाजी के स्वर्गवास होने पर श्रीसमर्थ ने अन्न छोड़ दिया था, और सिर्फ़ थोड़ा-सा दूध पीकर रह जाते थे। इससे उनका शरीर क्षीण होने लगा। उनके शिष्यों ने प्रार्थना की कि यदि सज्जनगढ़ की शीतवायु आपके अनुकूल हो, तो चाफल के मठ में ले चलें, परंतु श्रीसमर्थ ने कहा कि अब हम यहाँ से कहीं नहीं जायँगे। अंत में संवत् 1738 की माघ कृष्ण अष्टमी का दिन पहुँचा। इस दिन प्रातःकाल से ही श्रीरामदास स्वामी ने अपनी सब शिष्य-शिष्याओं को एकत्र करके भजन (भक्तिपदगान) करने की आज्ञा दी। दिन भर भजन होता रहा। रात को भी भजन की खूब धूम मची रही। नवमी का दिन आया। उस दिन श्रीसमर्थ स्वयं पलँग से नीचे उतरकर बैठ गए। शिष्यों के बहुत आग्रह करने पर आपने कुछ मिश्री और दाख खाकर थोड़ा-सा निर्मल जल-पान किया। थोड़ी देर बाद शिष्यों ने पलँग पर बैठने की उनसे प्रार्थना की। समर्थ ने कहा कि मुझे पलँग पर उठाकर रखो। यह आज्ञा पाकर उद्धव स्वामी उन्हें उठाने लगे, पर वे उनसे नहीं उठ सकें। यह देखकर आकाबाई नामक समर्थ की एक शिष्या भी उद्धव स्वामी के साथ उनको उठाने लगीं, फिर भी वे नहीं उठे। अंत में दस शिष्य मिलकर उनको उठाने लगे, पर सब विफल हुए। इसके बाद समर्थ ने सबको अलग होने की आज्ञा दी। उनके हटने पर जब वे वायु आकर्षण करने लगे, तब सब शिष्य फूट-फूटकर रोने लगे। समर्थ ने उन सबसे कहा, “क्या आज तक हमारे पास रहकर तुम सब रोना ही सीखे हो?” शिष्यों ने कहा, “सगुण मूर्ति जाती है, अब भजन किसके साथ करेंगे, और बोलने की इच्छा होने पर किससे बोलेंगे?” समर्थ ने अंतिम उत्तर दिया, “जो मेरे पीछे मुझसे बोलना चाहें, वे दासबोध आदि मेरे ग्रंथ पढ़े।” इसके बाद ग्यारह बार उन्होंने “हर-हर” शब्द का उच्चारण किया, और अंत में ‘राम’ शब्द के उच्चारण करते ही, समर्थ के मुख से तेज निकलकर सामने की राममूर्ति में प्रविष्ट हो गया! भजन-गान की ध्वनि उस समय और भी गंभीर हो गई। इस प्रकार 73 वर्ष की अवस्था में महाराष्ट्र का यह विलक्षण भगवद्भक्त और राजनीति पटु साधु ‘राम’ में विलीन हो गया!

    समर्थ के मठ और शिष्य

    श्रीरामदास स्वामी ने संपूर्ण भारतवर्ष के मुख्य-मुख्य धर्मस्थानों में और महाराष्ट्र भर में अपने मठों की स्थापना की थी। इन मठों में हनुमानजी अथवा रामचंद्रजी की मूर्तियाँ स्थापित करवाई थीं, और प्रत्येक मठ में अपने महंत रख दिए थे। ये महंत लोग निःस्पृह और ब्रह्मचारी रहकर लोगों में, कथा-कीर्तन के द्वारा, नीति-धर्म का प्रचार करते थे। इनमें से कई महंत स्वयं रामदास स्वामी के समान ही प्रभावशाली थे। उनके अनेक शिष्य गुप्तरूप से भी देश में संचार करते हुए प्रचार किया करते थे। इससे ठीक-ठीक यह नहीं कहा जा सकता कि उनका शिष्य-समुदाय कितना था। उनका यह ख़ास उपदेश था कि-

    उत्तम गुण तितु के ध्यावे।

    गेऊन जनास शिकवावे।

    उदंड समूदाय करावे।

    परी गुप्तरूपें।

    अर्थात् जहाँ-जहाँ जो-जो उत्तम गुण मिल सकें, सब ग्रहण कर लेना चाहिए, फिर उन्हीं गुणों को अन्य लोगों को सिखाना चाहिए- बहुत बड़ा समुदाय एकत्र करना चाहिए, पर गुप्तरूप से! सो गुप्तरूप से समर्थ के बनाए हुए कितने महंत कहाँ पर काम करते थे, इसका पता लगाना कठिन ही नहीं, बल्कि असंभव है। हाँ, उनके स्थापित किए हुए कुछ मठों और महंतों का पता अवश्य लगा है, जिनमें से मुख्य-मुख्य का नाम नीचे दिया जाता है—

    1. कल्याण स्वामी डोमगाँव के मठ में। 2. दत्तात्रेय स्वामी शिरगाँव के मठ में। 3. वासुदेव स्वामी कन्हेरी के मठ में। 4. देवदास दादेगाँव के मठ में। 5. उद्धव स्वामी टाकली और इंदूरबोधन के मठों में। 6. दिवाकर स्वामी चाकल के मठ में। 7. अनंत मौनी कर्नाटक के मठ में। 8. विश्वनाथ पंडित को समर्थ ने उत्तर हिंदोस्तान में भेजा था। 9. बालकृष्ण बरार प्रांत में प्रचार करते थे। 10. माधव, बादव और वेणीमाधव प्रयाग प्रांत में प्रचार करते थे। 11. जनार्दन सूरत में। 12. श्रीधर रामकोट में। 13. गोविंद गोवा प्रांत में। 14. शिवराम तैलंग प्रांत में। 15. शंकर श्रीरंगपट्टन में। 16. हरिश्चंद्र अंतर्वेदी में। 17. रामकृष्ण अयोध्या में। 18. हरिकृष्ण मथुरा में। 19. जयकृष्ण मायापुरी में। 20. रामचंद्र काशी में। 21. भगवंत कांची में। 22. हरी द्वारका में। 23. दयालु बदरी-केदार में। 24. ब्रह्मदास ओंकारेश्वर में। 25. बल्लाल जगन्नाथजी में। 26. हनुमान रामेश्वर में।

    इससे पाठकों को मालूम हो जायगा कि समर्थ रामदास का कार्यक्षेत्र कितना विस्तीर्ण था। ये महंत पहले बहुत दिन तक श्रीसमर्थ के पास रहकर परमार्थ की शिक्षा ग्रहण करते थे। जब वे बिलकुल निर्भय और निःशंक हो जाते थे, तब स्वतंत्ररूप से किसी मठ में स्थापित कर दिए जाते थे। श्रीरामदास स्वामी का उपदेश है कि—

    महते महंत करावे।

    युक्ति बुद्धीनें भरावें।

    जाणते करून बिखरावे।

    नाना देशीं।

    अर्थात् महंत को चाहिए, और भी बहुत से महंत तैयार करे- उनको युक्ति और बुद्धि से भरे- इस प्रकार उनको ज्ञाता बनाकर नाना देशों में प्रचारार्थ भेज दे। महंत में निम्नलिखित गुणों की आवश्यकता श्रीसमर्थ ने अपने ग्रंथों में बतलाई है—

    1. परिभ्रमण, 2. विवेक, 3. कष्टसहनशक्ति, 4. मृत्यु की निर्भयता, 5. यश की लालसा, 6. वैराग्य, 7. निःस्पृहता, 8. चातुर्य या विचक्षणता, 9. मृदु वचन, 10. क्षमा, 11. शांति, 12. सहिष्णुता, 13. परोपकार बुद्धि, 14. उत्कट इच्छाशक्ति और 15. ब्रह्मचर्य।

    पुरुष शिष्यों की तरह रामदास स्वामी की प्रत्येक स्त्री शिष्याएँ भी थीं, जिनमें से कुछ के नाम नीचे दिए जाते हैं।

    1. सीताबाई, 2. चिमणाबाई, 3. अम्बिका, 4. द्वारकाबाई, 5. भवाबाई, 6. कृष्णबाई, 7. वेणूबाई, 8. मनाबाई, 9. अन्नपूर्णाबाई, 10. गंगाबाई, 11. गोदाबाई, 12. आकाबाई इत्यादि। इनमें से कई देवियाँ वेदांत में पूर्ण निष्णात थीं, और कई ने अनेक ग्रंथों की रचना की है। ये सब देवियों घरों-घरों में जाकर स्त्री-समाज में धर्म और नीति का प्रचार किया करती थीं।

    समर्थ के ग्रंथ

    श्रीसमर्थ रामदास स्वामी का ग्रंथ-समुदाय भी बहुत बड़ा है। महाराष्ट्र प्रांत के इतिहास संशोधन ज्यों-ज्यों प्राचीन ग्रंथों की खोज करते जाते हैं, त्यों-त्यों समर्थ अथवा उनके शिष्य-शिष्यओं के लिखे हुए नवीन-नवीन ग्रंथ मिलते जाते हैं। उनके जिन ग्रंथों का अभी तक पता लगा है, वे इस प्रकार हैं—

    1. दासबोध, 2. रामायण, 3. मन के श्लोक, 4. चौदा शतक, 5. जनस्वभाव गोसावी, 6. पंचसमासी, 7. जुनाट पुरुष, 8. मानसपूजा, 9. जुनादासबोध, 10. पंचीकरणयोग, 11. चतुर्थ योगमान, 12. मानपंचक, 13. पंचमान, 14. रामगीता, 15. कृतनिर्वाह, 16. चतुःसमासी, 17. अक्षरपदसंग्रह, 18. सप्तसमासी, 19 रामकृष्णस्तव इत्यादि।

    इनके सिवाय स्फुट रचना भी बहुत है। समर्थ के एक पट्ट शिल्प थे कल्याण स्वामी। ये समर्थ के साथ सदैव रहते थे। समर्थ चाहे जैसे दुर्गम पर्वतों और घाटियों में जावें, ये उनका साथ नहीं छोड़ते थे। समर्थ के सब ग्रंथ इन्हीं के हाथ के लिखे हुए हैं। समर्थ रामदास के हाथ में एक कुबड़ी सदैव रहती थी। इसी कुबड़ी के अंदर काग़ज, क़लम, दवात, इत्यादि सब लेखन-समाग्री रहा करती थी। समर्थ जब कभी लहर में आते, किसी शांत, एकांत, रमणीय स्थान में बैठे जाते, और अपना उपदेश पद्यात्मक रूप में बोलने लगते, और कल्याण स्वामी उसको लिपिबद्ध करते जाते थे। इसी प्रकार से उनकी सब रचना हुई है।

    समर्थ की रनचा पद्यात्मक, परंतु उपदेशपूर्ण है, केवल मनोरंजन के लिये उन्होंने कोई पद्य नहीं लिखा है। उनके ग्रंथों ने, उनके ज़माने में ही लोगों के अंदर विचार-क्रांति फैला दी थी, और आजकल भी महाराष्ट्र में उनके ग्रंथों का बहुत बड़ा प्रभाव है। उनके “मन के श्लोक” तो प्रत्येक आबालवृद्ध, नरनारी की जिह्वा पर नाचते रहते हैं। रामदासी सम्प्रदाय के साधु अब भी प्रतिदिन यही श्लोक गाकर घर-घर मधुकरी माँगते हुए देखे जाते हैं।

    इन श्लोकों की रचना समर्थ ने भुजंगप्रधान वृत्त में की है। कहते हैं कि समर्थ के समय में मुसलमान फ़कीर अपने “सवाल” गा-गाकर हिंदुओं की बस्तियों में भिक्षा माँगा करते, और अपने संसर्ग से हिंदू-समाज में भ्रष्टता फैलाते थे। उनका प्रभाव खमाज से हटाने के लिये श्रीसमर्थ ने, उनके सवालों की चाल पर इन श्लोकों की रचना की थी, और अपने समुदाय के लोगों के द्वारा समाज में उनका प्रचार कराया था।

    समर्थ की शिक्षा

    रामदास स्वामी की शिक्षा का सार निम्नलिखित पंक्तियों में गया है—

    पहिलें तें हरिकथा निरूपण।

    दूसरें तें राजकारण।

    तिसरें तें सावधपण।

    सर्वविषर्ई।

    अर्थात् पहले परमात्मा की कथा का श्रवण, मनन और कीर्तन करके अपनी आध्यात्मिक शक्ति को बढ़ाना चाहिए, फिर राज्यस्थापना का कार्य अपने हाथ में लेना चाहिए, और सबके विषय में सावधान रहना चाहिए। इसी बात को बार-बार उन्होंने बतलाया है। एक जगह और भी कहा है—

    हरिकथा निरूपण।

    नेमस्तपपों राजकारण।

    वर्तायाचें लक्षण।

    तेहि असावें।

    अर्थात् हरिकथा निरूपण कभी मत छोड़ो। राजनैतिक कार्यो को नियमानुसार और सावधानी के साथ करो, साथ ही व्यवहारज्ञान भी अवश्य होना चाहिए।

    समर्थ का विश्वास था कि जब तक परमात्मा की कृपा का आधार होगा, मनुष्य का कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। उन्होंने कहा है कि

    सामर्थ्य आहे चकवकेचें।

    जो जो करील तपाचें।

    परंतु येथें भगवंताचे।

    अधिष्ठान पाहिने।

    अर्थात् आंदोलनकारी लोगों में सामर्थ्य होती है, और जो आंदोलन करेगा, उसे सफलता अवश्य प्राप्त होगी, पर उसमें भगवान् का अधिष्ठान चाहिए।

    समर्थ रामदास स्वामी ने अपने ग्रंथों में गहरी से गहरी राजनैतिक शिक्षा दी है, परंतु धर्म का आधार उन्होंने मुख्य बतलाया है। देखिए आप क्या कहते हैं—

    राजकारण बहुत करावें।

    परंतु कलोंच द्यावें।

    परपीडेवरी नसावें।

    अंतःकरण।

    अर्थात् राजनीति के कार्य बहुत करने चाहिए, किंतु उनको मालूम होने देना चाहिए- गुप्त रखना चाहिए- साथ ही हृदय में परपीड़ा का भाव रखना चाहिए। अर्थात् राजनीति में भी अहिंसाभाव रखना चाहिए। ऐसे ही उपदेशों का प्रभाव छत्रपति शिवाजी पर पड़ा था। शिवाजी की सफलता का मुख्य रहस्य यही है कि उन्होंने अपनी स्वराज्य-स्थापना में प्राण-हानि-व्यर्थ रक्तपात- कभी नहीं होने दिया- जहाँ तक हो सका, चातुर्य और युक्ति से ही काम लेकर शत्रुओं का दमन किया है।

    नीचे समर्थ रामदासजी का कुछ राजनैतिक उपदेश दिया जाता है, उससे उनकी राजनैतिक शिक्षा का पूरा-पूरा स्वरूप पाठकों के ध्यान में जायेगा।

    तेथे कोणाचे चालेना।

    अणुमात्र अनुमानेना।

    कट घालोनि राजकारणा।

    लोका लावी।

    अर्थात् ऐसी जगह जाकर रहे कि जहाँ किसी की कुछ भी चल सके- जहाँ किसी का अणुमात्र भी अनुमान चले, और वहीं से गुप्त षड्यंत्र करके लोगों को ‘राजकारण में’ लगावे।

    लोकीं लोक बाढ़ विल।

    तेणें अममीद झाले।

    भूमंडली सत्ता चाले।

    गुप्तरूपें।

    अर्थात् वहीं, गुप्त स्थआन में रहकर, खूब समुदाय बढ़ावे, इससे असंख्य लोग बढ़ते जावेंगे, और सारे भूमंडल में गुप्तरूप से उसकी सत्ता चलेगी।

    लोक बहुत शोधावे।

    त्यांचे अधिकार जाणवे।

    जाण जाणो धरावे।

    जवली दुरी।

    अर्थात् बहुत से लोगों को खोज-खोजकर रखन, चाहिए- उनकी योग्यता परखनी चाहिए, और फिर उनको पास, अथवा दूर (जो जिस योग्य हो) रखना चाहिए।

    अधिकार पाहोनि कार्य सांगणे।

    साक्षेप पाहोनि विश्वास धारणे।

    आपला मगज राखणें।

    काहीं तरी।

    अर्थात् उन लोगों की योग्यता देखकर वैसा ही उनको काम बतलाना चाहिए- और उनका उद्योग देखकर वैसा ही उनका विश्वास करना चाहिए। इसके सिवाय अपना निरीक्षण उन पर पूरा-पूरा रखना चाहिए।

    हे प्रचितीनें बोलिलें।

    आधी केले मग सांगितले।

    मानेल तरी पाहिजे बेतले।

    कोणाँ एके।

    अर्थात् (श्रीसमर्थ रामदास स्वामी कहते हैं कि) यह जो कुछ हमने बतलाया, सब हमारे अनुभव की बात है- पहले हमने किया है, तब बतलाया है। यदि किसी को पसंद आवे, अथवा उससे हो सके, तो इसको ग्रहण करे।

    इससे अधिक और स्पष्ट शिक्षा क्या हो सकती है? इसी प्रकार का समर्थ का आध्यात्मिक उपदेश भी है। बल्कि अध्यात्म के विषय में आपने विशेष ज़ोर दिया है। आपकी सम्मति है कि साधारण सांसारिक बातों की अपेक्षा आध्यात्मिक शक्ति के अभ्यास की ओर मनुष्य को विशेष ध्यान देना चाहिए- आध्यात्मिकता के बिना मनुष्य व्यावहारिक कार्यों में भी सफल नहीं हो सकता। जब तक आत्मानात्म-विवेक मनुष्य को नहीं हो जायगा- दह की नश्वरता और आत्मा की अमरता का प्रत्यक्ष अनुभव जब तक मनुष्य को नहीं हो जायगा, तब तक उसमें निर्भयता अथवा कष्टसहिष्णुता की शक्ति भी नहीं सकेगी।

    समर्थ ने अपने उपदेश में लोकोद्धार के तीन उपाय बतलाए हैं। पहला नीतिस्थापना, दूसरा धर्मस्थापना और तीसरा राज्यस्थापना। आपके विचार से राज्यस्थापना भी इसी हेतु से होनी चाहिए कि जिससे स्वतंत्रता-पूर्वक लोगों में धर्म का प्रचार किया जा सके, क्योंकि जब तक स्वराज्य नहीं हो जाता, तब तक धर्मप्रचार में भी, विधर्मी राज्य के कारण, अनेक बाधाएँ उपस्थित हुआ करती हैं।

    अस्तु। विस्तार-भय से हम समर्थ की शिक्षा के और अधिक अवतरण नहीं दे सकते। उनकी शिक्षा का पूर्ण रहस्य जानने के लिये उनके ग्रंथों का ही अवलोकन करना चाहिए।

    समर्थ के कविता संबंधी विचार

    श्रीसमर्थ अपने समय के साधु कवि थे। केवल कविता करना उनका लक्ष्य नहीं था, किंतु ग्रंथ-रचना उस समय गद्य में नहीं होती थी, पद्य में होती थी, इसी कारण उन्होंने पद्यात्मक रचना का अनुसरण किया है। उनका मुख्य उद्देश्य लोगों को सन्मार्ग में लगाना था। और इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने अपनी पद्य-रचना की है। इसीलिये हम उनको साधु कवि कहते हैं। उनकी कविता प्रसाद-गुण से पूर्ण है, और उसमें उपमा, अलंकार, दृष्टांत, इत्यादि कविता के रमणीय गुणों का भी पूरा-पूरा समावेश है। परंतु उन्होंने अपने ग्रंथों में उपर्युक्त गुणों की योजना, किसी काव्य-ग्रंथ की तरह, केवल रमणीयता अथवा चमत्कार उत्पन्न करने के लिये, नहीं की है- किंतु अपने उपदेश को अधिक प्रभावशाली बनाने के हेतु से ही उनका उपयोग किया है। उनके ग्रंथों में एक अद्भुत प्रकार की वक़त्वशक्ति पाई जाती हैं। विषय-निरूपण का प्रवाह ऐसा अप्रतिबद्ध है, शब्दों की योजना ऐसी समुचित है, और विचार-पद्धति ऐसी चित्ताकर्षक है कि पढ़नेवाले को यही भास होता है कि मानो कोई साक्षात् बृहस्पति या वाचस्पति व्याख्यान दे रहा है। निःसंदेह, जब वे अपने श्रोताओं के सामने कथा या कीर्तन करने के लिए उपस्थित होते होंगे, उस समय उनकी वकृत्व-शक्ति से श्रोता मंत्र-मुग्ध से हो जाते होंगे, और उनके आचरण में विलक्षण परिवर्तन उपस्थित होता होगा।

    उपर्युक्त विवेचन से पाठकों को मालूम हो जायगा कि श्रीसमर्थ किस श्रेणी के कवि थे। आधुनिक कवियों की दृष्टि से भी उनके ग्रंथों में अनेक काव्य-गुण पाए जाते हैं। उनकी रामायण में वीर-रस का अच्छा परिपाक हुआ है। उनके पदों और अभंगों में करुणारस का अनुपम आविर्भाव हुआ है। दासबोध में ‘निंद्रा’ का निरूपण करते समय हास्य और वीभत्सरस का भी उन्होंने अच्छा चित्र खींचा है। इसके सिवाय अन्य काव्य-चमत्कृतियाँ भी उनकी रचनाओं में पाई जाती हैं।

    अब यह देखना चाहिए कि कविता के विषय में समर्थ के क्या विचार थे। समर्थ बालब्रह्मचारी साधु थे इसलिये श्रृंगार-रस से स्वाभाविक ही उनको घृणा थी। अतएव कथा-कीर्तन करते समय उन्होंने श्रृंगार-रस का निषेध किया है---

    श्रृंगारादि नवरसिक।

    त्यां मध्यें सांडवें एक।

    स्त्रियादिकाचे कौतुक।

    वखूच नये।।1।।

    लावण्य स्त्रियांचे वर्णितां।

    विकार बाधिजे तत्वता।

    धारिष्टापासून श्रोता।

    चले तत्काल।।2।।

    म्हणोनि तें त्यागावें।

    जे बाधक गा स्वभावें।

    घेतां अंतरीं ठसावें।

    प्यान खियांचे।।3।।

    अर्थात् श्रृंगार इत्यादि नव रसों में से एक (श्रृंगार-रस) को छोड़ देना चाहिए। स्त्रियादिकों के कौतुक का वर्णन कदापि करना चाहिए। क्योंकि स्त्रियों के लावण्य का वर्णन करने से स्वाभाविक ही मन में विकार उत्पन्न हो जाता है, और श्रोताओं का धैर्य विचलित हो जाता है। इसलिये इसको छोड़ देना चाहिए। यह रस स्वाभाविक ही बाधक है। इसका ग्रहण करने से स्त्रियों का ही ध्यान हृदय में भर जाता है।

    समर्थ रामदास स्वामी ने समस्त कवियों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया है। एक ढीठ कवि, दूसरे ढीठ कवि, दूसरे पाठ कवि और तीसरे प्रासादिक कवि। ढीठ कवि वे हैं, जिनके अंदर कोई विशेष भाव नहीं है, और कुछ अभ्यास या अध्ययन ही है। सिर्फ कवि बनने की लालस से, ढिठाई के साथ, तुक जोड़ते हैं। ऐसे कवियों को कविता में बड़ा प्रयास पड़ता है। उनकी कविता में स्वाभाविकता बिलकुल नहीं होती, कृत्रिमता होती है। ऐसी कविता से कोई लाभ नहीं। दूसरे पाठ कवि वे हैं, जिनके पास अपना विशेष विषय (मेटर) कुछ भी नहीं है। इधर-उधर जो कुछ पढ़ा अथवा सुना है, उसी के आधार पर तुकबंदी करते रहते हैं। ऐसे कवियों के भाव और भाषा की रचना अथवा शैली सब दूसरों की उच्छिष्ट होती हैं। अनूठापन कुछ भी नहीं होता। तीसरे कवि प्रासादिक हैं, जिन पर परमात्मा की और सरस्वती की प्रसन्नता है, और जो अपनी उपज से सुंदर, सरल और मनोरम रचना करते हैं। ऐसे ही भक्त कवियों को श्रीसमर्थ ने श्रेष्ठ माना है। इनके विषय में श्रीसमर्थ कहते हैं---

    नाना ध्यानें नाना मूर्ती।

    नाना प्रताप नाना कीर्ती।

    तयापुढ़ें नरस्तुती।

    तृणतुल्य वाटे।

    न्याचे भक्तीचे कौतुक।

    तया नावे प्रासादिक।

    सहज बोलतां विवेक।

    प्रगट होये।

    अर्थात् प्रासादिक कवि परमात्मा और उसकी सृष्टि के नाना प्रकार के ध्यानों, नाना प्रकार की मूर्तियों, उनके नाना प्रकार के प्रताप और कीर्तियों का वर्णन करता है। पेट के लिये नरस्तुति नहीं करता है। किसी विशेष व्यक्ति को खुश करने के लिये कविता करना- चाटुकारी करना- वह तुच्छ समझता है। ऐसा कवि अपनी स्वाभाविक स्फूर्ति में आकर जो भक्ति-विषयक कविता करता है, वही प्रासादिक कविता है। वह जो कुछ कहता है, उसमें स्वाभाविक ही विवेक की बात रहती है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी यही कहा है—

    भगति-हेतु विधि-भवन बिहाई।

    सुमिरत शारद आवति धाई।

    कवि कोविद अस हृदय विचारी।

    गावहिं हरि जस कलिमलहारी।

    कीन्हें प्राकृत-जन-गुन-गाना,

    सिर धुनि गिरा लागि पछिताना।

    अर्थात् भक्ति का वर्णन करने के लिये शारदा (वाणीरूप से) सुखमय विधि-भवन को छोड़कर कवियों के हृदय में दौड़ती हुई आती है। और यही समझकर कोविद कवि, कलिमल को हरण करनेवाला हरि-यश गाते हैं। अपने पेट के लिये, बलात् वाणी को कष्ट देकर, प्राकृत जनों का गुणगान करने से, गिरा (सरस्वती या वाणी) सिर धुनकर पछताती है।

    कविता के बहुत से लक्षण श्रीसमर्थ ने दासबोध में दिए हैं। विस्तारभय से हम विशेष यहाँ नहीं लिख सकते। तथापि दो-एक अवतरण देना आवश्यक है। आप कहते हैं—

    कविन्त्र शब्द सुमनमाला।

    अर्थ परिमल आगला।

    तेणें संत षटपदकुला।

    आनंद होये।

    अर्थात् सुंदर कविता मानों शब्द-सुमनों की एक माला है, जिसमें सुंदर अर्थ का परिमल भरा हुआ है। सज्जनगण, जो भ्रमर हैं, उससे आनंद प्राप्त करते हैं।

    ऐसी माला अंतःकरणी।

    गुंफून पूजा रामचरणी।

    वोंकारतेत अखंडपणी।

    खंडू ये।

    अर्थात् ऐसी ही सुंदर माला को हृदय में गूँथकर श्रीरामचंद्रजी के चरणों में अर्पण करते हुए उनकी पूजा करो। उस माला में ओंकार का तंतु अखंडरूप से व्याप्त रखो। इसका खंडन होने पावे। अर्थात् ईश्वर-भक्ति को मत छोड़ो।

    कैसा सुंदर रूपक है! कवित्त के अनेक लक्षण बतलाते हुए समर्थ ने कहा है—

    जेणें सद्बुद्धि लागे।

    जेणें पाषांड भंगे।

    जेणें विवेक जागे।

    या नाव कवित्व।

    अर्थात् कविता वही है, जिससे लोगों में सद्बुद्धि उपजे, जिससे पाखंड का खंडन हो, जिससे विवेक जागृत हो।

    कविता की वंदना करते हुए श्रीसमर्थ ने कवियों का सच्चा स्वरूप क्या ही सुंदरता के साथ प्रकट किया है-

    आतां बंदूं कवीश्वर।

    शब्दसृष्टीचे ईश्वर।

    नातरी हे परमेश्वर।

    वेदावतारी।।1।।

    कीं हे सरस्वतीचें निजस्थान।

    कीं हे नाना कलांचे जीवन।

    नाना शब्दांचे भुवन।

    येथार्थ होये।।2।।

    कीं हे पुरुषार्थाचें वैभव।

    कीं हे जगदीश्वराचें महत्व।

    नाना लाघवें सत्कीर्तीस्तव।

    निर्माण कवी।।3।।

    अर्थात् अब कवीश्वरों की वंदना करता है, जो शब्द-सृष्टि के ईश्वर हैं, अथवा जो वेदावसारी ईश्वर हैं। अथवा ये सरस्वती के निजस्थान हैं, या ये नाना कलाओं के जीवन हैं, अथवा शब्दों के यथार्थ भुवन हैं।।1-2।। अथवा ये पुरुषार्थ के वैभव हैं, अथवा जगदीश्वर के साक्षात् महत्व हैं, जो नाना प्रकार की सुंदरता और सत्कीर्ति का वर्णन करने के लिये निर्माण हुए हैं।

    श्रीसमर्थ ने कवियों का इतना सुंदर वर्णन किया है, ऐसी-ऐसी अनूठी उत्प्रेक्षाएँ की हैं कि दासबोध का यह पूरा-पूरा अध्याय पढ़ने योग्य है। परंतु यहाँ पर कुछ और अवतरण दिए बिना हमारा जी नहीं मानता। देखिए कवियों का सामर्थ्य प्रकट करते हुए आप क्या कहते हैं—

    कवि स्वधर्माचा आश्रयो।

    कवि मनाचा मनोजयो।

    कवि धार्मिकाचा विनयो।

    विनय कत्तें।।1।।

    कवि वैराग्याचें संरक्षण।

    कवि भक्तांचे भूषण।

    नाना स्वधर्मरक्षण।

    ते हे कवी।।2।।

    अर्थात् कवि स्वधर्म के आश्रय हैं, कवि मन के मनोजय हैं, कवि धार्मिक के विनय हैं, जो विनय के निर्माणकर्ता हैं।।1।। कवि वैराग्य का संरक्षण हैं, कवि भक्तों के भूषण हैं, और कवि ही नाना प्रकार से स्वधर्मरक्षा करते हैं।।2।।

    इससे अधिक कवियों का और कौन सा सामर्थ्य हो सकता है? समर्थ आगे फिर कहते हैं—

    कीं हे अमृताचे मेघ बोकले।

    कीं हे नवरसाचे बोध लोटले।

    नाना सुखाचे उचंबकले।

    सरोवर हे।।1।।

    कीं हे विवेकनिधायीं भांडारें।

    प्रकट जालीं मनुष्याकारें।

    नाना वस्तूचेनि विचारें।

    को दाटले हे।।2।।

    अर्थात् ये (कवि लोग) मानों अमृत के मेघ उमड़े हैं, अथवा ये नवरस के सोते उफना रहे हैं, अथवा नाना प्रकार के सुखीं के ये सरोवर उमड़ रहे हैं।।1।। अथवा विवेकरूपी द्रव्य के ये भांडार हैं, जो मनुष्याकार से प्रकट हुए हैं। नाना प्रकार की तथ्य बातों का विचार करने के लिये मानों ये ज्ञानभांडार खुल पड़े हैं।।2।।

    समर्थ के इस वर्णन से ज्ञात हो जायगा कि उन्होंने कवियों को कितना महत्व दिया है, कवियों के विषय में उनके कैसे उच्च विचार थे।

    अब समर्थ के संबंध की एक-दो आख्यायिकाओं का उल्लेख करके हम इस बढ़ते हुए चरित्र-लेख को समाप्त करेंगे।

    शिवाजी का राज्यार्षण

    एक दिन श्रीरामदासजी भिक्षा माँगते हुए सितारे में शिवाजी के महल पर पहुँच गए, और “जय-जय श्रीरघुवीर समर्थ” की गर्जना करके भिक्षा के लिये पुकार की। समर्थ का ख़याल था कि आज शिवाजी महलों में नहीं हैं- कहीं बाहर गए हैं। पर संयोगवश शिवाजी मौजूद थे। उन्होंने जब समर्थ की आवाज़ पहचानी, तब उनका हृदय गद्गद हो गया, वे सोचने लगे कि ऐसे सत्पात्र सद्गुरु की झोली में आज क्या भिक्षा डाली जाय। कुछ सोचकर तुरंत ही उन्होंने एक काग़ज़ पर यह लिखा कि “श्रीसमर्थ के चरणों में सब राज्य अर्पण किया।” इस पत्र पर सिक्कामोहर करके वे बाहर निकले, और वह काग़ज़ का टुकड़ा समर्थ की झोली में डालकर साष्टांग प्रणाम किया। समर्थ ने पूछा, “क्यों शिवबा यह कैसी भिक्षा डाली? मुट्ठी भर चावल झोली में डाले होते, तो आज दोपहर का समय कटता! आज क्या काग़ज़ का एक टुकड़ा ही समर्पित करके हमारा आतिथ्य करते हो?” इतना कहकर जब उन्होंने वह काग़ज़ का टुकड़ा निकालकर पढ़ा, तब मालूम हुआ कि शिवाजी ने उनको अपना सब राज्य अर्पण कर दिया है। इस पर समर्थ ने शिवाजी से पूछा, “क्यों शिवबा, राज्य तो तुमने हमको दे दिया, अब तुम क्या करोगे?” शिवाजी ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की “आपकी चरण-सेवा में रहकर जीवन बितावेंगे।” यह सुनकर समर्थ हँसे और इस आशय का उपदेश दिया कि “बाबा! हम बैरागी हैं, राज्य लेकर क्या करेंगे, राज्य करना तुम्हारा क्षत्रियों का ही काम है। यदि तुम्हारा बहुत आग्रह है, तो राज्य हमारा ही समझो, और हमारी तरफ़ से तुम कार्यकर्ता बने रहो।” यह कहकर, शिवाजी के बहुत आग्रह करने पर, उन्होंने अपनी पादुकाएँ दे दीं, और मराठा-राज्य का निशान (राष्ट्रीय झंडा) भगवे रंग का रखने के लिये आदेश दिया। मराठों का “भगवा झंडा” इतिहास प्रसिद्ध है।

    शिष्य-गर्व-परिहार

    एक बार शिवाजी महाराज एक क़िला बनवा रहे थे। क़िले में लगे हुए हज़ारों कर्मचारियों को देखकर स्वाभाविक ही उनके मन में यह गर्व आया कि देखो- हम कितने सामर्थ्यशाली हैं- इतने लोगों को अन्नदान करते हैं। इतने ही में अकस्मात् समर्थ वहाँ से पहुँचे। उन्हें देखकर शिवाजी महाराज ने दंडवत् प्रणाम किया, और अकस्मात् पधारने का कारण पूछा। समर्थ ने कहा, “तू श्रीमान् है। हज़ारों मनुष्यों का पालनकर्ता है। इसीलिये मैं तेरा कारख़ाना देखने आया हूँ।” शिवाजी ने कहा कि यह सब आप ही की कृपा का फल है। इस प्रकार वार्तालाप करते हुए समर्थ की दृष्टि सामने पड़े हुए एक पत्थर की ओर गई। उस पत्थर को देखकर समर्थ ने कहा कि एक बेलदार को बुलाकर इस पत्थर को अभी तुड़वा डालो। शिवाजी की आज्ञा पाकर एक बेलदार उस पत्थर को घन लेकर तोड़ने लगा। समर्थ ने कहा कि इस पत्थर में बहुत धक्का लगने पावे। सहारे के साथ इसके दो टुकड़े करो। पत्थर के दो टुकड़े होते ही भीतर के पोले भाग से कुछ पानी और कुछ मेढकी निकल पड़ी, यह चमत्कार देखकर सबको बड़ा अचंभा हुआ। समर्थ ने कहा, “देख शिवबा, तेरी योग्यता कैसी विचित्र है। तेरी लीला कैसी अगाध है! देख, ऐसी आश्चर्यजनक बात किससे हो सकती है?” शिवाजी ने कहा, “इसमें मेरा क्या है?” समर्थ ने कहा, “नहीं, यह सब तेरी ही लीला है! तेरे सिवाय सब जीवों को पालन कौन कर सकता है?” शिवाजी मन ही मन समझकर बड़े लज्जित हुए, और समर्थ के चरणों पर गिरकर क्षमा माँगी। समर्थ ने कहा, “मैं इस समय तुझको क्षणा करने के लिये ही यहाँ आया हूँ। परंतु इतना बतला देना आवश्यक है कि पालन करनेवाला कोई दूसरा है। तू उसका भंडारी है। तेरे हाथ से वह सबको दिलाता है। गर्व करना वृथा है।” शिवाजी महाराज ने समर्थ के चरणों पर मस्तक रखकर बार-बार क्षमा-प्रार्थना की।

    इसी प्रकार की अनेक आख्यायिकाएँ, श्रीसमर्थ रामदास स्वामी के चरित्र-ग्रंथों में लिखी हुई है। वामन पंडित, सदाशिवशास्त्री, इत्यादि कई संस्कृत के उद्भट विद्वानों को समर्थ ने अपने अलौकिक चमत्कारों से चमत्कृत करके उनका अभिमान छुड़ाया था। और अंत में वे लोग समर्थ के वश होकर उनके शिष्य हो गए थे। इन संस्कृत के विद्वानों को समर्थ ने अपना शिष्य बनाकर उनसे संस्कृत की जगह पर मराठी में काव्य-रचना कराई थी। इन उद्भट विद्वानों ने मराठी में जो काव्य-ग्रंथ लिखे हैं, उनका आज मराठी-साहित्य में बड़ा आदर है।

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